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कालसर्प दोष: ज्योतिषीय परिस्थिति और निवारण
ज्योतिष विज्ञान एक ऐसी विद्या है जो व्यक्ति के जीवन को ग्रहों के चलने के साथ जोड़ती है। यहां हम एक ऐसे विशेष योग के बारे में चर्चा करेंगे जिसे "कालसर्प दोष" कहा जाता है और जिसका निवारण ज्योतिषीय उपायों के माध्यम से किया जा सकता है।
कालसर्प दोष क्या है?
कालसर्प दोष एक ज्योतिषीय प्रवृत्ति है जो किसी कुंडली में राहु और केतु ग्रहों के बीच में बनने वाले योगों को संकेत करती है। इसे कालसर्प योग भी कहा जाता है, और इसके कारण जातक को विभिन्न जीवन क्षेत्रों में कठिनाईयों का सामना करना पड़ सकता है।
कालसर्प दोष क प्रकार:
कालसर्प दोष के कई प्रकार हो सकते हैं, जैसे कि अनंत, कुलिक, वासुकि, शंखपाल, पद्म, महापद्म, तक्षक, और कैलास। इन प्रकारों के आधार पर व्यक्ति की कुंडली में किस प्रकार का कालसर्प दोष है, इसे निर्धारित किया जाता है।
कालसर्प दोष के प्रभाव:
परिवारिक समस्याएं: कालसर्प दोष के कारण परिवारिक संबंधों में कठिनाईयाँ उत्पन्न हो सकती हैं। विशेषज्ञता और समझदारी से इसका सामना करना आवश्यक होता है
आर्थिक समस्याएं: कालसर्प दोष के चलते व्यक्ति को आर्थिक समस्याएं भी आ सकती हैं। नियमित रूप से धन संबंधित परिस्थितियों का विचार करना महत्वपूर्ण है।
स्वास्थ्य समस्याएं: कुछ व्यक्तियों को कालसर्प दोष के कारण स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं भी हो सकती हैं। नियमित चेकअप और स्वस्थ जीवनशैली को बनाए रखना आवश्यक है।
कालसर्प दोष का निवारण:
पूजा और हवन: कालसर्प दोष के उपाय में पूजा और हवन का महत्वपूर्ण स्थान है। निर्धारित रूप से मंगलवार को कालसर्प पूजा करना और हवन आयोजित करना चाहिए।
मंत्र जाप: कालसर्प दोष के उपाय के रूप में कुछ विशेष मंत्रों का जाप करना भी फलकारी हो सकता है। गुरु मंत्र और केतु मंत्र का नियमित रूप से जाप करना ला��कारी हो सकता है।
रत्न धारण: कुछ ज्योतिषी रत्नों के धारण को भी कालसर्प दोष से मुक्ति प्रदान करने का सुझाव देते हैं। नीलम या मूंगा रत्न का धारण करना इसमें शामिल है।
दान और तप: कुछ लोग दान और तप के माध्यम से भी कालसर्प दोष का निवारण करते हैं। गौ-दान, तिल-दान, और वस्त्र-दान इसमें शामिल हैं।
कालसर्प दोष एक ज्योतिषीय परिस्थिति है जो व्यक्ति के जीवन को प्रभावित कर सकती है, लेकिन समझदारी से और उचित उपायों के माध्यम से इसका सामना किया जा सकता है। धार्मिकता, सच्चाई, और आत्म-समर्पण के साथ, व्यक्ति इस प्रकार के ज्योतिषीय परिस्थितियों को पार कर सकता है काल सर्प दोष के निवारण के लिए आप किसी पंडित से सलाह ले सकते है और अगर आप खुद से कालसर्प दोष का निवारण करना चाहते है तो होराइजन आर्क के कुंडली चक्र से कर सकते है ये काफी अच्छा सॉफ्टवेयर है और आप अपने जीवन को संतुलित और समृद्धि भरा बना सकता है।
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🙏सर्वोच्च शक्तिमान प्रभु परमपिता पुर्णब्रह्म कबीर परमेश्वर 🙏☝📩
🙏सन्त रामपाल जी महाराज की जय हो 🙏
👇गरीबदास की वाणी में 👇
गरीब, जैसे बादल गगन में ,चलते हैं बिन पाय ।
ऐसे पुरुष कबीर जी , सुंनि में रहे समाय ॥
गगन शून्य में गुप्त रहूँ, हम प्रगट प्रवाह।
दास गरीब, घट घट बसूं, विकट हमारी राह॥
गरीब, संख असंखौ, संत विराजै, वार पार नहीं अंत।
अविगत पुरुष कबीर भजौ रे,है दूलह महमंता॥
गरीब,गगन मंडल में रहत है , अविनाशी आप अलैख।
जुगन जुगन सतसंग है, धरि धरि खेलै भेख॥
❤शोभा देख कबीर की,नैन रहे ललचाए।
क्या कहूं छवि रूप की,दादू कही न जाए।।
:- दादू साहेब वाणी
🙏सत् साहेब जी 🙏Kabir Is god🙏
👇गरीबदास की वाणी में 👇
गरीब, संतौं कारण सब रच्या, सकल जमीन आसमान।
चंद सूर पानी पवन, यज्ञ तीर्थ और दान।।
जाको कहे कबीर जूलाहा, वो रची सकल संसारी हो
गरीबदास शरणागति आए, साहेब लटक बिहारी वो॥
❤🌈 गरीब, जिसको कहते कबीर जूलाहा। ☝
👌सब गति पूर्ण अगम अगाहा।। 🙏
❤🎇सत् साहेब का अवतार कबीर है किरतार/सर्जनहार,ताका धर्मदास अवतार। 🎇❤
1.गरीब,सेवक होय कर उतरे,इस पृथ्वी के ��ाहि।
जीव उधारण जगतगुरु,बार बार बलि जाहि।।
अनुवाद :- गरीबदास जी कहते हैं कि,इस जगत/पृथ्वी में कबीर साहेब सेवक/दास बनकर अवतार लेते हें, मानव जीवो को मुक्ति देने के लिए वो जगतगुरु बार बार मृत्युलोक में आकर मानव जीवो का कष्ट सहन कर बलि जाते हैं अर्थात उनका पुरा जीवन मनुष्यों की घृणा सहन करना और मोक्ष की प्राप्ति के प्रयत्न करवाते हें/मुक्ति देते हैं।।
2.गरीब,जल थल पृथ्वी गगन में,बाहर भीतर एक।
पूर्णब्रह्म कबीर हैं,अविगत पुरुष अलेख।।
अनुवाद :-गरीबदास कहते हे कि पानी जमीन/थल पृथ्वी आकाश और सृष्टि के अंदर और बाहर कबीर साहेब एक ही सर्वव्यापक परमात्मा हें। पूर्णब्रह्म परमात्मा कबीर हें,जो अविगत अवर्णनीय और अझात देवता हे।
👌👌में स्वामी सृष्टि में,सृष्टि हमारे तीर।
दास गरीब,अधर बसू अविगत सत्य कबीर।।
👉अनुवाद/सरलार्थ :कबीर साहेब गरीबदास को कहते हैं कि में स्वामी/परमात्मा (मालिक) हूं इस सृष्टि मे,ये सृष्टि और ब्रह्मांड सारे मेरे नियंत्रण में है।कबीर साहेब कहते हैं कि में अधर बसता हूँ मतलब के सतलोक में जो सब से परे और अविगत पुरुष सत्य कबीर है।।
👌गरीब,अनंत कोटी ब्रह्मांड है,रुम रुम की लार।
परानन्दनी शक्ति है जाके सृष्टि आधार।।
👉अनुवाद/सरलार्थ :-गरीबदास कहते हैं कि इस सृष्टि में अनंत/अनगिनत ब्रह्मांड है, जिसके अंदर ब्रह्मांड के सब झूंड/समूह हे और सब ब्रह्मांड के अंदर अंडे आकार आकाशगंगा हे। ये सृष्टि सब से अलग जो परानन्द परमेश्वरी शक्ति के आधार पर है,जिस के संचालक और नियामक कबीर साहेब परमात्मा है।।
1.दोहा:-अनंत कोटी ब्रह्मांड रचे,सब तजि रहै नियार।
जिंदा कहे धर्मदास से,जाका करो विचार।।
अनुवाद :-कबीर साहेब ने 'जिंदा' रुप में धर्मदास जी को अपने बारे में बताया कि उन्होंने ने अनंत करोडो ब्रह्मांड रचे और सब ब्रह्मांडो को तज/छोड कर वो रह रहे हैं। ऐसे अद्भुत कार्य के कर्ता पुरुष कबीर परमात्मा धर्मदास जी को विचार/मोल करने को बोल रहे है।
2.दोहा :-अजर अमर पद अभय है,अविगत आदि अनादि।
जिंदा कहे धर्मदास से,जा घर विद्या न वाद।।
