#सत्यजीतरे
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chaitanyabharatnews · 5 years ago
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ऑस्कर से लेकर दादा साहेब फाल्के अवार्ड तक जीतने वाले सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी, मतलब चांद-सूरज नहीं देखे
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चैतन्य भारत न्यूज सिनेमा के हर बड़े अवार्ड्स अपने नाम करने वाले सत्यजीत रे की आज जयंती है। उनका जन्म 2 मई 1921 को कोलकाता में हुआ था। सत्यजीत रे ने अपनी मेहनत के दम पर आर्ट सिनेमा को जिस अंदाज में उजागर किया कि देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने उनकी प्रतिभा का लोहा माना। उनके जन्मदिन पर आइए जानते हैं सत्यजीत से जुड़ी कुछ खास बातें-
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जब सत्यजीत तीन साल के ही थे जब उनके पिता सुकमार रे का निधन हो गया। मां सुप्रभा रे ने इसके बाद बहुत मुश्किलों से उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रे शांति निकेतन गए और अगले पांच साल वहीं रहे। 1943 में वह कलकत्ता आ गए और बतौर ग्राफिक डिजाइनर काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने कई मशहूर किताबों के आवरण यानी कवर डिजाइन किए जिनमें जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ शामिल है। उस समय कौन जानता था कि किताबों के आवरण बनाने वाला लड़का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाला पहला भारतीय फिल्मकार बन जाएगा।
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रे न केवल एक बेहतरीन लेखक बल्कि अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे। उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली ने अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमें कान फिल्म फेस्टिवल का 'श्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज' का सम्मान भी शामिल है। 'पाथेर पांचाली' को बनाने के लिए रे को काफी संघर्ष करना पड़ा। इस फिल्म के लिए उन्हें अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रखने पड़े थे और फिर आखिरकार फिल्म की सफलता ने उनके सारे कष्ट दूर कर दिए। इस फिल्म ने समीक्षकों और दर्शकों, दोनों का दिल खुश कर दिया। कोलकाता में कई हफ्ते हाउसफुल चली इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। इनमें फ्रांस के कांस फिल्म फेस्टिवल में मिला विशेष पुरस्कार बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट भी शामिल है।
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इसके बाद तीन दशक से भी लंबे समय के दौरान सत्यजीत रे ने करीब तीन दर्जन फिल्मों का निर्देशन किया। इनमें पारस पत्थर, कंचनजंघा, महापुरुष, अपूर संसार, महानगर, चारूलता, अपराजितो, गूपी गायन-बाघा बायन शामिल हैं। 1977 में उनकी एकमात्र फिल्म शतरंज के खिलाड़ी आई। 1991 में प्रदर्शित आंगतुक सत्यजीत रे के सिने करियर की आखिरी फिल्म थी।
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अपनी फिल्मों के लिए सत्यजीत रे को कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। साल 1978 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की संचालक समिति ने उन्हें विश्व के तीन सर्वकालिक निर्देशकों में से एक के रूप में सम्मानित किया। फिर भारत सरकार द्वारा फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के लिए उन्हें 32 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। सत्यजीत रे दूसरे फिल्मकार थे जिन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। साल 1985 में सत्यजीत रे को हिंदी फिल्म उद्योग के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में उन्हें भारत रत्न भी मिला और ऑस्कर (ऑनरेरी अवॉर्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट) भी। हालांकि काफी बीमार होने की वजह से वे इसे लेने खुद नहीं जा सके थे। इसके करीब एक महीने के भीतर ही 23 अप्रैल 1992 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया। Read the full article
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chaitanyabharatnews · 5 years ago
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ऑस्कर से लेकर दादा साहेब फाल्के अवार्ड तक जीतने वाले सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखी, मतलब चांद-सूरज नहीं देखे
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चैतन्य भारत न्यूज सिनेमा के हर बड़े अवार्ड्स अपने नाम करने वाले सत्यजीत रे की आज जयंती है। उनका जन्म 2 मई 1921 को कोलकाता में हुआ था। सत्यजीत रे ने अपनी मेहनत के दम पर आर्ट सिनेमा को जिस अंदाज में उजागर किया कि देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने उनकी प्रतिभा का लोहा माना। उनके जन्मदिन पर आइए जानते हैं सत्यजीत से जुड़ी कुछ खास बातें-
