#शिक्षित बेरोजगारी के उपाय
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शिक्षित बेरोजगारी भारत के लिए एक विशेष समस्या क्यों है?
शिक्षित बेरोजगारी भारत के लिए एक विशेष समस्या क्यों है?
शिक्षित बेरोजगारी क्या है? उच्च शिक्षा के विकास के साथ शिक्षित व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्तियों (जैसे इंजीनियर) की संख्या भी बढ़ रही है। एक ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार किया जा रहा है जिसमें दक्षता तो है लेकिन कोई उपयुक्त काम नहीं मिल पा रहा है। शिक्षित वर्ग में बेरोजगारी न केवल भारत में बल्कि अन्य सभी देशों में एक प्रमुख चिंता का विषय बनी…
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ओशो : एक महान दार्शनिक !
हरेक युग मे आँख वाले लोग आते रहे हैं और अंधों ने उन गिनेचुने दिव्यात्माओं को अपने अपने युग मे अंधा बनाते रहे हैं । बुद्ध, येशु, महावीर एवं मोहम्मद के बाद 20वीं शताब्दी में कई युगों के बाद ऐसे ही एक बीज ने जन्म लिया - ओशो !
आज तक जितने भी लोगों ने कृष्ण के होने पर , बुद्ध के होने पर , महावीर के होने पर , मोहम्मद के होने पर या येशु के होने पर प्रश्नचिन्ह लगाए हैं उन सभी शंशयों को एक बार मे मैं खंडित कर सकने में अब सक्षम हूँ । यदि 20वीं शताब्दी में ओशो नही होते तो मेरे लिए ये कठिन था , शायद मेरे विचार को एक अनैतिक विचार मानकर यदि बहुत दूर बैठे लोग नही तो कम से कम नजदीक रहने वाले लोग जरूर खंडित कर देते , लेकिन जिस तरह से लोगों ने ओशो को जीने नही दिया - और सेक्स गुरु , अमीरों के गुरु इत्यादि नामों से संबोधन करते हुए उनके जीवन को अस्त-व्यस्त करते रहे - मुझे यकीन हो गया है कि मध्यकाल में या प्राचीनकाल में जन्मे सभी सुधारकों की कहानी सच्ची है और परिकल्पना नही । अभी रात है तो इसे मैं रात ही कहूँगा , ये रात बुद्ध ने भी देखी होगी - इस मे बहुत मंथन करने की तो जरूरत नही है। लेकिन कुछ लोग समय के साथ , मुहर्त के साथ , मध्य लगाकर देखने के आदि हैं -अब उनके अप्राकृतिक अबधारणा का मेरे अनुभव से क्या लेना देना । हर व्यक्ति का अपना अपना 'ठीक' है -और मेरा ये !
बुद्ध को भगोड़ा , महावीर को नपुंसक , मोहम्मद को मूर्ख एवं येशु को बहरूपिया कहनेवाले जमातों ने ही ओशो को सेक्स गुरु कह कर अवहेलना की , परन्तु ओशो इन सभी लोगों के पौराणिक रवैये से अवश्य परिचित रहे होंगे तभी उन्होंने कभी भी बीच सभा मे आकर इनलोंगो को मोहम्द या येशु की तरह उपदेश देने की जरूरत नही की , बल्कि ऐसा उपाय किया कि उनके पास आने के लिए लोग लालायित हो उठे लेकिन अर्थ के अभाव में वे कभी पहुँच नही पाये । पहुँचा वही जो ��मीर था और शिक्षित भी ।
यदि ओशो ऐसा नही करते तो शायद उनको भी येशु की तरह सुलि पर लटका दिया जाता । लेकिन वह अतित से परिचित थे इसलिए उन्होंने ऐसी भूल नही की ।
उनके पास समाज को देने के लिए कोई धर्मिक उपदेश नही था बल्कि जीवन जीने के लिए एक सूत्र था -जिसको वे दुनिया मे बाँट देना चाहते थे । मार्ग कठिन था क्योंकि उनके बताए हुए रास्ते पर चलने से पहले सभी धार्मिक बंधनो से मुक्त होने की जरूरत थी , हजारों साल से जिसे लोग पूजते आ रहे हैं उसे छोड़कर ही उस रास्ते पर चला जा सकता था । यह शर्त ही ऐसी थी कि लोग सुनकर चकित रह गये । एक झटके में ओशो ने सभी धर्मिक व्यवस्था को खंडित खंडित कर दिया था -लोग पागल हो उठे । अक्सर धर्म के नामपर मर मिटनेवाला लोगों की नजरों में ओशो को एक अपवित्र इंसान बनते देर ना लगी - हरतरफ ओशो की भर्त्सना होने लगी ।