अनुवाद :-कबीर साहेब ने 'जिंदा' रुप में धर्मदास जी को कहते हैं कि वो सतलोक पद अजर+अमर/कभी नष्ट नहीं होने वाला और निर्भय/अभय पद है,जो अविगत आदि अनादि अर्थात जो पहले से ही हे जिसका कभी अंत नहीं होने वाला परमानंद पद है।। सतलोक ऐसा पद है जहा नहीं विद्या नहीं वाद अर्थात वहां विद्या वाद की कोई जरूरत हे ही नहीं,ऐसी परमानंद परमेश्वरी शक्ति है।
3.दोहा :- संख जुगन जुग जगत में, पद प्रवानि है न्यार।
गरीबदास,कबीर हरि, अविगत अधरि अधार।।
गरीबदास जी कहते हैं कि संखो युग जगत में कबीर साहेब ही भक्ति के पद से सतलोक प्राप्त कराने वाले और सब सें न्यारे परमात्मा है। गरीबदास यें भी कहते हैं कि कबीर साहेब हरि हें जो अविगत,सबसे उंचे पद पर प्रतिष्ठित/पदस्थापित सब के आधार हे।
🙏सत् साहेब जी 🙏
हम हीं अलख अल्लाह हैं,कुतुब गौस और पीर।
गरीबदास,खालिक धनी,हमारा नाम कबीर।।
👇👇👇👇👇👇👇👇👇
गरीब, काजी गये कुरान ले,धरि लरके का नाम।
अक्षर अक्षर मैं फुर्या,धन कबीर बलि जांव।।
गरीब, सकल कुरान कबीर हैं, हरफ लिखे जो लेख।
काशी के काजी कहैं, गई दीन की टेक।।
सरलार्थ/अनुवाद :
1.गरीबदास अपनी वाणी में कहते हैं कि काशी के काजी और मुल्ला जब कबीर साहेब का नामांकन अर्थात नाम रखने गये तब कुरान में केवल कबीर कबीर शब्द के ही नाम प्रगट हो रहे थे/निकल रहे थे।
2.पूरे सकल कुरान में अक्षर और लिखे लेख में मात्र कबीर अल्लाह का ही जिक्र है। ऐसा काशी के काजी और मुल्ला का कहना था।
तहां सिंह ल्यौलीन होय,परचा इबकी बार।
गरीबदास,शाह सिकंदर यौं कहे,अल्लाह दिया दीदार।।
3.अनुवाद/सरलार्थ :-गरीबदास जी कहते हैं शाह सिकंदर को कबीर परमात्मा ने अपने सिंह रुप अल्लाह का दीदार कराया अर्थात सिंहरुप के परचे दिये।।
सुनो काशी के पण्डितो,काजी मुल्लां पीर।
गरीबदास,इस चरण ल्यौंह,अल्लाह अलेख कबीर।।
4.अनुवाद/सरलार्थ :-शाह सिकंदर काशी के पंडितो,काजी,मुल्लां और पीरो को कह रहे हैं कि इस कबीर अल्लाह का चरण और शरणागति लो।
ये कबीर अल्लाह है, उतरे काशी धाम।
गरीबदास,शाह सिकंदर यौं कहे,झगड मूये बे काम।।
5.अनुवाद/सरलार्थ :-अंत में शाह सिकंदर कहता है कि ये कबीर अल्लाह है जो काशीधाम में उतरे हैं/अवतरण हुआ है। हिन्दु मुस्लिम के लोग आपसे झगड़ा कर बेवजह मर रहे है।
4.ब्रह्मांड एक्किसों और चौबीसौं,
ये नाहिं सिद्धि थीरं।
चौदह/14 तबक इक्कीसौं ब्रह्मांड,
आवत जावत माया।
कबीर,सतगुरु सम कोई नहीं,सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक ना पाइये,और इक्कीस /21 ब्रह्मांड।।
गरीब, शब्द स्वरूप साहिब धनी, शब्द सिंध. सब मांहि।
बाहर भीतर रमि रह्या, जहाँ तहां सब ठांहि ।।
गरीब,अनंत कोटी ब्रह्मांड रचि,सब तजि रहै नियार।
जिंदा कहै धर्मदास सूँ ,जाका करो विचार।।
धर्मदास,सतपुरुष एक यहा छुपाये,जग दास कहाये।
गरीब,सेवक होय कर उतरे, इस पृथ्वी के माहि।
जीव उधारण जगतगुरु, बार बार बलि जाहि।।
कबीर,दास कहावन कठिन है,मैं दासन का दास ।
अब तो ऐसा होए रहुं, ज्यों पांव तले की घास ॥
गरीब,माया ममता हम रची,काल जाल सब जीव।
दास गरीब,प्राण पद,हम दासातन पीव।।
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भगवन नाम की महिमा अपार है : आचार्य सोमेश परसाई
नर्मदापुरम। श्री विद्या ललिताम्बा समिति के तत्वावधान में आयोजित श्री सवा करोड़ शिवलिंग निर्माण एवं संगीतमय रुद्राभिषेक में आज आचार्य सोमेश परसाई ने शिव भक्तों को संबोधित करते हुए कहा कि दान में गुप्त दान का सर्वाधिक महत्व है। यह सीधे परमात्मा को प्राप्त होता है। पुराने समय मे कहते थे कि जब एक हाथ से दान करें तो दूसरे हाथ को पता नहीं चलना चाहिए। आचार्य श्री ने बताया कि कुल 84 लाख योनियां होती हैं,…
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बटुकेश्वर दस महाविद्या मन्दिर !
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महाविद्या साधना करने से शक्ति, शांति, समृद्धि व संस्कार सब कुछ अति शीघ्र प्राप्त होता है । मां भगवती के चरणों में भेंट, प्रणामी, दान व दक्षिणा देने से तुरंत लाभ मिलता है !
दस महाविद्या के नाम और कैसे हुई उनकी उत्पत्ति
“ महाविद्या (10 Mahavidya Ke Naam)” आदि शक्ति माँ पार्वती के ही दस स्वरूप हैं। दस महाविद्या का तात्पर्य है महान विद्या वाली देवी। महाविद्या की पूजा नहीं बल्कि साधना की जाती है। ज्यादातर तांत्रिक साधकों द्वारा इन स्वरूप की साधना की जाती है। जिनसे प्रसन्न होकर माता कामना दायक फल प्रदान करती है। खासकर गुप्त नवरात्र के दिनों में माता की विशेष आराधना की जाती है।
एक साधारण व्यक्ति भी अपनी अटूट साधना द्वारा इन दस महाविद्याओं को प्रसन्न कर फल प्राप्त कर सकता है। दस महाविद्या (dasha mahavidya) की साधना के विषय में जानने से पहले यह जान लेते है कि इन दस महाविद्याओं (das mahavidya) की उत्पत्ति किस प्र��ार हुई है?
कैसे हुई दस महाविद्यायों (Das Mahavidya) की उत्पत्ति:
एक बार राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने यज्ञ में समस्त देवी देवताओं को निमंत्रण दिया। परन्तु माता सती और शिव जी को नहीं बुलाया। राजा दक्ष शिव जी को पसंद नहीं करते थे। सती को जब यज्ञ के विषय में ज्ञात हुआ तो उन्होंने शिव जी से यज्ञ में जाने का आग्रह किया। महादेव जी ने उनकी बात नहीं सुनी तो सती माता को क्रोध आ गया और उन्होंने भयानक रूप धारण कर लिया जिसे देखकर शिव जी डर गए और इधर उधर भागने लगे।
माता ने जब यह देख तो शिव जी जिस दिशा में जा रहे थे। वहां वह जाने लगी, इस तरह उनके शरीर से विग्रह प्रकट होकर शिव जी को रोकने लगे। शिव जी के दस दिशाओं में जाने से दस दिशाओं में माता के दस विग्रह रूप प्रकट हुए जो की,”दस महाविद्या (10 Mahavidya Ke Naam)” के नाम से जाने जाने लगी। इसके बाद शिव जी ने माता सती को यज्ञ में जाने की आज्ञा दे दी। परन्तु वहां पर माता सती का अपने पिता के साथ विवाद हो गया और माता ने उसी यज्ञ कुंड में अपनी आहुति दे दी।
(1) मां महाविद्या काली
(2) मां महाविद्या छिन्नमस्ता
(3) मां महाविद्या कमला
(4) मां महाविद्या भुवनेश्वरी
(5) मां महाविद्या त्रिपुर-सुन्दरी
(6) मां महाविद्या तारा
(7) मां महाविद्या मांतगी
(8) मां महाविद्या त्रिपुर-भैरवी
(9) मां महाविद्या बगलामुखी
(10)मां महाविद्या धूमावती
ऊं ऊं ऊं
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बटुकेश्वर दस महाविद्या मन्दिर !
