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इन राशियों के लिए वर्ष 2021 बेहद शुभ रहेगा, सभी 12 राशियों का हाल जानें
इन राशियों के लिए वर्ष 2021 बेहद शुभ रहेगा, सभी 12 राशियों का हाल जानें
वर्ष 2021 में उनके लिए खुलेगी टर्की और भाग्य का पिटारा … साल 2021 शुरू हो गया है। ऐसे में हर किसी को इस साल से बहुत सी आशाएं हैं। दरअसल साल 2020 ज्योतिषीय के साथ-साथ कई दृष्टि से काफी नुकसान पहुंचाने वाला साबित हुआ है। 2020 में एक ओर जहां महामारी से जीवन अस्तव्यस्त हुआ वहीं प्राकृतिक संकट और आर्थिक नुकसान की भी भविष्यवाणी कई बड़े ज्योतिष के जानकारों ने की थी जो सच साबित हुआ। ऐसे में अब नए साल…
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Shani Jayanti 2020: जानिए शनि जयंती पर कैसे करें पूजा
शनि जयंती 22 मई को है। हिन्दू पंचांग के अनुसार, शनि जयंती प्रति वर्ष ज्येष्ठ माह की अमावस्या को मनाई जाती है। शनि जयंती हिंदू पंचांग के ज्येष्ठ मास की अमावस्या को मनाई जाती है। इस दिन शनिदेव की पूजा की जाती है। विशेषकर शनि की साढ़े साती, शनि की ढ़ैय्या आदि शनि दोष से पीड़ित जातकों के लिये इस दिन का महत्व बहुत अधिक माना जाता है। शनि राशिचक्र की दसवीं व ग्यारहवी राशि मकर और कुंभ के अधिपति हैं। एक राशि में शनि लगभग 18 महीने तक रहते हैं। शनि का महादशा का काल भी 19 साल का होता है।धार्मिक और ज्योतिषीय दृष्टि से शनि का महत्वपूर्ण स्थान है। आस्था के दृष्टि से देखें तो शनि को देवता की संज्ञा दी गई है और ज्योतिष में इसे एक क्रूर ग्रह माना गया है।
शनिदेव को भगवान सूर्य और उनकी पत्नी छाया की संतान माना जाता है। वैसे तो 9 ग्रहों के परिवार में इन्हें सबसे क्रूर ग्रह माना जाता है। लेकिन असल में शनि न्याय और कर्मों के देवता हैं। यदि आप किसी के साथ धोखाधड़ी नहीं करते और किसी पर कोई जुल्म या अत्याचार नहीं करते यानी किसी भी बुरे काम में ��हीं हैं तो आपको शनि से घबराने की आवश्यकता नहीं है। शनिदेव भले मानुषों का कभी बुरा नहीं करते।शनि जिन्हें कर्मफलदाता माना जाता है। दंडाधिकारी कहा जाता है, न्यायप्रिय माना जाता है। जो अपनी दृष्टि से राजा को भी रंक बना सकते हैं। हिंदू धर्म में शनि देवता भी हैं और नवग्रहों में प्रमुख ग्रह भी जिन्हें ज्य��तिषशास्त्र में बहुत अधिक महत्व मिला है। शनिदेव को सूर्य का पुत्र माना जाता है। मान्यता है कि ज्येष्ठ माह की अमावस्या को ही सूर्यदेव एवं छाया (संवर्णा) की संतान के रूप में शनि का जन्म हुआ। आइए जानते हैं शनि जयंती का मुहूर्त और इसके जन्म से जुड़ी महत्वपूर्ण कथा।
शनि जयंती 2020 मुहूर्त-
अमावस्या तिथि आरंभ – 21:35 बजे (21 मई 2020) अमावस्या तिथि समाप्त – 23:07 बजे (22 मई 2020)
शनि ग्रह के जन्म से जुड़ी कथा-