ओशो भलीभांति जानते थे कि ऐसा होगा । किसी कुरीति पर चोट करनेवालों के विरोध में लोग एकत्रित हो ही जाया करते हैं - और वही लोगों ने किया भी , लेकिन ओशो पर कोई प्रभाव नही पड़ा । वे लगातार अपनी विचार रखते रहे - भाड़ी संख्या में लोग जुड़ते चले गए । भारत से अमेरिका , अमेरिका से लगभग सभी महादेशों तक ओशो इस तरह फैल गए कि धार्मिक ठेकेदार परेशान हो उठे । उनकी चोट कोई साधारण चोट नही होता था - सीधे पंडितों , पादरियों और मुल्लाओं को चित कर देते थे । ओश�� लड़ना जानते थे- शब्दों का इस्तेमाल किसी तलवार की धार के भांति करते थे । किसी भी तरह का प्रश्न क्यों ना हो हमेशा लयबद्ध उत्तर देते थे ।
आश्रम में विदेशियों का जमघट , तरह तरह के प्रश्न और ओशो का कृष्ण की तरह तरल और सूक्ष्म उत्तर , - शिष्य सुनकर भावविभोर हो उठते थे । हिंदुस्तनियों को तो उन्होंने खच्चर की उपाधि दे दी - सिर्फ औरों की गुलामी करनेवाला एक कौम ! यह बात उन्होंने इतनी आसानी से कह दी मानो कोई मामूली सी बात हो । जब पहली दफा मैंने भी सुना तो हैरत में पड़ गया । सम्पूर्ण विचार सुनने के बाद मैं भी उनसे तत्काल राजी हो गया । वाकई हिंदुस्तान एक खच्चर ही है ।।
मैं ओशो के बहुत से बातों से सहमत नही हूँ क्योंकि मैं भी मानता हूँ कि किसी और कि कही बातों से मेरे जन्म और मेरे कर्मों का कोई लेना देना नही है - बुद्ध और मुझमें फर्क नही , गांधी और मुझमें फर्क नही - बस फर्क है तो व्यक्तित्व का । उनके व्यक्तित्व से मेरा कोई लेना देना नही और मेरे व्यक्तित्व से औरों का कोई लेना देना नही - और यही बात सभी पर लागू होता है । बेशक लोग ओशो को अनुसरण ��रते हैं , गांधी का अनुसरण करते हैं - लेकिन मेरा सच ये है कि मैं किसी का भी अनुसरण नही करता । डिजिटल अनुसरण बस एक माध्यम है -जिसे कम से कम मैं तो अनुयायी के श्रेणी में नही गिनता , औरों के बारे में मैं कह भी नही सकता ।
यदि कुछ मैं सोचता हूँ और वही बात कोई और भी अतीत में सोचकर बोल चुका है तो इससे मेरा कोई लेना देना नही - इसका कतई ये मतलब नही की मैं उस व्यक्ति से प्रभावित हूँ और वही कह रहा हूँ जो बर्षों पहले उसने कही थी । इस बात का खंडन तो मैं इसी बात से कर देता हूँ कि आज मैं चाँद को देखते हुए कहता हूँ - चाँद कितना सुंदर है तो ये मेरा दृष्टिकोण है - मेरी आँखों ने चाँद को अनुभव किया है । होगा चाँद लाखों बर्ष पुराना, लाखों लोगों ने देखे होंगे - बिल्कुल वही कहा भी होगा जो मैं कहता हूँ । लेकिन जो मैंने कहा है वह मेरे लिए नूतन है , नवीन है , वह मेरा अनुभव है । शायद लोग यहीं मात खा जाते हैं ।।
ओशो से मेरे विचार जो मिल जाते हैं वे मैं मान लेता हूँ और जो नही मिलता उस से मेरा कोई सरोकार नही रहता । ओशो ने ठिक कहा की हिंदुस्तानी तो खच्चर हैं । मेरा भी मानना यही है । इस मामले में जो मैं अनुभव कर रहा हूँ , देख रहा हूँ वही अनुभव ओशो ने भी की होगी तभी तो वे बिल्कुल मेरे मन की बात अपने समय मे कह सके ।
मैं जब भी देखता हूँ - गिड़गिड़ाते हुए , आंसू बहाते हुए लोगों को तो मन पसीज जाता है लेकिन दूसरे ही छन चुनाव में वही रोने , गिड़गिड़ाने वाले लोग राजनीतिक दलों का झंडा उठाकर नाचते -गाते दिखते हैं ।। बर्षों से बेरोजगारी का रोना रोते हैं और चुनाव के समय फिर उसी को चुन लेते हैं । जब से होश है मैं यही खेल देखता आ रहा हूँ ।। अब ऐसे लोगों के लिए खच्चर से उपयुक्त शब्द और कौन सा होगा ।
ये खच्चरपन की आदत बर्षों पुरानी है , कुछ ना पूछने की आदत- बस कोई आकर सवारी करे और जीवन की गाड़ी चलती रहे ! अब सवार अरबी हो या अंग्रेज या फिर भारतीय लोकतांत्रिक नेता - ढोने से मतलब है , क्या विशेष फर्क पड़ता है । सब मोह माया है - सबको एक दिन मरना है । ऐसी मानसिकता के लोग कभी नाली से उठने की कोशिश करे भी तो कैसे करे !