बटुकेश्वर दस महाविद्या मन्दिर ! दस महाविद्या साधना करने से शक्ति, शांति, समृद्धि व संस्कार सब कुछ अति शीघ्र प्राप्त होता है । मां भगवती के चरणों में भेंट, प्रणामी, दान व दक्षिणा देने से तुरंत लाभ मिलता है ! दस महाविद्या के नाम और कैसे हुई उनकी उत्पत्ति “ महाविद्या (10 Mahavidya Ke Naam)” आदि शक्ति माँ पार्वती के ही दस स्वरूप हैं। दस महाविद्या का तात्पर्य है महान विद्या वाली देवी। महाविद्या की…
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जिनके पास धन है, उन्हें अपने धन का कुछ हिस्सा जरूरतमंदों के लिए खर्च करना चाहिए - भास्करराव अंबेकर
जालना: समाज में जिनके पास धन है, उन्हें जिनके पास कुछ नहीं है, उनके लिए अपने धन का कुछ भाग खर्च करना चाहिए, इससे समाज के विकास में निश्चित रूप से योगदान होगा. इससे समाज में दान की भावना बढ़ेगी. यही हमारी असली संस्कृति है. यह प्रतिपादन शिवसेना उबाठा जिला प्रमुख भास्कर अंबेकर ने किया. भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में शांतिनिकेतन विद्या मंदिर…
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#GodMorningSaturday
अनमोल मनुष्य जन्म से खिलवाड़
२५१ प्रतिदिन धोया जाता है, वह बगान है। संयम धाकी प्रति नहीं करावा, अपितु होता है। कत्य। तुम तो महेंद्ररा सक्षित कर्मस्पी पहुंचे भरे हुए मान्यते हो कि प्रक्षालनका है। सासनारूपी जलसे प्रसन करें।
प्रक्षालन करना उचित ही
कलेच्छारहित दान और शुभाशुभके उपभोगले थो पूर्वकृत अशुभ कर्म दूर होता है। इसी प्रकार इयाभावसे प्रेरित होकर जी कर्म किया जाता है. वह बन्धनकारक नहीं होता। फल-कायासे रहित कर्म थी बन्धनमें नहीं डालता। पूर्वजन्म किया हुआ मानवीका शुभाशुभ कर्म मुख दुःखमय भोगोंक रूपमें प्रतिदिन भोगनेवर ही शीण होता है। इस प्रकार विद्वान् पुरुष आत्माका प्रचालन करते और उसकी बन्नोंसे रक्षा करते हैं। ऐसा करनेसे यह विवेकार परूयी कीचड़में नहीं फैसता।
पितामह। बेदमें कर्माको अगिया कहा गया है, फिर कीं आपलोग मुझे उस मार्गमें लगाते हैं?
ही कहा गया है. इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है करनेके कारण पापोंसे दग्ध हो रहे हो। कर्म अविद्या होनेपर भी विधि ही होता है। इसके विपरीत वह विद्या भी फिर भी इतना तो निक्षित है कि उस विद्याको विधिका क्षही प्राहिने कर्म ही कारण है। विहिताकरणहै अतः वास। तुम विधिपूर्वक र करके जो अधम मनुष्य संगम करते है, यह स्त्री-संग्रह की ऐसा न हो कि इस लोकका
किन्तु में तुमाहित अक
“पवित्र हिन्दू शास्त्र VS हिन्दू"
कर्मकांड करना (पित्तर पूजा, श्राद्ध निकालना, भूत पूजा, मूर्ति पूजा) वेद विरूद्ध है। अज्ञानवश करते हैं।
प्रमाण:- मार्कण्डेय पुराण में “रौच्य ऋषि की उत्पत्ति कथा" अध्याय में है। श्राद्ध वेद विरूद्ध है। यह प्रमाण देखते हुए भी अज्ञानी गुरु शास्त्रविरुद्ध ��ूजा हिन्दू भाइयों से करवाकर उनकी दुर्गति कर रहे हैं।
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart67 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart68
"सर्व श्रेष्ठ तीर्थ"
प्रश्न 47:- सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कौन-सा है जिससे सर्व तीर्थों से अधिक लाभ मिलता है?
उत्तर :- सर्व श्रेष्ठ चित्तशुद्धि तीर्थ है।
चित्तशुद्धि तीर्थ अर्थात् तत्त्वदर्शी सन्त का सत्संग सर्व तीर्थों से श्रेष्ठ :- श्री देवी पुराण छठा स्कन्द अध्याय 10 पृष्ठ 417 पर लिखा है व्यास जी ने राजा जनमेजय से कहा राजन्! यह निश्चय है कि तीर्थ देह सम्बन्धी मैल को साफ कर देते हैं, किन्तु मन के मैल को धोने की शक्ति तीर्थों में नहीं है। चित्तशुद्धि तीर्थ गंगा आदि तीर्थों से भी अधिक पवित्र माना जाता है। यदि भाग्यवश चित्तशुद्धि तीर्थ सुलभ हो जाए तो अर्थात् तत्वदर्शी संतों का सत्संग रूपी तीर्थ प्राप्त हो जाए तो मानसिक मैल के धुल जाने में कोई संदेह नहीं। परन्तु राजन् ! इस चित्तशुद्धि तीर्थ को प्राप्त करने के लिए ज्ञानी पुरुषों अर्थात् तत्त्वदर्शी सन्तों के सत्संग की विशेष आवश्यकता है। वेद, शास्त्र, व्रत, तप, यज्ञ और दान से चित्तशुद्धि होना बहुत कठिन है। वशिष्ठ जी ब्रह्मा जी के पुत्र थे। उन्होंने वेद और विद्या का सम्यक प्रकार से अध्ययन किया था। गंगा के तट पर निवास करते थे। तथापि द्वेष के कारण उनका विश्वामित्र के साथ वैमनस्य हो गया और दोनों ने परस्पर श्राप दे दिए तथा उनमें भयंकर युद्ध होने लगा। इससे सिद्ध हुआ कि संतों के सत्संग से चित्तशुद्धि कर लेना अति आवश्यक है अन्यथा वेद ज्ञान, तप, व्रत, तीर्थ, दान तथा धर्म के जितने साधन है वे सबके सब कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकते (श्री देवी पुराण से लेख समाप्त)
* विशेष विचार :- उपरोक्त श्री देवी पुराण के लेख से स्पष्ट है कि तत्त्वदर्शी
सन्तों के सत्संग से श्रेष्ठ कोई भी तीर्थ नहीं है तथा तत्त्वदृष्टा सन्त के बताए मार्ग से साधना करने से कल्याण सम्भव है। तीर्थ, व्रत, तप, दान आदि व्यर्थ प्रयत्न है। तत्त्वदर्शी सन्त के अभाव के कारण केवल चार��ं वेदों में वर्णित भक्ति विधि से पूर्ण मोक्ष लाभ नहीं है।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है :-
सतगुरु बिन वेद पढ़ें जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी ।।
सतगुरु बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुष छिट्टै मूढ किसाना ।। अड़सठ तीर्थ भ्रम-भ्रम आवै सर्व फल सतगुरू चरणा पावै।।
कबीर तीर्थ करि-करि जग मुआ, उड़ै पानी नहाय।
सतनाम जपा नहीं, काल घसीटें जाय ।।
सूक्ष्मवेद (तत्त्वज्ञान) में कहा है कि :-
अड़सठ तीर्थ भ्रम-भ्रम आवै। सो फल सतगुरू चरणों पावै ।।
गंगा, यमुना, बद्री समेते। जगन्नाथ धाम है जेते ।।
भ्रमें फल प्राप्त होय न जेतो। गुरू सेवा में फल पावै तेतो ।। कोटिक तीर्थ सब कर आवै। गुरू चरणां फल तुरंत ही पावै ।।
सतगुरू मिलै तो अगम बतावै। जम की आंच ताहि नहीं आवै।।
भक्ति मुक्ति को पंथ बतावै। बुरा होन को पंथ छुड़ावै ।। सतगुरू भक्ति मुक्ति के दानी। सतगुरू बिना ना छूटै खानी ।।
सतगुरू गुरू सुर तरू सुर धेनु समाना। पावै चरणन मुक्ति प्रवाना ।।
सरलार्थ :- पूर्ण परमात्मा द्वारा दिए तत्त्वज्ञान यानि सूक्ष्मवेद में कहा है कि तीर्थों और धामों पर जाने से कोई पुण्य लाभ नहीं। असली तीर्थ सतगुरू (तत्त्वदर्शी संत) का सत्संग सुनने जाना है। जहाँ तत्त्वदर्शी संत का सत्संग होता है, वह सर्व श्रेष्ठ तीर्थ तथा धाम है।
इसी कथन का साक्षी संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत महापुराण भी है। उसमें छठे स्कंद के अध्याय 10 में लिखा है कि सर्व श्रेष्ठ तीर्थ तो चित शुद्ध तीर्थ है। जहाँ तत्वदर्शी संत का सत्संग चल रहा है। उसके अध्यात्म ज्ञान से चित की शुद्धि होती है। शास्त्रोक्त अध्यात्म ज्ञान तथा शास्त्रोक्त भक्ति विधि का ज्ञान होता है जिससे जीव का कल्याण होता है। अन्य तीर्थ मात्र भ्रम हैं।
इसी पुराण में लिखा है कि सतगुरू रूप तीर्थ मिलना अति दुर्लभ है।
सूक्ष्मवेद में बताया है कि सतगुरू तो कल्पवृक्ष तथा कामधेनू के समान है। जैसे पुराणों में कहा है कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष तथा कामधेनु हैं। उनसे जो भी माँगो, सब सुविधाएँ प्रदान कर देते हैं।
इसी प्रकार सतगुरू जी सत्य साधना बताकर सर्व लाभ साधक को प्रदान करवा देते हैं तथा अपने आशीर्वाद से भी अनेकों लाभ देते हैं। भक्ति करवाकर मुक्ति की राह आसान कर देते हैं। इसलिए कहा है :- कि एकै साधै सब सधै, सब साधैं सब जाय।
माली सींचे मूल को, फलै फूलै अघाय ।।
शब्दार्थ :- एक सतगुरू रूप तीर्थ पर जाने से सब लाभ मिल जाता है। सब तीर्थों-धामों व अन्य अंध श्रद्धा भक्ति से सब लाभ समाप्त हो जाते हैं। जैसे आम के पौधे की एक जड़ की सिंचाई करने से पौधा विकसित होकर पेड़ बनकर बहुत फल देता है।
��दि पौधे को उल्टा करके जमीन में गढ़ढ़े में शाखाओं की ओर से रोपकर शाखाओं की सिंचाई करेंगे तो पौधा नष्ट हो जाता है। कोई लाभ नहीं मिलता। इसलिए एक सतगुरू रूप तीर्थ पर जाने से सर्व लाभ मिल जाता है।
जैसा कि संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में लिखा है कि सतगुरू रूप तीर्थ मिलना अति दुर्लभ है, परंतु आप जी को सतगुरू रूप तीर्थ अति शुलभ है। यह दास (लेखक रामपाल दास) विश्व में एकमात्र सतगुरू तीर्थ यानि तत्वज्ञानी है। आओ और सत्य भक्ति प्राप्त करके जीवन सफल बनाओ।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart67 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart68
"सर्व श्रेष्ठ तीर्थ"
प्रश्न 47:- सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कौन-सा है जिससे सर्व तीर्थों से अधिक लाभ मिलता है?
