#म��िंद्रा
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हंसी
मुझे कायदे से हंसे बहुत दिन हुए मतलब ऐसा नहीं है कि मैं हंसा नहीं बहुत दिन से वैसे तो हंसता ही रहता हूं मन में लेकिन बात कुछ यों है कि बहुत दिन हुए जब हंसने का ये मन किया और वो हंस दिए माहौल देखना पड़ता है ये और वो के बीच पता चला कि आप हंस दिए और कहीं कोई किसी कारण से बुरा मान गया ऐसी हंसी किस काम की जो बुरा मनवा दे पता चला आप हंसे तो बहुसंख्यक माहौल से वह बेमेल हो गई ऐसी हंसी किस काम की जो बहुसंख्य के काम न आए अब माहौल अपने मन से तो बनता नहीं है माहौल बनाया भी नहीं जा सकता हंसने का ये भी ज़रूरी नहीं कि समाज में हर ओर हंसी का माहौल हो तो आपको भी आ रही हो हंसी हो सकता है उस वक्त आप खीझ रहे हों गुस्सा आ रहा हो या घिरे हुए हों सघन दुख में कहने का मतलब बस इतना है कि मन किया और खिस्स से हंस दिए यह काम इतना आसान नहीं है। उस दिन बारिश हो रही थी बाहर और भीग रहा था मैं भीतर मुस्करा रहा था बच्चों को खेलता देख मन ही मन बहुत देर बाद जब देह सूख गई और जम गई सीलन तब अचानक ठठाकर हंसने का मन किया लेकिन सहसा मैंने खुद को रोक लिया क्योंकि उस वक्त मैं सड़क पर था और माहौल अनुकूल नहीं था लोग चिंतित थे आतंकवाद को लेकर एक हमला हुआ था ठीक उसी दिन सोचिए मैं हंस देता उस वक्त तो क्या होता। यह देश अचानक से घटना प्रधान हो गया है लगातार कुछ न कुछ घट रहा है और मुझे हंसने से रोक रहा है वैसे ज्यादातर घटनाओं पर हंसी ही आती है लेकिन देखना पड़ता है आसपास ये बात दीगर है कि कुछ घटनाओं पर लोग खुद हंसते हैं जैसे एक दिन छापा पड़ा लालू प्रसाद यादव के यहां और लोग हंस दिए उससे पहले एक रात नोटबंदी हुई और लोग हंसते रहे लगातार दस दिन तक ग्यारहवें दिन जब मुझे हंसी आई तब तक एक दर्जन लोग मर चुके थे हंसते-हंसते शर्म के मारे मैंने खुद को रोक लिया। एक दिन मुझे बहुत तेज़ हंसी आई तो सोचा कि आज तो हंस ही दूं लेकिन देखा कि टीवी पर मोदीजी हंस रहे थे किसी बात पर मुझे लगा कि अगर आज मैं हंस दिया तो लोग जाने क्या समझेंगे हो सकता है लोग समझते कि मैं मोदीजी की हंसी में अपनी हंसी मिला रहा हूं फिर तो सारी पॉलिटिक्स ही गड़बड़ा जाती मेरी ये भी लग सकता था लोगों को कि मैं उनकी हंसी पर ही हंस रहा हूं हंसते हुए राजा पर हंसना राजद्रोह होता है सोचना पड़ता है हंसने से पहले इतना ��ुछ कि हंसी लौट जाती है आने से पहले अपनी खोह में अपने विलंबित भाई-बहनों के बीच। हंसी के लिए चाहिए बिलकुल न्यूट्रल माहौल या फिर एकदम निर्जन फिर मैंने तय किया एक दिन कि हंसूंगा अकेले मन भर अपने बाथरूम में दोनों ओर से लगाकर कुंडी और चलाकर पानी तीनों नलके का संयोग देखिए कि यह नायाब खयाल मन में आते ही अचानक मन हो आया हंसी का चाहता तो अपने खयाल पर हंस देता तत्क्षण लेकिन याद आया कि मैं बैठा हुआ था एक मीटिंग में जहां कुछ गंभीर लोग गंभीर बातों पर गंभीरता जाहिर कर रहे थे। विडंबना कहिए या अवमानना लेकिन मुझे हंसने के नायाब खयाल गंभीर लोगों या गंभीर बातों के बीच ही आते हैं जैसे सड़क पर मीटिंग में कार्यक्रम में कहीं भाषण सुनते हुए या टीवी पर गंभीर चर्चा देखते हुए या फोन पर किसी से बात करते हुए बहुत देर तक इन पलों में सोचता रहता हूं कि ऐसे हंसूंगा वैसे हंसूंगा यहां हंसूंगा वहां हंसूंगा और यह सोच अगली सोच