शनि और सूर्य देव के बीच कट्टर शत्रुता है। जबकि इन दोनों के बीच पिता-पुत्र का संबंध है। सूर्य देव शनि के पिता हैं। सवाल ये है कि पिता-पुत्र का संबंध होने के बावजूद इन दोनों के बीच इतनी गहरी दुश्मनी क्यों है। इसका जवाब हमें पौराणिक कथाओं में मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है-कहते हैं सूर्य देव का विवाह संज्ञा के साथ हुआ था। लेकिन सूर्यदेव का तेज इतना था कि संज्ञा उनके इस तेज को सहन नहीं कर पाती थीं।
समय बीतता गया और धीरे-धीरे संज्ञा सूर्य देव के विशाल तेज को सहन करती गईं। दोनों की वैवस्त मनु, यम और यमी नामक संतानें भी हुईं। लेकिन अब संज्ञा के लिए सूर्य देव का तेज सहना मुश्किल होने लगा। ऐसे में उन्हें एक उपाय सूझा। उपाय था कि संज्ञा अपनी परछाई छाया को सूर्यदेव के पास छोड़ कर चली जाए। संज्ञा ने ऐसा ही किया। इस दौरान सूर्यदेव को भी छाया पर जरा भी संदेह नहीं हुआ। दोनों खुशी-खुशी जीवन व्यतीत करने लगे। दोनों से सावर्ण्य मनु, तपती, भद्रा एवं शनि का जन्म हुआ।
उधर जब शनि छाया के गर्भ में थे तो छाया तपस्यारत रहती थीं और व्रत उपवास भी खूब किया करती थीं। कहते हैं कि उनके अत्यधिक व्रत उपवास करने से शनिदेव का रंग काला हो गया। जब शनि का जन्म हुआ तो सूर्य देव अपनी इस संतान को देखकर हैरान हो गए। उन्होंने शनि के काले रंग को देखकर उसे अपनाने से इंकार कर दिया और छाया पर आरोप लगाया कि यह उनका पुत्र नहीं हो सकता, लाख समझाने पर भी सूर्यदेव नहीं माने। स्वयं और अपनी माता के अपमान के कारण शनि देव सूर्य देव से शत्रु का भाव रखने लगे। ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक जब ��िसी व्यक्ति कीकुंडली में शनि और सूर्य एक ही भाव में बैठे हों तो उस व्यक्ति के अपने पिता या अपने पुत्र से कटु संबंध रहेंगे। शनि देव भगवान शिव के भक्त हैं। उन्हें न्याय का देवता कहा जाता है।
शनि पूजा की विधि-
शनिदेव की पूजा करने के लिये कुछ अलग नहीं करना होता। इनकी पूजा भी अन्य देवी-देवताओं की तरह ही होती है। शनि जयंती के दिन उपवास भी रखा जाता है। व्रती को प्रात:काल उठने के पश्चात नित्यकर्म से निबटने के पश्चात स्नानादि से स्वच्छ होना चाहिये। इसके पश्चात लकड़ी के एक पाट पर साफ-सुथरे काले रंग के कपड़े को बिछाना चाहिये। कपड़ा नया हो तो बहुत अच्छा अन्यथा साफ अवश्य होना चाहिये। फिर इस पर शनिदेव की प्रतिमा स्थापित करें। यदि प्रतिमा या तस्वीर न भी हो तो एक सुपारी के दोनों और शुद्ध घी व तेल का दीपक जलाये। इसके पश्चात धूप जलाएं। फिर इस स्वरूप को पंचगव्य, पंचामृत, इत्र आदि से स्नान करवायें। सिंदूर, कुमकुम, काजल, अबीर, गुलाल आदि के साथ-साथ नीले या काले फूल शनिदेव को अर्पित करें। इमरती व तेल से बने पदार्थ अर्पित करें। श्री फल के साथ-साथ अन्य फल भी अर्पित कर सकते हैं। पंचोपचार व पूजन की इस प्रक्रिया के बाद शनि मंत्र की एक माला का जाप करें। माला जाप के बाद शनि चालीसा का पाठ करें। फिर शनिदेव की आरती उतार कर पूजा संपन्न करें।
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द्रेष्काण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? **************************
द्रेष्काण कुंडली : वर्तमान स्वरुप कितना फलदायक? भाग-5
