#शिवलिंग के विविध रूप
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नर्मदेश्वर शिवलिंग क्यों चुनें?
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परिचय
महत्व और इतिहास
नर्मदेश्वर शिवलिंग की कीमत क्या है?
आध्यात्मिक संबंध
कीमत को प्रभावित करने वाले कारक
मूल्य निर्धारण सीमा
मूल्य निर्धारण सीमा
परिचय
नर्मदेश्वर शिवलिंग (Narmadeshwar shivling price), हिंदू धर्म में एक पवित्र प्रतीक, आध्यात्मिक प्रथाओं और अनुष्ठानों में गहरा महत्व रखता है। इसके इतिहास, प्रकार और आध्यात्मिक संबंधों के दिलचस्प पहलू इसे अत्यधिक आकर्षण का विषय बनाते हैं।
महत्व और इतिहास
नर्मदेश्वर शिवलिंग(Narmadeshwar shivling price )का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व सदियों पुराना है, जिसकी जड़ें हिंदू परंपराओं में गहराई से जुड़ी हुई हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की खोज से इसकी पवित्र प्रमुखता के विकास के बारे में अंतर्दृष्टि मिलती है।
नर्मदेश्वर शिवलिंग की कीमत क्या है?
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नर्मदेश्वर...
Narmadeshwar Shivling ओरिजिनल...
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कीमत
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₹498.00
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PANDIT NM SHRIMALI
NARMADESHWAR SHIVLING
मटीरियल
पत्थर
पत्थर
आध्यात्मिक संबंध
नर्मदेश्वर शिवलिंग (Narmadeshwar shivling price) से जुड़ी मान्यताओं के साथ-साथ ध्यान और पूजा पद्धतियों में गहराई से जाने से इसके गहन आध्यात्मिक संबंध का पता चलता है। कई लोगों को इसकी उपस्थिति में सांत्वना और ज्ञान मिलता है।
कीमत को प्रभावित करने वाले कारक
नर्मदेश्वर शिवलिंग की कीमत (Narmadeshwar shivling price) को प्रभावित करने वाले कारकों की खोज से इन पवित्र कलाकृतियों को प्राप्त करने से जुड़ी जटिलताओं का पता चलता है। आकार, वजन, गुणवत्ता और प्रामाणिकता समग्र मूल्य निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मूल्य निर्धारण सीमा
सभी के लिए सुलभ प्रवेश स्तर के विकल्पों से लेकर प्रीमियम और कलेक्टर संस्करण तक, नर्मदेश्वर शिवलिंग की मूल्य सीमा विविध दर्शकों की जरूरतों को पूरा करती है। स्पेक्ट्रम को ��मझने से संभावित खरीदारों को सूचित निर्णय लेने में मदद मिलती है।
नर्मदेश्वर शिवलिंग की कीमत को कौन से कारक प्रभावित करते हैं?
नर्मदेश्वर शिवलिंग (Narmadeshwar shivling price)का आकार, वजन, गुणवत्ता और प्रामाणिकता इसकी कीमत निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कलेक्टर के संस्करण और अनूठी विशेषताएं भी समग्र लागत में योगदान कर सकती हैं।
क्या नर्मदेश्वर शिवलिंग के रखरखाव के लिए कोई विशेष सुझाव हैं?
हां, नर्मदेश्वर शिवलिंग(Narmadeshwar shivling price) की पवित्रता बनाए रखने में सरल सफाई और रखरखाव युक्तियाँ शामिल हैं। कठोर रसायनों से बचें और इसके आध्यात्मिक सार को संरक्षित करने के लिए इसे सावधानी से संभालें।
शिवांश नर्मदेश्वर शिवलिंग को संग्रहणीय वस्तु क्यों बनाती है?
शिवांश नर्मदेश्वर शिवलिंग(Narmadeshwar shivling price) को अक्सर इसकी अनूठी विशेषताओं, दुर्लभ विशेषताओं और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण कलाकृतियों को प्राप्त करने में बढ़ती रुचि के कारण संग्रहकर्ता की वस्तु माना जाता है।
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#StoryOfLordShiva
🌺सतगुरु रामपाल जी महाराज शास्त्रों से समझाते हैं:-
🔱श्रीमद्देवी भागवत पुराण पृष्ठ 123 पर भगवान विष्णु द्वारा की गई माता दुर्गा की स्तुति के वर्णन से साबित होता है कि भगवान ब्रह्मा जी तथा विष्णु जी समेत भगवान शंकर भी जन्म-मृत्यु में हैं।
🔱 तीन देव की जो करते भक्ति। उनकी कबहु न होवै मुक्ति।।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि जो साधक भूलवश तीनों देवताओं रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव की भक्ति करते हैं, उनकी कभी मुक्ति नहीं हो सकती।
🔱पवित्र गीता जी के अनुसार व्रत नहीं करना चाहिए। गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में लिखा है कि जो व्यक्ति शास्त्र विधि को छोड़ कर मनमानी पूजा करते हैं उनको मोक्ष प्राप्त नहीं होता है इसलिए महाशिवरात्रि के व्रत करने से कोई लाभ नहीं है।
🔱ॐ नमः शिवाय व महामृत्युंजय मंत्र के जाप से मुक्ति संभव नहीं। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा व मोक्ष की प्राप्ति का केवल तीन मंत्र ओ३म् (ॐ) तत् सत् के जाप का ही निर्देश है। (जो कि सांकेतिक हैं) जिसे तत्वदर्शी संत ही बता सकते हैं।
वह तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी ही हैं।
🔱 श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाइप, केवल हिंदी, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के तीसरे स्कंद में पृष्ठ 123 पर श्री विष्णु जी स्वयं कह रहे हैं कि हमारा (त्रिगुण दवताओं का) तो जन्म मरण होता है। हम अविनाशी नहीं हैं।
🔱परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि तत्वज्ञानहीन मूर्ति पूजक अपनी साधना को श्रेष्ठ बताने के लिए जनता को भ्रमित करने के लिए विविध प्रकार के रंग-बिरंगे पत्थर के शिवलिंग रखकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। जो कि शास्त्र विरुद्ध साधना है।
🔱 भगवान शिव शंकर (महादेव) को संहार करने का विभाग काल ने दिया क्योंकि इनके पिता निरंजन को एक लाख मानव शरीर धारी जीव प्रतिदिन खाने पड़ते हैं।
🔱माया काली नागिनी, अपने जाये खात।
कुण्डली में छोड़ै नहीं, सौ बातों की बात।।
स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदि माया शेराँवाली भी निरंजन की कुण्डली में है। ये अवतार धर कर आते हैं और जन्म-मृत्यु का चक्कर काटते रहते हैं।
🔱 शिव जी अविनाशी व पूर्ण परमात्मा नहीं हैं।
कबीर परमात्मा ही अविनाशी हैं जो सतलोक के मालिक हैं। ब्रह्मा-विष्णु-शिव जी नाशवान परमात्मा हैं। महाप्रलय में ये सब तथा इनके लोक समाप्त हो जाएंगे।
🔱सामान्य जीव से लेकर ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी तक भी सुखी नहीं हैं। क्योंकि इनकी भी मृत्यु होती है। (श्रीमद देवी भागवत पृष्ठ 123) और जब तक जन्म - मरण है तब तक सुख नहीं हो सकता।
🔱शिव जी अंतर्यामी नहीं हैं।
क्योंकि वे भस्मागिरी की दुर्भावना नहीं जान पाए थे।
शिव जी अजरो अमर नहीं हैं क्योंकि वे भस्मासुर के हाथ में भस्मकंडा देखकर भयभीत हो कर जीवन रक्षा के लिए भागे थे।
🔱 ॐ नमः शिवाय पंचाक्षरी मंत्र नहीं है - श्री शिव पुराण ।
ॐ नमः शिवाय से मुक्ति संभव नही। शिव जी से लाभ पाने का मंत्र और विधि केवल तत्वदर्शी संत ही बता सकते हैं।
वह तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी ही हैं।
🔱 भगवान शिव तथा महाशिव में ��ंतर स्पष्ट रूप से देवी भागवत पुराण के पृष्ठ 114 से 118 पर अंकित है।
महाशिव इन तीनों भगवानों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) से भिन्न है जिसे हम महाकाल भी कहते हैं। जिसे संत भाषा में ब्रह्म, काल या ज्योति निरंजन भी कहा जाता है। महाशिव 21 ब्रह्मांड का मालिक है जिसकी पत्नी माता दुर्गा है।
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सुनिए जगतगुरु तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के मंगल प्रवचन :-
➜ साधना TV 📺 पर शाम 7:30 से 8:30
➜ श्रद्धा Tv 📺 दोपहर - 2:00 से 3:00
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विभिन्न फलों की प्राप्ति के लिए करें शिवलिंग की विविध स्वरूपों की पूजा
विभिन्न फलों की प्राप्ति के लिए करें शिवलिंग की विविध स्वरूपों की पूजा
Shiva Linga Puja: सावन मास में भगवान शिव के निराकार स्वरूप शिवलिंग की भी पूजा की जाती है. सावन में इनका पूजन विशेष फलदायी होता है. हिंदू धर्म शास्त्रों में शिवलिंग के विविध स्वरूपों का वर्णन मिलता है. इनके विभिन्न रूपों के पूजन से अलग –अलग लाभ भी मिलता है. आइये जानें इनके विविध स्वरूप वे उनके पूजन से लाभ. शिवलिंग के विविध स्वरूप वे उनके फल पारद शिवलिंग: पारा और चांदी से बने शिवलिंग को पारद…
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ऑनलाइन यजमान बनने के लिए संपर्क करें +91 8826891955, 95899 38938, 96859 38938, 7291986653 For Online registration visit: https://www.vishwajagritimission.org/masik-shivaratri-pujan/ 25 अगस्तए 2022 गुरुवार को भाद्रपद मास की शिवरात्रि है। कृष्ण पक्ष की चतुदशी तिथि अर्थात् प्रत्येक मास की शिवरात्रि आदिदेव भगवान महादेव के दिव्य प्रकाशमय शिवलिंग के रूप में प्रकट होने से समस्त चराचर के जीवों का कल्याण करने वाली है। यह बात ईशान संहिता से स्पष्ट होती है। चतुर्दशी तिथि के देवता भगवान शिव हैं। अमावस्या तिथि चन्द्र से हीन होने के कारण सभी मनुष्यों के लिये अज्ञान से भरी होती है। ऐसे में अमावस्या का कोई अप्रिय प्रभाव न हो अतः समस्त दोषों का नाश करने वाले सर्वशक्तिमान भगवान शिव की आराधना से संभावित अनिष्ट का निवारण हो जाता है। यमराज का संहार तन्त्र भी शिव भगवान के अधिकार में रहता है। इसीलिये शिव जी को मृत्युञ्जय नाम से भी पुकारा जाता है। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् अर्थात् हे शिव परमेश्वर! आप मुझे मृत्यु के बन्धन रूप आधि-व्याधि-आपत्ति-विपत्ति-रोग-शोक-काम-क्रोधए जन्म कालीनए मृत्यु कालीन दुखों एवं ताप-सन्ताप आदि से मुक्त करें। आप अपनी शरण में लेकर मेरे आत्मा तथा शरीर को सदैव प्रसन्नता-नीरोगता-शुचिता-अस्मिता-अमरता प्रदान करें। सभी ग्रन्थों तथा पूजा पद्धतियोंए पुराणों में भगवान शिव को ही बडी-से-बडी विपत्तियों से बचाने वाला स्वीकारा गया है। मार्कण्डेय (मृकन्डु के पुत्र) को अल्पायु से दीर्घायु (चि��ंजीव) बनाने वाले भगवान शिव भक्त की मनोकामना पूर्ण कर देते हैं। शिव की शरण छोड़ देने वाले को कोई भी देव बचा नहीं पाता क्योंकि विपत्तियोंए बीमारियों तथा अप्रिय स्थितियों पर भगवान शिव का ही शासन है। स्त्रियों के सौभाग्य की रक्षाए विवाह चाहने वाली कन्या का विवाहए दारिद्र्य निवारणए सन्तान प्राप्ति एवं सन्तान रक्षाए शत्रु दमनए ग्रह-शान्तिए वास्तुदोष निवारणए पापों से मुक्ति और सर्व सुखों के दाता भगवान शिव को मनाने के विविध प्रकार के पूजा विधान ऋषि-मनीषियोंए आचार्यों ने हमारे-आपके हित में वर्णित किए हैं जिन्हें अपनाकर सुख तथा शान्ति की प्राप्ति होती है। परमपूज्य सद्गुरुदेव जी की विशेष कृपा से आप सभी की समस्या समाधानार्थ ष्युगऋषि पूजा एवं अनुष्ठान केन्द्रश् द्वारा 25 अगस्तए 2022 गुरुवार को भाद्रपद कृष्ण पक्ष की मास शिवरात्रि को भक्तों के जी���नए घर-परिवार में सुख-सौभाग्यए धन-समृद्धि और आनंद-मंगल की प्राप्ति हेतु आनन्दधाम आश्रम में निम्नलिखित अनुष्ठान आयोजित किए जा रहे हैं। श्रद्धालु गुरुभक्त समय से पूर्व सम्पर्क कर अपना स्थान सुनिश्चित करवा लें।
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मित्रों आज सोमवार है, आज हम आपको रुद्राभिक से होने वाले अठारह आश्चर्यजनक लाभों के बारे में बतायेगें!!!!!!