उत्तर :- सर्व श्रेष्ठ चित्तशुद्धि तीर्थ है।
चित्तशुद्धि तीर्थ अर्थात् तत्त्वदर्शी सन्त का सत्संग सर्व तीर्थों से श्रेष्ठ :- श्री देवी पुराण छठा स्कन्द अध्याय 10 पृष्ठ 417 पर लिखा है व्यास जी ने राजा जनमेजय से कहा राजन्! यह निश्चय है कि तीर्थ देह सम्बन्धी मैल को साफ कर देते हैं, किन्तु मन के मैल को धोने की शक्ति तीर्थों में नहीं है। चित्तशुद्धि तीर्थ गंगा आदि तीर्थों से भी अधिक पवित्र माना जाता है। यदि भाग्यवश चित्तशुद्धि तीर्थ सुलभ हो जाए तो अर्थात् तत्वदर्शी संतों का सत्संग रूपी तीर्थ प्राप्त हो जाए तो मानसिक मैल के धुल जाने में कोई संदेह नहीं। परन्तु राजन् ! इस चित्तशुद्धि तीर्थ को प्राप्त करने के लिए ज्ञानी पुरुषों अर्थात् तत्त्वदर्शी सन्तों के सत्संग की विशेष आवश्यकता है। वेद, शास्त्र, व्रत, तप, यज्ञ और दान से चित्तशुद्धि होना बहुत कठिन है। वशिष्ठ जी ब्रह्मा जी के पुत्र थे। उन्होंने वेद और विद्या का सम्यक प्रकार से अध्ययन किया था। गंगा के तट पर निवास करते थे। तथापि द्वेष के कारण उनका विश्वामित्र के साथ वैमनस्य हो गया और दोनों ने परस्पर श्राप दे दिए तथा उनमें भयंकर युद्ध होने लगा। इससे सिद्ध हुआ कि संतों के सत्संग से चित्तशुद्धि कर लेना अति आवश्यक है अन्यथा वेद ज्ञान, तप, व्रत, तीर्थ, दान तथा धर्म के जितने साधन है वे सबके सब कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं कर सकते (श्री देवी पुराण से लेख समाप्त)
* विशेष विचार :- उपरोक्त श्री देवी पुराण के लेख से स्पष्ट है कि तत्त्वदर्शी
सन्तों के सत्संग से श्रेष्ठ कोई भी तीर्थ नहीं है तथा तत्त्वदृष्टा सन्त के बताए मार्ग से साधना करने से कल्याण सम्भव है। तीर्थ, व्रत, तप, दान आदि व्यर्थ प्रयत्न है। तत्त्वदर्शी सन्त के अभाव के कारण केवल चारों वेदों में वर्णित भक्ति विधि से पूर्ण मोक्ष लाभ नहीं है।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है :-
सतगुरु बिन वेद पढ़ें जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी ।।
सतगुरु बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुष छिट्टै मूढ किसाना ।। अड़सठ तीर्थ भ्रम-भ्रम आवै सर्व फल सतगुरू चरणा पावै।।
कबीर तीर्थ करि-करि जग मुआ, उड़ै पानी नहाय।
सतनाम जपा नहीं, काल घसीटें जाय ।।
सूक्ष्मवेद (तत्त्वज्ञान) में कहा है कि :-
अड़सठ तीर्थ भ्रम-भ्रम आवै। सो फल सतगुरू चरणों पावै ।।
गंगा, यमुना, बद्री समेते। जगन्नाथ धाम है जेते ।।
भ्रमें फल प्राप्त होय न जेतो। गुरू सेवा में फल पावै तेतो ।। कोटिक तीर्थ सब कर आवै। गुरू चरणां फल तुरंत ही पावै ।।
सतगुरू मिलै तो अगम बतावै। जम की आंच ताहि नहीं आवै।।
भक्ति मुक्ति को पंथ बतावै। बुरा होन को पंथ छुड़ावै ।। सतगुरू भक्ति मुक्ति के दानी। सतगुरू बिना ना छूटै खानी ।।
सतगुरू गुरू सुर तरू सुर धेनु समाना। पावै चरणन मुक्ति प्रवाना ।।
सरलार्थ :- पूर्ण परमात्मा द्वारा दिए तत्त्वज्ञान यानि सूक्ष्मवेद में कहा है कि तीर्थों और धामों पर जाने से कोई पुण्य लाभ नहीं। असली तीर्थ सतगुरू (तत्त्वदर्शी संत) का सत्संग सुनने जाना है। जहाँ तत्त्वदर्शी संत का सत्संग होता है, वह सर्व श्रेष्ठ तीर्थ तथा धाम है।
इसी कथन का साक्षी संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत महापुराण भी है। उसमें छठे स्कंद के अध्याय 10 में लिखा है कि सर्व श्रेष्ठ तीर्थ तो चित शुद्ध तीर्थ है। जहाँ तत्वदर्शी संत का सत्संग चल रहा है। उसके अध्यात्म ज्ञान से चित की शुद्धि होती है। शास्त्रोक्त अध्यात्म ज्ञान तथा शास्त्रोक्त भक्ति विधि का ज्ञान होता है जिससे जीव का कल्याण होता है। अन्य तीर्थ मात्र भ्रम हैं।
इसी पुराण में लिखा है कि सतगुरू रूप तीर्थ मिलना अति दुर्लभ है।
सूक्ष्मवेद में बताया है कि सतगुरू तो कल्पवृक्ष तथा कामधेनू के समान है। जैसे पुराणों में कहा है कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष तथा कामधेनु हैं। उनसे जो भी माँगो, सब सुविधाएँ प्रदान कर देते हैं।
इसी प्रकार सतगुरू जी सत्य साधना बताकर सर्व लाभ साधक को प्रदान करवा देते हैं तथा अपने आशीर्वाद से भी अनेकों लाभ देते हैं। भक्ति करवाकर मुक्ति की राह आसान कर देते हैं। इसलिए कहा है :- कि एकै साधै सब सधै, सब साधैं सब जाय।
माली सींचे मूल को, फलै फूलै अघाय ।।
शब्दार्थ :- एक सतगुरू रूप तीर्थ पर जाने से सब लाभ मिल जाता है। सब तीर्थों-धामों व अन्य अंध श्रद्धा भक्ति से सब लाभ समाप्त हो जाते हैं। जैसे आम के पौधे की एक जड़ की सिंचाई करने से पौधा विकसित होकर पेड़ बनकर बहुत फल देता है।
यदि पौधे को उल्टा करके जमीन में गढ़ढ़े में शाखाओं की ओर से रोपकर शाखाओं की सिंचाई करेंगे तो पौधा नष्ट हो जाता है। कोई लाभ नहीं मिलता। इसलिए एक सतगुरू रूप तीर्थ पर जाने से सर्व लाभ मिल जाता है।
जैसा कि संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत महापुराण में लिखा है कि सतगुरू रूप तीर्थ मिलना अति दुर्लभ है, परंतु आप जी को सतगुरू रूप तीर्थ अति शुलभ है। यह दास (लेखक रामपाल दास) विश्व में एकमात्र सतगुरू तीर्थ यानि तत्वज्ञानी है। आओ और सत्य भक्ति प्राप्त करके जीवन सफल बनाओ।
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श्री नरसिंह चालीसा हिंदी अर्थ सहित | Shree Narsingh Chalisa with meaning in Hindi
श्री नरसिंह चालीसा विडियो श्री नरसिंह चालीसा (Narsingh Chalisa) ॥ दोहा ॥ मास वैशाख कृतिका युत, हरण मही को भार। शुक्ल चतुर���दशी सोम दिन, लियो नरसिंह अवतार॥ धन्य तुम्हारो सिंह तनु, धन्य तुम्हारो नाम। तुमरे सुमरन से प्रभु, पूरन हो सब काम॥ ॥ चौपाई ॥ नरसिंह देव में सुमरों तोहि, धन बल विद्या दान दे मोहि। जय जय नरसिंह कृपाला, करो सदा भक्तन प्रतिपाला। विष्णु के अवतार दयाला, महाकाल कालन को काला। नाम अनेक…
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart66 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणpart67
"तीर्थ स्थापना के प्रमाण"
1. शुक्र तीर्थ कैसे बना? श्री ब्रह्मा पुराण लेखक कृष्णद्वेपायन अर्थात व्या�� जी प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर पृष्ठ 167-168 पर भृगु ऋषि का पुत्र कवि अर्थात शुक्र ने गौतमी नदी के उत्तर तट पर जहाँ भगवान महेश्वर की आराधना करके विद्या पायी थी, वह स्थान शुक्र तीर्थ कहलाता है।
2. सरस्वती संगम तीर्थ तथा पुरूरव तीर्थ श्री ब्रह्मा पुराण पृष्ठ 172-173 पर :- एक दिन राजा पुरूरवा, ब्रह्मा जी की सभा में गये, वहाँ ब्रह्मा जी की पुत्री सरस्वती को देखकर उससे मिलने की इच्छा प्रकट की। सरस्वती ने हाँ कर दी। सरस्वती नदी के तट पर सरस्वती तथा पुरूरवा ने अनेक वर्षों तक संभोग (सैक्स) किया। एक दिन ब्रह्मा ने उनको विलास करते देख लिया। अपनी बेटी को शाप दे दिया। वह नदी रूप में समा गई। जहाँ पर पुरूरवा तथा सरस्वती ने संभोग किया था। वह पवित्र तीर्थ सरस्वती संगम नाम से विख्यात हुआ। जहाँ पर पुरूरवा ने महादेव की भक्ति की वह स्थान पुरूरवा तीर्थ नाम से विख्यात हुआ।