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भाग-4 में हमने द्रेष्काण की वर्तमान विधि एवं भारतीय विधि का तुलनात्मक अध्ययन किया था।
द्रेष्काण (भारतीय) विधि का मूल सिध्दान्त: *********************************
भारतीय विधि में द्रेष्काण चयन का मूल सिध्दान्त वही है जिसके आधार पर हम आज भी 1-सप्तमांशवर्ग, 2-नवमांश वर्ग, 3-षोडांशवर्ग और लगभग 4-दशमांश और 5-द्वादांश वर्ग का निर्माण कर रहें हैं।
उपरोक्त सभी वर्गकुंडलियों के निर्माण के लिए एक राशि अर्थात् 30-अंश का ही विभाजन किया जाता है न कि 360-अशं के एक वृत का।
द्रेष्काण में भी एक राशि के 10-10अंश के तीन भाग किए जाते हैं यहां तक तो आर्ष और यवन दोनों मत एक हैं किन्तु आर्ष विधि में उन तीन भागों के द्रेष्कांणेशों का चयन अन्य वर्गकुंडलियों की भांति राशिचक्र की पहली राशि " मेष " से ही क्रमानुसार तीन चक्र (12×3=36) में करते हैं।
उदाहरण के लिए: "नवमांश चयन" की आर्ष विधि में:
1- अग्निराशियों के नवमांश हम अग्नितत्व की चरराशि (मेष ) से प्रारंभ करते हैं।
2- पृथ्वीराशियों के नवमांश हम पृथ्वीतत्व की चरराशि (मकर) से प्रारंभ करते हैं।
3- वायुराशियों के नवमांश हम वायुतत्व की चरराशि (तुला ) से प्रारंभ करते हैं।
4- जलराशियों के नवमांश हम जलतत्व की चरराशि (कर्क) से प्रारंभ करते हैं।
ठीक उसी प्रकार से द्रेषकांण की आर्ष विधि में राशिचक्र की प्रथमराशि मेष से प्रारंभ करते हुए:
1-अग्निराशियों (1,5,9) के तीनों द्रेष्काण: ******************************** तीनों अग्निराशियों (1,5,9) के लिए चरस्वभाव की पहली राशि मेष से प्रारंभ कर मेष, बृषभ और मिथुनराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों मंगल, शुक्र और बुध को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
2-पृथ्वीराशियों (2,6,10) के तीनों द्रेष्काण: ********************************* तीनों पृथ्वीराशियों (2,6,10) के ���िए चर की दूसरी राशि कर्क से प्रारंभ कर कर्क, सिंह और कन्याराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों चंद्र, सूर्य और बुध को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
3-वायुराशियों (3,7,11) के तीनों द्रेष्काण: ********************************* तीनों वायुराशियों (3,7,11) के लिए चर की तीसरी राशि तुला से प्रारंभ कर तुला, बृश्चिक और धनुराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों शुक्र, मंगल और बृहस्पति को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
4-जलराशियों (4,8,12) के तीनों द्रेष्काण: ********************************* तीनों जलराशियों (4,8,12) के लिए चर की चौथी राशि मकर से प्रारंभ कर मकर, कुंभ और मीनराशियों को इनके तीन द्रेष्काण और इनके स्वामि ग्रहों शनि, शनि और बृहस्पति को क्रमस: पहला, दूसरा और तीसरा द्रेष्काणेश माना गया।
आर्ष विधि से निर्मित द्रेषकांणेश किस प्रकार से फलित को प्रभावित करते है:- **********************************