रुद्र अर्थात भूतभावन शिव का अभिषेक। शिव और रुद्र परस्पर एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही 'रुद्र' कहा जाता है, क्योंकि रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: यानी कि भोले सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं।
हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्रार्चन और रुद्राभिषेक से हमारी कुंडली से पातक कर्म एवं महापातक भी जलकर भस्म हो जाते हैं और साधक में शिवत्व का उदय होता है तथा भगवान शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।
रुद्रहृदयोपनिषद में शिव के बारे में कहा गया है कि सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका अर्थात सभी देवताओं की आत्मा में रुद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रुद्र की आत्मा हैं। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी खास मनोरथ की पूर्ति के लिए तदनुसार पूजन सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।
रुद्राभिषेक से हमारी कुंडली के महापाप भी जलकर भस्म हो जाते हैं और हममें शिवत्व का उदय होता है। भगवान शिव का शुभाशीर्वाद प्राप्त होता है। सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। एकमात्र सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।रुद्राभिषेक के विभिन्न पूजन के लाभ इस प्रकार हैं-
• जल से अभिषेक करने पर वर्षा होती है।
• असाध्य रोगों को शांत करने के लिए कुशोदक से रुद्राभिषेक करें।
• भवन-वाहन के लिए दही से रुद्राभिषेक करें।
• लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गन्ने के रस से रुद्राभिषेक करें।
• धनवृद्धि के लिए शहद एवं घी से अभिषेक करें।
• तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति ��ोती है।
• इत्र मिले जल से अभिषेक करने से बीमारी ��ष्ट होती है।
• पुत्र प्राप्ति के लिए दुग्ध से और यदि संतान उत्पन्न होकर मृत पैदा हो तो गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें।
• रुद्राभिषेक से योग्य तथा विद्वान संतान की प्राप्ति होती है।
• ज्वर की शांति हेतु शीतल जल/ गंगाजल से रुद्राभिषेक करें।
• सहस्रनाम मंत्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर वंश का विस्तार होता है।
• प्रमेह रोग की शांति भी दुग्धाभिषेक से हो जाती है।
• शकर मिले दूध से अभिषेक करने पर जड़बुद्धि वाला भी विद्वान हो जाता है।
• सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है।
• शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती है।
• पातकों को नष्ट करने की कामना होने पर भी शहद से रुद्राभिषेक करें।
• गोदुग्ध से तथा शुद्ध घी द्वारा अभिषेक करने से आरोग्यता प्राप्त होती है।
• पुत्र की कामना वाले व्यक्ति शकर मिश्रित जल से अभिषेक करें। ऐसे तो अभिषेक साधारण रूप से जल से ही होता है।
परंतु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में मंत्र, गोदुग्ध या अन्य दूध मिलाकर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सबको मिलाकर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है। इस प्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना की पूर्ति होती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमित रूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत ही उत्तम फल देता है किंतु यदि पारद के शिवलिंग का अभिषेक किया जाए तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम मिलता है। रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है।
वेदों में विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुराणों में तो इससे संबंधित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। वेदों और पुराणों में रुद्राभिषेक के बारे में कहा गया है और बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काटकर उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।
भस्मासुर ने शिवलिंग का अभिषेक अपनी आंखों के आंसुओं से किया तो वह भी भगवान के वरदान का पात्र बन गया। कालसर्प योग, गृहक्लेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यों की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके अभीष्ट सिद्धि के लिए फलदायक है।
ज्योतिर्लिंग क्षेत्र एवं तीर्थस्थान तथा शिवरात्रि प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वों में शिववास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है। वस्तुत: शिवलिंग का अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका कृपापात्र बना देता है और उनकी सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं। अत: हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से मनुष्य के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं।
स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है कि जब हम अभिषेक करते हैं तो स्वयं महादेव साक्षात उस अभिषेक को ग्रहण करते हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु, वैभव, सुख नहीं है, जो हमें रुद्राभिषेक करने या करवाने से प्राप्त नहीं हो सकता है।
🦚🌈 श्री भक्ति ग्रुप मंदिर 🦚🌈
🙏🌹🙏जय श्री महाकाल🙏🌹🙏
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💐🌼🌺🛕[श्री भक्ति ग्रुप मंदिर]🛕🌺🌼💐
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#Is_LordShiva_Immortal
माया काली नागिनी, अपने जाये खात।
कुण्डली में छोड़ै नहीं, सौ बातों की बात।।
स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदि माया शेराँवाली भी निरंजन की कुण्डली में है। ये अवतार धर कर आते हैं और जन्म-मृत्यु का चक्कर काटते रहते हैं।
#शिवजी_का_रहस्य
#Is_LordShiva_Immortal
परमेश्वर कबीर जी ने समझाया है कि तत्वज्ञानहीन मूर्ति पूजक अपनी साधना को श्रेष्ठ बताने के लिए जनता को भ्रमित करने के लिए विविध प्रकार के रंग-बिरंगे पत्थर के शिवलिंग रखकर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। जो कि शास्त्र विरुद्ध साधना है।
#शिवजी_का_रहस्य
#Is_LordShiva_Immortal
ॐ नमः शिवाय व महामृत्युंजय मंत्र के जाप से मुक्ति संभव नहीं। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा व मोक्ष की प्राप्ति का केवल तीन मंत्र ओ३म् (ॐ) तत् सत् के जाप का ही निर्देश है। (जो कि सांकेतिक हैं) जिसे तत्वदर्शी संत ही बता सकते हैं।
वह तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी ही हैं।
#शिवजी_का_रहस्य
#Is_LordShiva_Immortal
पवित्र गीता जी के अनुसार व्रत नहीं करना चाहिए। गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में लिखा है कि जो व्यक्ति शास्त्र विधि को छोड़ कर मनमानी पूजा करते हैं उनको मोक्ष प्राप्त नहीं होता है इसलिए महाशिवरात्रि के व्रत करने से कोई लाभ नहीं है।
#शिवजी_का_रहस्य
#Is_LordShiva_Immortal
श्रीमद्देवी भागवत पुराण पृष्ठ 123 पर भगवान विष्णु द्वारा की गई माता दुर्गा की स्तुति के वर्णन से साबित होता है कि भगवान ब्रह्मा जी तथा विष्णु जी समेत भगवान शंकर भी जन्म-मृत्यु में हैं।
#शिवजी_का_रहस्य
#Is_LordShiva_Immortal
भगवान शिव तथा महाशिव में अंतर स्पष्ट रूप से देवी भागवत पुराण के पृष्ठ 114 से 118 पर अंकित है।
महाशिव इन तीनों भगवानों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) से भिन्न है जिसे हम महाकाल भी कहते हैं। जिसे संत भाषा में ब्रह्म, काल या ज्योति निरंजन भी कहा जाता है। महाशिव 21 ब्रह्मांड का मालिक है जिसकी पत्नी माता दुर्गा है।
#शिवजी_का_रहस्य
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रायगढ़ जिला उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पूर्व तक उडिसा राज्य की सरहद से लगा हुआ है। इसका उत्तरी क्षेत्र जहां बिहड़, जंगल, पहाडियो से आच्छादित है। इसका मूल नाम स्थानीय लोग ‘गजमार पहाड़’ बतलाते हैं। वही इसका दक्षिण हिस्सा ठेठ मैदानी है। आदिमानव आज की तरह घर नहीं बना सकते थे। वे मौसम की मार और जंगली जानवरों से बचने के लिए प्राकृतिक रूप से बनी गुफाओं में रहते थे। उन्हीं गुफाओं को शैलाश्रय (चट्टानों के घर) कहते हैं। कबरा’ छत्तीसगढ़ी शब्द है, जिसका मतलब होता है- धब्बेदार आदिमानव उस समय जो भी देखते थे को उन गुफाओं में चित्रकारी कर अंकित किया करते थे, जिन्हें रॉक पेंटिंग (शैल चित्र) कहा जाता है। कबरा पहाड़ उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व में धनुषाकार में फैला हुआ है। छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्य के सीमा से लगा होने के कारण इस क्षेत्र में छत्तीसगढ़ी और उड़िया दोनों भाषाओं का मिला-जुला प्रभाव है, और लोगों के संवाद का माध्यम उक्त दोनों भाषाओं के सहअस्तित्व वाली ‘लरिया’ बोली है। इसका उत्तर-पश्चिमी छोर रायगढ़ से ही आरंभ हो जाता है, जहाँ पहाड़ मंदिर (हनुमान मंदिर) नगर का प्रमुख दर्शनीय स्थल है। वहीं, दक्षिण-पूर्वी हिस्सा प्रसिद्ध हीराकुंड बाँध के मुहाने पर बसे घुनघुटापाली (ओडिशा अंतर्गत) में समाप्त होता है, जहाँ कदमघाट में घण्टेश्वरी देवी का मंदिर भी एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है। प्रागैतिहासिक काल के मानव सभ्यता के उषाकाल में छत्तीसगढ़ भी आदिमानवों के संचरण तथा निवास का स्थान रहा हैं।कबरा पहाड़ के शैलाश्रय पुरातात्विक स्थल है। मैंने गुफा में लगभग 2000 फ़ीट की खड़ी चढाई चढ़कर ऊपर तक जाकर देखा है। जो रायगढ़ से 8 कि.मी. पूर्व में ग्राम विश्वनाथपाली तथा भद्रपाली के निकट की पहाड़ी में स्थित है। गाँव के पश्चिम में आमा तालाब है और उसके पीछे चित्रित शैलाश्रय वाला कबरा पहाड़। उस समय यह पहाड़ घनी झाड़ियों , वृक्षों से घिरा हुआ दुर्गम था , तथा वहा तक पहुचने के लिए हमे काफी चलना पड़ा था. रस्ते में अनेको सर्प तथा अन्य जीव-जंतु भी नज़र आये थे।कबरा शैलाश्रय के चित्र भी गहरे लाल खड़िया, गेरू रंग में अंकित है। इसमें कछुआ, अश्व व हिरणों की आकृतियां है। इसी शैलाश्रय में जिले का अब तक का ज्ञात वन्य पशु जंगली भैसा का विशालतम शैलचित्र ��ै। इसका मतलब यह है की ये जानवर उस समय वहां पर अधिक पाए जाते थे।कबरा शैलाश्रय के चित्रों में रेखांकन का सौंदर्य जिले के अन्य सभी शैलचित्रों से अच्छा बताया जाता है। लगभग 100 मीटर चौड़े और 5-10 मी गहरे इस शैलाश्रय की ऊँचाई उसकी चौड़ाई की लगभग आधी होगी, बाहर की ओर झुकी दीवार 70 डिग्री का कोण बनाती है, जिससे इसमें छत होने का आभास ही नहीं होता और बिना किसी कृत्रिम प्रकाश के शैलाश्रय के चित्रों को सूर्योदय से सूर्यास्त तक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इसके साथ ही मध्य पाषाण युग के लंबे फलक ,अर्ध चंद्राकार लघु पाषाण के औजार चित्रित शैलाश्रय के निकट प्राप्त हुए थे। जिसका उपयोग आदि मानव कंदमूल खोदने में या शिकार करने में पत्थर को नुकीले करके उपयोग में लाते थे। मध्य पाषाण काल को पुरातत्वविद 9 हजार ई पू से 4 हजार ई पू के बीच का मान��े हैं। इस शैलाश्रय में जंगली जीव, जलीय जीव, सरीसृप और कीट-पतंगों के साथ ही भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार की रेखाकृतियों का अंकन है। यहाँ के चित्रों में जटिल रेखांकन जैसे सर्पिल ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज रेखाएं, त्रिकोण आकृति, 36 आरियों वाले पहिये (जो अनुष्ठानिक भी हो सकता है), के अलावा जंगली पशु जैसे लकड़बग्घा, हिरण (गर्भिणी भी), साही, नीलगाय और बारहसिंगा; जलीय जीव जैसे कछुवा, मछली, केंचुवा; पक्षी जैसे मोर; सरीसृप जैसे गोह अथवा छिपकली; कीट जैसे तितली और मकड़ी एवं नाचते हुए मानवपंक्ति तथा ताड़ वृक्ष का अंकन उल्लेखनीय हैं। वर्तमान में यहाँ के पहाड़ी जंगल में भालू, जंगली शूकर, लोमड़ी, लकड़बग्घा, जंगली मुर्गा, गोह, सर्प आदि विचरते हैं। हिरण, बारहसिंघा और मोर के अनुकूल पर्यावास अब नहीं रहा। पास के आमा तालाब में मछली और कछुए पाये जाते हैं। स्थानीय लोगों में कबरा पहाड़ शैलाश्रय और उसमें बने चित्रों को लेकर कई रोचक बातें प्रचलित हैं। गाँव के बुजुर्ग श्री चन्द्रिका प्रसाद भोई (75 वर्ष) बतलाते हैं कि कबरा पहाड़ के चित्रों को गाँव वाले देवताहा (देवस्थान) मानते हैं और प्रतिवर्ष फाल्गुन पूर्णिमा (होली) तिथि को वहाँ रात भर विविध अनुष्ठान जैसे पूजा, भागवत कथा एवं नामयज्ञ (हरे राम हरे राम, राम-राम हरे-हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे।।) का निरन्तर गान होता है, जिसमें आस-पास के चार गाँव (लोइंग, जुर्ड़ा, विश्वनाथपाली, कोतरापाली) के लोग भी शामिल होते हैं। पूजा-अनुष्ठान में महिला-पुरूष समान रूप से भाग लेते हैं लेकिन महिलाओं को वहाँ चढ़ाये प्रसाद खाने की मनाही है। होली के अलावा नवरात्रि और महाशिवरात्रि के अवसर पर भी लोग वहाँ जाकर पूजा करते हैं। दूसरी जनश्रुति यह है कि यहाँ उनके पूर्वजों का धन (खजाना) गड़ा हुआ है, इतना कि उससे पूरे संसार को ढाई दिन तक खाना खिलाया जा सकता है। पूर्वजों के बनाये इन चित्रों और खजाने की रक्षा करती हैं, शैलाश्रय के दीवार की ऊँचाईयों पर अनेक छत्तों में मौजूद मधुमक्खियों की फौज। तीसरी, कहा जाता है कि गाँव वालों को कभी-कभी रात में शैलाश्रय स्थल पर अचानक प्रकाश और चमक दिखती है। चौथी बात, गाँव के लोगों की कोई कीमती वस्तु या पशुधन खो जाता है, तो वे कबरापाट देवता से मन्नत (विनती) करते हैं, जिससे खोई हुई वस्तु मिल जाती है, और फिर पूजा कर प्रसाद चढ़ा दिया जाता है। इस काल में ही आदिम मावन ने पशुओं को पालतू बनाना सीखा था। नव पाषाण काल का प्रमुख अविष्कार पहिया को माना जाता है।नदियों की घाटिया मानव की सर्वोत्तम आश्रय स्थल रही है। और ये छेत्र महानदी घाटी में आता है। कबरा पहाड़ के शैलाश्रय को लेकर गाँव में कुछ नियम कायदे भी हैं। बताया गया कि उस स्थान पर नशा करके जाना, धूम्रपान करना, जूते-चप्पल पहनकर जाना, रजस्वला स्त्री का जाना और अशुद्धि (जन्म और मृत्यु के दौरान) में जाने की सख्त मनाही है और जो नहीं मानकर, अपवित्र होकर वहाँ चला जाता है, तो मधुमक्खियाँ उसे भगा देती हैं तथा उसके साथ अनिष्ट होता है। कबरा पहाड़ से जुड़ी उपरोक्त मान्यताओं के साथ ही शैलाश्रय के बीचों-बीच हाल ही में बने एक चबूतरे पर रखे पत्थर को गाँव वालों द्वारा शिवलिंग के रूप में पूजा जाना, यह इंगित करता है कि भले ही यह शैलाश्रय अब अनुपयोगी (मानव के आश्रय स्थल के रूप में) हो चुका है और आज का आदमी उस आदिम चित्रकारी को भी भूल चुका है, लेकिन सदियों और पीढ़ियों से वह उस चित्रित शैलाश्रय से आधिदैविक और आधिबौद्धिक स्तर पर जुड़ा रहा है। यही कारण है कि विभिन्न पर्व-त्यौहारों, विवाह आदि के अवसर पर अपने वर्तमान निवास की भित्तियों को भी विविध अभिकल्पों, चित्रों से सजाया जाता है। #कबरापहाड़रायगढ़ #Kabrapahadraigarh #Byharshvermachhattisgarhrider#कबरापहाड़रायगढ़ #कबरापहाड़रायगढ़ #Kabrapahadraigarh #Kabracave #Kabragufa #KabraGufaRaigarh #Kabracavesraigarh #KabraPahadRaigarh #Raigarhcity #RaigarhDistrict #KabraPahadRaigarh #Raigarh Kabra Pahad #KabraPahadRaigarh #Kabragufa #Kabra Gufa #Kabra Cave #RaigarhKabraPahad