3. वृद्धा संगम तीर्थ श्री ब्रह्मा पुराण पृष्ठ 173 से 175: एक गौतम ऋषि थे। उनका एक हजार वर्ष की आयु तक विवाह नहीं हुआ। वह वेद ज्ञान भी नहीं पढ़ा था केवल गायत्री मंत्र याद था। उसी का जाप करता था। एक दिन वह एक पर्वत पर एक गुफा में गया। वहाँ पर नब्बे हजार वर्ष की आयु की एक वृद्धा स्त्री मिली। दोनों ने विवाह किया। एक दिन वशिष्ठ ऋषि तथा वाम देव ऋषि वहाँ गुफा में अन्य ऋषियों के साथ आए। उन्होंने गौतम ऋषि का उपहास किया कहा हे गौतम जी ! यह वृद्धा आप की माँ है या दादी माँ? उनके जाने के पश्चात् दोनों बहुत दुःखी हुए। अगस्त ऋषि की राय से गोदावरी नदी के गौतमी तट पर गये और कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने भगवान शंकर और विष्णु का स्तवन किया तथा पत्नी के लिए गंगा जी को भी खुश किया। गंगा ने उनके तप से प्रसन्न होकर कहा- ब्राह्मण आप मन्त्र पढ़ते हुए मेरे जल से अपनी पत्नी का अभिषेक करो। इससे वह रूपवती हो जाएगी। गंगा जी के आदेश से दोनों ने एक-दूसरे के लिए ऐसा ही किया। दोनों पति-पत्नी सुन्दर रूप वाले हो गये। वह जल जो मन्त्रों का था। उससे वृद्धा नाम नदी बह चली। उसी स्थान पर गौतम ऋषि ने उस वृद्धा के साथ जो युवती हो गई थी। मन भरकर संभोग किया। तब से उस स्थान का नाम "वृद्धा संगम" तीर्थ हो गया। वहीं पर गौतम ऋषि ने साधनार्थ एक शिवलिंग स्थापित किया था। वह भी वृद्धा के नाम पर वृद्धेश्वर कहलाया। इस वृद्धा संगम तीर्थ की कथा सब पापों का नाश करने वाली है। वहाँ किया हुआ स्नान-दान सब मनोरथों को सिद्ध करने वाला है।
4. अश्वतीर्थ अर्थात् भानु तीर्थ तथा पंचवटी आश्रम की स्थापना :- श्री ��्रह्मा पुराण पृष्ठ 162-163 तथा श्री ��ार्कण्डेय पुराण पृष्ठ 173 से 175 पर लिखा है :- "महर्षि कश्यप के ज्येष्ठ पुत्र आदित्य (सूर्य) है, उनकी पत्नी का नाम उषा है (मार्कण्डेय पुराण में सूर्य की पत्नी का नाम संज्ञा लिखा है जो महर्षि विश्वकर्मा की बेटी है) सूर्य की पत्नी अपने पति सूर्य के तेज को सहन न कर सकने के कारण दुःखी रहती थी। एक दिन अपनी सिद्धि शक्ति से अन्य स्त्री अपनी ही स्वरूप की उत्पन्न की उसे कहा आप मेरे पति की पत्नी बन कर रहो तेरी तथा मेरी शक्ल समान है। आप यह भेद मेरी सन्तान तथा पति को भी नहीं बताना यह कह कर संज्ञा (उषा) तप करने के उद्देश्य से उत्तर कुरूक्षेत्र में चली गई वहाँ घोड़ी का रूप धारण करके तपस्या करने लगी। भेद खुलने पर सूर्य भी घोड़े का रूप धारण करके वहाँ गया जहाँ संज्ञा (उषा) घोड़ी रूप में तपस्या कर रही थी। घोड़े रूप में सूर्य ने घोड़ी रूप धारी संज्ञा से संभोग करना चाहा। उषा (संज्ञा) घोड़ी रूप में वहाँ से भाग कर गौतमी नदी के तट पर आई घोड़ा रूप धारी सूर्य ने भी पीछा किया। वहाँ आकर घोड़ी रूप में अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा के लिए घोड़ा रूप धारी पति को न पहचान कर उस की ओर अपना पृष्ठ भाग न करके मुख की ओर से ही सामना किया। दोनों की नासिका मिली। सूर्य वासना के वेग को रोक नहीं सके तथा घोड़ी रूप धारी उषा (संज्ञा) के मुख ओर ही संभोग करने के उद्देश्य से प्रयत्न किया। नासिका द्वारा वीर्य प्रवेश से घोड़ी रूप धारी उषा के मुख से दो पुत्र अश्वनी कुमार (नासत्य तथा दस्र) उत्पन्न हुए तथा शेष वीर्य जमीन पर गिरने से रेवन्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह स्थान अश्व तीर्थ भानु तीर्थ तथा पंचवटी आश्रम नाम से विख्यात हुआ। उसी स्थान पर सूर्य की बेटियों का अरूणा तथा वरूणा नामक नदियों के रूप में समागम हुआ। उसमें भिन्न-2 देवताओं और तीर्थों का पृथक-पृथक समागम हुआ है। उक्त संगम में सताईस हजार तीर्थों का समुदाय है। वहाँ किया हुआ स्नान व दान अक्षय पुण्य देने वाला है। नारद ! उस तीर्थ के स्मरण से कीर्तन और श्रवण से भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो धर्मवान् और सुखी होता है।
5. जन स्थान तीर्थ की स्थापना: श्री ब्रह्म पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) पृष्ठ 161-162 पर :- ऋषि याज्ञवल्क्य से राजा जनक ने पूछा कि हे द्विजश्रेष्ठ ! बड़े-2 मुनियों ने निर्णय किया है कि भोग और मोक्ष दोनों श्रेष्ठ हैं। आप बताएँ! भोग से भी मुक्ति प्राप्त कैसे होती है? ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने कहा इस प्रश्न का उत्तर आप श्वशुर वरूण जी ठीक 2 बता सकते हैं। चलो उनसे पूछते हैं। दोनों भगवान वरूण के पास गए तथा वरूण ने बताया कि "वेद में यह मार्ग निश्चित किया है कि कर्म न करने की उपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ कर्म से बंधे हुए हैं। नृप श्रेष्ठ ! कर्म द्वारा सब प्रकार से साध्यों की सिद्धी होती है, इसलिए मनुष्यों को सब तरह से वैदिक कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए। इससे वे इस लोक में भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त करते हैं। अकर्म से कर्म पवित्र है। इसके पश्चात् राजा जनक ने ऋषि याज्ञवल्क्य को पुरोहित बनाकर गंगा के तट पर अनेकों यज्ञ किए। इसलिए उस स्थान का नाम "जन स्थान" तीर्थ के नाम से विख्यात हुआ। उस तीर्थ का चिन्तन करने, वहाँ जाने और भक्ति पूर्वक उसका सेवन (पूजन) करने से मनुष्य सब अभिलाषित वस्तुओं को पाता है और मोक्ष का भोगी होता है।
उपरोक्त पुराणों के लेखों का निष्कर्ष :-
प्रमाण संख्या 1 में कहा है कि भृगु ऋषि के पुत्र शुक्र ने गौतमी नदी के उत्तर तट पर साधना की थी जिस कारण से वह स्थान शुक्र तीर्थ नाम से विख्यात हुआ।
यदि कोई उस शुक्र तीर्थ में केवल स्नान व वहाँ पर बैठे कामचोर व्यक्तियों को दान करने से ही मोक्ष मानता है वह ज्ञानहीन व्यक्ति है। परमात्मा की साधना जैसे शुक्राचार्य ने की थी। वैसी ही साधना किसी भी स्थान पर कोई साधक करेगा तो शुक्राचार्य को जो लाभ हुआ था वह प्राप्त होगा।
यही स्थिति प्रमाण संख्या 5 की समझें की गंगा के तट पर जिस स्थान पर राजा जनक ने अनेकों अश्वमेघ यज्ञ किए। एक अश्वमेघ यज्ञ में करोंड़ों रूपये (वर्तमान में अरबों रूपये) खर्च हुए थे।
तब राजा जनक को स्वर्ग प्राप्ति हुई थी। यदि कोई अज्ञानी कहे कि उस जन स्थान तीर्थ पर जाने व स्नान करने तथा वहाँ उपस्थित ऐबी (शराब, तम्बाकू व मांस सेवन करने वाले) व्यक्तियों कों दान करने से राजा जनक वाला लाभ मिलेगा। क्या यह बात न्याय संगत है? इतना कुछ करने के पश्चात् भी राजा जनक मुक्त नहीं हो सका। वही आत्मा कलयुग में सन्त नानक जी के रूप में श्री कालु राम महता के घर जन्मा। फिर पूर्ण परमात्मा की भक्ति पूर्ण गुरु कबीर परमेश्वर से नाम प्राप्त करके की तब मोक्ष प्राप्त हुआ।
प्रमाण संख्या 2 में ब्रह्मा की बेटी सरस्वती ने पूरूरवा नामक राजा के साथ अपने पिता से छुपकर सैक्स (संभोग) किया। जब पिता जी ने उन्हें ऐसा करते देखा तो श्राप दे दिया। वह स्थान जहाँ पर सरस्वती ने तथा राजा पुरूरवा ने दुराचार किया उस स्थान का नाम सरस्वती संगत तीर्थ विख्यात हुआ।
* विचार करें: क्या ऐसे स्थान पर जाने व स्नान करने से कोई लाभ हो सकता है?