कार्यालय में मैंने देखा है - गधों की तरह सिर हिलाते कर्मचारियों को, बॉस कुछ भी कहे, चाहे वह कार्य उस कर्मचारी का हो या न हो - अभी कर के देता हूँ । कमाल की बात तो ये है कि जो बॉस है वह भी गधा है अपने ऊपरवाले बॉस का - वह भी वही कर रहा है - अभी कर के देता हूँ । जीवनभर ऐसे जी लेगा लेकिन जो बुनियाद गलत है उसे ठिक करने की कोशिश भी नही करेगा । कौन जंझट ले - बड़ी मुश्किल है, जैसा चल रहा है चलने दो । गली , मोहल्ले , नुक़्क़र् , महल , संसद सभी जगह यही हाल है । एक ही सांचे में विस्तर डाल कर जीवन को नष्ट करते हुए लोग पड़े हुए हैं ।
अब ये सब देखकर पश्चिम की बड़ाई करु तो आसपास के लोग नाराज हो जाते हैं । उन्हें लगता है मैं हिंदुस्तान में रहकर हिंदुस्तान को गाली दे रहा हूँ । अब मैं ऐसे लोगों को क्या कहूं - जो - अभी कर के देता हूँ कर के जीवनकाल व्यतीत कर रहे हैं ।
लोगों को कोई बात अटपटा लगे यह सोचकर मैं जीने का आदि नही । जो मन करता है , जिस चीज़ से अंदर के तार बज उठते हैं वही मेरे लिए सर्वोपरि है । मैं ना भारतीय वेद से प्रभावित हूँ ना ही कुरान से । यदि कुछ मेरे ह्रदय को छू जाय तो उसे मैं अपना विचार समझ कर स्वीकार करने में भी देर नही करता । असल बात तो ये है कि व्यक्ति को वही बात और विचार आकर्षित कर पाता है जिसके बिज कहीं ना कहीं उसके मन मे पड़ा रहता है ।
मैं जब इस देश को देखता हूँ तो मन मे असंख्य विचार उत्पन होने लगते हैं । पशु और जानवरों की तरह बिना स्वंय को जाने जीवन जीते जा रहे ये लोग एक पल भी जीवन की ओर लौटने की कोशिश करते हैं । कहाँ जा रहे हैं कुछ पता नही - पद , प्रतिष्ठा , सम्मान पाने के लिए दिन-रात अपमानित होते हैं लेकिन धैर्यसीमा पर फिर भी लौ नही जल पाती है । मन ही मन दुखी रहते हैं पर बोल नही पाते । खुलकर एकबार सांस लेने की भी आजादी नही है और 15 अगस्त के दिन तिरंगा लिए दिनभर आजादी मानते हैं ।
अब जो देश 364 दिन गुलाम रहे वह एक दिन आजादी के महोत्सव में अगर नाचेगा भी तो मेरी नजर में तो वह गुलाम ही है । ये तो वही बात हो गयी कि एक व्यक्ति 364 दिन बीमार रहे और अगले दिन नाचने लगे । कहीं से भी तालमेल है ?