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हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत
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हरतालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्यौहार भाद्रपद मास शुक्ल की तृतीया तिथि को मनाया जाता हैं।
यह आमतौर पर अगस्त – सितम्बर के महीने में ही आती है. इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते है। भगवान शिव और पार्वती को समर्पित इस व्रत को लेकर इस बार उलझन की स्थिति बनी हुई है। व्रत करने वाले इस उलझन में हैं कि उन्हें किस दिन यह व्रत करना चाहिए। इस उलझन की वजह यह है कि इस साल पंचांग की गणना के अनुसार तृतीया तिथि का क्षय हो गया है यानी पंचांग में तृतीया तिथि का मान ही नहीं है।
आपको बता दें कि इस विषय पर ना सिर्फ व्रती बल्कि ज्योतिषशास्त्री और पंचांग के जानकर भी दो भागों में बंटे हुए हैं। एक मत के अनुसार हरतालिका तीज का व्रत 1 सितंबर को करना शास्त्र सम्मत होगा क्योंकि यह व्रत हस्त नक्षत्र में किया जाता है जो एक सितंबर को है। 1 सितंबर को पूरे दिन तृतीया तिथि होगी। संध्या पूजन के समय भी तृतीया तिथि का मान रहेगा जिससे व्रत के लिए 1 सितंबर का दिन ही सब प्रकार से उचित है। 2 तारीख को सूर्योदय चतुर्थी तिथि में होने से इस दिन चतुर्थी तिथि का मान रहेगा ऐसे में तृतीया तिथि का व्रत मान्य नहीं होगा।
1 सितंबर को सूर्योदय द्वितीया तिथि में होगा जो 8 बजकर 27 मिनट पर समाप्त हो जाएगी। इसके बाद से तृतीया यानी तीज शुरू हो जाएगी और अगले दिन यानी 2 सितंबर को सूर्योदय से पूर्व ही सुबह 4 बजकर 57 मिनट पर तृतीया समाप्त होकर चतुर्थी शुरू हो जाएगी।
2 सितंबर को हरतालिका तीज को उचित मानने वाले विद्वानों का तर्क है कि शास्त्रों में चतुर्थी तिथि व्याप्त तृतीया तिथि को सौभाग्य वृद्धि कारक माना गया है लेकिन इसका कोई (एकमत) शास्त्रीय प्रमाण देखने को नही मिला। इनके अनुसार ग्रहलाघव पद्धति से बने पंचांग के अनुसार 8 बजकर 58 मिनट तक तृतीया तिथि रहेगी। इसके बाद चतुर्थी तिथि हो जाएगी। हरतालिका व्रत में एक नियम यह भी है कि हस्त नक्षत्र में व्रत करके चित्रा नक्षत्र में व्रत का पारण करना चाहिए। हस्त नक्षत्र 2 सितंबर के दिन प्रातः 8 बजकर 34 मिनट तक रहेगा इसलिये व्रति 1 सितंबर के दिन व्रत रखकर 2 सितंबर के दिन प्रातः 8 बजकर 34 मिनट के बाद चित्रा नक्षत्र में पारण कर सकते है यही शास्त्रसम्मत भी रहेगा।
खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता हैं। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरतालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया हैं।
विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से जहाँ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है, वहीं विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्य मिलता है।
हरतालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व हैं। यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता हैं। शिव जैसा पति पा��े के लिए कुँवारी कन्या इस व्रत को विधि विधान से करती हैं।
महिलाओं में संकल्प शक्ति बढाता है हरितालिका तीज का व्रत
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हरितालिका तीज का व्रत महिला प्रधान है।इस दिन महिलायें बिना कुछ खायें -पिये व्रत रखती है।यह व्रत संकल्प शक्ती का एक अनुपम उदाहरण है। संकल्प अर्थात किसी कर्म के लिये मन मे निश्चित करना कर्म का मूल संकल्प है।इस प्रकार संकल्प हमारी अन्तरीक शक्तियोंका सामोहिक निश्चय है।इसका अर्थ है-व्रत संकल्प से ही उत्पन्न होता है।व्रत का संदेश यह है कि हम जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प लें ।संकल्प शक्ति के आगे असंम्भव दिखाई देता लक्ष्य संम्भव हो जाता है।माता पार्वती ने जगत को दिखाया की संकल्प शक्ति के सामने ईश्वर भी झुक जाता है।
अच्छे कर्मो का संकल्प सदा सुखद परिणाम देता है। इस व्रत का एक सामाजिक संदेश विषेशतः महिलाओं के संदर्भ मे यह है कि आज समाज मे महिलायें बिते समय की तुलना मे अधिक आत्मनिर्भर व स्वतंत्र है।महिलाओं की भूमिका मे भी बदलाव आये है ।घर से बाहर निकलकर पुरुषों की भाँति सभी कार्य क्षेत्रों मे सक्रिय है।ऎसी स्थिति मे परिवार व समाज इन महिलाओं की भावनाओ एवं इच्छाओं का सम्मान करें,उनका विश्वास बढाएं,ताकि स्त्री व समाज सशक्त बनें।
हरतालिका तीज व्रत विधि और नियम
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हरतालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता हैं। प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय। हरतालिका पूजन के लिए शिव, पार्वती, गणेश एव रिद्धि सिद्धि जी की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से बनाई जाती हैं।
विविध पुष्पों से सजाकर उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर चौकी रखी जाती हैं। चौकी पर एक अष्टदल बनाकर उस पर थाल रखते हैं। उस थाल में केले के पत्ते को रखते हैं। सभी प्रतिमाओ को केले के पत्ते पर रखा जाता हैं। सर्वप्रथम कलश के ऊपर नारियल रखकर लाल कलावा बाँध कर पूजन किया जाता हैं कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प चढ़ाकर विधिवत पूजन होता हैं। कलश के बाद गणेश जी की पूजा की जाती हैं।
उसके बाद शिव जी की पूजा जी जाती हैं। तत्पश्चात माता गौरी की पूजा की जाती हैं। उन्हें सम्पूर्ण श्रृंगार चढ़ाया जाता हैं। इसके बाद अन्य देवताओं का आह्वान कर षोडशोपचार पूजन किया जाता है।
इसके बाद हरतालिका व्रत की कथा पढ़ी जाती हैं। इसके पश्चात आरती की जाती हैं जिसमे सर्वप्रथम गणेश जी की पुनः शिव जी की फिर माता गौरी की आरती की जाती हैं। इस दिन महिलाएं रात्रि जागरण भी करती हैं और कथा-पूजन के साथ कीर्तन करती हैं। प्रत्येक प्रहर में भगवान शिव को सभी प्रकार की वनस्पतियां जैसे बिल्व-पत्र, आम के पत्ते, चंपक के पत्ते एवं केवड़ा अर्पण किया जाता है। आरती और स्तोत्र द्वारा आराधना की जाती है। हरतालिका व्रत का नियम हैं कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद ��ोड़ा नहीं जा सकता।
प्रातः अन्तिम पूजा के बाद माता गौरी को जो सिंदूर चढ़ाया जाता हैं उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेती हैं। ककड़ी एवं हलवे का भोग लगाया जाता हैं। उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोडा जाता हैं। अंत में सभी सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी एवं कुण्ड में विसर्जित किया जाता हैं।
भगवती-उमा की पूजा के लिए ये मंत्र बोलना चाहिए 👇
ऊं उमायै नम:
ऊं पार्वत्यै नम:
ऊं जगद्धात्र्यै नम:
ऊं जगत्प्रतिष्ठयै नम:
ऊं शांतिरूपिण्यै नम:
ऊं शिवायै नम:
भगवान शिव की आराधना इन मंत्रों से करनी चाहिए 👇
ऊं हराय नम:
ऊं महेश्वराय नम:
ऊं शम्भवे नम:
ऊं शूलपाणये नम:
ऊं पिनाकवृषे नम:
ऊं शिवाय नम:
ऊं पशुपतये नम:
ऊं महादेवाय नम:
निम्न नामो का उच्चारण कर बाद में पंचोपचार या सामर्थ्य हो तो षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। पूजा दूसरे दिन सुबह समाप्त होती है, तब महिलाएं द्वारा अपना व्रत तोडा जाता है और अन्न ग्रहण किया जाता है।
हरतालिका व्रत पूजन की सामग्री
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1- फुलेरा विशेष प्रकार से फूलों से सजा होता है।
2- गीली काली मिट्टी अथवा बालू रेत।
3- केले का पत्ता।
4- विविध प्रकार के फल एवं फूल पत्ते।
5- बेल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, तुलसी मंजरी।
6- जनेऊ , नाडा, वस्त्र,।
7- माता गौरी के लिए पूरा सुहाग का सामग्री, जिसमे चूड़ी, बिछिया, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, कंघी, महावर, मेहँदी आदि एकत्र की जाती हैं। इसके अलावा बाजारों में सुहाग पूड़ा मिलता हैं जिसमे सभी सामग्री होती हैं।
8- घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, अबीर, चन्दन, नारियल, कलश।
9- पञ्चामृत - घी, दही, शक्कर, दूध, शहद।
हरतालिका तीज व्रत कथा
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भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।
श्री भोलेशंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए। माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।
तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन ��ुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर ��ारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।
नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।
नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्गद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।
तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा।
तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया - मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी।
उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।
तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी ��ोज शुरू करवा दी।
इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।
तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।
तब मैं 'तथास्तु' कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।
तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।
गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया।
हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।
हरतालिका तीज व्रत पूजा विधि
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👉 हरतालिका तीज प्रदोषकाल में ��िया जाता है। सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त को प्रदोषकाल कहा जाता है। यह दिन और रात के मिलन का समय होता है।
👉 हरतालिका पूजन के लिए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश की बालू रेत व काली मिट्टी की प्रतिमा हाथों से बनाएं।
👉 पूजा स्थल को फूलों से सजाकर एक चौकी रखें और उस चौकी पर ��ेले के पत्ते रखकर भगवान शंकर, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।
👉 इसके बाद देवताओं का आह्वान करते हुए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश का षोडशोपचार पूजन करें।
👉 सुहाग की पिटारी में सुहाग की सारी वस्तु रखकर माता पार्वती को चढ़ाना इस व्रत की मुख्य परंपरा है।
👉 इसमें शिव जी को धोती और अंगोछा चढ़ाया जाता है। यह सुहाग सामग्री सास के चरण स्पर्श करने के बाद ब्राह्मणी और ब्राह्मण को दान देना चाहिए।
👉 इस प्रकार पूजन के बाद कथा सुनें और रात्रि जागरण करें। आरती के बाद सुबह माता पार्वती को सिंदूर चढ़ाएं व ककड़ी-हलवे का भोग लगाकर व्रत खोलें।
हरितालका तीज पूजा मुहूर्त
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हरितालिका पूजन प्रातःकाल ना करके प्रदोष काल यानी सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त में किया जाना ही शास्त्रसम्मत है।
प्रदोषकाल निकालने के लिये आपके स्थानीय सूर्यास्त में आगे के 96 मिनट जोड़ दें तो यह एक घंटे 36 मिनट के लगभग का समय प्रदोष काल माना जाता है।
प्रदोष काल मुहूर्त : सायं 06:41 से रात्रि:8:58 तक
पारण अगले दिन प्रातः काल 8 बजकर 34 मिनट के बाद करना उत्तम रहेगा।
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घुश्मेश्वर को लोग घुसृणेश्वर और घृष्णेश्वर भी कहते हैं। घृष्णेश्वर से लगभग आठ किलोमीटर दूर दक्षिण में एक पहाड़ की चोटी पर दौलताबाद का क़िला मौजूद है। यहाँ पर भी धारेश्वर शिवलिंग स्थित है। यहीं पर श्री एकनाथ जी के गुरु श्री जनार्दन महाराज जी की समाधि भी है।
एलोरा की गुफाएँ
यहाँ से आगे कुछ दूर जाकर इतिहास प्रसिद्ध एलोरा की दर्शनीय गुफाएँ हैं। एलोरा की इन गुफाओं में कैलास नाम की गुफा सर्वश्रेष्ठ और अति सुन्दर है। पहाड़ को काट-काटकर इस गुफा का निर्माण किया गया है। कैलास गुफा की कलाकारी दर्शकों के मन को मुग्ध कर देती है। यहाँ मात्र हिन्दू धर्मावलम्बी ही नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लोग एलोरा की कलाओं से आकर्षित होते हैं। एलोरा की रमणीयता को देखकर उससे प्रभावित होगर बौद्ध, जैन तथा मुसलमान आदि धर्मावलाम्बियों ने भी उसकी सुरम्य पहाड़ियों पर अपने-अपने स्थान बनाये हैं। कैलास गुफा से बेहद प्रभावित एक पश्चिमी विद्वान् श्यावेल ने दक्षिण भारत के सभी मन्दिरो का निर्माण-आधार (नमूना) कैलास को ही स्वीकार किया है।