प्रमाण संख्या 3 में कहा है कि एक गौतम नामक ऋषि ने एक हजार वर्ष की आयु में नब्बे हजार वर्ष की आयु की वृद्धा से विवाह किया।
अपने को युवा बनाने के उद्देश्य से दोनों ने गोदावरी नदी के गौतमी तट पर कठोर तप किया। पश्चात् मन्त्रों से जल मन्त्रित करके एक-दूसरे पर डाला। दोनों युवा हो गये। तत्पश्चात् उस स्थान पर दोनों ने मन भर कर संभोग अर्थात् विलास (सेक्स) किया। वह स्थान वृद्धा संगम तीर्थ कहलाया। विचार करने योग्य बात है कि ऐसे स्थानों पर जाने से आत्म कल्याण के स्थान पर पतन ही होगा। आत्म उद्वार नहीं।
अपने को युवा बनाने के उद्देश्य से दोनों ने गोदावरी नदी के गौतमी तट पर कठोर तप किया। पश्चात् मन्त्रों से जल मन्त्रित करके एक-दूसरे पर डाला। दोनों युवा हो गये। तत्पश्चात् उस स्थान पर दोनों ने मन भर कर संभोग अर्थात् विलास (सेक्स) किया। वह स्थान वृद्धा संगम तीर्थ कहलाया।
विचार करने योग्य बात है कि ऐसे स्थानों पर जाने से आत्म कल्याण के स्थान पर पतन ही होगा। आत्म उद्वार नहीं।
��्रमाण संख्या 4 में कहा है कि सूर्य की पत्नी घोड़ी का रूप धारण करके तपस्या कर रही थी। सूर्य काम वासना (सेक्स प्रेसर) के वश होकर घोड़ा रूप धारण करके घोड़ी रूप धारी अपनी पत्नी के पास गया। घोड़ी ने उसे अपने पृष्ठ भाग (पीछे) की ओर नहीं जाने दिया। सूर्य इतना सैक्स प्रेसर (काम वासना के दबाव) में था कि उसने घोड़ी के मुख की ओर ही संभोग क्रिया प्रारम्भ की जिस कारण से उन्हें तीन पुत्र प्राप्त हुए। वह स्थान अश्व तीर्थ नाम से विख्यात हुआ।
वहीं पर सूर्य की दो बेटियाँ जाकर नदी बन कर बहने लगी। जिस कारण से वही स्थान पंचवटी आश्रम नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। उसी स्थान को भानू तीर्थ भी कहा जाता है। इस तीर्थ का लाभ लिखा है कि इसके स्मरण से तथा कीर्तन करने से तथा इसकी कथा श्रवण करने से सब पापों से मुक्त होकर धर्मवान और सुखी होता है।
विचार करो पुण्यात्माओं! क्या ऐसी कथाओं को सुनने तथा ऐसे स्थान पर जाने से आत्म कल्याण सम्भव है? इसलिए शास्त्रों (पाचों वेदों, गीता जी) के अनुसार भक्ति करने से सर्व पापों से मुक्त होकर पूर्ण मोक्ष सम्भव है।
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*📯बन्दीछोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय📯*
31/07/24
*Team 3:-हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर*
*🔸X Trending सेवा🔸*
🌸 *मालिक की दया से काफ़िर किसको कहते हैं, इससे संबंधित X {Twitter } पर सेवा करेंगे जी।*
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✓ https://www.satsaheb.org/kafir-hindi/
✓ https://www.satsaheb.org/english-kafir/
*🎯Sewa Points🎯* ⤵️
🔹काफ़िर किसको कहें?
काफ़िर का अर्थ है ‘‘दुष्ट इंसान‘‘। मुसलमान कहते हैं कि हिन्दू काफ़िर हैं क्योंकि ये देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। मंदिर में मूर्ति रखकर पूजा करते हैं। सूअर का माँस खाते हैं। हिन्दू कहते हैं कि मुसलमान काफ़िर हैं क्योंकि ये माँस खाते हैं, गाय को मारते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने बताया कि काफ़िर कोई समुदाय नहीं होता। काफ़िर वह है जो गलत काम करता है।
पूरी जानकारी के लिए देखें काफिर का अंग (सम्पूर्ण) Satlok Ashram यूट्यूब चैनल पर।
🔹जानिए काफ़िर किसको कहें?
संत गरीबदास जी ने निर्णय करते हुए बताया है कि
काफिर तीरथ व्रत उठावैं, सत्यवादी जन नाम लौ लावैं।।
काफिर सो जो विद्या चुरावैं, काफिर भैरव भूत पूजावै।।
पूजें देई धाम कूं, शीश हलावै जोय।
गरीबदास साची कहैं, हदि काफिर है सोय।।
काफिर आंन देवकुं मानें, काफिर गुड़कुं दूधैं सानें।।
🔹 काफ़िर किसको कहें?
जिनको माया जोड़ने का सब्र ही नहीं। पूरा समय माया जोड़ने में ही लगे रहते हैं वे काफ़िर ही हैं।
🔹काफ़िर कौन?
संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर साहेब जी से प्राप्त ज्ञान के आधार पर बताया है:
कबीर, गला काट बिसमल करें, वे काफिर बे बूझं।
ओरा काफिर बताबही, अपना कुफुर ना सूझं।।
�� काफ़िर किसको कहें?
गरीब हिन्दु हदीरे (यादगार) पूजहीं, मुसलिम पूजें घोर (कब्र)।
कह कबीर दोनों दीन की, अकल को ले गए हैं चोर।।
परमात्��ा कबीर जी ने कहा है कि हिन्दू तो एक यादगार मन्दिर में मूर्ति पूजा करते हैं। मुसलमान घोर यानि कब्रों को तथा मदीना में पत्थर को सिजदा करते हैं। दोनों धर्म के व्यक्तियों की बुद्धि चोरों ने छीन रखी है। स्वयं वही गलती करते हैं। एक-दूसरे को काफ़िर बताते हैं।
🔹कौन है काफ़िर?
वै काफ़िर जो अंडा फोरैं, काफ़िर सूर गऊ कूं तोरें।।
वै काफ़िर जो मिरगा मारैं, काफ़िर उदर क्रदसे पारौं।।
अर्थात जो अंडे, मोर, हिरण को खाते हैं या अन्य किसी भी तरह के जीव का मांस खाते हैं ये सभी काफ़िर हैं।
🔹काफ़िर किसको कहें?
जो लोगों को गलत ज्ञान देकर गुमराह करते हैं यानी नकली धर्मगुरु जो धर्मशास्त्रों की आड़ में गलत ज्ञान प्रचार करते हैं ये सभी काफ़िर हैं चाहे किसी भी धर्म के लोग हों।
🔹 काफ़िर किसको कहें?
जो शराब पीते हैं वे सभी काफ़िर हैं चाहे किसी भी धर्म के लोग हों।
🔹 काफ़िर किसको कहें?
काफ़िर उसको जानो जो माता को गाली देता है, चोरी करता है, जारी (व्यभिचार) करता है। माँस खाता है, दान-धर्म नहीं करता। शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करता है।
🔹काफ़िर किसको कहें?
संत गरीबदास जी ने बताया कि सुनो मैं बताता हूँ काफ़िर किसे कहते हैं:
काफिर सो माता दें गारी, वै काफिर जो खेलें सारी।।
काफिर दान यज्ञ नहीं करहीं, काफिर साधु संत सैं अरहीं।।
🔹काफ़िर किसको कहें?
काफ़िर उसको जानो जो माता को गाली देता है, चोरी करता है, जारी (व्यभिचार) करता है। माँस खाता है, दान-धर्म नहीं करता। शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करता है।
पूरी जानकारी के लिए देखें Sant Rampal Ji Maharaj यूट्यूब चैनल।
🔹काफ़िर किसे कहते हैं?