एक ज्योतिषी को जन्मलग्न कुंडली के सूर्य से शनि तक के सभी सातों ग्रहों को उनके फल देने की (1)-शक्तिसीमा और उनके (2)-वास्तविक स्वरुप (शुभ है या अशुभ) को समझाना होता है।
1-ग्रह अपना फल करने में कितने "शक्तिशाली" हैं यह जानने के लिए "षड़बल" का आश्रय लेते हैं।
2-लग्नकुंडली के कौन-कौन ग्रह वास्तव में शुभ है या अशुभ उनका यह "वास्तविक स्वरुप" जानने के लिए विभिन्न प्रकार की वर्गकुंडलियों को देखतेे हैं।
अनेंक बार किसी जन्मपत्रिका में षड़बल परीक्षा उपलब्ध नही होती। इस स्थिति में ज्योतिषी ग्रहों की शक्ति समझने के लिए " ग्रह अवस्था" आदि के कुछ पुराने सूत्र जैसे बालादि, जाग्रतादि, दीप्तादि और ग्रहगति आदि का उपयोग करते है।
उपरोक्त स्थिति में नवमांश कुंडली का उपयोग तो बहुतायत से हो जाता है किन्तु द्रेष्कांण कुंडली 99% मामलों में प्रयोग नही की जाती।
ज्योतिष के जिन प्रेमी लोगों ने ज्योतिष का विधिवत अध्ययन नही किया है वे यह नही जानते कि फलित के लिए द्रेष्काणेश और नवमांशक को ग्रहों की षड़बल परीक्षा में पूर्णत: समान महत्व (रुपा बल) दिया गया हैं।
कैसे देखे द्रेष्कांण:- ************** 1-नवमांश कुंडली सहित सभी वर्गकुंडलियों में हम ग्रह की वर्गोत्तम, स्व, उच्च या नीचराशि पर ग्रह के स्वरुप का निर्णय सरलता से कर लेते हैं, लेकिन... द्रेष्काण का वास्तविक स्वरुप केवल द्रेष्काणकुंडली में वर्गोत्तम, स्वराशि. उच्च या नीचराशि आदि होने से ही तय नही हो जाता।
कारण! फलित ज्योतिष के लगभग सभी मूल ग्रंथो में कुल 36-द्रष्काणेशों में से लगभग 23-द्रेष्काणेश पूर्णत: शुभ नही माने गये हैं।
उदाहरण हेतु "फलदीपिका" नामक ग्रंथ के वर्गभेद अध्याय-3/श्लोक संख्या-13-14-15 में उन्हें आयुध, पाश, निगड़, ग्रधास्य, पक्षी, कोलास्य, सर्प और चतुष्पद आदि के अशुभ नाम दिए गए हैं।
कुछ विद्वानों ने अनुभव से पाया है कि,बृहज्जातक और फलदीपिका जैसे मूल ग्रंथों द्वारा अशुभ घोषित कर दिए गये द्रेष्काणेश के अतिरिक्त..
-वे द्रेष्काण जो केवल जातकपारिजात द्वारा ही अशुभ घोषित किए गए हैं जैसे मिथुन,कन्या और मीन का पहला द्रेष्कांण और मिथुन और मकर का तीसरा द्रेष्कांण) को अशुभ न माना जाय। अपने तर्क में वे कहते हैं कि..
-इन राशियों के स्वामिग्रह और इनके द्रेष्कांणेश सामान्यतया सौम्य ग्रहों ही हैं।
अत: इस आधार पर इन 05 द्रेष्कांणेश को सम (न शुभ न अशुभ) मानते हुए कुल 18-द्रेष्काण (13+5 ) शुभ या सन्तोषप्रद फलदायक हो सकते हैं।
द्रेश्काणेश फलित:- *************** द्रेष्कांण से फलित जानने की विधि भी मूलत: उन ही नियमों पर आधारित है जो नवमांश या अन्य वर्गकुंडलियों पर लागु होते हैं। जैसे:
1-कोई ग्रह अपने राशि-अंश के आधार पर कौन सा द्रेष्काण पाता है और उसका द्रेष्काणेश शुभ या अशुभ किस श्रेणी में आता है?
2-ग्रह का द्रेष्कांणेश लग्नकुंडली के किस भाव में बैठा है?
3-ग्रह और उसके द्रेष्कांणेश का जन्मलग्नकुंडली में चार प्रकारों में से कोई एक संबंध बन रहा है या नही?
4-यह संबंध जन्मलग्नकुंडली के शुभ भाव में है या अशुभ भाव में?