से मिलकर गुणात्मक होती जाती है वैसे गंभीर बातें मैं भी करता हूं और करने के तुरंत बाद सोचता हूं कि इस पर हंस देना चाहिए लेकिन अगले ही पल एक बार और अपनी ही हेठी में कि लोग क्या सोचेंगे टाल देता हूं। अकसर मैं इसलिए मन भर नहीं हंसता कि सामने वाले के सामने मेरी गंभीर छवि टूट न जाए कभी बेमन भी हंसता हूं ताकि सामने वाला मेरी गंभीरता के आतंक में सहज महसूस कर सके कभी ये सोचने में ही रह जाता हूं कि हंस कर प्रतिक्रिया दूं या बिना हंसे या मुस्करा कर हंसी में डंडी मारने की कला मैं सीख रहा हूं धीरे-धीरे। सड़क पर ही क्यों मैं घर में भी हंसने से डरता हूं आजकल अव्वल तो मेरा हंसना अचानक मेरे रंगीन दांतों पर एक विमर्श को जन्म दे देगा इस डर से हंसता हूं लेकिन मुंह दबाकर कभी जो अट्टहास का मन किया और संप्रभुता के अहसास मैं मैं अपने कमरे में हंस भी दिया तो उसके बाद माहौल बिगड़ जाता है हंसी आते ही तुरंत अप्रासंगिक कर जाती है आपको उन लोगों के बीच जो वैसे तो हंसते हैं और हंसना पसंद करते हैं लेकिन उन्हें दूसरे की भी उतनी ही हंसी पसंद है जितनी अपनी कस्टम हंसी एक निश्चित अनुपात में काटी हुई छांटी हुई संपादित और बिलकुल तत्सम जैसे हर अक्षर के नीचे टंगा हो एक दुर्बोध हलन्त। हंसी में अक्षरों का होना इस नई सदी की परिघटना है जब लोग बोलते-बोलते ही हंसते हैं हंसने के लिए तबीयत से रुकते तक नहीं कि बोलना छोड़ कर पहले कायदे से हंस लें, फिर बोलें जैसे लोग बोलते-बोलते खाते हैं या खाते-खाते बोलते हैं आजकल लोग जम्हाई भी मुंह खोलकर नहीं लेते बल्कि मुंह पर पंखे की तरह झलते हुए हथेली यथासंभव कुछ शब्द बोलते हुए बीच में जम्हाई लेते हैं और खुदा न खास्ता छींक आ जाए तो छींकने के बाद बिना ठहरे एक्सक्यूज़ देते हैं बेहद सहज क्रियाओं के जबरन असहज बनाए जाने के इस दौर में मन करते ही छूटकर हंसना काफी कठिन हो चला है। ऐसे में मैंने कुछ नुस्खे ईजाद किए हैं कायदे से हंस लेने के जो सबको बताना मुझे ज़रूरी लगता है क्योंकि मेरी राय में मेरा संकट उतना भी निजी नहीं कि नुस्खे छुपा लिए जाएं। हंसने का मन है तो बोलते-बोलते हंसिए और आपको अगर पता है कि आपकी हंसी का क्या मतलब निकाला जाएगा तो उस मतलब का ठीक विपरीत बोलते-बोलते हंसिए ताकि हंसी खत्म होने पर बात और हंसी दोनों परस्पर संतुलित हो जाएं। आपको अगर लगता है कि हंसे बगैर काम नहीं चलने वाला गोया हंसी न हुई छींक हुई तो हंसने के ठीक पहले उसके निहितार्थों की कल्पना कर लें और आप पाएंगे कि शायद आपकी हंसी गुम हो गई या फिर हंस ही दिए तो परिणाम कम से कम चौंकाने वाले तो नहीं ही होंगे। वैसे इतनी जटिल स्थिति पता नहीं सबके लिए है या कुछ लोगों के लिए क्योंकि मेरा पान वाला अपने लाल दांतों की भरपूर नुमाइश करते हुए लगातार हंसता रहता है अपने पिता की मौजूदगी में और उसकी हंसी की वजह मैं आज तक नहीं खोज पाया। मुझसे पहले और भी कवि हुए हैं महत्वपूर्ण जिन्होंने हंसी पर कविता लिखने को हंसने के मुकाबले ज्यादा आसान पाया है और इसीलिए मुझे अपनी हंसी की कठिनता मौलिक नहीं लगती और यहीं से मुझे मिलती है ताकत न हंसने की। हंसने की ताकत तो भीतर बहुत-बहुत है और जाने कितनी हंसी के ठट्ठे कसमसाए हुए भीतर कर रहे हैं इंतज़ार अपनी बारी का और देख रहे हैं कि हर दिन हर पल बढ़ती जा रही है उनके जैसों की आबादी। मुझे भी महसूस होता