कुछ ऐसे भी लोग है, जो एलोरा कैलास मन्दिर को घुश्मेश्वर का प्राचीन स्थान मानते हैं। यहाँ के अति प्राचीन स्थानों में श्री घृष्णेश्वर शिव और देवगिरि दुर्ग के मध्य में स्थित सहस्रलिंग, पातालेश्चर व सूर्येश्वर हैं। इसी प्रकार सूर्य कुण्ड तथा शिव कुण्ड नामक सरोवर भी अति प्राचीन हैं। इस पहाड़ी की प्राकृतिक बनावट भी कुछ ऐसी ही है, जो सबके मन को अपनी ओर खींच लेती है। शिव पुराण के ज्ञान संहिता में लिखा है–
ईदृशं चैव लिंग च दृष्ट्वा पापै: प्रमुच्यते। सुखं संवर्धते पुंसां शुक्लपक्षे यथा शशी।।
अर्थात् ‘घुश्मेश्वर महादेव के दर्शन करने से सभी प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उसी प्रकार सुख-समृद्धि होती है, जिस प्रकार शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की।’
घुश्मेश्वर मन्दिर
शिव महापुराण के अनुसार
श्री शिवमहापुराण में घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार बतायी गई है– ‘अद्भुत तथा नित्य परम शोभा सम्पन्न देवगिरि नामक पर्वत दक्षिण दिशा में अवस्थित है। उस पर्वत के समीप में भारद्वाज कुल में उत्पन्न एक सुधर्मा नामक ब्रह्मवेत्ता (ब्रह्म को जानने वाला) ब्राह्मण निवास करते थे। सदा शिव धर्म के पालन में तत्पर रहने वाली उनकी पत्नी का नाम सुदेहा था। वह कुशलतापूर्वक अपने घर के कार्यों को करती हुई पति की भी सब प्रकार से सेवा करती थी। ब्राह्मण श्रेष्ठ सुधर्मा भी देवताओं तथा अतिथियों के पूजक थे। वे वैदिक सनातन धर्म के नियम का अनुसरण करते हुए नित्य अग्निहोत्र करते थे। त्रिकाल सन्ध्या (सुबह, दोपहर और शाम) करने के कारण उनके शरीर की कान्ति सूर्य की भाँति उद्दीप्त हो रही थी। वेद शास्त्रों के मर्मज्ञ (ज्ञाता) होने के कारण वे शिष्यों को पढ़ाया भी करते थे। वे धनवान तथा दानी भी थे। वे सज्जनता तथा विविध सद्गुणों के अधिष्ठान अर्थात् पात्र थे। स्वयं शिव भक्त होने के कारण सदा शिव जी की आराधना में लगे रहते थे, तथा उन्हें शिव भक्त परम प्रिय थे। शिव भक्त भी उन्हें बड़ा प्रेम देते थे।
इतना सब कुछ होने पर भी सुधर्मा को कोई सन्तान न थी। यद्यपि उस ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण का कोई कष्ट न था, किन्तु उनकी धर्मपत्नी सुदेहा बड़ी दु:खी रहती थी। उसके पड़ोसी तथा अन्य लोग भी उसे नि:सन्तान होने का ताना मारा करते थे, जिसके कारण अपने पति से बार-बार पुत्रप्राप्ति हेतु प्रार्थना करती थी। उसके पति उस मिथ्या संसार के सम्बन्ध में उसे ज्ञान का उपदेश दिया करते थे, फिर भी उसका मन नहीं मानता था। उस ब्राह्मणदेव ने भी पुत्रप्राप्ति के लिए कुछ उपाय किये, किन्तु असफल रहे। उसके बाद अत्यन्त दु:खी उस ब्राह्मणी ने अपनी छोटी बहन घुश्मा के साथ अपने पति का दूसरा विवाह करा दिया। सुधर्मा ने ��्वितीय विवाह से पूर्व अपनी पत्नी को बहुत समझाया था कि तुम इस समय अपनी बहन से प्यार कर रही हो, इसलिए मेरा विवाह करा रही हो, किन्तु जब इसे पुत्र उत्पन्न होगा,तो तुम उससे ईर्ष्या करने लगोगी। सुदेहा ने संकल्प लिया था कि वह कभी भी अपनी बहन से ईर्ष्या नहीं करेगी।
विवाह के बाद घुश्मा एक दासी की तरह अपनी बड़ी बहन की सेवा करती थी, तथा सुदेहा भी उससे अतिशय प्यार करती थी। अपनी बहन की शिव भक्ति से प्रभावित होकर उसके आदेश के अनुसार घुश्मा भी शिव जी का एक सौ एक पार्थिव लिंग (मिट्टीके शिवलिंग) बनाकर पूजा करती थी। पूजा करने के बाद उन शिवलिंगों को समीप के तालाब में विसर्जित कर देती थी–
कनिष्ठा चैव पत्नी स्वस्रनुज्ञामवाप्य च। पार्थिवान्सा चकाराशु नित्यमेकोत्तरं शतम्।। विधानपूर्वकं घुश्मा सोपचारसमन्वितम्। वृत्वा तान्प्राक्षिपत्तत्र तडागे निकटस्थिते।। एवं नित्यं सा चकार शिवपूजां सवकामदाम्। विसृज्य पुनरावाह्य तत्सपर्याविधानत:।। कुर्वन्त्या नित्यमेवं हि तस्या: शंकरपूजनम्। लक्षसंख्याऽभवत्पूर्णा सर्वकाम फलप्रदा।। कृपया शंकरस्यैव तस्या: पुत्रो व्यजायत। सुन्दर: सुभगश्चैव कल्याणगुणभाजन:।।[1]
भगवान शंकर की कृपा से घुश्मा को एक सुन्दर भाग्यशाली तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र प्राप्त हुआ। पुत्र प्राप्ति से जब घुश्मा का कुछ मान बढ़ गया, तब सुदेहा को ईर्ष्या पैदा हो गई। समय के साथ जब पुत्र बड़ा हो गया, तो विवाह कर दिया गया और पुत्रवधू भी घर में आ गई। यह सब देखकर सुदेहा और अधिक जलने लगी। उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जिसके कारण उसने अनिष्ट करने की ठान ली। एक दिन रात्रि में उसने सोते समय घुश्मा के पुत्र के शरीर को चाकू से टुकड़े-टुकड़े कर दिया और शव को समेटकर वहीं पास के सरोवर में डाल दिया, जहाँ घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव लिंग का विसर्जन करती थी। सुदेहा शव को तालाब में फेंककर आ गई और आराम से घर में सो गई।
घुश्मेश्वर मन्दिर
प्रतिदिन की भाँति घृश्मा अपने पूजा कृत्य में लग गई और ब्राह्मण सुधर्मा भी अपने नित्यकर्म में लग गये। सुदेहा भी जब सुबह उठी तो, उसके हृदय में जलने वाली ईर्ष्या की आग अब बुझ चुकी थी, इसलिए वह भी आनन्दपूर्वक घर के काम-काज में जुट गई। जब बहू की नींद खुली, तो उसने देखा कि उसका पति बिस्तर पर नहीं है। बिस्तर भी ख़ून में सना है तथा शरीर के कुछ टुकड़े पड़े दिखाई दे रहे हैं। यह दृश्य देखकर दु:खी बहू ने अपनी सास घुश्मा के पास जाकर निवेदन किया और पूछा कि आपके पुत्र कहाँ गये हैं? उसने रक्त से भीगी शैय्या की स्थिति भी बताई और विलाप करने लगी– ‘हाय मैं तो मारी गयी। किसने यह क्रूर व्यवहार किया है?’ इस प्रकार वह पुत्रवधू करुण विलाप करती हुई रोने लगी।
सुधर्मा की बड़ी पत्नी सुदेहा भी उसके साथ ‘हाय!’ ऐसा बोलती हुई शोक में डूब गई। यद्यपि वह ऊपर से दु:ख व्यक्त कर रही थी, किन्तु मन ही मन बहुत प्रसन्न थी। अपनी प्रिय वधू के कष्ट और क्रन्दन (रोना) को सुनकर भी घुश्मा विचलित नहीं हुई और वह अपने पार्थिव-पूजन व्रत में लगी रही। उसका मन बेटे को देखने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं हुआ। इसी प्रकार ब्राह्मण सुधर्मा भी अपने नित्य पूजा-कर्म में लगे रहे। उन दोनों ने भगवान के पूजन में किसी अन्य विघ्न की चिन्ता नहीं की। दोपहर को जब पूजन समाप्त हुआ, तब घुश्मा ने अपने पुत्र की भयानक शैय्या को देखा। देखकर भी उसे किसी प्रकार का दु:ख नहीं हुआ।
उसने विचार किया, जिसने मुझे यह पुत्र दिया है, वे ही उसकी रक्षा भी करेंगे। वे तो भक्तप्रिय हैं, कालों के भी काल हैं तथा सत्पुरुषों के मात्र आश्रय हैं। वे ही सर्वेश्वर प्रभु हमारे भी संरक्षक हैं। वे माला गूँथने वाले माली की तरह जिनको जोड़ते हैं, उन्हें अलग-अलग भी करते हैं। मैं अब चिन्ता करके क्या कर सकती हूँ। इस प्रकार सांसारिक तत्त्वों का विचार कर उसने शिव के भरोसे धैर्य धारण कर लिया, किन्तु शोक का अनुभव नहीं किया।
प्रतिदिन की तरह वह 'नम: शिवाय' का उच्चारण करती हुई उन पार्थिव लिंगों को लेकर सरोवर के तट पर गई। जब उसने पार्थिव लिंगों को तालाब में डालकर वापस होने की चेष्टा की, तो उसका अपना पुत्र उस सरोवर के किनारे खड़ा हुआ दिखाई पड़ा। अपने पुत्र को देखकर घुश्मा के मन में न तो प्रसन्नता हुई और न ही किसी प्रकार का कष्ट हुआ। इतने में ही परम सन्तुष्ट ज्योति: स्वरूप महेश्वर शिव उसके सामने प्रकट हो गये।
भगवान शिव ने कहा कि ‘मै’ तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम वर माँगो। तुम्हारी सौत ने इस बच्चे को मार डाला था, अत: मैं भी उसे त्रिशूल से मार डालूँगा। घुश्मा ने श्रद्धा-निष्ठा के साथ महेश्वर को प्रणाम किया और कहा कि सुदेहा मेरी बड़ी बहन है, कृपया आप उसकी रक्षा करे। शिव ने कहा कि सुदेहा ने तुम्हारा बड़ा अनिष्ट किया है, फिर तुम उसका उपकार क्यों करना चाहती हो? वह दुष्टा तो सर्वदा मार डालने के योग्य है। ‘घुश्मा’ हाथ जोडकर प्रार्थना करने लगी– ‘देव! आपके दर्शन मात्र से सारे पातक भस्म हो जाते हैं। हमने तो ऐसा ही सुना है कि अपकार करने वाले (अनिष्ट करने वाले) पर जो उपकार करता है, उसके भी दर्शन से पाप बहुत दूर भाग जाता है। सदाशिव जो कुकर्म करने वाला है, वही करे, भला मैं दुष्कर्म क्यों करूँ? मुझे तो बुरा करने वाले की भी भलाई करना ही अच्छा लगता है।’ भगवान शिव घुश्मा के भक्तिपूर्ण विकार शून्य स्वभाव से अत्यन्त प्रसन्न हो उठ। दयासिन्धु महेश्वर ने कहा– ‘घुश्मा! तुम्हारे हित के लिए मैं तुम्हें कोई वर अवश्य दूँगा। इसलिए तुम कोई और वर माँगो।’ उसने कहा– ‘महादेव! यदि आप मुझे वर देना ही चाहते हैं, तो लोगों की रक्षा और कल्याण के लिए आप यहीं सदा निवास करें और आपकी ख्याति मेरे ही नाम से संसार में होवे’–
सोवाच तद्वच: श्रुत्वा यदि देयो वरस्त्वया। लोकानां चैव रक्षार्थमत्र स्थेयं मदाख्यया।। तदोवाच शिवस्तत्र सुप्रसन्नो महेश्वर:। स्थास्येऽत्र तव नाम्नाहं घुश्मेशाख्य: सुखप्रद:।। घुश्मेशाख्यं सुप्रसद्धि लिंग में जायतां शुभम्। इदं सरस्तु लिंगानामालयं जायतां सदा।। तस्यामच्छिवालयं नाम प्रसिद्धं भुवनत्रये। सर्वकामप्रदं ह्योयद्दर्शनात्स्यात्सदा सर:।।[2]
घुश्मेश्वर मन्दिर
घुश्मा की प्रार्थना और वर-याचना से प्रसन्न महेश्वर शिव ने उससे कहा कि मैं सब लोगों को सुख देने के लिए हमेशा यहाँ निवास करूँगा। मेरा ज्योतिर्लिंग ‘घुश्मेश’ के नाम से संसार में प्रसिद्ध होगा। यह सरोवर भी शिवलिंग का आलय अर्थात् घर बन जाएगा और इसीलिए यह संसार में शिवालय के नाम से प्रसिद्ध होगा। इस सरोवर का दर्शन करने से सब प्रकार के अभीष्ट प्राप्त होंगे। भगवान शिव ने आशीर्वचन बोलते हुए घुश्मा से कहा कि तुम्हारे एक सौ एक पीढ़ियों तक ऐसे ही श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ करेंगे। वे सभी सन्तानें उत्तम गुणों से सम्पन्न, सुन्दरी स्त्रियाँ, धन-वैभव, विद्या-बुद्धि और दीर्घायु से युक्त होंगे। वे भोग और मोक्ष दोनों प्रकार के लाभ पाने के पात्र होंगे। तुम्हारे एक सौ एक पीढ़ियों तक वंश का विस्तार शोभादायक, यशस्वी तथा आनन्दवर्द्धक होगा’ इस प्रकार घुश्मा को वरदान देते हुए भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में वहीं स्थित हो गये। ‘घुश्मेश’ नाम से उनकी प्रसिद्धि हुई और सरोवर भी शिवालय के नाम से विख्यात हुआ। सुधर्मा, घुश्मा तथा सुदेहा ने भी उस शिवलिंग की तत्काल एक सौ एक परिक्रमा दाहिनी ओर से की। पूजा करने के बाद परिवार के सभी सदस्यों के मन की मलीनता दूर हो गई। पुत्र को जीवित देखकर सुदेहा बड़ी लज्जित हुई और उसने अपने पति तथा बहन घुश्मा से क्षमा याचना कर प्रायश्चित के द्वारा पाप का शोधन किया। इस प्रकार घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग का आविर्भाव हुआ, जिसका दर्शन और पूजन करने से सब प्रकार के सुखों की वृद्धि होती है। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की प्रार्थना इस प्रकार की है–
इलापुरे रम्याविशालकेऽस्मिन्। समुल्लसन्तं च जगदवरेण्यम्।। वन्दे महोदारतरस्वभावं। घुश्मेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये।।
कैसे पहुँचें
श्री घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग भारत के महाराष्ट्र प्रांत में दौलताबाद स्टेशन से बारह मील दूर अवस्थित है। यह घुश्मेश्वर मन्दिर वेरूल गाँव के पास है, जो दौलताबाद रेलवे-स्टेशन से लगभग अठारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ मध्य रेलवे के मनमाड-पूना मार्ग पर मनमाड से लगभग 100 किलोमीटर पर दौलताबाद स्टेशन पुणे पड़ता है। दौलताबाद से आगे औरंगाबाद रेलवे-स्टेशन है। यहाँ से वेरूल जाने का अच्छा मोटरमार्ग है, जहाँ से विविध प्रकार के वाहन सुलभ होते हैं। दौलताबाद से वेरूल का मार्ग पहाड़ी है, उसकी प्राकृतिक शोभा बड़ी मनोहारी है।
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Ψ !!卐!! हर हर � !!卐!! Ψ⠀ ⠀ भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है। महादेव के विविध प्रतिक चिन्ह निचे दिये है।⠀ जटाएं – शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।⠀ चंद्र – चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिवका मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त है उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। शिव का चंद्रमा उज्जवल है।⠀ ⠀ त्रिनेत्र – शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं।⠀ शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों,⠀ भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों,⠀ स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक है।⠀ सर्पों का हार – सर्प जैसा क्रूर व हिसंकजीव महाकाल के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन किया है।⠀ त्रिशूल – शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशुल सृष्टि में मानव भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।⠀ डमरू – शिव के एक हाथ में डमरू है जिसेवे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रुप है।⠀ मुंडमाला – शिव के गले में मुंडमाला है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।⠀ छाल – शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है,व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।⠀ भस्म – शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से करते हैं। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है शरीर नश्वरता का प्रतीक है।⠀ बिल्व पत्र – हलाहल विष पिने पर शिव जि का मस्तक गर्म होने लगा…!! सब देव गण शिव जी पर जलाभीषेक करने लगे तथा ठंडी तासीर होने के कारण बिल्व पत्र भी शिव जी को ठंडे करने के लिये महादेव पर चढाने लगे।⠀ वृषभ – शिव का वाहन वृषभ है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ का अर्थ है, धर्म महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष उनके अधीन है।⠀ सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा अपरम्पार है। ओंकार में ही सारी सृष्टि समायी हुई है।⠀ ⠀ हर-हर महादेव।। 🙌🙏⠀ ⠀ #ॐ