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जब सत्यजीत तीन साल के ही थे जब उनके पिता सुकमार रे का निधन हो गया। मां सुप्रभा रे ने इसके बाद बहुत मुश्किलों से उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रे शांति निकेतन गए और अगले पांच साल वहीं रहे। 1943 में वह कलकत्ता आ गए और बतौर ग्राफिक डिजाइनर काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने कई मशहूर किताबों के आवरण यानी कवर डिजाइन किए जिनमें जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ शामिल है। उस समय कौन जानता था कि किताबों के आवरण बनाने वाला लड़का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाला पहला भारतीय फिल्मकार बन जाएगा।
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रे न केवल एक बेहतरीन लेखक बल्कि अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे। उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली ने अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमें कान फिल्म फेस्टिवल का 'श्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज' का सम्मान भी शामिल है। 'पाथेर पांचाली' को बनाने के लिए रे को काफी संघर्ष करना पड़ा। इस फिल्म के लिए उन्हें अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रखने पड़े थे और फिर आखिरकार फिल्म की सफलता ने उनके सारे कष्ट दूर कर दिए। इस फिल्म ने समीक्षकों और दर्शकों, दोनों का दिल खुश कर दिया। कोलकाता में कई हफ्ते हाउसफुल चली इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। इनमें फ्रांस के कांस फिल्म फेस्टिवल में मिला विशेष पुरस्कार बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट भी शामिल है।
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इसके बाद तीन दशक से भी लंबे समय के दौरान सत्यजीत रे ने करीब तीन दर्जन फिल्मों का निर्देशन किया। इनमें पारस पत्थर, कंचनजंघा, महापुरुष, अपूर संसार, महानगर, चारूलता, अपराजितो, गूपी गायन-बाघा बायन शामिल हैं। 1977 में उनकी एकमात्र फिल्म शतरंज के खिलाड़ी आई। 1991 में प्रदर्शित आंगतुक सत्यजीत रे के सिने करियर की आखिरी फिल्म थी।
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अपनी फिल्मों के लिए सत्यजीत रे को कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। साल 1978 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की संचालक समिति ने उन्हें विश्व के तीन सर्वकालिक निर्देशकों में से एक के रूप में सम्मानित किया। फिर भारत सरकार द्वारा फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के लिए उन्हें 32 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। सत्यजीत रे दूसरे फिल्मकार थे जिन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। साल 1985 में सत्यजीत रे को हिंदी फिल्म उद्योग के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में उन्हें भारत रत्न भी मिला और ऑस्कर (ऑनरेरी अवॉर्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट) भी। हालांकि काफी बीमार होने की वजह से वे इसे लेने खुद नहीं जा सके थे। इसके करीब एक महीने के भीतर ही 23 अप्रैल 1992 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया। Read the full article
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चैतन्य भारत न्यूज सिनेमा के हर बड़े अवार्ड्स अपने नाम करने वाले सत्यजीत रे की आज जयंती है। उनका जन्म 2 मई 1921 को कोलकाता में हुआ था। सत्यजीत रे ने अपनी मेहनत के दम पर आर्ट सिनेमा को जिस अंदाज में उजागर किया कि देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने उनकी प्रतिभा का लोहा माना। उनके जन्मदिन पर आइए जानते हैं सत्यजीत से जुड़ी कुछ खास बातें-
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जब सत्यजीत तीन साल के ही थे जब उनके पिता सुकमार रे का निधन हो गया। मां सुप्रभा रे ने इसके बाद बहुत मुश्किलों से उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रे शांति निकेतन गए और अगले पांच साल वहीं रहे। 1943 में वह कलकत्ता आ गए और बतौर ग्राफिक डिजाइनर काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने कई मशहूर किताबों के आवरण यानी कवर डिजाइन किए जिनमें जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ शामिल है। उस समय कौन जानता था कि किताबों के आवरण बनाने वाला लड़का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाला पहला भारतीय फिल्मकार बन जाएगा।
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रे न केवल एक बेहतरीन लेखक बल्कि अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे। उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली ने अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमें कान फिल्म फेस्टिवल का 'श्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज' का सम्मान भी शामिल है। 'पाथेर पांचाली' को बनाने के लिए रे को काफी संघर्ष करना पड़ा। इस फिल्म के लिए उन्हें अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रखने पड़े थे और फिर आखिरकार फिल्म की सफलता ने उनके सारे कष्ट दूर कर दिए। इस फिल्म ने समीक्षकों और दर्शकों, दोनों का दिल खुश कर दिया। कोलकाता में कई हफ्ते हाउसफुल चली इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। इनमें फ्रांस के कांस फिल्म फेस्टिवल में मिला विशेष पुरस्कार बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट भी शामिल है।
