धौम्य गोत्र के आस्पद (अल्लैं)
1. लायसे- ये आश्वलायन ऋषि के वंशज 2986 वि0पू0 हैं । ऋग्वेद की आश्वलायन शाखा के कुछ लोग मध्य प्रदेश के रायसेन तथा सबलानों स्थानों में जाकर रहे थे । आश्वलायन जन्मेजय के नागसत्र में सदस्य थे ।
2. भरतवार- ये भरद्वाज के पिता भरत चक्रवर्ती के आश्रय प्राप्त 4882 वि0पू0 सम्मानित सभासद थे । इनने भारत वर्ष देश के अन्तर्गत अपना भरत खंड राज्य स्थापित किया था ।
3. घरवारी- ये गार्हपत्य नामक अग्नि कुल के देव पुरूष थे । वेद में इन्हें"अग्निर्गृपतिर्युवा" कहा है । ऋग्वेद के अनुसार ये सहस्त्रशीर्ष विराज पुरूष के पुत्र थे । वैसांधर अल्ल के माथुर वैश्वानर अग्नि वंशी भी इसी शाखा में थे । वैश्वानर अग्नि ने सरस्वतीतट मथुरा से पुष्कर राजस्थान तक तथा पांचाल देश पीलीभीत व बरैली अल्मौड़ा नैनीताल तक की भूमि में फैले गहन वनों को जलाकर पवित्र देश पांचाल मत्स्य सूरसेन जनपदों के स्वायंभू मनु के प्रदेश ब्रह्मर्षि देश(9200 वि0पू0) को प्रकट किया । गृहपति अग्नि ने पुरूरवा के यज्ञ में मंथु अग्नि पुरगटकर किभाबसु अग्नि प्रगटर की ओर उसके तीन भाग करके (आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षियाणाड्नि) तीनों के तीन यज्ञ कुण्डों में स्थापित कर यज्ञ कराया था ।
'तस्य निर्मथाज्जातो जातवेदा विभावसु' ।
इस यज्ञ से 6241 वि0पू0 में प्रतिष्ठान पुर ब्रज के पैठा स्थान में पुत्रेष्टियाग के फलरूप आयु नहुष ययाति पुत्र चन्द्र वन्श की वृद्धि कर्त्ता उत्पत्र हुए थे । विराट प्रजापति (दीर्घविष्णु) 7 के पुत्र थे जो आदि मानव प्रजा के पितर कहे गये हैं । इनमें चार वेद ज्ञाता चतुर्वेद तथा पत्निगृह (पाकशाला) में प्रयुक्त गार्हपत्य अग्नि कर्म के प्राशिक्षक गार्हपत्य अग्नि (9200 वि.पू.) घरवारी प्रधान थे ।
ये 7 आध पित-1. अग्निष्वात 2. सोमप (वर्हिषद) 3. बैराज 4. गार्हपत्य, 5. चतुर्वेथ, 6. एक श्रंग, 7 कुल के नाम के थे । मत्स्य के अनुसार ये सभी महायोगी थे । योग भंग होने पर पृथ्वी पर जन्मे । श्रेष्ठ ब्रह्मवादी होने और पूर्वजन्म के ज्ञान से ये योगाभ्यास में मग्न रहकर प्रजाओं का कल्याण करते थे । इनकी मानसी कन्या मैनां (मैनांगढ़ टीला मथुरा) में उत्पत्र हुई थी जिसके वन्शधर मैनां या मीणां जाति के लोग यहाँ रहते थे जो प्रजा विस्तार होने पर मैनाक पर्वत तथा समस्त राजस्थान और ब्रज क्षेत्र में फैल गये । मैनका अप्सरायें इसी वंश में थी ।
मैना ब्रज के हिमवन्त मेवात के पर्वतीय राजा हिमवन्त को ब्याही थी और उससे हेमवती पार्वती उमां गौरी आदि अनेक नामों वाली पुत्री हुई जो सतीदहन के बाद तप करके भगवान शिव की पत्नी बनी और उससे विनायक गणेश (गणेश टीला) तथा स्कंधस्वामी (खंडवेल तीर्थ मथुरा) वासी विश्व विजयी देवता (स्कैंडेनेविया सिकन्दरिया बन्दरगाह नाम प्रदाता तथा सिकन्दर यूनानी विश्व विजयी को प्रभावशाली नामकरण प्रदाता) पुत्र हुए । ये सातौ आद्यपितर परम कृपालु परोपकारी स्नेहमय स्वभाव के तथा पितृ स्नेह से समस्त प्रजाओं का संरक्षण और संवर्धन करने के कारण ही मानव पितर माने गये ।
4. तिलमने- ये यज्ञ साकल्य हेतु श्यामातिल (कालेतिल) उत्पत्र करने वाले क्षेत्र तिलपत के निवासी तिलमटे लोगों के प्रोहित होने से तिलमने कहलाये । तिलपत का गौकुला जाट बड़ी सेना लेकर औरंगजेब के समय ब्रज में हुए विद्रोह का नेतृत्व करने आया था । दलित मत्तिल नाम के दो यक्षों के सरोवर भी कामबन में दतीला मतीला कुन्ड नाम से थे । ये दत्तिल संगीत शास्त्र ग्रन्थ का प्रमुख आचार्य था तथा उसका दत्तिलम, नाम वाला संगीत ग्रन्थ प्रसिद्ध है ।
तिलोत्तमा अप्सरायें अतिसुन्दर और नृत्य करने वाली इस वन्श में प्रख्यात रही हैं । इस वन्श के तैलंग जनों ने दक्षिण महाराष्ट्र में तिलंगाना प्रदेश बसाया तथा तेल निकालने की कला विस्तार किया । यमराज के नर्कों में कोल्हू यन्त्र में पापियों को पेरने या बैलों की जगह जोतने का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।
5. शुक्ल- याज्ञवल्क्य के शुक्ल यजु प्रयोगों के अनुयायी शुक्ल कहलाये । शुक्ल वस्त्रधारी 'शुक्लांवर धर विष्णु' भगवान विष्णु देवी सरस्वती, वेदमाता गायत्री- तथा इनके भक्त माथुर ब्राह्मण शुक्त प्रसिद्ध हुए ।
6. व्रह्मपुरि- मथुरा में ब्रह्मलोक तीर्थ के ब्रह्मोपासक ब्रह्मसभा के सदस्य मालाधारी ब्रह्मपुर्या जिस स्थान में रहते थे वह पद्मनाम तीर्थ पद्मावती सरस्वती के तट पर था उसे अभी भी मालावारी चौवे को शिवाजी महाराज द्वारादिया गया हाथी उनके द्वार पर झूमता था जिससे इसे हाथीवारी गली कहते हैं । राव मरहठों में सरदार को तथा राजस्थान में राजा की बांदियों के पुत्र होते हैं । मानाराव को राव की पदवी शिवाजी ने ही प्रदान की तथा जियाजीराव, दौलतराव, सयाजीराव आदि रावों ने अपनी समता का राव पद देकर पचीसियों गांव भेंट कर अपना पूज्य पुरोहित बनाया था । इसी क्षेत्र में पांडे माथुरों का प्राचीन निवास है ।