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नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यह स्थान गोमती द्वारका से बेट द्वारका जाते समय रास्ते में ही पड़ता है। द्वारका से नागेश्वर-मन्दिर के लिए बस,टैक्सी आदि सड़क मार्ग के अच्छे साधन उपलब्ध होते हैं। रेलमार्ग में राजकोट से जामनगर और जामनगर रेलवे से द्वारका पहुँचा जाता है।
नागेश्वर मन्दिर Nageshwar Temple
पौराणिक इतिहास
इस प्रसिद्ध शिवलिंग की स्थापना के सम्बन्ध में इतिहास इस प्रकार है- एक धर्मात्मा, सदाचारी और शिव जी का अनन्य वैश्य भक्त था, जिसका नाम ‘सुप्रिय’ था। जब वह नौका (नाव) पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय ‘दारूक’ नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बन्दी बना लिया। चूँकि सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिव जी की आराधना में तन्मय रहता था। कारागार में भी उसकी आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति का ही बोल-बाला हो गया।
जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली, तो वह क्रोध में उबल उठा। उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है, तो उसे डाँटते हुए बोला– ‘अरे वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र रच रहा है?’ वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, इसलिए उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा।
घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में ही लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में ही दर्शन दिया। कारागार में एक ऊँचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। शंकरजी ने उस समय सुप्रिय वैश्य का अपना एक पाशुपतास्त्र भी दिया और उसके बाद वे अन्तर्धान (लुप्त) हो गये। पाशुपतास्त्र (अस्त्र) प्राप्त करने के बाद सुप्रिय ने उसक बल से समचे राक्षसों का संहार कर डाला और अन्त में वह स्वयं शिवलोक को प्राप्त हुआ। भगवान शिव के निर्देशानुसार ही उस शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा। ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के दर्शन करने के बाद जो मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है-
एतद् य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशद्भवमादरात्। सर्वान् कामनियाद् धीमान् महापातकनशनान्।।
उपर्युक्त ज्योतिर्लिंग के अतिरिक्त नागेश्वर नाम से दो अन्य शिवलिंगों की भी चर्चा ग्रन्थों में प्राप्त होती है। मतान्तर से इन लिंगों को भी कुछ लोग ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं।
इनमें से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग निजाम हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश ग्राम में अवस्थित हैं। मनमाड से द्रोणाचलम तक जाने वाली रेलवे पर परभणी नामक प्रसिद्ध स्टेशन है। परभनी से कुछ ही दूरी पर पूर्णा जंक्शन है, जहाँ से रेलमार्ग पर ‘चारेंडी’ नामक स्टेशन है, जहाँ से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी ‘औढ़ाग्राम’ है। स्टेशन से मोटरमार्ग द्वारा ‘औढ़ाग्राम’ पहुँचा जाता है।
इसी प्रकार उत्तराखंड प्रदेश के अल्मोड़ा ���नपद में एक ‘योगेश या ‘जागेश्वर शिवलिंग’ अवस्थित है, जिसे नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ बताया जाता है। यह स्थान अल्मोड़ा से लगभग 25 किलोमीटर उत्तर पूर्�� की ओर है, जिसकी दूरी नैनीताल से लगभग 100 किलोमीटर है। यद्यपि शिव पुराण के अनुसार समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित शिवलिंग ही ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रमाणित होता है।
ऐतिहासिक कारण
‘जागेश्वर शिवलिंग को नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहने या मानने के कुछ प्रमुख ऐतिहासिक कारण इस प्रकार हैं-–
द्वादश ज्योतिर्लिंगों के पाठ में ‘नागेश दारूकावने’ ऐसा उल्लेख मिलता है। अल्मोड़ा के समीप स्थित शिवलिंग जागेश्वर के नाम से जाना जाता है। ऐसी स्थिति में ‘योगेश’ किस प्रकार नागेश बन गये? इस सन्दर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि कश्मीर प्रान्त के पहाड़ियों तथा विभिन्न मैदानी क्षेत्रों से अनेक में पौण्ड्रक, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक पल्लव, राद, किरात, दरद, नाग और खस आदि प्रमुख थीं। महाभारत के अनुसार ये सभी जातियाँ बहुत पराक्रमी तथा सभ्यता-सम्पन्न थीं। जब पाण्डवों को इन लोगों से संघर्ष करना पड़ा तब उन्हें भी ज्ञान हुआ कि ये सभी क्षत्रिय धर्म और उसके गुणों से सम्पन्न हैं।
इतिहास के पन्नों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि कुमाऊँ की अनार्य जातियों ने भी ब्राह्मण धर्म में प्रवेश पाने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहीं। वसिष्ठ और विश्वामित्रके बीच वर्षो तक चला संघर्ष इसी आशय का प्रतीक है। श्री ओकले साहब ने उपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पवित्र हिमालय’ में लिखा है कि कश्मीर और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में नाग लोगों की एक जाति रहती है। ओकले के अनुसार सर्प की पूजा करने के कारण ही उन्हें ‘नाग’ कहा जाता है।
राई डेविडस् जो एक प्रसिद्ध बौद्ध लेखक थे, उनका मत है कि पुराने बौद्ध काल में चित्रों और मूर्तियों में मनुष्य तथा साँप के जुड़े हुए स्वरूप में नाग पूजा को अंकित किया गया है। यह प्रथा आज भी गढ़वाल तथा कुमाऊँ में प्रचलित है।
एटकिंशन नामक विद्वान् का भी यही अभिमत है, जिन्होंने ‘हिमालय डिस्ट्रिक्स’ नामक ग्रन्थ लिखा है, गढ़वाल के अधिकांशत: मन्दिरों में आज भी नागपूजा होती चली आ रह��� है।
जागेश्वर शिवमन्दिर जहाँ अवस्थित है, उसके आसपास में आज भी वेरीनाग, धौलेनाग, कालियनाग आदि स्थान विद्यमान हैं, जिनमें ‘नाग’ शब्द उस नाग जाति की याद दिलाता है। उनके आधार पर यह बात तर्क संगत लगती है कि इन नाग-मन्दिरों के बीच ‘नागेश’ नामक कोई बड़ा मन्दिर प्राचीनकाल से कुमाऊँ में विद्यमान है। पौराणिक धर्म और भूत-प्रेतों की पूजा की भी शिवोपासना में गणना की गई है।
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के मत और सिद्धान्त के प्रचार से पहले कुमाऊँ के लोगों को ‘पाशुपतेश्वर’ का नाम नहीं मालूम था। इन देवों की बलि पूजा होती थी या नहीं, यह कहना कठिन है, किन्तु इतिहास के पृष्ठों से इतना तो निश्चित है कि काठमाण्डू, नेपाल के ‘पाशुपतिनाथ, और कुमाऊँ में ‘यागेश्वर’ के ‘पाशुपतेश्वर’ दोनों वैदिक काल से पूजनीय देवस्थान हैं। पवित्र हिमालय की सम्पूर्ण चोटियों को तपस्वी भगवान शिवमूर्तियों के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु कैलास पर्वत को तो आदि काल से नैसर्गिक शिव मन्दिर बताया गया है।
इन सब बातों से स्पष्ट है कि कुमाऊँ मण्डल में शिवपूजन का प्रचलन अति प्राचीन है।
एक प्रसिद्ध आख्यायिका के अनुसार ‘यागेश्वर मन्दिर’ हिमालय के उत्तर पश्चिम की ओर अवस्थित है तथा यहाँ सघन देवदार का वन है। इस मन्दिर का निर्माण तिब्बतीय और आर्य शैली का मिला जुला स्वरूप है। जागेश्वर-मन्दिर के अवलोकन से पता चलता है कि इसका निर्माण कम से कम 2500 वर्षों पूर्व का है। इसके समीप मृत्युंजय और डिण्डेश्वर-मन्दिर भी उतने ही पुराने हैं। जागेश्वर-मन्दिर शिव-शक्ति की प्रतिमाएँ और दरवाजों के द्वारपालों की मूर्तियाँ भी उक्त प्रकार की अत्यन्त प्राचीन हैं। जागेश्वर-मन्दिर में राजा दीपचन्द की चाँदी की मूर्ति भी स्थापित है।
स्कन्द पुराण के अनुसार
स्कन्द पुराण के मानस खण्ड और रेवा खण्ड में गढ़वाल तथा कुमाऊँ के पवित्र तीर्थो का वर्णन मिलता है। चीनी यात्री ह्रेनसांग ने बौद्ध धर्म की खोज में कुमाऊँ की यात्रा की थी।
नागेश्वर महादेव, द्वारका, गुजरात Nageshwar Mahadev, Dwarka, Gujarat
कुमाऊँ और कोसल राज्य
कुमाऊँ कोसल राज्य का ही एक भाग था। कुमाऊँ में वैदिक तथा बौद्ध धर्म समानान्तर रूप से प्रचलित थे। मल्ल राजाओं ने भी पाशुपतेश्वर या जागेश्वर के दर्शन किये थे तथा जागेश्वर को कुछ गाँव उपहार में समर्पित किये थे। चन्द राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटूट श्रृद्धा थी। इनका राज्य कुमाऊँ की पहाड़ियों तथा तराईभाँवर के बीच था। देवीचन्द, कल्याणचन्द, रतनचन्द, रुद्रचन्द्र आदि राजाओं ने जागेश्वर-मन्दिर को गाँव तथा बहुत-सा धन दान में दिये थे।
सन 1740 में अलीमुहम्मद ख़ाँ ने अपने रूहेला सैनिकों के साथ कुमाऊँ पर आक्रमण किया था। उसके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई और अल्मोड़ा तक के मन्दिरों को भ्रष्ट ��र उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला। उन दुष्टों ने जागेश्वर-मन्दिर पर भी धावा बोला था, किन्तु ईश्वर इच्छा से वे असफल रहे। सघन देवदार के जंगल से लाखों बर्र निकलकर उन सैनिकों पर टूट पड़े और वे सभी भाग खड़े हुए। उनमें से कुछ कुमाऊँ निवासियों द्वारा मार दिये गये, तो कुछ सर्दी से मर गये।
बौद्धों के समय में
बौद्धों के समय में भगवान 'बदरी विशाल' की प्रतिमा की तरह जागेश्वर की देव-प्रतिमाएँ भी सूर्य कुण्ड में कुछ दिनों तक पड़ी रहीं। अपने दिग्विजय-यात्रा के दौरान आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने पुन: मूर्तियों को स्थापित किया और जागेश्वर-मन्दिर की पूजा का दायित्त्व दक्षिण भारतीय कुमारस्वामी को सौंप दिया।
इस प्रकार प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि, जागेश्वर-मन्दिर अत्यन्त प्राचीन काल का है और नाग जातियों के द्वारा इस शिवलिंग की पूजा होने के कारण इसे ‘यागेश’ या ‘नागेश’ कहा जाने लगा। इसी के कारण इसे ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ मानने के पर्याप्त आधार मिल जाता है।
शिवपुराण की कथा
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में श्री शिव पुराण की कथा इस प्रकार है–
‘दारूका’ नाम की एक प्रसिद्ध राक्षसी थी, जो पार्वती जी से वरदान प्राप्त कर अहंकार में चूर रहती थी। उसका पति ‘दारूका’ महान् बलशाली राक्षस था। उसने बहुत से राक्षसों को अपने साथ लेकर समाज में आतंक फैलाया हुआ था। वह यज्ञ आदि शुभ कर्मों को नष्ट करता हुआ सन्त-महात्माओं का संहार करता था। वह प्रसिद्ध धर्मनाशक राक्षस था। पश्चिम समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से भरपूर सोलह योजन विस्तार पर उसका एक वन था, जिसमें वह निवास करता था।
दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों तथा विविध उपकरणों से सुसज्जित वह वनभूमि अपने विलास के लिए साथ-साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्त्व दारूका को ही सौंपा था, जो उनके वरदान के प्रभाव से उसके ही पास रहता था। उससे पीड़ित आम जनता ने महर्षि और्व के पास जाकर अपना कष्ट सुनाया। शरणागतों की रक्षा का धर्म पालन करते हुए महर्षि और्व ने राक्षसों को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि ‘जो राक्षस इस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, उसी समय वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। महर्षि और्व द्वारा दिये गये शाप की सूचना जब देवताओं को मालूम हुई, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर भारी संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मरते हैं, तो शाप के कारण स्वयं मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते हैं, तो पराजित होकर स्वयं भूखों मर जाएँगे। उस समय दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के वरदान का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करते हुए वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
एक बार उस समुद्र में मनुष्यों से भरी बहुत-सारी नौकाएँ जा रही थीं, जिन्हें उन राक्षसों ने पकड़ लिया। सभी लोगों को बेड़ियों से बाँधकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया गया। राक्षस उन यात्रियों को बार-बार धमकाने लगे। एक ‘सुप्रिय’ नामक वैश्य उस यात्री दल का अगुवा (नेता) था, जो बड़ा ही सदाचारी था। वह ललाट पर भस्म, गले में रुद्राक्ष की माला डालकर भगवान शिव की भक्ति करता था। सुप्रिय बिना शिव जी की पूजा किये कभी भी भोजन नहीं करता था। उसने अपने बहुत से साथियों को भी शिव जी का भजन-पूजन सिखला दिया था। उसके सभी साथी ‘नम: शिवाय’ का जप करते थे तथा शिव जी का ध्यान भी करते थे। सुप्रिय परम भक्त था, इसलिए उसे शिव जी का दर्शन भी प्राप्त होता था।
इस विषय की सूचना जब राक्षस दारूका को मिली, तो वह करागार में आकर सुप्रिय सहित सभी को धमकाने लगा और मारने के लिए दौड़ पड़ा। मारने के लिए आये राक्षसों को देखकर भयभीत सुप्रिय ने कातरस्वर से भगवान शिव को पुकारा, उनका चिन्तन किया और वह उनके नाम-मन्त्र का जप करने लगा। उसने कहा- देवेश्वर शिव! हमारी रक्षा करें, हमें इन दुष्ट राक्षसों से बचाइए। देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं। इस प्रकार सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव एक 'विवर'[1] अर्थात् बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ।
उस मन्दिर के मध्यभाग में (गर्भगृह) में एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था तथा शिव परिवार के सभी सदस्य भी उसके साथ विद्यमान थे। वैश्य सुप्रिय ने शिव परिवार सहित उस ज्योतिर्लिंग का दर्शन और पूजन किया–