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इसके बाद तीन दशक से भी लंबे समय के दौरान सत्यजीत रे ने करीब तीन दर्जन फिल्मों का निर्देशन किया। इनमें पारस पत्थर, कंचनजंघा, महापुरुष, अपूर संसार, महानगर, चारूलता, अपराजितो, गूपी गायन-बाघा बायन शामिल हैं। 1977 में उनकी एकमात्र फिल्म शतरंज के खिलाड़ी आई। 1991 में प्रदर्शित आंगतुक सत्यजीत रे के सिने करियर की आखिरी फिल्म थी।
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अपनी फिल्मों के लिए सत्यजीत रे को कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। साल 1978 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की संचालक समिति ने उन्हें विश्व के तीन सर्वकालिक निर्देशकों में से एक के रूप में सम्मानित किया। फिर भारत सरकार द्वारा फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के लिए उन्हें 32 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। सत्यजीत रे दूसरे फिल्मकार थे जिन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। साल 1985 में सत्यजीत रे को हिंदी फिल्म उद्योग के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में उन्हें भारत रत्न भी मिला और ऑस्कर (ऑनरेरी अवॉर्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट) भी। हालांकि काफी बीमार होने की वजह से वे इसे लेने खुद नहीं जा सके थे। इसके करीब एक महीने के भीतर ही 23 अप्रैल 1992 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया। Read the full article
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जब सत्यजीत तीन साल के ही थे जब उनके पिता सुकमार रे का निधन हो गया। मां सुप्रभा रे ने इसके बाद बहुत मुश्किलों से उन्हें पाल-पोसकर बड़ा किया। प्रेसीडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए रे शांति निकेतन गए और अगले पांच साल वहीं रहे। 1943 में वह कलकत्ता आ गए और बतौर ग्राफिक डिजाइनर काम करने लगे। इस दौरान उन्होंने कई मशहूर किताबों के आवरण यानी कवर डिजाइन किए जिनमें जिम कॉर्बेट की ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं’ और जवाहरलाल नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ शामिल है। उस समय कौन जानता था कि किताबों के आवरण बनाने वाला लड़का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाला पहला भारतीय फिल्मकार बन जाएगा।
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रे न केवल एक बेहतरीन लेखक बल्कि अलहदा दृष्टिकोण के फिल्मकार थे। उनकी पहली फिल्म पाथेर पांचाली ने अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीते जिसमें कान फिल्म फेस्टिवल का 'श्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज' का सम्मान भी शामिल है। 'पाथेर पांचाली' को बनाने के लिए रे को काफी संघर्ष करना पड़ा। इस फिल्म के लिए उन्हें अपनी पत्नी के जेवर भी गिरवी रखने पड़े थे और फिर आखिरकार फिल्म की सफलता ने उनके सारे कष्ट दूर कर दिए। इस फिल्म ने समीक्षकों और दर्शकों, दोनों का दिल खुश कर दिया। कोलकाता में कई हफ्ते हाउसफुल चली इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। इनमें फ्रांस के कांस फिल्म फेस्टिवल में मिला विशेष पुरस्कार बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट भी शामिल है।
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इसके बाद तीन दशक से भी लंबे समय के दौरान सत्यजीत रे ने करीब तीन दर्जन फिल्मों का निर्देशन किया। इनमें पारस पत्थर, कंचनजंघा, महापुरुष, अपूर संसार, महानगर, चारूलता, अपराजितो, गूपी गायन-बाघा बायन शामिल हैं। 1977 में उनकी एकमात्र फिल्म शतरंज के खिलाड़ी आई। 1991 में प्रदर्शित आंगतुक सत्यजीत रे के सिने करियर की आखिरी फिल्म थी।
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अपनी फिल्मों के लिए सत्यजीत रे को कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। साल 1978 में बर्लिन फिल्म फेस्टिवल की संचालक समिति ने उन्हें विश्व के तीन सर्वकालिक निर्देशकों में से एक के रूप में सम्मानित किया। फिर भारत सरकार द्वारा फिल्म निर्माण के क्षेत्र में विभिन्न विधाओं के लिए उन्हें 32 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। सत्यजीत रे दूसरे फिल्मकार थे जिन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया। साल 1985 में सत्यजीत रे को हिंदी फिल्म उद्योग के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1992 में उन्हें भारत रत्न भी मिला और ऑस्कर (ऑनरेरी अवॉर्ड फॉर लाइफटाइम अचीवमेंट) भी। हालांकि काफी बीमार होने की वजह से वे इसे लेने खुद नहीं जा सके थे। इसके करीब एक महीने के भीतर ही 23 अप्रैल 1992 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया। Read the full article
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