7. आत्मोती- आत्मा को आत्मतत्व में लीन कर उसके परम गूढ प्रकाश का अनुभव अरने और कराने वाले आत्माहुति ब्रह्मज्ञान विद्या के साधक सिद्ध पुरूष आलोवि प्रसिद्ध थे । भगवान श्री कृष्ण ने गीता में आत्म ज्ञान कहा है ।
8. मौरे- ये मयूरगणों की प्रजा मार्यवन्श केप्रे हित होने से मौरे कहे गये । मौर्यवंश में ही मुरदैत्य प्रजाओं के प्राचीन आवास मोरा मयूरवन, मुरसान, मुरार, मौरैड़, मोरवी मयूरकूट पर्वत (मोरकुटी) हैं तथा मुरदैत्यों का संहार करने के कारण श्री कृष्ण को मुरारी कहा जाता है ।
9. चंदपेरखी- चंद्रवंशी यादवों के मनोरंजन हेतु यादवों की रंगशाला प्रेक्षागृह का निर्माण और उसकी रंगमंचीय व्यवस्था सम्भालने वाले माथुर चन्द्रप्रेक्षी या चैदपेखी थे । माथुरी भाषा में श्रंगार युक्त नारी को पेखने की पूतरी' कहा जाता है । पाणिनि के अनुसार यादव कंस वध का अभिनय (उत्प्रेक्ष दर्शन पेखनां) बड़े उत्साह के साथ आयोजित करते थे ।
10. जोजले- देवों के यजन पूजा आराधना स्तुति पाठ कीर्तन भजन आदि प्रहलाद द्वारा प्रतिपादित नवधा भक्ति के आचार्य 'याजक' संयोजक झूंझर आक्रोश के साथ भक्ति उन्माद में आत्म विस्मृत जुझारून रूवभाव के लोग जोजले कहे जाने लगे ।
11. सोती- यह बड़ी अल्ल है । श्रौत स्मार्त धर्म के उपदेशक सोती थे । श्रौतधर्म में मूलवैदिक संहिताओं के अतिरिक्त वेदांग, उपवेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, परिशिष्ट, निरूद्य, सूत्र, उपनिषद, सहितायें, इतिहास पुराण, आदि अनेक आधार हैं । सूत पुत्र सौति वन्श के जिन्हें वेदाधिकार नहीं था उन शूद्र वर्ण रथकारों को वेदातिरिक्त पुराण विद्या तथा संहितादि अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय प्रदान करते रहने को महर्षि वेद व्यास ने इन्हैं सूतों शौनकों के धर्मोपदेशक के रूप में नियुक्त किय��� था । सोती प्रवासी माथरों के साथ भदावर आदि क्षेत्रों में जाकर बस गये थे ।
12. सोगरे- सोगर गाँव के सोगरिया जाटों के पुरोहित सोगरे हैं ।
13. चौपरे चौपरे या चौपौरिया इनके 4 घर(पौरी) मूल में एक स्थान पर स्थिति थे । एक कथन से चौपड़ का खेल जो कौरव पांडवों के समय में बहुप्रचलित था उसमें ये परम परांगत पासा डालने की मन्त्र विद्या इन्हें सिद्ध थी तथा बड़ी बड़ी राज सभाओं में द्यूत निर्णय के लिए बुलाये और सम्मानित किये जाते थे । शकुनी इनका गांधारी (अफ़ग़ान) शिष्य था ।
प्रकीर्ण परवर्ती आस्पद
इनके अतिरिक्त परवर्तीकाल में माथुरों के कुछ अन्यान्द आस्पद आख्या या ख्यात समयानुसार बनते गये जिनमें से कुछ के नाम हैं – छौंका, भारवारे, तिवारे, नौसैनावासी, तखतवारे, महलवारे, नारेनाग, सकनां, होरीवारे, भरौच, चीबौड़ा, उचाड़ा, भदौरियाद्व, घाट्या, नगरावार, दक्ख, मानाराव, टोपीदास के, देवमन मंसाराम के, लाल चौवे के, गहनियाँ के, पंडिता के, भारवाले, आरतीवारे, नौघर वारे, करमफोर के, कोबीराम के, काहौ, स्वामी, मुकद्दम, चौधरी, पटवारी, निधाये के, हथरौसिया, मुरसानियाँ, करौर्या आदि ।
माथुर चतुर्वेद विरूदावली
माथुरों की वंश वैभव युक्त विरूदावली लल्लू गोपालजी द्वारा प्रस्तुत यहाँ दी जा रही है-
माथुर परिचय-
चौसठ अल्लैं
136 से 138
माथुर चतुर्वेदियों की माता-श्री यमुना मैया
श्री यमुना महारानी माथुरों की परम वात्सल्यमयी कुल प्रतिपालिनी मैया हैं । श्री यमुना विश्व की सबसे पुरातन प्रजा संरक्षिणी देवी हैं । आसुरी सर्ग युग् 12600 वि0पू0 में वे यमयमी के रूप में भाई बहिन सूर्य देव सूरसेन देश में उत्पत्र हुए, और अंतरिक्ष में बिहार करने की कामना से आकाश मंडल (आक्सस नदी, आकाश गंगा और आक्साई चीन आकाशिय उदीचीना प्रदेश) में ऊँचे पर्वतों पर वीणां बजाते हुए बिहार करने को चले गये । वहां यमी ने आसुरी धर्म से प्रभावित होकर अपने भाई की धर्म नीति की परीक्षा हेतु उससे संयोग की याचना की जिसे यमदेव ने द्दठता से ठुकराकर चरित्र श्रेष्ठता का परिचय दिया । इत पवित्र आचरण से नतमस्त होकर असुरों ने उन्हैं जमशेद (यम सिद्ध), जमरूद (यमरूद्र), जुम्मा, जुमेरात जमालू, जमाउल अव्वल, आदि रूपों में पूजित माना । मार्कण्डेय आश्रम (मक्का) में अश्वत्थ लिंग (संग असवद) के मन्दिर में इनका यमुना यम सरोवर आवेजमजम के नाम से पवित्र माना जाता है । 9370 वि.पू. में ब्रह्मदेव की मानसी सृष्टि में ये पुन: कश्यपवंश में माता अदिति के गर्भ से उत्पत्र द्वादश सूर्यों में ज्येष्ठ आदित्य विवस्वान देव के यहाँ संज्ञा माता के गर्भ से मथुरा देव पुरी के प्राजापत्यययाग प्रयाग तीर्थ में अवतरित हुए । यहाँ दिवाकर देव ने पुत्र यमराज को दक्षिण दिशा में यमलोक बसाकर पापी जनों को दण्ड देकर धर्म और सदाचार की मर्यादा बनाये रखने का धर्मराज पद पितामह ब्रह्मा से दिलाया, और सूरसेन (सूर्य सेनाओं का देश) देवलोक का अनुग्रह युक्त शानक अपनी प्रिय पुत्री यमुना को प्रदान किया । आनी बहिन तपती देवी के शाप से जलधारा नदी रूप बनी श्री यमुना भागीरथी गंगा से बहुत युगों प्राचीन हैं । श्रीयमुना की उत्पत्ति 9,320 वि0पू0 है और प्रभु बारादेव ने बसुन्धरा देवी से श्री यमुना का महात्म कहा है । भक्त प्रहलाद ने भी 9254 वि0पू0 में अपनी तीर्थ यात्रा में यमुना तट के तीर्थों की यात्रा की है ।