इस देश ने अभी तक स्वतंत्रता के मायने को जाना ही नही है । जब व्यक्ति का जीवन ही गुलाम है तो फिर कैसी स्वतंत्रता । कोई नेता का गुलाम है , कोई मंदिर का गुलाम है , कोई मस्जिद का गुलाम है - और फिर पैसे की गुलामी ।
ओशो निश्चित ही सही थे - उनकी दृष्ट ने इस देश को सही आंका ।
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देश में 92 फीसदी महिलाओं की तनख्वाह 10 हजार से भी कम
देश में एक तरफ जहां महिला सशक्तिकरण का बड़ा जोरो-शोरो से ढिंढोरा पीटा जाता है, वहीं एक विश्वविद्यालय की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, देश में कामकाजी 92 प्रतिशत महिलाओं को प्रति माह 10,000 रुपए से भी कम की तनख्वाह मिलती है। इस मामले में पुरुष थोड़ा बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि 82 प्रतिशत पुरुषों को भी 10,000 रुपए प्रति माह से कम की तनख्वाह मिलती है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के सतत रोजगार केंद्र ने श्रम ब्यूरो के पांचवीं वार्षिक रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण (2015-2016) पर आधार पर स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2018 एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें उन्होंने देश में कामकाजी पुरुषों और महिलाओं पर आंकड़े तैयार किए हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, 2015 में राष्ट्रीय स्तर पर 67 प्रतिशत परिवारों की मासिक आमदनी 10,000 रुपए थी जबकि सातवें केंद्रीय वेतन आयोग (सीपीसी) द्वारा अनुशंसित न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये प्रति माह है। इससे साफ होता है कि भारत में एक बड़े तबके को मजदूरी के रूप में उचित भुगतान नहीं मिल रहा है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लिबरल स्टडीज, अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर और देश में बढ़ती बेरोजगारी पर से पर्दा उठाने वाली स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2018 रिपोर्ट के मुख्य लेखक अमित बसोले ने बताया, यह आंकड़े श्रम ब्यूरो के पांचवीं वार्षिक रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण (2015-2016) पर आधारित है। यह आंकड़े पूरे भारत के हैं।
उन्होंने कहा, मेट्रो शहरों में इसकी स्थिति अलग होगी क्योंकि गांवों और छोटे शहरों की तुलना में इन शहरों में महिलाओं और पुरुषों की आमदनी अधिक है। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया, 2018 रिपोर्ट के मुताबिक, चिंता की बात यह है कि विनिर्माण क्षेत्र में भी 90 प्रतिशत उद्योग मजदूरों को न्यूनतम वेतन ���े नीचे मजदूरी का भुगतान करते हैं।
असंगठित क्षेत्र की हालत और भी ज्यादा खराब है। अध्ययन के मुताबिक, तीन दशकों में संगठित क्षेत्र की उत्पादक कंपनियों में श्रमिकों की उत्पादकता छह प्रतिशत तक बढ़ी है, जबकि उनके वेतन में मात्र 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। क्या आप मानते हैं कि शिक्षित युवाओं के लिए वर्तमान हालात काफी खराब हो चुके हैं, जिस पर सहायक प्रोफेसर अमित बसोले ने कहा, आज की स्थिति निश्चित रूप से काफी खराब है, खासकर भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में। हमें उन कॉलेजों से बाहर आने वाले बड़ी संख्या में शिक्षित युवाओं का बेहतर उपयोग करने की आवश्यकता है।
इस स्थिति को कैसे बेहतर बनाया जा सकता है, के सवाल पर उन्होंने बताया, स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कुछ उपाय किए जा सकते हैं, जैसे अगर सरकार सीधे गांवों व छोटे शहरों में रोजगार पैदा करे, इसके साथ ही बेहतर बुनियादी ढांचे (बिजली, सड़कों) उपलब्ध कराएं और युवाओं को कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध को सुनिश्चित करें, जिससे कुछ हद तक हालात सुधर सकते हैं।
श्रम ब्यूरो के पांचवीं वार्षिक रोजगार-बेरोजगारी सर्वेक्षण (2015-2016) के मुताबिक, 2015-16 के दौरान, भारत की बेरोजगारी दर पांच प्रतिशत थी जबकि 2013-14 में यह 4.9 फीसदी थी। रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि बेरोजगारी दर शहरी क्षेत्रों (4.9 फीसदी) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों (5.1 फीसदी) नें मामूली रूप से अधिक है।
अध्ययन के मुताबिक, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के बीच बेरोजगारी दर अधिक है। राष्ट्रीय स्तर पर महिला बेरोजगारी दर जहां 8.7 प्रतिशत है वहीं पुरुषों के बीच यह दर चार प्रतिशत है। काम में लगे हुए व्यक्तियों में से अधिकांश व्यक्ति स्वयं रोजगार में लगे हुए हैं। राष्ट्र स्तर पर 46.6 प्रतिशत श्रमिकों स्वयं रोजगार में लगे हुए हैं, इसके बाद 32.8 प्रतिशत सामयिक मजदूर हैं। अध्ययन के मुताबिक, भारत में केवल 17 प्रतिशत व्यक्ति वेतन पर कार्य करते हैं और शेष 3.7 प्रतिशत संविदा कर्मी हैं।
from Patrika : India's Leading Hindi News Portal https://www.patrika.com/jobs/92-percent-women-in-india-get-less-than-rs-10-thousand-as-salary-3581297/
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