यदि उपरोक्त चार प्रश्नों के उत्तर हमारे पक्ष में है तो नि:संदेह फलित राजयोगी होगा।
यदि....
5- यदि यह संबंध जन्मलग्नकुंडली के अशुभभाव में बना है, या ये दोनों ग्रह परस्पर षडाष्टक है तो परिणाम अशुभ होंगें।
6-यदि हमारे इस ग्रह का द्रेष्कांणेश संयोगवश वही ग्रह है जो लग्न का 22-वा द्रेष्काण बनता है तो इस ग्रह से जन्मकुंडली में बना बड़े से बड़ा राजयोग व्यर्थ हो जाएगा।
और अन्त में..
लग्नभाव के द्रेष्कांणेश से फलित:- ************************** फलदीपिका/अध्याय-3/श्लोक-11 के अनुसार: द्रेष्काण सहित सभी षडवर्ग (सप्त वर्ग बनाने चाहिए) सूर्य से शनि तक सात ग्रहों के के अतिरिक्त लग्न को आठवा ग्रह मान कर उसके भी बल और निर्बलता की परीक्षा करनी चाहिए।
��ग्न के फलित पर श्री मंत्रेश्वर का कथन है:
1-यदि लग्न का द्रष्काणेश शुभ नही है या वह ग्रह " सातवर्गीय कुंडली" के कम से कम तीन वर्गों में स्व या उच्चराशि नही पाता है तो जातक हीन, दरिद्र और दुष्ट प्रवृति का होगा।
2-उपरोक्त के विपरीत यदि लग्न का द्रष्काणेश शुभ नही है लेकिन वह ग्रह "सातवर्गीय कुंडली" के कम से कम तीन वर्गों में स्व या उच्चराशि पाता है तो जातक मध्यम भाग्य का होगा।
3- उपरोक्त के विपरीत यदि लग्न का द्रष्काणेश शुभ प्रकृति का है और साथ ही वह ग्रह "सातवर्गीय कुंडली" के कम से कम तीन वर्गों में स्व या उच्चराशि पाता है तो वह जातक बलवान,भूमिपति और भाग्यवान होकर राजा के समान उच्च पद-प्रतिष्ठा पाता हैं।
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मेष संक्रांति का देश-दुनिया, राजनीति और राशियों पर प्रभाव
14 अप्रैल को सुबह 8 बजकर 10 मिनट पर ग्रहों के राजा सूर्य राशिचक्र की पहली राशि मेष में आ चुके हैं। इस राशि में सूर्य के आगमन से सूर्य शुक्र का संयोग बना है। शनिवार के दिन होने वाली इस संक्रांति के कारण घी, अनाज, धान महंगे होंगे। महंगाई में वृद्धि के कारण जनता में असंतोष की भावना आ सकती है। इस संक्रांति के कारण मौसम में अचानक बदलाव होंगे जिससे लोग बड़ी संख्या में बीमार होंगे। दुर्घटनाओं के कारण लोगों को दुख का सामना करना पड़ सकता है। मेष संक्रांति में गुरु-शुक्र के बीच समसप्तक योग और मंगल शनि का योग रहने से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडू, बंगाल असम, उड़ीसा एवं पूर्वोत्तर राज्यों में विस्फोटक और हिंसक घटनाएं होने की आशंका रहेगी। इस बीच काफी राजनीतिक उठापटक देखने को मिल सकती है। मंत्रिमंडल में परिवर्तन की बात भी कहीं-कहीं सामने आ सकती है। राशियों की बात करें तो यह संक्रांति वृष, सिंह, कन्या, वृश्चिक, कुंभ एवं मीन राशि के लिए लाभकारी रहेगी। अगले एक महीने इन राशि वालों के लाभ और प्रगति का अवसर मिलेगा। मेष संक्रांति का राशियों पर प्रभाव विस्तार से पढ़ने के लिए क्लिक करें मोबाइल ऐप डाउनलोड करें और रहें हर खबर से अपडेट। http://dlvr.it/QPWBnn
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