माथुरों के यमुना पुत्र होने का चरित्र ब्रज रहस्य महोदधि श्री उद्ववाचार्य देव जू ने अपने ब्रज यात्रा ग्रन्थ में कथन किया है जो माथुरों के लिए प्रमाणप है-
एकदा ब्रह्म सदने कश्यपस्य कृतेऽच्वरे ।
समेता सुप्रजा सर्वा कश्यपस्यच औरसा ।।1।।
भक्तिनम्रा धावयन्ता: कर्मान् सम्पादयन्ति ते ।
तान्द्दष्ट्वा भानुतनया मनोभवं मनोदधे ।।2।।
एमाद्दषी प्रजा धन्या मद्गृहेपि भवेदिति ।
तानहं पालयिष्यामि बात्सल्य रस निर्भरा: ।।3।।
पुत्रेष्वेव गृहं धन्यं शोभाढ़यं गृहमेधिनाम् ।
पुत्रका यत्र क्रीडन्ति तदेव सुकृतं गृहम् ।।4।।
एक दिवस शुभ मुहूर्त में ब्रह्मलोक तीर्थ मथुरा में कश्यप महर्षि के आयोजित महासत्र में समस्त देव प्रजा और कश्यप वंशज ब्राह्मण सम्मिलित हुए । ये महर्षि गण अपने पुत्र पौत्रों और पत्नियों पिरवारों सहित भक्ति से विनम्र होकर दौड़ दौड़कर यज्ञ कार्यों को बड़े उत्साह से सम्पादन कर रहे थे इन्हैं इस आनन्दमय रूप से देखकर सूर्य पुत्री श्री यमुना महारानी जी ने अपने मन में यह भावना स्थापित की- इस प्रकार की सुन्दर ह्दय को आकर्षित करने वाली प्रजा धन्य है तथा ऐसी प्रजा मेरे भवन में भी स्थापित होनी चाहिए । मैं उनका सनेह मय अन्त: करण से लालन पालन करूँगी और सदा वात्सल्य रस में आनन्द निमग्न रहूँगी ।
आहूता बालका सर्वे सप्तर्षि कुल संभवा: ।
माथुरान् गृह्म उत्संगे पयपानं मुद्रा ददु: ।।5।।
स्नेह निर्झरितं वक्षं तानलिंग्य त्वरान्विता ।
मुहुर्महु मुखं द्दष्ट्वा परमानन्द प्राप्नुयु: ।।6।।
एतानि विप्र जातानि अग्निवंश समुद्भवान् ।
विद्या विनय सम्पत्रान् सदाचार समन्वितान् ।।7।।
माथुरेस्मिन्पुण्यक्षेत्रे पुत्रत्वेन व्रतानि मे ।
अद्यत: मम पुत्रावै लोके ख्याति लभंतिहि ।।8।।
दत्वा बहुगुणं प्रीतिं हैरण्यं भवनानि च ।
स्वगेहे स्थापिता: सर्वे माथुरा मुनि पुंगवा ।।9।।
कदाचिदपि मद्धामं न त्यजेयु: मुनीश्वरा: ।
ममाश्रये द्दढी भूत्वा दुर्गमान् संतरिष्यत: ।।10।।
तब माताजी ने हेला देकर सपत ऋषियों के दल को बुलाया एवं उन माथुर मुनि बालकों को गोद में उठाकर उन्हैं स्नेह से झरते हुए अपने स्तनों का पयपान कराया ।।5।।
प्रेम से झरते हुए वक्ष स्थल से उन्हैं अति आतुर होकर अलिंगन किया तथा उनके मुख बारम्बार निहारकार परम आनन्द का अनुभव किया ।।6।।
माता ने कहा- ये श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कुल अग्निवंश में उत्पत्र हैं तथा विद्या विनय और सदाचार से युक्त हैं ।।7।।
इस परम पुण्यमय मथुरा क्षेत्र में मैंने इन्हैं पुत्र पद पर वरण किया है अत: आज से लोग में मेरे पुत्र अर्थात् यमुना पुत्र नाम की ख्याति प्राप्त करेंगे ।।8।।
इतना महान पद देकर माता ने उन माथुर पुत्रों को बहुत श्रेष्ठ अपना अपार प्यार बहुत सा सोना और अनेक उत्तम देवोपम भवन दिए और उन माथुर मुनि पुगवों के पुत्रों को अपने निज भवन में स्थापित किया ।।9।।
उनसे कहा – हे पुत्रो कभी भी कैसे घोर संकट में भी मेरे इस धाम को त्याग मत करना यहाँ रहकर मेरे आश्रय की दृढ़ता को गृहण किए हुए तुम सब दुर्गम संकटों से निश्चय पूर्वक पार हो जाओगे ।।10।।
माता ने अपने पुत्रों को यह उदार बर दिया और इसे प��कर महर्षि अंगिरा ने वेदोक्त 'श्री य���ुना सूक्त' का सरस्वर भक्ति और स्नेह के साथ गान किया जिसे सुनकर माता ने अपार हर्ष का अनुभव किया । यह अति दुर्लभ सद्य फल प्रद कृपा का सहज साधन सूक्त महर्षि अंगिरा ने 9300 वि.पू. में जगज्जनिनी मातु श्री के चरणों में बैठकर सिद्ध किया तथा श्रीमद् उद्धवाचार्य देववर्य इसको धारण कर परम सिद्ध पुरूष बन गये ।
इसके द्वारा यमुना उपासना भक्त प्रहलाद, प्रभु वामन देव, हिरण्यकशि पुदैत्यराज, स्वायंभूमनु देव, अंवरीष राजा, शत्रुघ्न, यपरशुराम मुनीन्द्र, वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, दक्ष, उशनाभृंगु, पुरन्दर इन्द्र, वायुदेव ने की तथा महर्षि वेद व्यास के काल में इसकी उपासना से चन्द्रवन्शी यादवों पौरवों आनवों ने विशेषकर नहुष ययाति, यदु, बसुदेव, श्री कृष्ण बलराम, महर्षि वेद व्यास ने माता कालिदी की आराधना करके वेद विभाजन, 18 पुराण प्रतिपादन, महाभारत, श्रीमद् भागवत ब्रह्मसूत्र आदि अनेकानेक शास्त्रों की रचना की ।
यह सर्वप्राचीन, वेदसत्रिहित, सर्व सिद्धित्रद माथुरों का मातृस्तवन सूक्त है जो यहाँ दिया जा रहा है-
हरि: ओउम्- आदित्यासो जायमानां सहस्त्रभारस्वद्रोचिषम् ।
श्यामारूणां वैवस्वतिं श्री यमुनां भजमाहे ।।1।।
संज्ञात्मजां यमस्वसां विश्रयन्ति भृमृतावृधे ।
देवयन्तिं देवगणानाम् वरदां संवृणीमहे ।।2।।
आवाह्मामि श्रीयमुने कालिंदी संशितवृते ।
एह्मेहि विरजे सत्ये राष्ट्र मे शर्म यच्छताम् ।।3।।
कूर्मासनां मणिपृष्ठां वेणु पद्मां भुजद्वयाम् ।
केयूर मेखलांन्वितां महामणि किरीटिनीम् ।।4।।
संमे सन्तु सिद्धि दात्रिं श्री मधुपुर्याधीश्वरिम् ।
धान्यं धनं प्रजां राज्यं विभवं देहि मे जयम् ।।5।।
वर्धयन्तिं महैश्वर्य प्रियं नो अस्तु मातर: ।
नित्यं संसेवनं धेहि पादार्चनं गृणीमहे ।।6।।