इति सं प्रार्थित: शम्भुर्विवरान्निर्गतस्तदा। भवनेनोत्तमेनाथ चतुर्द्वारयुतेन च।। मध्ये ज्योति:स्वरूपं च शिवरूपं तदद्भुतम्। परिवारसमायुक्तं दृष्टवा चापूजयत्स वै।। पूजितश्च तदा शम्भु: प्रसन्नौ ह्यभवत्स्वयम्। अस्त्रं पाशुपतं नाम दत्त्वा राक्षसपुंगवान्।। जघान सोपकरणांस्तान्सर्वान्सगणान्द्रुतम्। अरक्षच्च स्वभक्तं वै दुष्टहा स हि शंकर:।।[2]
सुप्रिय के पूजन से प्रसन्न भगवान शिव ने स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों को, उनके अनुचरों को तथा उनके सारे संसाधनों (अस्त्र-शस्त्र) को नष्ट कर दिया। लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि ‘आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान न होगा।’
राक्षसों पर आये इसी भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दैन्यभाव (दीनता के साथ) से देवी पार्वती की स्तुति, विनती आदि की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा– ‘बताओ, मैं तेरा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’! दारूका ने कहा– ‘माँ! आप मेरे कुल (वंश) की रक्षा करें।’ पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान शिव से कहा– ‘नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है।’ माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं कि ‘मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी ही हूँ, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये वचन को भी आप सत्य (प्रमाणित) करें��� यह राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुलकर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।’
माता पार्वती के उक्त प्रकार के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा– ‘प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम-धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। कलि युग के अन्त में तथा सत युग के प्रारम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।’ तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी लीलाएँ करने वाले शिव-दम्पत्ति ने आपस में हास्य-विलास की बातें की और वहीं पर स्थित हो गये। इस प्रकार शिवभक्तों के प्रिय ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव ‘नागेश्वर’ कहलाये और शिवा (पार्वती) देवी भी ‘नागेश्वरी’ के नाम से विख्यात हुईं। इस प्रकार शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए हैं, जो तीनों लोगों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। जो कोई इस नागेश्वर महादेव के आविर्भाव की कथा को श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सुनता है, उसके समस्त पातक नष्ट हो जाते हैं और वह अपने सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को प्राप्त कर लेता है–
इति दत्तवर: सोऽपि शिवेन परमात्मना। शक्त: सर्वं तदा कर्त्तु सम्बभूव न संशय:।। एवं नागेश्वरो देव उत्पन्नो ज्योतिषां पति:। लिंगस्पस्त्रिलोकस्य सर्वकामप्रद: सदा।। एतद्य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्। सर्वान्कामानियाद्धिमान्ममहापातक नाशनान्।।[3]
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त्र्यम्बकेश्वर मंदिर (अंग्रेज़ी:Trimbakeshwar Temple) महाराष्ट्र प्रान्त के नासिक जनपद में नासिक शहर से तीस किलोमीटर पश्चिम में अवस्थित है। इसे त्रयम्बक ज्योतिर्लिंग, त्र्यम्बकेश्वर शिव मन्दिर भी कहते है। यहाँ समीप में ही ब्रह्मगिरि नामक पर्वत से गोदावरी नदी निकलती है। जिस प्रकार उत्तर भारत में प्रवाहित होने वाली पवित्र नदी गंगा का विशेष आध्यात्मिक महत्त्व है, उसी प्रकार दक्षिण में प्रवाहित होने वाली इस पवित्र नदी गोदावरी का विशेष महत्त्व है। जहाँ उत्तरभारत की गंगा को ‘भागीरथी’ कहा जाता हैं, वहीं इस गोदावरी नदी को ‘गौतमी गंगा’ कहकर पुकारा जाता है। भागीरथी राजा भगीरथ की तपस्या का परिणाम है, तो गोदावरी ऋषि गौतम की तपस्या का साक्षात फल है।
त्र्यंबकेश्वर मंदिर, नासिक Trimbakeshwar Temple, Nasik
महाकुम्भ का आयोजन
देश में लगने वाले विश्व के प्रसिद्ध चार महाकुम्भ मेलों में से एक महाकुम्भ का मेला यहीं लगता है। यहाँ प्रत्येक बारहवें वर्ष जब सिंह राशि पर बृहस्पति का पदार्पण होता है और सूर्य नारायण भी सिंह राशि पर ही स्थित होते हैं, तब महाकुम्भ पर्व का स्नान, मेला आदि धार्मिक कृत्यों का समारोह होता है। उन दिनों गोदावरी गंगा में स्नान का आध्यात्मिक पुण्य बताया गया है।
श्री त्र्यम्बकेश्वर शिव
गोदावरी के उद्गगम स्थल के समीप ही श्री त्र्यम्बकेश्वर शिव अवस्थित हैं, जिनकी महिमा का बखान पुराणों में किया गया है। ऋषि गौतम और पवित्र नदी गोदावरी की प्रार्थना पर ही भगवान शिव ने इस स्थान पर अपने वास की स्वीकृति दी थी। वही भगवान शिव ‘त्र्यम्बकेश्वर’ नाम से इस जगत् में विख्यात हुए। यहाँ स्थित ज्योतिर्लिंग का प्रत्यक्ष दर्शन स्त्रियों के लिए निषिद्ध है, अत: वे केवल भगवान के मुकुट का दर्शन करती हैं। त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर में सर्वसामान्य लोगों का भी प्रवेश न होकर, जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) हैं तथा भजन-पूजन करते हैं और पवित्रता रखते हैं, वे ही लोग मन्दिर के अन्दर प्रवेश कर पाते हैं। इनसे अतिरिक्त लोगों को बाहर से ही मन्दिर का दर्शन करना पड़ता है।
श्री त्र्यम्बकेश्वर और गोदावरी
यहाँ मन्दिर के भीतर एक गड्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग हैं, जो ब्रह्मा विष्णु और शिव इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं। ब्रह्मगिरी से निकलने वाली गोदावरी की जलधारा इन त्रिमूर्तियों पर अनवरत रूप से पड़ती रहती है। ब्रह्मगिरि पर्वत के ऊपर जाने के लिए सात सौ सीढ़ियों का निर्माण कराया गया है। ऊपरी पहाड़ी पर ‘रामकुण्ड’ और ‘लक्ष्मणकुण्ड’ नामक दो कुण्ड भी स्थित हैं। पर्वत की चोटी पर पहुँचने पर गोमुखी से निकलती हुई भगवान गौतमी (गोदावरी) का दर्शन प्राप्त होता है। श्री शिव महापुराण के कोट���रुद्र संहिता में ऋषि गौतम- गौतमी-गोदावरी तथा त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है-
शिव पुराण के अनुसार
‘पूर्व समय में गौतम नाम के एक प्रसिद्ध ऋषि अपनी धर्मपत्नी अहल्या के साथ रहते थे। उन्होंने दक्षिण भारत के ब्रह्मगिरि पर्वत पर दस हज़ार वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। एक समय वहाँ सौ वर्षों तक वर्षा बिल्कुल नहीं हुई, सब जगह सूखा पड़ने के कारण जीवधारियों में बेचैनी हो गई। जल के अभाव में पेड़-पौधे सूख गये, पृथ्वी पर महान् संकट टूट पड़ा, सर्वत्र चिन्ता ही चिन्ता, आख़िर जीवन को धारण करने वाला जल कहाँ से लाया जाये? उस समय मनुष्य, मुनि, पशु, पक्षी तथा अन्य जीवनधारी भी जल के लिए भटकते हुए विविध दिशाओं में चले गये। उसके बाद ऋषि गौतम ने छ: महीने तक कठोर तपस्या करके वरुण देवता को प्रसन्न किया। ऋषि ने वरुण देवता से जब जल बरसाने की प्रार्थना की, तो उन्होंने कहा कि मैं देवताओं के विधान के विपरीत वृष्टि नहीं कर सकता, किन्तु तुम्हारी इच्छा की पूर्ति हेतु तुम्हें 'अक्षय'[1] जल देता हूँ। तुम उस जल को रखने के लिए एक गड्ढा तैयार करो। वरुण देव के आदेश के अनुसार ऋषि गौतम ने एक हाथ गहरा गड्ढा खोद दिया, जिसे वरुण ने अपने दिव्य जल से भर दिया। उसके बाद उन्होंने परोपकार परायण ऋषि गौतम से कहा– ‘महामुने! यह अक्षुण्ण जल कभी नष्ट नहीं होगा और तीर्थ बनकर इस पृथ्वी पर तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसके समीप दान-पुण्य, हवन-यज्ञ, तर्पण, देव पूजन और पितरों का श्राद्ध, सब कुछ अक्षय फलदायी होंगे। उसके बाद उस जल से ऋषि गौतम ने बहुतों का क���्याण किया, जिससे उन्हें सुख की अनुभूति हुई।
त्र्यम्बकेश्वर मंदिर का मुख्य द्वार
इस प्रकार वरुण से अक्षय जल की प्राप्ति के बाद ऋषि गौतम आनन्द के साथ अपने नित्य नैमित्तिक कर्म, यज्ञ आदि सम्पन्न करने लगे। उन्होंने अपने नित्य हवन-यज्ञ के लिए धान, जौं, नीवार (ऋषि धान्य) आदि लगवाया। जल की सुलभता से वहाँ विविध प्रकार की फ़सलें, अनेक प्रकार के वृक्ष तथा फल-फूल लहलहा उठे। इस प्रकार जल की सुविधा और व्यवस्था को सुनकर वहाँ हज़ारों ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी और जीवधारी रहने लगे। कर्म करने वाले बहुत से ऋषि-मुनि अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रों तथा शिष्यों के साथ रहने लगे। समय का सदुपयोग करने के लिए गौतम ने काफ़ी खेतों में धान लगाया। उनके प्रभाव से उस क्षेत्र में सब ओर आनन्द ही आनन्द था।
एक बार कुछ ब्रह्मणों की स्त्रियाँ जो गौतम के आश्रम में आकर निवास करती थीं, जल के सम्बन्ध में विवाद हो जाने पर अहल्या से नाराज़ हो गयी। उन्होंने गौतम को नुक़सान पहुँचाने हेतु अपने पतियों को उकसाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम का अनिष्ट करने हेतु गणेश जी की आराधना की। गणेश जी के प्रसन्न होने पर उन ब्राह्मणों ने उनसे कहा कि आप ऐसा कोई उपाय कीजिए कि यहाँ के सभी ऋषि डाँट-फटकार कर गौतम को आश्रम से बाहर निकाल दें। गणेश जी ने उन सबको समझाया कि तुम लोगों को ऐसा करना उचित नहीं है। यदि तुम लोग बिना अपराध किये ही गौतम पर क्रोध करोगे, तो इससे तुम लोगों की ही हानि होगी। जिसने पहले उपकार किया हो, ऐसे व्यक्ति को कष्ट दिया जाय, तो वह अपने लिए ही दु:खदायी होता है। जब अकाल पड़ा था और उपवास के कारण तुम लोग दु:ख भोग रहे थे, उस समय गौतम ने जल की व्यवस्था करके तुम लोगों को सुख पहुँचाया, किन्तु अब तुम लोग उन्हें ही कष्ट देना चाहते हो। उस विषय पर तुम लोग पुनर्विचार करो। गणेश जी के समझाने पर भी वे दुष्ट ऋषि दूसरा वर लेने के लिए तैयार नहीं हुए और अपने पहले वाले दुराग्रह पर अड़े रहे।
शिवपुत्र गणेश अपन�� भक्तों के अधीन होने के कारण, उनके द्वारा गौतम के विरुद्ध माँगे गये वर को स्वीकार कर लिया और कहा कि उसे मैं अवश्य ही पूर्ण करूँगा। गौतम ने अपने खेत में धान और जौं लगाया था। गणेश जी उन अत्यन्त दुबली-पतली और कमज़ोर गाय का रूप धारण कर उन खेतों में जाकर फ़सलों को चरने लगे। उसी समय संयोगवश दयालु गौतम जी वहाँ पहुँच गये और मुट्ठी भर खर-पतवार लेकर उस गौ को हाँकने लगे। उन खर-पतवारों का स्पर्श होते ही वह दुर्बल गौ कांपती हुई धरती पर गिर गई और तत्काल ही मर गयी।
वे दुष्ट ब्राह्मण और उनकी स्त्रियाँ छिपकर उक्त सारी घटनाएँ देख रही थीं। गौ के धरती पर गिरते ही सभी ऋषि गौतम के सामने आकर बोल पड़े– ‘अरे , गौतम ने यह क्या कर डाला?’ गौतम भी आश्चर्य में डूब गये। उन्होंने अहल्या से दु:खपूर्वक कहा– ‘देवि! यह सब कैसे हो गया और क्यों हुआ? लगता है, ईश्वर मुझ पर कुपित हैं। अब मैं कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? मुझे तो गोहत्या के पाप ने स्पर्श कर लिया है।’ इस प्रकार पश्चाताप करते हुए गौतम की उन ब्राह्मणों तथा उनकी पत्नियों ने घोर निन्दा की, उन्हें अपशब्द कहे और दुर्वचनों द्वारा अहल्या को भी प्रताड़ित किया। उनके शिष्यों तथा पुत्रों ने भी गौतम को पुन:-पुन: धिक्कारा और फटकारा, जिससे बेचारे गौतम भयंकर संकट और सन्ताप के सागर में गोता लगाने लगे। ब्राह्मणों ने उन्हें धिक्कारते हुए कहा– ‘अब तुम यहाँ से चले जाओ, क्योंकि तुम्हें यहाँ मुख दिखाना अब ठीक नहीं है। गोहत्या करने वाले का मुख देखने पर तत्काल सचैल अर्थात् वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता है। इस आश्रम में तुम जैसे गो हत्यारे के रहते हुए अग्नि देव और पितृगण (पितर) हमारे हव्य-कव्य (हवन तथा पिण्डदान) आदि को ग्रहण नहीं करेंगे। इसलिए पापी होने के कारण तुम बिना देरी किये शीघ्र ही परिवार सहित कहीं दूसरी जगह चले जाओ।
उसके बाद उन दुष्ट ब्राह्मणों ने गालियाँ देते हुए सपत्नीक ऋषि गौतम को अपमानित किया और उन पर ढेले तथा पत्थरों से भी प्रहार किया। कष्ट और मानसिक सन्ताप से भी पीड़ित गौतम ने उस आश्रम को तत्काल छोड़ दिया। उन्होंने वहाँ से तीन किलोमीटर की दूरी पर जाकर अपना आश्रम बनाया। उन ब्राह्मणों ने गौतम को तंग करने हेतु वहाँ भी उनका पीछा किया। उन्होंने कहा– ‘जब तक तुम्हारे ऊपर गो हत्या का पाप है, तब तक तुम्हें किसी भी वैदिकदेव अथवा पितृयज्ञ के अनुष्ठान करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इसलिए तुम्हें कोई यज्ञ-यागादि कर्म नहीं करना चाहिए।’ मुनि गौतम ने बड़ी कठिनाई और दु:ख के साथ पन्द्रह दिनों को बिताया, किन्तु धर्म-कर्म से वंचित होने के कारण उनका जीवन दूभर हो गया। उन्होंने उन मुनियों, ब्राह्मणों से गोहत्या का प्रायश्चित बताने हेतु बार-बार दु:खी मन से अनुनय-विनय की।
उनकी दीनता पर तरस खाते हुए उन मुनियों ने कहा– ‘गौतम! तुम अपने पाप को प्रकट करते हुए अर्थात् किये गये गोहत्या-सम्बन्धी पाप को बोलते हुए तीन बार पृथ्वी की परिक्रमा करके फिर एक महीने तक व्रत करो। व्रत के बाद जब तुम इस ब्रह्मगिरि की एक सौ एक परिक्रमा करोगे, उसके बाद ही तुम्हारी शुद्धि होगी। ब्राह्मणों ने उक्त प्रायश्चित का विकल्प बतलाते हुए कहा कि यदि तुम गंगा जी को इसी स्थान पर लाकर उनके जल में स्नान करो, तदनन्तर एक करोड़ पार्थिव लिंग बनाकर महादेव जी की उपासना (पार्थिव पूजन) करो, उसके बाद पुन: गंगा स्नान करके इस ब्रह्मगिरि पर्वत की ग्यारह परिक्रमा करने के बाद एक सौ कलशों (घड़ों) में जल भर पार्थिव शिवलिंग का अभिषेक करो, फिर तुम्हारी शुद्धि हो जाएगी और तुम गो हत्या के पाप से मुक्त हो जाओगे।’ गौतम ने उन ऋषियों की बातों को स्वीकार करते हुए कहा कि वे ब्रह्मगिरि की अथवा पार्थिव पूजन करेंगे। तत्पश्चात् उन्होंने अहल्या को साथ लेकर ब्रह्मगिरि की परिक्रमा की और अतीव निष्ठा के साथ पार्थिव लिंगों का निर्माण कर महादेव जी की आराधना की।