संत गरीबदास जी ने बताया कि
काफ़िर तोरै बनज ब्योहारं, काफ़िर सो जो चोरी यांर।।
अर्थात जो ब्याज लेते हैं, किसी की मजबूरी का फायदा उठाते हैं, चोरी करते हैं, इस प्रकार के कर्म करने वाले किसी भी धर्म में हों वे सभी काफ़िर ही हैं।
पूरी जानकारी के लिए देखें "काफ़िर का अंग (सम्पूर्ण)" Satlok Ashram यूट्यूब चैनल पर।
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बटुकेश्वर दस महाविद्या मन्दिर ! दस महाविद्या साधना करने से शक्ति, शांति, समृद्धि व संस्कार सब कुछ अति शीघ्र प्राप्त होता है । मां भगवती के चरणों में भेंट, प्रणामी, दान व दक्षिणा देने से तुरंत लाभ मिलता है !
दस महाविद्या के नाम और कैसे हुई उनकी उत्पत्ति “ महाविद्या (10 Mahavidya Ke Naam)” आदि शक्ति माँ पार्वती के ही दस स्वरूप हैं। दस महाविद्या का तात्पर्य है महान विद्या वाली देवी। महाविद्या की पूजा नहीं बल्कि साधना की जाती है। ज्यादातर तांत्रिक साधकों द्वारा इन स्वरूप की साधना की जाती है। जिनसे प्रसन्न होकर माता कामना दायक फल प्रदान करती है। खासकर गुप्त नवरात्र के दिनों में माता की विशेष आराधना की…
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तृतीय बड़ा मंगलवार | हेल्प यू संजीवनी हनुमान भजन संध्या | अलीगंज श्री महावीर जी हनुमान मंदिर, लखनऊ
लखनऊ, 23.05.2023 | बड़ा मंगल (जेष्ठ माह के तीसरे मंगलवार) के पावन अवसर पर हेल्प यू एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा अलीगंज श्री महावीर जी हनुमान मंदिर, लखनऊ में "हेल्प यू संजीवनी हनुमान भजन संध्या" का आयोजन किया गया | भजन संध्या में प्रदीप अली एवं आकांक्षा सिंह ने कर्णप्रिय भगवत भजन द्वारा भक्तजनों के ह्रदय को आस्था एवं भक्ति से सराबोर कर दिया |
श्री हर्ष वर्धन अग्रवाल, प्रबंध न्यासी, हेल्प यू एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट ने सभी को बड़ा मंगल की शुभकामनाएं देते हुए कहा कि, आज हेल्प यू एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा महावीर हनुमान की कृपा से हेल्प यू संजीवनी हनुमान भजन संध्या का आयोजन किया जा रहा है | महावीर हनुमान निश्चय ही बल बुद्धि और विद्या के दाता है तथा भक्तों के सारे कष्ट हर लेते हैं | इसीलिए कहा जाता है 'बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार' | भजन संध्या के माध्यम से हम आप सभी से जनहित में रक्तदान करने की अपील करते हैं क्योंकि वस्तुओं का दान देकर हम कुछ समय के लिए किसी की मदद कर सकते हैं लेकिन रक्तदान द्वारा हम किसी की जिंदगी बचा सकते हैं | तो आगे आइए और हमारे इस नेक कार्य में हमारा साथ दीजिए |"
भजन संध्या की शुरुआत आकांक्षा सिंह ने गणपति वंदना गाकर की | इसके बाद प्रदीप अली एवं आकांक्षा सिंह ने तेरे मन में राम | आज मोहे रघुवर की सुध आई | मैं तो कब से तेरी सरन| तुम बिन मोरी कौन खबर ले | राणा जी मैं गोविंद गुण गाना | पायो जी मैंने राम रतन धन पायो | श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम| छोटो सो मेरो मदन गोपाल | श्याम चूड़ी बेचने आया भजन गाकर भक्तजनों को मंत्रमुग्ध कर दिया | तबला पर नितीश कुमार, गिटार पर गोपाल गोस्वामी तथा ��ीबोर्ड पर रिंकू राज ने साथ दिया |
भजन संध्या में उपस्थित सभी श्रद्धालुओं को रक्तदान जागरूकता पैम्फलेट बांटे गए, जिसके तहत लोगों से स्वेच्छा से रक्तदान करने की अपील की गई और ट्रस्ट द्वारा चलाए जा रहे "हेल्प यू ब्लड डोनर" अभियान को सफल बनाने में अपना अहम योगदान देने को कहा गया |
भजन संध्या में हेल्प यू एजुकेशनल एंड चैरिटेबल ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी श्री हर्ष वर्धन अग्रवाल, बड़ी संख्या में हनुमान भक्तों, ट्रस्ट के सलाहकार तथा स्वयंसेवकों की गरिमामयी उपस्थिति रही |
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"तीर्थ स्थापना के प्रमाण"
1. शुक्र तीर्थ कैसे बना? श्री ब्रह्मा पुराण लेखक कृष्णद्वेपायन अर्थात व्यास जी प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर पृष्ठ 167-168 पर भृगु ऋषि का पुत्र कवि अर्थात शुक्र ने गौतमी नदी के उत्तर तट पर जहाँ भगवान महेश्वर की आराधना करके विद्या पायी थी, वह स्थान शुक्र तीर्थ कहलाता है।
2. सरस्वती संगम तीर्थ तथा पुरूरव तीर्थ श्री ब्रह्मा पुराण पृष्ठ 172-173 पर :- एक दिन राजा पुरूरवा, ब्रह्मा जी की सभा में गये, वहाँ ब्रह्मा जी की पुत्री सरस्वती को देखकर उससे मिलने की इच्छा प्रकट की। सरस्वती ने हाँ कर दी। सरस्वती नदी के तट पर सरस्वती तथा पुरूरवा ने अनेक वर्षों तक संभोग (सैक्स) किया। एक दिन ब्रह्मा ने उनको विलास करते देख लिया। अपनी बेटी को शाप दे दिया। वह नदी रूप में समा गई। जहाँ पर पुरूरवा तथा सरस्वती ने संभोग किया था। वह पवित्र तीर्थ सरस्वती संगम नाम से विख्यात हुआ। जहाँ पर पुरूरवा ने महादेव की भक्ति की वह स्थान पुरूरवा तीर्थ नाम से विख्यात हुआ।
3. वृद्धा संगम तीर्थ श्री ब्रह्मा पुराण पृष्ठ 173 से 175: एक गौतम ऋषि थे। उनका एक हजार वर्ष की आयु तक विवाह नहीं हुआ। वह वेद ज्ञान भी नहीं पढ़ा था केवल गायत्री मंत्र याद था। उसी का जाप करता था। एक दिन वह एक पर्वत पर एक गुफा में गया। वहाँ पर नब्बे हजार वर्ष की आयु की एक वृद्धा स्त्री मिली। दोनों ने विवाह किया। एक दिन वशिष्ठ ऋषि तथा वाम देव ऋषि वहाँ गुफा में अन्य ऋषियों के साथ आए। उन्होंने गौतम ऋषि का उपहास किया कहा हे गौतम जी ! यह वृद्धा आप की माँ है या दादी माँ? उनके जाने के पश्चात् दोनों बहुत दुःखी हुए। अगस्त ऋषि की राय से गोदावरी नदी के गौतमी तट पर गये और कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने भगवान शंकर और विष्णु का स्तवन किया तथा पत्नी के लिए गंगा जी को भी खुश किया। गंगा ने उनके तप से प्रसन्न होकर कहा- ब्राह्मण आप मन्त्र पढ़ते हुए मेरे जल से अपनी पत्नी का अभिषेक करो। इससे वह रूपवती हो जाएगी। गंगा जी के आदेश से दोनों ने एक-दूसरे के लिए ऐसा ही किया। दोनों पति-पत्नी सुन्दर रूप वाले हो गये। वह जल जो मन्त्रों का था। उससे वृद्धा नाम नदी बह चली। उसी स्थान पर गौतम ऋषि ने उस वृद्धा के साथ जो युवती हो गई थी। मन भरकर संभोग किया। तब से उस स्थान का नाम "वृद्धा संगम" तीर्थ हो गया। वहीं पर गौतम ऋषि ने साधनार्थ एक शिवलिंग स्थापित किया था। वह भी वृद्धा के नाम पर वृद्धेश्वर कहलाया। इस वृद्धा संगम तीर्थ की कथा सब पापों का नाश करने वाली है। वहाँ किया हुआ स्नान-दान सब मनोरथों को सिद्ध करने वाला है।