वरेण्यां ब्रजाधिष्ठात्रिं वासल्यां सुप्रसादिनीं ।
संरक्षिणी प्रवर्धिनी अकानुकूल्यं बावृधस्व ।।7।।
वैराज धारिणीं विरजां गभस्ति कोटि मास्वतिम् ।
सौरसेनिं गोष्ठ शतिं सोमं क्रतुमयच्छतु ।।8।।
मधु कैट दिनं निघ्नां कौमारीं संपयस्त्रविम् ।
तां माधवीं उपव्हये आर्विभव हिरण्ययी ।।9।।
कालिंदी सरस्वतीत यमुना तिस्त्रो पदेशु भ्राजिता: ।
अरंकृर्ति मधुमर्ति सौर्या गव्यं गृणीमसि: ।।10।।
आयाहि शर्म यच्छति प्रथमं विश्व सृजे ।
अर्यन्त प्रार्चन्त देवा: साँजलि र्नतकन्धरा: ।।11।।
जिधांसति यमकौर्य शरण्यं ईरयति शर्मम् ।
मूर्त्या मांगल्यमये संसीदस्व कुले मम ।।12।।
तपस्विनीं स्वयं सिद्धां वरेण्यां भर्ग भास्करिम् ।
संगोप्त्रि अक्षयनिधिं गोपशी स्वस्तिरस्तुन: ।।13।।
उपैतु मां महाराज्ञी कीर्ति प्रज्ञां स्थैर्य सह ।
अभिरक्षतु मां नित्यं कालिन्दी माथुरेश्वरी ।।14।।
संकृणुध्वं पदानुगं आत्मानं भर्ग आभर ।
नित्योत्सवा वैजयन्ति अनन्या भीति शन्तमे ।।15।।
यज्ञेश्वरी मन्त्रेश्वरी भक्तानुग्रह तत्परा: ।
कौवेरं निधिं साम्राज्यं महैश्वर्य दधातु मे ।।16।।
तुरीयस्था योग प्रभा सहस्त्रदल मीरिता: ।
आत्मतत्वा परतत्वा महाविद्या पात्वंहस ।।17।।
गोवर्धनं वर्धयन्तिं गवि गोष्ठान्यकरन्महत् ।
मनश्चिन्तां जिघन्वतिं अभिष्टय: सम्प्रमोषि: ।।18।।
त्रिसप्त धामं त्रिदिवं त्रयो त्रिशदभ्यर्चितम् ।
यक्षस्वधामं द्युमन्तं ध्रुवस्यांगिरसस्यहि ।।19।।
प्रहल्लादो उरूक्रमणों हिरप्यकशिपु बलिं: ।
स्वायंभुवश्चांवरीषो अरिघ्नो भार्गवोत्तम: ।।20।।
वशिष्ठो कश्यपश्चात्रि: दक्षो औशनसो भृगु: ।
पुरन्दरस्य वायोश्च विधेहि से महत्पदम् ।।21।।
ब्रह्मविद्या राजविद्या ब्रह्मपारगा: छान्दोगा: ।
सहस्त्रदल संस्थिता: दधातु मेऽजरा मरम् ।।22।।
नारायणीं महत्पदां नमोमि पुत्र वत्सलाम् ।
संवर्धयति सौभाग्यं शं मे सन्तु सुवर्चसा: ।।23।।
यज्ञेश्वरी विस्फुलिंगा आयाहि जातवेदसे ।
प्रियगंधा: प्रियरसा: धियंनो धार्यतां ध्रुवम् ।।24।।
व्यासोवाच-चतुविंशतिकं सूक्तं श्री यमुनाया: प्रमीरितम् ।
जय कामो यशस्कामो श्रेयस्कामो विधारयेत् ।।1।।
शुचिर्भूत्वा ऽनन्यामना जुहुयाच्च साज्यं मधुम् ।
सर्वान्कामान वाप्नोति पदं वैश्रवणोपमम् ।।2।।
यावल्लीलां न पश्येत तावच्छेवा व्रतं चरेत् ।
प्रणतिं दर्शनं जाप्यं सर्व सिद्धि करं मतम् ।।3।।
जयं राज्यं धनं धान्यं आरोग्यं सुप्रजां सुखम् ।
सर्वाधिपत्यं यशसं संसिद्धि जयते ध्रुवम् ।।4।।
दर्शयोद् विग्रहं पुण्यं कैंकर्यत्वं समाचरेत् ।
गुरा: सेवा समायुक्तो सर्व सिद्धि प्रजायते ।।5।।
इत्यंगिरा प्रकथितं श्री यमुना सूक्त मुत्तमम् ।
भक्तिं मुक्तिं रसोद्भांव लीला प्रत्यक्ष कारकम् ।।6।।
आरार्धितं चन्द्रवंशेन नहुषेन ययातिना ।
यदोश्च श्रीकृष्णश्च बलरामेण धारितम् ।।7।।
वेदव्यासमिदं जप्त्वा ध्यात्वा श्री रविरात्मजाम् ।
कृतवानसर्व शास्त्राणि वेदांश्चापि प्रयणदिता ।।8।।
तस्मात्सर्व प्रयत्नेन गोपयेत्परमं धनम् ।
अस्याराधनया वत्स सर्व सिद्धि प्रजायते ।।9।।
हरि:ओऽम् तत्सत् नमोनम: ।
महर्षि अंगिरा द्वारा सम्पूर्ण माथुर मुनि पुत्रों के साथ गान किये इस सूक्त से माता श्री यमुना अति आनंदित हुई । उन्होंने पुन: कहा-
यो यूयं मम पुत्रान्वै अर्चयिष्यन्ति श्रद्या ।
तेन मे परमातुष्टि भवेदिति न संशय: ।।11।।
माथुरा मम रूपाहि माथुरा मम वल्लभा ।
माथुरे परि तुष्टे वै तुष्टोऽहं नात्र संशय ।।22।।
हे प्रिय पुत्रो ! जो धर्म निष्ठ प्राणी उदार विनय युक्त मन से मेरे तुम पुत्रों माथुरों की अर्चना करेगा तुम्हें सन्तुष्ट करेगा उससे मैं परम सन्तुष्टि प्राप्त करूँगी इसमें सन्देह नहीं है ।।11।।
माथुर मेरे ही रूप हैं, माथुर मुझे प्राणों से ज़्यादा प्यारे हैं, माथुर के सन्तुष्ट होने से मैं आप स्वयं आनन्द के साथ सन्तुष्ट होती हूँ यह निश्चित अटल सत्य है ।।22।।
इस सन्दर्भ में श्री उद्धाचार्य देवजू के सुपुत्र श्री भगवान मिहारी के कुछ सुन्दर छन्द भी प्राप्त हैं-
कवित्त-
चाह करी मन में रविनं दिनी ।
सप्त ऋषीन के बालकटेरे ।
पुत्र बिना घर सून्यों अमंगल,
वाल विनोद आनन्द घनेरे ।।
'भगवन्त जू' याविधि पायि सनेह,
कहै सब जै जै महासुख हेरे ।।
माथुर बाल लगाये हियेते,
सो आजु ते पूत भये तुम मेरे ।।1।।
मो मथुरा करियो सदा बास,
औ कीजो सदां पयपान सुखारी ।
उत्तम भोजन कंचन वैभव,
पाऔ सदा मुद मंगलकारी ।।
भगवंतजू पूजियो मोहि सनेह सौ,
जो नहीं पूजै सो होई भिखारी
पूत सपूत बने रहोगे तो मैं-
रच्छा करौं सब काल तिहारी ।2।
यमूना पूत्र कर्त्तव्य
द्वारपै नाम जो मेरौ लिखै, घर भीतर सेवा मेरी पघरावै ।
मन्त्र जपै नित, ध्यान धरै, सिर सादर नायि मेरे गुन गावै ।।
भगवंत प्रसादी बिना नहीं भोजन, पर्थ पै उच्छव हर्ख मनावै ।
या मति मेरौ आधार गहैं रहैं, एसौ सपूत मेरे मन भावै ।।3।।
कृपा प्रभाव प्रत्यक्ष
राजा नवै, महाराजा गहै पद, मातु कृपा कौ प्रतापु है भारी ।
संत महंत आचार्ज घनाधिप, आसन दैंई दै मान अपारौ ।।
'भगवंत' ज वैभव ठाठ लगे रहैं, भाव अभाव न हो दुखारी ।
एसी उदार अपार कृपा, रविनंदनि की महिमां कछु न्यारी ।।
माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मणों की परम स्नेहमयी इन मातु श्री का स्तवन प्राय: प्रत्येक संप्रदाय के आचार्य ने किया है । अपने आराधित इष्ट देव की सिद्धि का साक्षात्कार बिना श्री यमुना मैया की कृपा के होना असंभव मानकर श्री आद्यशंकराचार्य ने श्री यमुना स्तबन-"जययमुने जय भीतिनिवारिणि संकट नाशिनि पाबय माम्", श्री कालिन्दी माता का स्तबन-" धुनोतु मे मनोमलं कलिंदनंदिनी सदा" किया है श्री गर्गाचार्य मुनि की गर्ग संहिता माधुर्य खंड में महर्षि सौमरि का राजा मांधाता को उपदिष्ट श्री यमुना पंचांग(यमुना स्तोत्र, कवच, पटल, अर्चन, सहस्त्रनाम) श्री प्रभु उद्धवाचार्यदेव का यमुना शरणागति स्तोत्र, श्रीमद् बल्लभाचार्य का यमुना अष्टक, श्री गो0 विद्वल नाथजी, श्री हरिराय जी, हरिबल्लभ, माधव, हरिदास, रमेश भट्ट गोकुलेश आदि वैष्णव भक्तों के स्तोत्र, श्री हित हरिवंश (राधा बल्लभी आचार्य) श्री रूप (सनातन) गौड़ीय आचार्य, सम्राट दीक्षित पंडितराज, कविवर ग्वाल, कविवर श्री मुदित मुकुन्द की यमुना लहरी आदि प्रभूत साहित्य हैं, जिसे वेदपाठी श्री बिहारीलाल जी की यमुना पूजन पद्धति में देखा जा सकता हैं ।
श्री मथुरा पुरी में महर्षि अंगिरा द्वारा आराधित श्री यमुना मैया की यह पुरातन देव विग्रह प्रतिमा अनंदमयी मुद्रा में वैदिक सूत्र के अनुसार- "कूर्मासनां मणि पृष्ठां वेणु पद्मां भुज द्वयाम्" छवि को धारण किये हुए यमुना तट पर अपने निजधाम श्री यमुना निकुंज देवस्थान सूर्य गोलपुर (गोल पारा) प्रयाग घाट पर विराजमान हैं । यह माथुरों की परम पूज्य मैया और श्री सिद्धि स्वरूपा हैं । आश्चर्य है कि माथुर मुनीश अपनी परमाराधनीय इस माता की सेवा आराधना करने में निपट उदासीन तणा बहिर्मुख हैं । यहीं श्री उद्धवाचार्य देवजू का प्राचीन ब्रजयात्रा ग्रंथ उनकी छवि जी तथा पादुका जी विराजमान हैं जो सेवा करने पर कृपा सिद्धि प्रदायक हैं ।
वृम्हरात्रि का अधर्म वृद्धि युग
3000 वि.पू. के बाद कलियुग ने अपना पैर जमाया । महाभारत के पश्चात मगध का राजवंश चक्रवर्ती सम्राट बना परिक्षित को कलिप्रेरित प्रयास से ब्राह्मण शाप द्वारा तक्षक नाग ने समाप्त कर दिया । यादव स्वयं ही कलह की अग्नि में कूद गये । द्वारिका की जल प्रलय ने दूर दूर तक समुद्र तटवर्ती देशों को ध्वस्त किया । जनमेजय को नागों की शक्ति के सामने पराभव देखना पड़ा । वैशम्पायन और याज्ञवल्क्य की कलह में यजुर्वेद के कारे गोरे दो टुकड़े हो गये । जरासंध ने मथुरा शूरसेन देश पर 17 आक्रमण किये जिनमें 41 राज्यों के सत्ताधारी सहायक थे । इधर श्री कृष्ण बलराम के साथ मात्र केवल 18 यादव नरेश ही थे । बड़ी सेना के दबाव से वे 32 वर्ष की आयु में अंधक वृष्णि संघ के साथ सुदूर पश्चिम के जल दुर्ग द्वारिका में चले गये ।
जरासंध यादवों का शत्रु था । द्रोपदी स्वयंवर में बृहद्रथ में धनुष उठाते समय घुटने फूट जाने पर उसका पलायन और श्री कृष्ण के समर्थन से अर्जुन का द्रोपदी से विवाह, महर्षि धौम्य की पांडव पौरोहित्य प्रतिष्ठा, कंस का वध और उग्रसेन का राज्यारोहण इसके उत्तेजक हेतु थे । उधर सूत मागध शौनकशूद्र प्राय माने जाते थे । इन्होंने माथुर महामुनीष महर्षि वेद व्यास की सेवा में अपने को समर्पित किया और कृपालु मुनि ने सूतों को पुराणाचार्य पद, शौनक को अथर्वा वेदाचार्य तथा मागधों को माथुरों की मैत्री के साथ गया तीर्थ का पौरोहित्य और वंदीजनों को ब्रह्ममट्ट राय भाट जागा के रूप में वंशावली संरक्षण् के कार्यों में नियुक्त किया । "माथुरों मागधश्चैव" एक मैत्री बनी और माथुरों को उस समय की अपनी उदार नीति के कारण अनेक प्रहार और अपवाद सहन करने पड़े , परिणामत: मथुरा पर अधिकार के बाद जरासँध ने मथुरा को लूटा जलाया या विनष्ट किया हो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता ।
जरासंध की शत्रुता यादवों से थी । उसने 86 यादव नरेश और उनकी अविवाहित राजकन्याओं को अपने कारागार में डाल रखीं थीं महाभारत के बाद योद्धाओं की शक्ति समाप्त नहीं हुई थी । मगध साम्राज्य का शौर्य और विस्तार बढ़ रहा था । किन्तु मगध विदेशयी जातीय गांधारी (कंधारी पठान) वंश के उपरिचर बसु की सन्तान होने से वैदिक यज्ञों धर्म और देव पद्यति के प्रति निष्ठावान न थे । उनके ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज में उच्चता समानता युक्त सम्मान भी प्राप्त न था फिर भी उन्होंने 3233 से 2011 वि0पू0 तक 1222 बर्ष भारत पर अपना एक छत्र राज्य जमाये रक्खा । इसी अवधि में 1800 वि0 पू0 में ब्रह्म दिवस के कलियुग का अवसान हुआ ।
व्रम्हरात्रि का द्वितिय कलयुग- शौनकसत्र