है कि मेरे भीतर जमा होता जा रहा है सामयिक विषयों पर आ सकने वाली हंसियों का ज़खीरा क्योंकि कभी-कभार किसी बात पर अनायास पेट हिल जाता है लेकिन छाती तक नहीं पहुंच पाती हंसी। कभी यूं भी होता है कि मैं तय नहीं कर पाता कि भीतर से जो निकलने को है आतुर वह हंसी है कि खांसी और दोनों के प्र��िस्पर्धी द्वंद्व में लटपटाकर मैं छींक देता हूं। आजकल संकट थोड़ा बढ़ गया लगता है क्योंकि हर सुबह जब सबके दफ्तर चले जाने के बाद मैं खुद को निपट अकेला पाता हूं तो इस आश्चर्य से निपटने में ही दिन बीत जाता है कि मैं क्यों नहीं हंसा खुलकर। आप सोचिए कि रोज़ाना कम से कम सात घंटे मैं अपने कमरे में अकेला होता हूं और फोन की दो घंटियों के बीच भी औसतन पौन घंटे का वक्�� तो खाली बचता ही है जब मैं जो चाहे वो कर सकता हूं और मेरे इस खाली वक्त पर किसी का कोई अख्तियार नहीं है। इतनी आज़ादी किसको मिली होगी हंसने की अकेले में? हंसी को लेकर ऊपर दी गईं मेरी तमाम शिकायतें दरअसल झूठी हैं सच तो ये है कि मुझे पूर्ण स्वायत्तता और निर्जनता में भी अब हंसी नहीं आती कोई आकर चुपके से दिन के उजाले में देख ले मेरा मुंह तो कर ले आत्महत्या ऐसा मनहूस बनकर बैठा रहता हूं जाने किस तन्द्रा में करते हुए इंतज़ार फोन की एक अदद घंटी का और कभी-कभार तो दो घंटियों के बीच पौन घंटे का औसत अंतर भी लगने लगता है बोझ बुरे खयाल आने लगते हैं कि कहीं मैं अकेला तो नहीं बच गया इस संसार में कहीं दुनिया मर तो नहीं गई मेरे बगैर दिनदहाड़े हड़बड़ा कर अचानक निकल पड़ता हूं बालकनी में देखने कपड़े सुखाती औरतों को या पार्क में खेलते बच्चों को या नीचे बेमन टहलते कुत्ते को या अनावश्यक शोर मचाते पक्षियों को तब दिख ही जाता है कोई न कोई और भीतर से होकर आश्वस्त कि चलो सब ठीक है मुस्कराने को होता हूं कि खयाल आता है बीच दोपहर अपनी बालकनी में खड़ा अकेला पुरुष किसी भी तौर ठहराया जा सकता है अश्लील। मुझे बार-बार लगता है कि इस दुनिया में हंसी को बचा ले जाना मनुष्य को बचा ले जाने से ज्यादा ज़रूरी है और हर बार मैं खुद को बचाने के चक्कर में हंसी को नहीं बचा पाता। वो तो अच्छा हुआ कि जिस दौर में हम जवान हुए उसमें हंसने के अलावा और भी बहुत सारी ध्वनियां जीवन का हिस्सा बनाई जा चुकी हैं और ध्वनियों के बगैर भी हंसने के तरीके कर लिए गए हैं विकसित। मुझे हंसने के ये सारे आधुनिक तरीके आते हैं और इसे मैं अपनी श्रेष्ठतम उपलब्धि मानता हूं। मुझे कायदे से हंसे बहुत दिन हुए लेकिन मैंने अब कायदा ही बदल डाला है इक्कीस इंच के कंप्यूटर से लेकर साढ़े पांच इंच के मोबाइल तक हर जगह हंस चुका हूं यहां तक कि दुकानों पर लगे सीसीटीवी कैमरे में भी सामने मौजूद परदा ही मेरी हंसी का शगुन है जिस पर फिलहाल एक बहुत पुराना गीत बज रहा है ये दिल जो मैंने मांगा था मगर ग़ैरों ने पाया था बड़ी है शै अगर उसकी पशेमानी मुझे दे दो... शराब और पसीने और इश्क़ में धुत्त कमलजीत रह-रह कर उठाता है काउंटर से सिर और खैयाम की धुन में पगी जगजीत कौर की सुरीली आवाज़ पुकारती है रह-रह कर। हंसी क्या चीज़ है दे दूंगा चाहे कितनी ही बड़ी शै हो लेकिन बस इतना बताओ साहिर वो जो च���पचाप खड़ी है एक कोने में वहीदा रहमान जैसी सूरत जिसकी हंसी सिर्फ मेरी हंसी में है पैबस्त उसका क्या करूं।
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