4. अश्वतीर्थ अर्थात् भानु तीर्थ तथा पंचवटी आश्रम की स्थापना :- श्री ब्रह्मा पुराण पृष्ठ 162-163 तथा श्री मार्कण्डेय पुराण पृष्ठ 173 से 175 पर लिखा है :- "महर्षि कश्यप के ज्येष्ठ पुत्र आदित्य (सूर्य) है, उनकी पत्नी का नाम उषा है (मार्कण्डेय पुराण में सूर्य की पत्नी का नाम संज्ञा लिखा है जो महर्षि विश्वकर्मा की बेटी है) सूर्य की पत्नी अपने पति सूर्य के तेज को सहन न कर सकने के कारण दुःखी रहती थी। एक दिन अपनी सिद्धि शक्ति से अन्य स्त्री अपनी ही स्वरूप की उत्पन्न की उसे कहा आप मेरे पति की पत्नी बन कर रहो तेरी तथा मेरी शक्ल समान है। आप यह भेद मेरी सन्तान तथा पति को भी नहीं बताना यह कह कर संज्ञा (उषा) तप करने के उद्देश्य से उत्तर कुरूक्षेत्र में चली गई वहाँ घोड़ी का रूप धारण करके तपस्या करने लगी। भेद खुलने पर सूर्य भी घोड़े का रूप धारण करके वहाँ गया जहाँ संज्ञा (उषा) घोड़ी रूप में तपस्या कर रही थी। घोड़े रूप में सूर्य ने घोड़ी रूप धारी संज्ञा से संभोग करना चाहा। उषा (संज्ञा) घोड़ी रूप में वहाँ से भाग कर गौतमी नदी के तट पर आई घोड़ा रूप धारी सूर्य ने भी पीछा किया। वहाँ आकर घोड़ी रूप में अपने पतिव्रत धर्म की रक्षा के लिए घोड़ा रूप धारी पति को न पहचान कर उस की ओर अपना पृष्ठ भाग न करके मुख की ओर से ही सामना किया। दोनों की नासिका मिली। सूर्य वासना के वेग को रोक नहीं सके तथा घोड़ी रूप धारी उषा (संज्ञा) के मुख ओर ही संभोग करने के उद्देश्य से प्रयत्न किया। नासिका द्वारा वीर्य प्रवेश से घोड़ी रूप धारी उषा के मुख से दो पुत्र अश्वनी कुमार (नासत्य तथा दस्र) उत्पन्न हुए तथा शेष वीर्य जमीन पर गिरने से रेवन्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह स्थान अश्व तीर्थ भानु तीर्थ तथा पंचवटी आश्रम नाम से विख्यात हुआ। उसी स्थान पर सूर्य की बेटियों का अरूणा तथा वरूणा नामक नदियों के रूप में समागम हुआ। उसमें भिन्न-2 देवताओं और तीर्थों का पृथक-पृथक समागम हुआ है। उक्त संगम में सताईस हजार तीर्थों का समुदाय है। वहाँ किया हुआ स्नान व दान अक्षय पुण्य देने वाला है। नारद ! उस तीर्थ के स्मरण से कीर्तन और श्रवण से भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो धर्मवान् और सुखी होता है।
5. जन स्थान तीर्थ की स्थापना: श्री ब्रह्म पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) पृष्ठ 161-162 पर :- ऋषि याज्ञवल्क्य से राजा जनक ने पूछा कि हे द्विजश्रेष्ठ ! बड़े-2 मुनियों ने निर्णय किया है कि भोग और मोक्ष दोनों श्रेष्ठ हैं। आप बताएँ! भोग से भी मुक्ति प्राप्त कैसे होती है? ऋषि याज्ञवल्क्य जी ने कहा इस प्रश्न का उत्तर आप श्वशुर वरूण जी ठीक 2 बता सकते हैं। चलो उनसे पूछते हैं। दोनों भगवान वरूण के पास गए तथा वरूण ने बताया कि "वेद में यह मार्ग निश्चित किया है कि कर्म न करने की उपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ कर्म से बंधे हुए हैं। नृप श्रेष्ठ ! कर्म द्वारा सब प्रकार से साध्यों की सिद्धी होती है, इसलिए मनुष्यों को सब तरह से वैदिक कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए। इससे वे इस लोक में भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त करते हैं। अकर्म से कर्म पवित्र है। इसके पश्चात् राजा जनक ने ऋषि याज्ञवल्क्य को पुरोहित बनाकर गंगा के तट पर अनेकों यज्ञ किए। इसलिए उस स्थान का नाम "जन स्थान" तीर्थ के नाम से विख्यात हुआ। उस तीर्थ का चिन्तन करने, वहाँ जाने और भक्ति पूर्वक उसका सेवन (पूजन) करने से मनुष्य सब अभिलाषित वस्तुओं को पाता है और मोक्ष का भोगी होता है।
उपरोक्त पुराणों के लेखों का निष्कर्ष :-
प्रमाण संख्या 1 में कहा है कि भृगु ऋषि के पुत्र शुक्र ने गौतमी नदी के उत्तर तट पर साधना की थी जिस कारण से वह स्थान शुक्र तीर्थ नाम से विख्यात हुआ।
यदि कोई उस शुक्र तीर्थ में केवल स्नान व वहाँ पर बैठे कामचोर व्यक्तियों को दान करने से ही मोक्ष मानता है वह ज्ञानहीन व्यक्ति है। परमात्मा की साधना जैसे शुक्राचार्य ने की थी। वैसी ही साधना किसी भी स्थान पर कोई साधक करेगा तो शुक्राचार्य को जो लाभ हुआ था वह प्राप्त होगा।
यही स्थिति प्रमाण संख्या 5 की समझें की गंगा के तट पर जिस स्थान पर राजा जनक ने अनेकों अश्वमेघ यज्ञ किए। एक अश्वमेघ यज्ञ में करोंड़ों रूपये (वर्तमान में अरबों रूपये) खर्च हुए थे।
तब राजा जनक को स्वर्ग प्राप्ति हुई थी। यदि कोई अज्ञानी कहे कि उस जन स्थान तीर्थ पर जाने व स्नान करने तथा वहाँ उपस्थित ऐबी (शराब, तम्बाकू व मांस सेवन करने वाले) व्यक्तियों कों दान करने से राजा जनक वाला लाभ मिलेगा। क्या यह बात न्याय संगत है? इतना कुछ करने के पश्चात् भी राजा जनक मुक्त नहीं हो सका। वही आत्मा कलयुग में सन्त नानक जी के रूप में श्री कालु राम महता के घर जन्मा। फिर पूर्ण परमात्मा की भक्ति पूर्ण गुरु कबीर परमेश्वर से नाम प्राप्त करके की तब मोक्ष प्राप्त हुआ।
प्रमाण संख्या 2 में ब्रह्मा की बेटी सरस्वती ने पूरूरवा नामक राजा के साथ अपने पिता से छुपकर सैक्स (संभोग) किया। जब पिता जी ने उन्हें ऐसा करते देखा तो श्राप दे दिया। वह स्थान जहाँ पर सरस्वती ने तथा राजा पुरूरवा ने दुराचार किया उस स्थान का नाम सरस्वती संगत तीर्थ विख्यात हुआ।
* विचार करें: क्या ऐसे स्थान पर जाने व स्नान करने से कोई लाभ हो सकता है?
प्रमाण संख्या 3 में कहा है कि एक गौतम नामक ऋषि ने एक हजार वर्ष की आयु में नब्बे हजार वर्ष की आयु की वृद्धा से विवाह किया।
अपने को युवा बनाने के उद्देश्य से दोनों ने गोदावरी नदी के गौतमी तट पर कठोर तप किया। पश्चात् मन्त्रों से जल मन्त्रित करके एक-दूसरे पर डाला। दोनों युवा हो गये। तत्पश्चात् उस स्थान पर दोनों ने मन भर कर संभोग अर्थात् विलास (सेक्स) किया। वह स्थान वृद्धा संगम तीर्थ कहलाया। विचार करने योग्य बात है कि ऐसे स्थानों पर जाने से आत्म कल्याण के स्थान पर पतन ही होगा। आत्म उद्वार नहीं।
अपने को युवा बनाने के उद्देश्य से दोनों ने गोदावरी नदी के गौतमी तट पर कठोर तप किया। पश्चात् मन्त्रों से जल मन्त्रित करके एक-दूसरे पर डाला। दोनों युवा हो गये। तत्पश्चात् उस स्थान पर दोनों ने मन भर कर संभोग अर्थात् विलास (सेक्स) किया। वह स्थान वृद्धा संगम तीर्थ कहलाया।
विचार करने योग्य बात है कि ऐसे स्थानों पर जाने से आत्म कल्याण के स्थान पर पतन ही होगा। आत्म उद्वार नहीं।
प्रमाण संख्या 4 में कहा है कि सूर्य की पत्नी घोड़ी का रूप धारण करके तपस्या कर रही थी। सूर्य काम वासना (सेक्स प्रेसर) के वश होकर घोड़ा रूप धारण करके घोड़ी रूप धारी अपनी पत्नी के पास गया। घोड़ी ने उसे अपने पृष्ठ भाग (पीछे) की ओर नहीं जाने दिया। सूर्य इतना सैक्स प्रेसर (काम वासना के दबाव) में था कि उसने घोड़ी के मुख की ओर ही संभोग क्रिया प्रारम्भ की जिस कारण से उन्हें तीन पुत्र प्राप्त हुए। वह स्थान अश्व तीर्थ नाम से विख्यात हुआ।
वहीं पर सूर्य की दो बेटियाँ जाकर नदी बन कर बहने लगी। जिस कारण से वही स्थान पंचवटी आश्रम नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। उसी स्थान को भानू तीर्थ भी कहा जाता है। इस तीर्थ का लाभ लिखा है कि इसके स्मरण से तथा कीर्तन करने से तथा इसकी कथा श्रवण करने से सब पापों से मुक्त होकर धर्मवान और सुखी होता है।
विचार करो पुण्यात्माओं! क्या ऐसी कथाओं को सुनने तथा ऐसे स्थान पर जाने से आत्म कल्याण सम्भव है? इसलिए शास्त्रों (पाचों वेदों, गीता जी) के अनुसार भक्ति करने से सर्व पापों से मुक्त होकर पूर्ण मोक्ष सम्भव है।
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