ब्रहद्रथ वंश के राजा रिपुंजय के बाद शुनक वंशी व्यासशिष्य शौनकों का वंश शासनारूढ़ हुआ । वृहद्रथ वंश ने अपने लंबे राज्यकाल में कोई उल्लेखनीय धर्म कार्य किया हो एसा ज्ञात नहीं होता, किन्तु शुनक वंशियों ने सूतों को पुराणों के क्षेत्र में महान प्रतिष्ठा देकर नैमिषारण्य मिश्रिक आदि नव तीर्थों की स्थापना करके लंबे काल के कथा सत्र आयोजित किये । इन कथा महा सम्मेलनों में 88 हज़ार ऋषि महर्षि, लक्षाबधि प्रजाजन, तथा दानी मानी राजपुरूषों ने भक्ति के साथ 18 पुराणों का कथारस पान किया ं पुराणों का बहुविधि विकास विस्तार और जनसम्मान इसी युग में माथुर वेदव्यास शिष्यों के द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर प्रचारित हुआ । माथुर ऋषि महर्षि इन सत्रों के प्रथम कोटि के निर्देशन और सहायक थे । इन सत्रों में श्री कृष्ण की महिमा, उनके रसप्लावित चरित्र, ब्रजभूमि, मथुरा, और माथुर चतुर्वेद ब्रह्मणों की कीर्ति का महान प्रचार हुआ । 5 पीढ़ी राजकर 1873 वि0पू0 में महाराज वंशजों ब्रज औ काशी के नागों का अधिकार मगध साम्राज्य पर आया ।
भाग ब्रज की प्राचीन जाति थी । इस वंश में विंवसार(1727-1689 वि0पू0) अजात शत्रु (1627-1662 वि0पू0) उदायी डदितोदय मथुरा का राजा(1627-1594 वि0पू0), नंदिवर्धन(1594-1554 वि0पू0) तथा महामंदी कालाशोक (1554-1511 वि0पू0) आदि 10 राजा हुए । यह द्वितीय कलि (1800-600 वि0पू0) का समय इतिहास में बहुत क्रान्तिकारी समय हैं । एतिहासिक शंसोधन के अनुसार इस युग में जैन धर्म आचार्य महावीर स्वामी का जन्म 1797 वि0पू0 मेंतथा बुद्धि धर्म प्रवर्तक बुद्धदेव का जन्म 1760 वि0पू0 में हुआ । इन दोनों मतों ने प्राचीन वैदिक धर्म को झकझोर डाला और रात्रि कलियुग का झंझावात खड़ा कर दिया । उदायी या ऊदितोदय के मथुरा पर सासनारूढ़ रहने के उल्लेख बौद्ध साहित्य में है, और उसके समय मथुरा धर्म प्रचार का प्रधान केन्द्र था तथा माथुर अपनी स्वधर्म निष्ठा पर दृढ़ तथा सम्मानित थे ।
महापद्म नंद वंश
1511 वि0पू0 में महापद्मनंद के वंश का महा साम्राज्य स्थापित हुआ । महापद्मनंद एक महान प्रतापी सम्राट था उसके राज्य में माथुरा और मथुरों के वैभव और श्रेष्ठता का महान विस्तार हुआ । सुमाल्य आदि इसके 9 पुत्रों ने मथुरा की वैभव वृद्धि में स्नेहयुक्त योगदान दिया ।
मौर्य वंश
1411 वि0पू0 में कटैलिया जाटों के पुरोहित कौटिल्य चांड़क्य की कूटनीति योजना से परम प्रतापी चंद्रगुप्तमौर्य द्वारा मौर्य वंश के साम्राज्य की नींव पड़ी । मौर्य मूलत: ब्रज के मयूर ग्राम(मोरा गाँव) के निवासी मयूर गण थे । ब्रज की तेजस्विता के फलस्वरूप वे अनेक खंडों में फैलकर स्व्च्छंद और महावलशाली बन कर मुरदैत्य तथा मूर मु��ाई मुरशद कहे जाने लगे । मुरसान, मुरार, मोरवी, मुरैना मोरावां आदि अनेक क्षेत्रों में इनका वंश फैंल चुका था । चंद्रगुप्त के उत्तर भारतीय साम्राज्य में मथुरा एक प्रमुख केन्द्र था, तथा इस वंश के वैभवशाली राजपुरोहित मौरे अल्ल धारी माथुरों के अनेक परिवार अभी भी मथुरा नगर में बसे हुए हैं । मौर्य काल में बौद्ध मत सारे भारत तथा विदेशों में भी ख़ूब फैला । विंदुसार पुत्र सम्राट अशोक इस वंश का सबसे अधिक प्रतापी सम्राट था । इसने मथुरा में अनेक बौद्धस्तूप विहार और सनातन धर्म के देवालय निर्माण कराये, जिनकी वैभव संपति ��था अर्चना विधि के संचालक माथुर ब्राह्मण थे । इस वंश के सम्राट शालिशूक (इंद्रपालित) 1300 वि.पू. के समय बौद्धधर्म बहुत विकृतियों से युक्त हो गया था । बौद्ध राजाओं का आरय पाकर बौद्धभिक्षुओं की संख्या इतनी बढ़ी कि वह भूमि का भार बन गयी ।
कुछ इतिहास ज्ञों के मत से बौद्ध भिक्षु बल पूर्वक ग्रहस्थों के घरों से भिक्षा बसूल करने लगे । वे किसान का अनाज, ग्वालों का दूध घी, कुम्हारों के वर्तन, बजाज, दर्जी, माली, तेली, नाई, वाहन, चालकों के उत्पादनों और साधनों का बिना मूल्य अपहरण करने लगे । किसान, कारीगर, मजदूर, व्ययसायी, विद्वज्जन सभी वस्त्र रंगकर बौद्ध विहारों में भिक्षु बनकर मुफ़्त के माल उड़ाने लगे । राजाओं क��� सेना सैनिक निशस्त्र भिक्षु बनकर चैन की नींद लेते हुए शौर्य हीन हो गये । राजदंड में क्षमा और दया का प्रवेश होने से चोरी लूट व्यभिचार आदि अपराध बढ़ गये । बौद्ध भिक्षुव्यसनी विलासी और तंत्र मंत्र नग्नासनों सिद्धियों के प्रयोंक्ता बन गये । सारा देश अकर्मण्य दुर्वल, कायर, शौर्यहीन और निस्तेज हो गया । इस अवसर का लाभ उठाने को उत्तर पश्चिम के आसुर क्रूर लोग भारत की दबोच कर अपने आधीन करने के प्रयास करने लगे । देश का धर्म और सुरक्षा महान संकट में पड़ गये ।
भगवान काल्कि का प्रादुर्भाव
ऐसे समय गीता में अपनी धर्म घोषणा के प्रतिपालनार्थ प्रभु ने भगवान काल्कि के रूप् में अवतार धारण किया । प्रभु काल्कि का आविर्भाव संमल ग्राम में विष्णुयशा पराशर बशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण के यहाँ मौर्य शालिशूक राज के राज्यकाल में 1338 वि0पू0 में हुआ । विष्णुयश को अपने गुरु याज्ञवल्क्य वंशज तपस्वी ब्राह्मण से कृपारूप् आशीर्वाद प्राप्त था । कल्कि ने सिंहल द्वीप में पद्मावती नाम की राजकन्या से विवाह किया और फिर वहाँ से देवदत्त अश्व पर सवार होकर कराल खग्ङ धारण कर वैदिक धर्म के विरोधियों के संहार की घोषणा की । प्रथम उन्होंने विन्ध्येश्वरी नंदपुत्री योगमाया भगवती की आराधना की और फिर आकर मगध देश में ही विशाल धर्म सेना तैयार कर विधर्मियों का दमन आरंभ किया । इस समय बुद्ध धर्म को 450 वर्ष तथा उसके 25 बुद्ध हो चुके थे ।