मुनि गौतम द्वारा अटूट श्रद्धा भक्ति से पार्थिव पूजन करने पर पार्वती सहित भगवान शिव प्रसन्न हो गये। उन्होंने अपने प्रमथगणों सहित प्रकट होकर कहा- ‘गौतम! मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ। गौतम शिव के अद्भुत रूप को देखकर आनन्द विभोर हो उठे। उन्होंने भक्तिभाव पूर्वक शिव को प्रणाम कर उनकी लम्बी स्तुति की। वे हाथ जोड़कर खड़े हुए और भगवान शिव से बोले कि ‘आप मुझे निष्पाप (पापरहित) बनाने की कृपा करें।’ भगवान शिव ने कहा– ‘तुम धन्य हो। तुम में किसी भी प्रकार का कोई पाप नहीं है। संसार के लोग तुम्हारे दर्शन करने से पापरहित हो जाते हैं। तुम सदा ही मेरी भक्ति में लीन रहते हो, फिर पापी कैसे हो सकते हो? उन दुष्टों ने तुम्हारे साथ छल-कपट किया है, तुम पर घोर अत्याचार किया है। इसलिए वे ही पापी, हत्यारे और दुराचारी हैं। उन सब कृतघ्नों का कभी भी उद्धार नहीं होगा, जो लोग उन दुरात्माओं का दर्शन करेगें वे भी पापी बन जाएँगे।’
भगवान शिव की बात सुनकर ऋषि गौतम आश्चर्यचकित हो उठे। उन्होंने शिव को पुन:-पुन: प्रणाम किया और कहा– ‘भगवान्! उन्होंने तो मेरा बड़ा उपकार किया है, वे महर्षि धन्य हैं, क्योंकि उन्होंने मेरे लिए परम कल्याणकारी कार्य किया है। उनके दुराचार से ही मेरा महान् कार्य सिद्ध हुआ है। उनके बर्ताव से ही हमें आपका परम दुर्लभ दर्शन प्राप्त हो सका है।’ गौतम की बात सुनकर भगवान शिव अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे बोले– विप्रवर! तुम सभी ऋषियों में श्रेष्ठ हो, मैं तुम पर अतिशय प्रसन्न हूँ, इसलिए तुम कोई उत्तम वर माँग लो।’ ऋषि गौतम ने महेश को बार-बार प्रणाम करते हुए कहा कि लोक कल्याण करने के लिए आप मुझे गंगा प्रदान कीजिए। इस प्रकार बोलते हुए गौतम ने लोकहित की कामना से भगवान शिव के चरणों को पकड़ लिया। तब भगवान महेश्वर ने पृथ्वी और स्वर्ग के सारभूत उस जल को निकाला, जो ब्रह्मा जी ने उन्हें उनके विवाह के अवसर पर दिया था। वह परम पवित्र जल स्त्री का रूप धारण करके जब वहाँ खड़ा हुआ, तो ऋषि गौतम ने उसकी स्तुति करते हुए नमस्कार किया। गौतम ने गंगा की आराधना करके पाप से मुक्ति प्राप्त की। गौतम तथा मुनियों को गंगा ने पूर्ण पवित्र कर दिया। वह गौतमी कहलायी। गौतमी नदी के किनारे त्र्यंबकम शिवलिंग की स्थापना की गई, क्योंकि इसी शर्त पर वह वहाँ ठहरने के लिए तैयार हुई थीं।
गौतम ने कहा– ‘सम्पूर्ण भुवन को पवित्र करने वाली गंगे! नरक में गिरते हुए मुझ गौतम को पवित्र कर दो।’ भगवान शंकर ने भी कहा– ‘देवि! तुम इस मुनि को पवित्र करो और वैवस्वत मनु के अट्ठाइसवें कलि युग तक यहीं रहो।’ गंगा ने भगवान शिव से कहा कि ‘मैं अकेली यहाँ अपना निवास बनाने में असमर्थ हूँ। यदि भगवान महेश्वर अम्बिका और अपने अन्य गणों के साथ रहें तथा मैं सभी नदियों में श्रेष्ठ स्वीकार की जाऊँ, तभी इस धरातल पर रह सकती हूँ।’ भगवान शिव ने गंगा का अनुरोध स्वीकार करते हुए कहा कि ‘तुम यहाँ स्थित हो जाओ और मैं भी यहाँ रहूँगा।’ उसके बाद विविध देवता, ऋषि, अनेक तीर्थ तथा सम्मानित क्षेत्र भी वहाँ आ पहुँचे। उन सभी ने आदरपूर्वक गौतम, गंगा तथा भूतभावन शिव का पूजन किया और प्रसन्नतापूर्वक उनकी स्तुति करते हुए अपना सिर झुकाया। उनकी आराधना से प्रसन्न गंगा और गिरीश ने कहा – ‘श्रेष्ठ देवताओं! हम तुम लोगों का प्रिय करना चाहते हैं, इसलिए तुम वर माँगो।’
देवताओं ने कहा कि ‘यदि गंगा और भगवान शिव प्रसन्न हैं, तो हमारे और मनुष्यों का प्रिय करने के लिए आप लोग कृपापूर्वक यहीं निवास करें। गंगा ने उत्तर देते हुए कहा कि ‘मैं तो गौतम जी का पाप क्षालित कर वापस चली जाऊँगी, क्योंकि आपके समाज में मेरी विशेषता कैसे समझी जाएगी और उस विशेषता का पता कैसे लगेगा? सबका प्रिय करने हेतु आप सब लोग यहाँ क्यों नहीं रहते हैं? यदि आप लोग यहाँ मेरी विशेषता सिद्ध कर सकें, तो मैं अवश्य ही रहूँगी।’ देवताओं ने बताया कि जब सिंह राशि पर बृहस्पति जी का पदार्पण होगा, उस समय हम सभी आकर यहाँ निवास करेंगे। ग्यारह वर्षों तक लोगों का गो-पातक यहाँ क्षालित होगा, उस पापराशि को धोने के लिए हम लोग सरिताओं में श्रेष्ठ आप गंगा के पास आया करेंगे। महादेवी! समस्त लोगों पर अनुग्रह करते हुए हमारा प्रिय करने हेतु तुम्हें और भगवान शंकर को यहाँ पर नित्य निवास करना चाहिए।’
महापर्व
देवताओं ने आगे बताया कि ‘गुरु (बृहस्पति) जब तक सिंह राशि पर यहाँ विराजमान होंगे, तभी तक हम लोग यहाँ निवास करेंगे। उस समय हम लोग तुम्हारे जल में तीनों समय स्नान करके भगवान शंकर का दर्शन करते हुए शुद्ध होंगे।’ इस प्रकार ऋषि गौतम और देवताओं के द्वारा प्रार्थना करने पर भगवती गंगा और भगवान शिव वहाँ अवस्थित हो गये। तभी से वहाँ गंगा गौतमी (गोदावरी) के नाम से प्रसिद्ध हुईं और भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग भी त्र्यम्बक नाम से विख्यात हुआ। यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग समस्त पापों का क्षय करने वाला है। उसी दिन से जब-जब बृहस्पति का सिंह राशि पर पदार्पण होता है, तब-तब सभी तीर्थ, क्षेत्र, देवता, पुष्कर आदि सरोवर, गंगा आदि श्रेष्ठ नदियाँ, भगवान विष्णु आदि देवगण गौतमी के तट पर आते हैं और वहीं निवास करते हैं।
जितने दिनों तक वे गौतमी के तट पर निवास करते हैं, उतने दिनों तक उनके मूलस्थान पर कोई फल नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार गौतमी तट पर स्थित इस त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग का जो मनुष्य भक्तिभावपूर्वक दर्शन पूजन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। ऋषि गौतम द्वारा पूजित यह त्र्यम्बक ज्योतिर्लिंग इस लोक में मनुष्य के समस्त अभीष्ट फलों को प्रदान करता है और परलोक में उत्तम मोक्ष पद को देने वाला है–
ज्योतिर्लिंगमिदं प्रोक्तं त्र्यम्बकं नाम विश्रुतम्। स्थितं तटे हि गौतम्या महापातकनाशनम्।। य: पश्येद्भक्तितो ज्योतिर्लिंगं त्र्यम्बकनामकम्। पूजयेत्प्रणमेत्सतुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकं हि पूजितं गौतमेन ह। सर्वकामप्रदं चात्र परत्र परमुक्तिदम्।।
#त्रियंभकेश्वर#ज्योतिर्लिंग#त्रियंभकेश्वर ज्योतिर्लिंग#Triyambhkeshwar#jyotirling#triyambhkeshwar jyotirling
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श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग उत्तर प्रदेश के वाराणसी जनपद के काशी नगर में अवस्थित है। कहते हैं, काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी है, जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। इसे आनन्दवन, आनन्दकानन, अविमुक्त क्षेत्र तथा काशी आदि अनेक नामों से स्मरण किया गया है। काशी साक्षात सर्वतीर्थमयी, सर्वसन्तापहरिणी तथा मुक्तिदायिनी नगरी है। निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के रूप में साक्षात अवस्थित हैं। इस काशी क्षेत्र में स्थित
श्री दशाश्वमेध
श्री लोलार्क
श्री बिन्दुमाधव
श्री केशव और
श्री मणिकर्णिक
ये पाँच प्रमुख तीर्थ हैं, जिनके कारण इसे ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है। काशी के उत्तर में ओंकारखण्ड, दक्षिण में केदारखण्ड और मध्य में विश्वेश्वरखण्ड में ही बाबा विश्वनाथ का प्रसिद्ध है। ऐसा सुना जाता है कि मन्दिर की पुन: स्थापना आदि जगत गुरु शंकरचार्य जी ने अपने हाथों से की थी। श्री विश्वनाथ मन्दिर को मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने नष्ट करके उस स्थान पर मस्जिद बनवा दी थी, जो आज भी विद्यमान है। इस मस्जिद के परिसर को ही 'ज्ञानवाणी' कहा जाता है। प्राचीन शिवलिंग आज भी 'ज्ञानवापी' कहा जाता है। आगे चलकर भगवान शिव की परम भक्त महारानी अहल्याबाई ने ज्ञानवापी से कुछ हटकर श्री विश्वनाथ के एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कराया था। महाराजा रणजीत सिंह जी ने इस मन्दिर पर स्वर्ण कलश (सोने का शिखर) चढ़वाया था। काशी में अनेक विशिष्ट तीर्थ हैं, जिनके विषय में लिखा है–
विश्वेशं माधवं ढुण्ढिं दण्डपाणिं च भैरवम्। वन्दे काशीं गुहां गंगा भवानीं मणिकर्णिकाम्।।
अर्थात ‘विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग बिन्दुमाधव, ढुण्ढिराज गणेश, दण्डपाणि कालभैरव, गुहा गंगा (उत्तरवाहिनी गंगा), माता अन्नपूर्णा तथा मणिकर्णिक आदि मुख्य तीर्थ हैं।
काशी क्षेत्र में मरने वाले किसी भी प्राणी को निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। जब कोई मर रहा होता है, उस समय भगवान श्री विश्वनाथ उसके कानों में तारक मन्त्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन के चक्कर से छूट जाता है, अर्थात इस संसार से मुक्त हो जाता है।
विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
काशी नगरी की उत्पत्ति
काशी नगरी की उत्पत्ति तथा उसकी भगवान शिव की प्रियतमा बनने की कथा स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में वर्णित है। काशी उत्पत्ति के विषय में अगस्त्य जी ने श्रीस्कन्द से पूछा था, जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कन्द ने उन्हें बताया कि इस प्रश्न का उत्तर हमारे पिता महादेव जी ने माता पार्वती जी को दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘महाप्रलय के समय जगत के सम्पूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे, सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था। उस समय 'सत्' स्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त सूर्य, नक्षत्र, ग्रह,तारे आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक ब्रह्म का अस्तित्त्व था, जिसे शास्त्रों में ‘एकमेवाद्वितीयम्’ कहा गया है। ‘ब्रह्म’ का ना तो कोई नाम है और न रूप, इसलिए वह मन, वाणी आदि इन्द्रियों का विषय नहीं बनता है। वह तो सत्य है, ज्ञानमय है, अनन्त है, आनन्दस्वरूप और परम प्रकाशमान है। वह निर्विकार, निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प तथा सर्वव्यापी, माया से परे तथा उपद्रव से रहित परमात्मा कल्प के अन्त में अकेला ही था।
कल्प के आदि में उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि ‘मैं एक से दो हो जाऊँ’। यद्यपि वह निराकार है, किन्तु अपनी लीला शक्ति का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया। परमेश्वर के संकल्प से प्रकट हुई वह ऐश्वर्य गुणों से भरपूर, सर्वज्ञानमयी, सर्वस्वरूप द्वितीय मूर्ति सबके लिए वन्दनीय थी। महादेव ने पार्वती जी से कहा– ‘प्रिये! निराकार परब्रह्म की वह द्वितीय मूर्ति मैं ही हूँ।
सभी शास्त्र और विद्वान मुझे ही ‘ईश्वर ’ कहते हैं। साकार रूप में प्रकट होने पर भी मैं अकेला ही अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करता हूँ। मैंने ही अपने शरीर से कभी अलग न होने वाली 'तुम' प्रकृति को प्रकट किया है। तुम ही गुणवती माया और प्रधान प्रकृति हो। तुम प्रकृति को ही बुद्धि तत्त्व को जन्म देने वाली तथा विकार रहित कहा जाता है। काल स्वरूप आदि पुरुष मैंने ही एक साथ तुम शक्ति को और इस काशी क्षेत्र को प्रकट किया है।’
विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
प्रकृति और ईश्वर
इस प्रकार उस शक्ति को ही प्रकृति और ईश्वर को परम पुरुष कहा गया है। वे दोनों शक्ति और परम पुरुष परमानन्दमय स्वरूप में होकर काशी क्षेत्र में रमण करने लगे। पाँच कोस के क्षेत्रफल वाले काशी क्षेत्र को शिव और पार्वती ने प्रलयकाल में भी कभी त्याग नहीं किया है। इसी कारण उस क्षेत्र को ‘अविमुक्त’ क्षेत्र कहा गया है। जिस समय इस भूमण्डल की, जल की तथा अन्य प्राकृतिक पदार्थों की सत्ता (अस्तित्त्व) नहीं रह जाती है, उस समय में अपने विहार के लिए भगवान जगदीश्वर शिव ने इस काशी क्षेत्र का निर्माण किया था। स्कन्द (कार्तिकेय) ने अगस्त्य जी को बताया कि यह काशी क्षेत्र भगवान शिव के आनन्द का कारण है, इसीलिए पहले उन्होंने इसका नाम ‘आनन्दवन’ रखा था।
काशी क्षेत्र के रहस्य को ठीक-ठीक कोई नहीं जान पाता है। उन्होंने कहा कि उस आनन्दकानन में जो यत्र-तत्र (इधर-उधर) सम्पूर्ण शिवलिंग हैं, उन्हें ऐसा समझना चाहिए कि वे सभी लिंग आनन्दकन्द रूपी बीजो से अंकुरित (उगे) हुए हैं।
पुरुषोत्तम
उसके बाद भगवान शिव ने माँ जगदम्बा के साथ अपने बायें अंग में अमृत बरसाने वाली अपनी दृष्टि डाली। उस दृष्टि से अत्यन्त तेजस्वी तीनो लोकों में अतिशय सुन्दर एक पुरुष प्रकट हुआ। वह अत्यन्त शान्त, सतो गुण से परिपूर्ण तथा सागर से भी अधिक गम्भीर और पृथ्वी के समान श्यामल था तथा उसके बड़े-बड़े नेत्र कमल के समान सुन्दर थे। अत्यन्त कमनीय और रमणीय होते हुए भी प्रचण्ड बाहुओं से सुशोभित वह पुरुष सुर्वण रंग के दो पीताम्बरों से अपने शरीर को ढँके हुए था। उसके नाभि कमल से बहुत ही मनमोहक सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी। देखने में वह अकेले ही सम्पूर्ण गुणों की खान तथा समस्त कलाओं का ख़ज़ाना प्रतीत होता था। वह एकाकी ही जगत के सभी पुरुषों में उत्तम था, इसलिए उसे ‘पुरुषोत्तम’ कहा गया।
सब गुणों से विभूषित उस महान् पुरुष को देखकर महादेव जी ने उससे कहा– ‘अच्युत! तुम महाविष्णु हो। तुम्हारे नि:श्वास (सांस) से वेद प्रकट होंगे, जिनके द्वारा तुम्हें सब कुछ ज्ञान हो जाएगा अर्थात तुम सर्वज्ञ बन जाओगे।’ इस प्रकार महाविष्णु को कहने के बाद भगवान शंकर (पार्वती) के साथ विचरण करने हेतु आनन्दवन में प्रवेश कर गये।