देश में नास्तिक अधर्मवादी संप्रदायों का जोर था । इनमें चावकि निरीश्वरवादी, अजितकेशी, उच्छेवादी, गोशालमंखली, आजोवकी, गोष्ठा माहिल, अनीश्वरवादी, पक्थ काच्चायन अशाश्वत वादी, पूरण काश्यप, सांजय वेल्हीपुत्र विक्षेप वादी आडार कालम अकिर्चिन्नायन बाद (संसार में कहीं कुछ नहीं है), आम्रपालिगणिका उपलि नापित का जात पांत निर्मूलन प्रयास, आदि प्रमुख थे । ये दान धर्म यज्ञ पाप पुण्य स्वर्ग नर्क कुछ नहीं हैं, हत्या चोरी व्यभिचार से पाप नहीं लगता तथा तीर्थ दान पूजा से पुण्य नहीं होता ऐसा घर घर प्रचार करते थे । जैनों के 363 पंथ तथा बौद्धों के अनगिनती थे । मगध, लिच्छवी, शाल्व, बुलि, कोल्लिय, मत्म्त्मे, कौशल आदि अनेकों राजा इन संघों के भक्त थे ।
प्रभु काल्कि ने इन सबका प्रतारण किया । अधिक रक्त पात न करके उन्होंने यज्ञों द्वारा प्रजा को आकर्षित करके और सेना भय से नरेशों को कुमार्ग से विरत करके सारे देश में शाश्वत वैदिक श्रौत स्मार्त पौराणिक धर्म की ध्वजा समग्र भारत वर्ष में फरहादी । लोग लाखों की संख्या में भगवान काल्कि के दर्शनों, यज्ञ महोत्सवों और अपने प्राचीन धर्म को पुन: अंगीकर करने की आने लगे । कहीं कहीं कुछ गर्वित नरेशों ने युद्ध भी किया परन्तु वे पूर्णत: ध्वस्त हुए । फिर उन्होंने सीमा पर आक्रमण की तैयारी करते हुए यवन म्लेच्छ खश, काम्बोज, शवर, बर्वर, भूतवासी सारमेयी, काक, उलूक, चीन, पुर्लिद, श्वपच पिशाच, मल्लार देशों को विजय कर उन्हें धर्मानुकूल बनाया ।
इस धर्म विजय के पश्चात अयोध्या तथा फिर "मथुरा मागमन्मही" 'तस्या, भूपंसूर्यकेतु' मभिषिच्य महाप्रभु' वे मथुरा पधारे यहाँ विशाल यज्ञ आयोजित किया प्रधान ब्राह्मण माथुरों की अर्चना की तया समस्त जीती हुई भूमि ब्राह्मणों को दान करके देदी । माथुरा के बाद गाँव में इस यज्ञ का आयोजन करके प्रभु काल्कि ने मथुरों को वेदवाद प्रचार के लिये संयोजित किया । इस प्रकार अपना अवतार कार्य परिपूर्ण करके वे 1296 वि0पू0 में हिमालय में प्रवेश करके स्वधाम को प्रयाण कर गये । भगवान काल्कि का स्नेह माथुर ब्राह्मणों पर विशेष रूप से था पिंडारक तीर्थ पर जब माथुर महर्षि गण अत्नि वशिष्ठ मृगु पराशर दुर्वासा अंगिरा उनके समीप पहुँचे तो उन्होंने कहा –
मथुरायामहं स्थित्वा हरिष्यामितु वो भयम् ।।26।।
युवां शस्त्रास्त्र कुशलौ सेनागण परिच्छदौ ।
भूत्वा महारथौ लोके मया सह चरिष्यथ: ।।28।।
भगवान कल्कि का चरित्र दिव्य महान और विस्तार युक्त है । कल्कि पुराण में इसका पूर्ण वर्णन हुआ है । यह पुराण भारत धर्म महामंडल काशी द्वारा 1962 वि0 में निगमागम पुस्तक भंडार बांस का फाटक बाराणसी से प्रकाशित हुआ है तथा बैंकटेश्वर प्रेस बंबई एवं खेमराज श्री कृष्णदास बंबई से भी इसके प्रकाशन हुए हैं । अमरीका की पेन्सिलवेनियाँ विश्वविद्यालय तथा ब्रुकलिन कालेज न्यूया्रक में कल्कि अवतार पर शोधकार्य हुआ है पुराणों में स्कंद पुराण माहेश्वर कल्प के कुमारिकाखंड में तथा महाभारत के बन पर्व 188 तथा 190,191 में भी इस अवतार का कथन है फिर न जाने किस कारण से विद्वद्वर्ग ने ऐसे महान अवतार को अंथकार के गर्त में डाल रक्खा है ।
जगद्गुरु श्री शंकराचार्य और कुमारिल स्वामी
600 वि0पू0 से 1800 विक्रम संवत तक ब्रह्मरात्रि का द्वापर युग प्रवर्तित हुआ । इस काल में आंध्रमृत्यु, वाकाटक, सात वाहन, भारशिवनाग, गुप्तवंश, चालुक्य, पल्लव, पांड्य चोल, बल्लभी, मौखरी आदि अनेक वंश उठे और गिरे/हूणों के आक्रमण का ताँता लगा । युग धर्म के अनुसार जो पांखंड मत काल्कि विजय में भेष बदल कर लुप्त हो गये वे पुन: सिर उठाने लगे । अत: धर्मवीज के अंकुर की रक्षा के लिए भगवद अन्श से और दो महापुरूषों ने जन्म धारण किया । इनमें प्रथम श्री कुमारिलभट्ट स्वामी थे जो श्री शंकराचार्य से 57 वर्ष बड़े थे । श्री पी0 एन0 ओक की शोध के अनुसार इनका जन्म लगभग 509 वि0पू0 का है । इन्होंने 97 वर्ष आयु प्राप्त करके आसेतु हिमालय वेदमार्ग की घ्वजा फहरा कर बौद्धों तथा अन्य बचे खुचे पाखन्ड मतों को उन्मूजन किया । श्री शंकराचार्य के बौद्ध मत खन्डन पत्रक में इनका विशेष उल्लेख है । इन्होंने कार्तकिेय स्वामी का अवतार होने से स्वामी पद धारण किया था । मगध विहार के नालंदा विश्व विद्यालय में जबसे बौद्ध आचार्य से न्याय दर्शन पढ़ रहे थे तब गुरु के चरण दबाते समय वेद निन्दा सुनकर अनके नेत्रों से आँसू टपक कर आचार्य के चरणों में गिरे । यह देख बौद्धों ने यह तो वेद वादी है । वे उन्हैं धनवाद के राजा सुघन्वा के सामने ले गये और वहाँ उन्हैं ताड़ना देकर ऊँचे पर्वत से गिराया गया किन्तू वेद सत्य है तो मेरी रक्षा होगी' एसे निश्चय से इनकी रक्षा हुई । तब इन्होंने समस्त भारत वर्ष में वेद धर्म के प्रचार की ���्रतिज्ञा ली । मथुरा के वेदपाठी चतुर्वेदी माथुर ब्राम्हाणों के महत्व को अनुभव कर उन्होंने अपना वेद धर्म आन्दोलन यहीं से श्रीगणेश किया । उन्होंने वेदपाठी चतुर्वेदी ब्राह्मणों का एक वेद प्रचार वर्ग बनाया और उसका केन्द्र जिस स्थान पर रक्खा वह वेदवाद तीर्थ बाद गाँव नाम से अभी भी मथुरा में है तथा इस समूह के वेद वादी माथुरों की भारद्धाज गोत्रिय शाखा कुमारिली या रिली कही जाती है विद्वानों ने इस शाखा को अनअल मनमानी कहा है जबकि उनने इस प्राचीन शाखा के गौरव को जाना ही नहीं । इसके बाद बाद गाँव को आगे चलकर भक्त महात्मा श्री हित हरि वंश जी की जन्म भूमि होने का भी महत्व प्राप्त हुआ है ।