पुरुषोत्तम भगवान विष्णु जब ध्यान में बैठे, तो उनका मन तपस्या में लग गया। उन्होंने अपने चक्र से एक सुन्दर पुष्करिणी (सरोवर) खोदकर उसे अपने शरीर के पसीने से भर दिया। उसके बाद उस सरोवर के किनारे उन्होंने कठिन तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर पार्वती के साथ भगवान शिव वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने महाविष्णु से वर माँगने के लिए कहा, तो विष्णु ने भवानी सहित हमेशा उनके दर्शन की इच्छा व्यक्त की। भगवान शिव सदा दर्शन देने के वचन को स्वीकार करते हुए बोले कि मेरी मणिमय कर्णिका[1]यहाँ गिर पड़ी है, इसलिए यह स्थान 'मणिकर्णिका तीर्थ' के नाम से निवेदन किया कि चूँकि मुक्तामय (मणिमय) कुण्डल यहाँ गिरा है, इसलिए यह मुक्ति का प्रधान क्षेत्र माना जाये अर्थात अकथनीय ज्योति प्रकाशित होती रहे। इन कारणों से इसका दूसरा नाम ‘काशी’ भी स्वीकार हो। विष्णु ने आगे निवेदन किया कि ब्रह्मा से लेकर कीट-पतंग जितने भी प्रकार के जीव हैं, उन सबके काशी क्षेत्र में मरने पर मोक्ष की प्राप्ति अवश्य हो। उस मणिकर्णिका तीर्थ में स्नान, सन्ध्या, जप, हवन, पूजन, वेदाध्ययन, तर्पण, पिण्ड दान, दशमहादान, कन्यादान, अनेक प्रकार के यज्ञों, व्रतोद्यापन[2] वृषोत्सर्ग तथा शिवलिंग स्थापना आदि शुभ कर्मों का फल मोक्ष के रूप में प्राप्त होवे। जगत में जितने भी क्षेत्र हैं, उनमें सर्वाधिक सुन्दर और शुभकारी हो तथा इस काशी का नाम लेने वाले भी पाप से मुक्त हो जायें।’
महाविष्णु की बातों को स्वीकार करते हुए शिव ने उन्हें आदेश दिया कि ‘आप विविध प्रकार की यथायोग्य सृष्टि करो और उनमें जो कुमार्ग पर चलने वाले दुष्टात्मा हैं, उनके संहार में भी कारण बनो। पाँच कोस के क्षेत्रफल में फैला यह काशीधाम मुझे अतिशय प्रिय है। मैं यहाँ सदा निवास करता हूँ, इसलिए इस क्षेत्र में सिर्फ़ मेरी ही आज्ञा चलती है, यमराज आदि किसी अन्य की नहीं। इस 'अविमुक्त' क्षेत्र में रहने वाला पापी हो अथवा धर्मात्मा उन सबका शासक अकेला मैं ही हूँ। काशी से दूर रहकर भी जो मनुष्य मानसिक रूप से इस क्षेत्र का स्मरण करता है, उसे पाप स्पर्श नहीं करता है और वह काशी क्षेत्र में पहुँच कर उसके पुण्य के प्रभाव से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। जो कोई संयमपूर्वक काशी में बहुत दिनों तक निवास करता है, किन्तु संयोगवश उसकी मृत्यु काशी से बाहर हो जाती है, तो वह भी स्वर्गीय सुख को प्राप्त करता है और अन्त में पुन: काशी में जन्म लेकर मोक्ष पद को प्राप्त करता है।
विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
सर्वव्यापी शिव
जो मनुष्य श्री काशी विश्वनाथ की प्रसन्नता के लिए इस क्षेत्र में दान देता है, वह धर्मात्मा भी अपने जीवन को धन्य बना लेता है। पंचक्रोशी (पाँच कोस की) अविमुक्त क्षेत्र विश्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध एक ज्योतिर्लिंग का स्वरूप ही जानना और मानना चाहिए। भगवान विश्वनाथ काशी में स्थित होते हुए भी सर्वव्यापी होने के कारण सूर्य की तरह सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। जो कोई उस क्षेत्र की महिमा से अनजान है अथवा उसमें श्रद्धा नहीं है, फिर भी वह जब काशीक्षेत्र में प्रवेश करता है या उसकी मृत्यु हो जाती है, तो वह निष्पाप होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यदि कोई मनुष्य काशी में रहते हुए पापकर्म करता है, तो मरने के बाद वह पहले 'रुद्र पिशाच' बनता है, 'उसके बाद उसकी मुक्ति होती है’
स्कन्द पुराण के अनुसार
स्कन्द पुराण के इस आख्यान से स्पष्ट होता है कि श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या आदि से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहाँ निराकार परब्रह्म परमेश्वर महेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। उन्होंने दूसरी बार महाविष्णु की तपस्या के फलस्वरूप प्रकृति और पुरुष (शक्ति और शिव) के रूप में उपस्थित होकर आदेश दिया। महाविष्णु के आग्रह पर ही भगवान शिव ने काशी क्षेत्र को अविमुक्त कर दिया। उनकी लीलाओं पर ध्यान देने से काशी के साथ उनकी अतिशय प्रियशीलता स्पष्ट मालूम होती है। इस प्रकार द्वादश ज्योतिर्लिंग में श्री विश्वेश्वर भगवान विश्वनाथ का शिवलिंग सर्वाधिक प्रभावशाली तथा अद्भुत शक्तिसम्पन्न लगता है। माँ अन्नापूर्णा (पार्वती) के साथ भगवान शिव अपने त्रिशूल पर काशी को धारण करते हैं और कल्प के प्रारम्भ में अर्थात सृष्टि रचना के प्रारम्भ में उसे त्रिशूल से पुन: भूतल पर उतार देते हैं।
शिव महापुराण में श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कुछ इस प्रकार बताय�� गई है– 'परमेश्वर शिव ने माँ पार्वती के पूछने पर स्वयं अपने मुँह से श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कही थी। उन्होंने कहा कि वाराणसी पुरी हमेशा के लिए गुह्यतम अर्थात अत्यन्त रहस्यात्मक है तथा सभी प्रकार के जीवों की मुक्ति का कारण है। इस पवित्र क्षेत्र में सिद्धगण शिव-आराधना का व्रत लेकर अनेक स्वरूप बनाकर संयमपूर्वक मेरे लोक की प्राप्ति हेतु महायोग का नाम 'पाशुपत योग' है। पाशुपतयोग भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रकार का फल प्रदान करता है।
भगवान शिव ने कहा कि मुझे काशी पुरी में रहना सबसे अच्छा लगता है, इसलिए मैं सब कुछ छोड़कर इसी पुरी में निवास करता हूँ। जो कोई भी मेरा भक्त है और जो कोई मेरे शिवतत्त्व का ज्ञानी है, ऐसे दोनों प्रकार के लोग मोक्षपद के भागी बनते हैं, अर्थात उन्हें मुक्ति अवश्य प्राप्त होती है। इस प्रकार के लोगों को न तो तीर्थ की अपेक्षा रहती है और न विहित अविहित कर्मों का प्रतिबन्ध। इसका तात्पर्य यह है कि उक्त दोनों प्रकार के लोगों को जीवन्मुक्त मानना चाहिए। वे जहाँ भी मरते हैं, उन्हें तत्काल मुक्ति प्राप्त होती है। भगवान शिव ने माँ पार्वती को बताया कि बालक, वृद्ध या जवान हो, वह किसी भी वर्ण, जाति या आश्रम का हो, यदि अविमुक्त क्षेत्र में मृत्यु होती है, तो उसे अवश्य ही मुक्ति मिल जाती है। स्त्री यदि अपवित्र हो या पवित्र हो, वह कुमारी हो, विवाहिता हो, विधवा हो, बन्ध्या, रजस्वला, प्रसूता हो अथवा उसमें संस्कारहीनता हो, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो, यदि उसकी मृत्यु काशी क्षेत्र में होती है, तो वह अवश्य ही मोक्ष की भागीदार बनती है।
विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
शिव पुराण के अनुसार
शिव महापुराण के अनुसार इस पृथ्वी पर जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्गुण, निर्विकार तथा सनातन ब्रह्मस्वरूप ही है। अपने कैवल्य (अकेला) भाव में रमण करने वाले अद्वितीय परमात्मा में जब एक से दो बनने की इच्छा हुई, तो वही सगुणरूप में ‘शिव’ कहलाने लगा। शिव ही पुरुष और स्त्री, इन दो हिस्सों में प्रकट हुए और उस पुरुष भाग को शिव तथा स्त्रीभाग को ‘शक्ति’ कहा गया। उन्हीं सच्चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने अदृश्य रहते हुए स्वभाववश प्रकृति और पुरुषरूपी चेतन की सृष्टि की। प्रकृति और पुरुष सृष्टिकर्त्ता अपने माता-पिता को न देखते हुए संशय में पड़ गये। उस समय उन्हें निर्गुण ब्रह्म की आकाशवाणी सुनाई पड़ी– ‘तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए, जिससे कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।’ उसके बाद भगवान शिव ने तप:स्थली के रूप में तेजोमय पाँच कोस के शुभ और सुन्दर एक नगर का निर्माण किया, जो उनका ही साक्षात रूप था। उसके बाद उन्होंने उस नगर को प्रकृति और पुरुष के पास भेजा, जो उनके समीप पहुँच कर आकाश में ही स्थित हो गया। तब उस पुरुष (श्री हरि) ने उस नगर में भगवान शिव का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से वर्षों तपस्या की। तपस्या में श्रम होने के कारण श्री हरि (पुरुष) के शरीर से श्वेतजल की अनेक धाराएँ फूट पड़ीं, जिनसे सम्पूर्ण आकाश भर गया। वहाँ उसके अतिरकित कुछ भी दिखाई नहीं देता था। उसके बाद भगवान विष्णु (श्री हरि) मन ही मन विचार करने लगे कि यह कैसी विचित्र वस्तु दिखाई देती है। उस आश्चर्यमय दृश्य को देखते हुए जब उन्होंने अपना सिर हिलाया, तो उनके एक कान से मणि खिसककर गिर पड़ी। मणि के गिरने से वह स्थान ‘मणिकर्णिका-तीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
उस महान् जलराशि में जब पंचक्रोशी डूबने लगी, तब निर्गुण निर्विकार भगवान शिव ने उसे शीघ्र ही अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया। तदनन्तर विष्णु (श्रीहरि) अपनी पत्नी (प्रकृति) के साथ वहीं सो गये। उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ, जिससे ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति में भी निराकार शिव का निर्देश ही कारण था। उसके बाद ब्���ह्मा जी ने शिव के आदेश से विलक्षण सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी। ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड का विस्तार (विभाजन) चौदह भुवनों में किया, जबकि ब्रह्माण्ड का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन बताया गया है। भगवान शिव ने विचार किया कि ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत कर्मपाश (कर्बन्धन) में फँसे प्राणी मुझे कैसे प्राप्त हो सकेंगे? उस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने पंचक्रोशी को अपने त्रिशूल से उतार कर इस जगत में छोड़ दिया।
विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
काशी में स्वयं परमेश्वर ने ही अविमुक्त लिंग की स्थापना की थी, इसलिए उन्होंने अपने अंशभूत हर (शिव) को यह निर्देश दिया कि तुम्हें उस क्षेत्र का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। यह पंचक्रोशी लोक का कल्याण करने वाली, कर्मबन्धनों को नष्ट करने वाली, ज्ञान प्रकाश करने वाली तथा प्राणियों के लिए मोक्षदायिनी है। यद्यपि ऐसा बताया गया है कि ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा हो जाने पर इस जगत् का प्रलय हो जाता है, फिर भी अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है, क्योंकि उसे भगवान परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं। ब्रह्मा जी जब नई सृष्टि प्रारम्भ करते हैं, उस समय भगवान शिव काशी को पुन: भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण (नष्ट) करने के कारण ही उस क्षेत्र का नाम ‘काशी’ है, जहाँ अविमुक्तेश्वरलिंग हमेशा विराजमान रहता है। संसार में जिसको कहीं गति नहीं मिलती है, उसे वाराणसी में गति मिलती है। महापुण्यमयी पंचक्रोशी करोड़ों हत्याओं के दुष्फल का विनाश करने वाली है। भगवान शंकर की यह प्रिय नगरी समानरूप से भोग ओर मोक्ष को प्रदान करती है। कालाग्नि रुद्र के नाम से विख्यात कैलासपति शिव अन्दर से सतोगुणी तथा बाहर से तमोगुणी कहलाते हैं। यद्यपि वे निर्गुण हैं, किन्तु जब सगुण रूप में प्रकट होते हैं, तो ‘शिव’ कहलाते हैं। रुद्र ने पुन: पुन: प्रणाम करके निर्गुण शिव से कहा– ‘विश्वनाथ’ महेश्वर! निस्सन्देह मैं आपका ही हूँ। मुझ आत्मज (पुत्र) पर आप कृपा कीजिए। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, आप लोककल्याण की कामना से जीवों का उद्धार करने के लिए यहीं विराजमान हों।’ इसी प्रकार स्वयं अविमुक्त क्षेत्र ने भी शंकर जी से प्रार्थना की है। उसने कहा– ‘देवाधिदेव’ महादेव वास्तव में आप ही तीनों लोकों के स्वामी हैं और ब्रह्मा तथा विष्णु आदि के द्वारा पूजनीय हैं। आप काशीपुरी को अपनी राजधानी के रूप में स्वीकार करें। मैं यहाँ स्थिर भाव से बैठा हुआ सदा आपका ध्यान करता रहूँगा। सदाशिव! आप उमा सहित यहाँ सदा विराजमान रहें और अपने भक्तों का कार्य सिद्ध करते हुए समस्त जीवों के संसार सागर से पार करें। इस प्रकार भगवान शिव अपने गणों सहित काशी में विराजमान हो गये। तभी से काशी पुरी सर्वश्रेष्ठ हो गई। उक्त आशय को ही शिव पुराण में इस प्रकार कहा गया है–
देवदेव महादेव कालामयसुभेषज। त्वं त्रिलोकपति: सत्यं सेव्यो ब्रह्माच्युतादिभि:।। काश्यां पुर्यां त्वया देव राजधानी प्रगृह्यताम्। मया ध्यानतया स्थेयमचिन्त्यसुखहेतवे।। मुक्तिदाता भवानेव कामदश्च न चापर:। तस्मात्त्वमुपकारा�� तिष्ठोमासहित: सदा।। जीवान्भवाष्धेरखिलास्तारय त्वं सदाशिव। भक्तकार्य्यं कुरू हर प्रार्थयामि पुन: पुन:।। इत्येवं प्रार्थितस्तेन विश्वनाथेन शंकर:। लोकानामुपकारार्थं तस्थौ तत्रापि सर्वराट्।।[3]
परिवहन व्यवस्था
उत्तर भारत में अवस्थित श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के लिए वाराणसी शहर में आना होता है। देश-विदेश के लोगों के लिए यातायात-व्यवस्था अच्छी है। धार्मिक जनता अपनी सुविधा के अनुसार रेल, बस, हवाई जहाज, टैक्सी आदि से मनचाही यात्रा कर सकती है।
विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
धार्मिक भावनायें
जो वर्षों से काशी नगरी में निवास कर रहा हो और उसकी आर्थिक स्थिति डाँवाडोल हो गई हो, फिर भी वह काशी छोड़कर दूर नहीं जाना चाहता है। शास्त्रकारों ने लिखा है कि जिस स्थान पर मृत्यु मंगलदायक, भस्म का त्रिपुण्ड (तिलक) ही अलंकार है, लंगोटी ही जहाँ रेशमी वस्त्र के समान है, ऐसी काशी का सेवन कौन नहीं करना चाहेगा?
मरणं मंगलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते।। आज भी गंगा के किनारे दशाश्वमेध-घाट पर एक सामान्य व्यक्ति भी यह कहते मिल जाता है कि– चना चबेना गंगजल, जो पूरवे करतार। काशी कभी न छोड़ियो, बाबा विश्वनाथ दरबार।।
इस प्रकार माँ गंगा के किनारे बसी हुई श्री माँ अन्नपूर्णा सहित भोलेनाथ बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी अतीव दिव्य है, मोक्षदायिका है और तीनों लोकों से विलक्षण है। श्री विश्वेश्वर विश्वनाथ का यह ज्योतिर्लिंग साक्षात भगवान परमेश्वर महेश्वर का स्वरूप है, यहाँ भगवान शिव सदा विराजमान रहते हैं।
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