एक बार कुमपरिल स्वामी राजा सुघन्वा के राज महल के नीचे से जा रहे थे । उन्हैं देख राजा की राजकुमारी ने छत पर से व्याथित स्वर में पुकार की 'कि करोमि क्व गच्छामि, को नुइरिष्ययति ।' उन्होंने ऊपर देखा और उत्तर दिया 'मा चितय बरारोहे भट्टाचार्योस्ति भूतले ।।' बौद्धमतानुयामी सुघन्वा राजा ने इन्हैं अनेक कष्ट दिये किन्तु अन्त में पराजित होकर वह इनका शिष्य हो गया और सारे देश में दुन्दुभी घोष करा दिया-
व्यादाथाज्ञां ततो राजा बधाय श्रुति विद्विषां ।
आसेतो रातुषाराद्रे, बौद्धानां वृद्धिं घातकम्
नहनिष्यतिय: स हन्तव्य. भृत्यानित्यन्वशानृप ।
इस राजाज्ञा से सारा बौद्ध समाज निरस्त हो गया ।
विद्यारण्य स्वामी लिखते हैं-
बौद्धादि नास्तिकाध्वस्त वेदमार्ग पुरा किल ।
भट्टाचार्य: कुमाररांश: स्थापयामास भूतले ।।4।।
जगदगुरु श्री आद्यशकराचार्य महाराज- इस समय में 452 वि0पू0 में केरल में शंकर भगवान के अवतार श्री आद्य शंकराचार्य सवामी का प्रादुर्भाव हुआ । वे केवल 32 वर्ष ही भूलव पर विराजे किन्तु इतने समय में ही उन्होंने सन्यास ग्रहण कर भारत वर्ष के समस्त धरा मण्डल का परिभ्रमण कर वैदिक समातन धर्म की अखन्ड ध्वजा फहरा दी ।
उन्होंने देश की चारों सीमाओं पर उत्तर में ज्योतिर्मठ, दक्षिण में श्रृंगेरीमट, पूर्व में गोवर्धन मठ और पश्चिम में शारदा मठ के प्रबल धर्म केन्द्र स्थापित किये । वे मथुरा पुरी भी पधारे और माथुरों का मानकर श्री यमुना महारानी के परम भक्ति पूर्ण दो यमुनाष्टक रचकर गान किये । इनमें से एक में "धुनोतु में मनोमलं कलिंदनदिनी सदा" कहकर महर्षि वेद व्यास के कृष्ण गंगा आश्रम पर विराजमान कलिंदी माता जी तथा दूसरे में जय यमुने जय भीति निवारिणि शंकट नाशिनि पावय माम्" कहकर मधुवन चारिणि भास्कर वाहिनि अर्थात् सूर्य सेन पुरी मथुरा के सूर्य सांव तीर्थ से मधुवन में बहने वाली एतिहासिक यमुना धारा की वन्दनात्मक सूचना दी है ।
इन स्तोत्रों में श्री महाराज ने 'तटाँतवास दास हँस ता" "ब्रजपुरवासि जनार्जित पातक हारिणि तथा तव पद पंकज आश्रित मानव कहकर यमुना पुत्र माथुरों की ओर संकेत किया है । इसी महान परम्परा के द्वारिका पीठ के श्री शंकराचार्य स्वामी वर्य ने यहाँ माथुरों पर होता आक्षेप सुनकर एक अति महत्वपूर्ण धर्म व्यवस्था माथुरों को स्नेहाई होकर प्रदान की जो इस प्रकार हैं-
श्री शारदा पीठ द्वारिका के पीठाधीश्वर जगद् गुरु श्री शंकराचार्य स्वामी द्वारा घोषित
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वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने का एकमात्र माध्यम
मैंने सभी महानुभावो��� से निम्न विषयों पर अपने विचार प्रकट करने हेतु कहा था -
वेद की वैज्ञानिकता को कैसे सिद्ध किया जा सकता है?
वेद में ऐसा क्या विशेष है, जिससे यह सिद्ध हो सके सम्पूर्ण वैज्ञानिकों के समक्ष कि वेद ही ईश्वरीकृत है, जिससे वेद सम्पूर्ण विश्व में स्थापित हो सके।
आप सभी महानुभावों ने अपनी-अपनी योग्यतानुसार इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए, जिसके लिए मैं आभार व्यक्त करता हूँ। सभी प्रिय महानुभावों ने कुछ इस प्रकार के विचार प्रकट किए, जो मैं आगे उद्धृत कर रहा हूँ। सभी महानुभावों ने ये विचार प्रकट किए कि वेद सबसे प्राचीन पुस्तक है, वेद श्रुति रूप में थे, वेद सृष्टि के आरम्भ से ही हैं, वेद में कोई इतिहास नही हैं, वेद में विज्ञान विरुद्ध कोई बात नही हैं, वेद में विज्ञान सम्मत बातें हैं, वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद ज्ञान का भंडार है, संसार के सभी विद्याओं का मूल वेद है, वेद में प्राणी मात्र के कल्याण के लिए व लोक व्यवहार के लिए सत्य उपदेश व सत्य विद्या विद्यमान है, वेद में मानव विरुद्ध एवं सृष्टि विरुद्ध कोई भी बात नहीं लिखी हुई है, वेद में अनंत ज्ञान व विज्ञान है, कुछ वैज्ञानिक लोग वेद पर शोध कर रहे हैं, सभी ऋषियों का यह कथन है कि वेद ही ईश्वरकृत है, वेद स्वयं प्रमाण है, जहां किसी अन्य से प्रमाणित ना हो, वहां वेद से प्रमाण लिया जाता है, वेद का काल सृष्टि के आरंभ से है जिसे ईश्वर ने मनुष्य मात्र के लिए दिया है, वेद ऐसी रचना है जो मनुष्य द्वारा नहीं रचा जा सकता, ऋषियों के शब्द प्रमाण हैं कि वेद ईश्वरकृत है, इसलिए बुद्धिमान लोग यह कह सकते हैं कि वेद ईश्वरकृत रचना है, आदि। ये सभी विचार व शब्द प्रमाण मेरे सभी प्रिय महानुभावों ने रखें थे।
अब इस पर मेरा विचार
अब तक हम सब वेद के बारे में यही जानते आये हैं और मान्यतानुसार, ऋषियों के शब्द प्रमाणों के आधार पर यही मानते आए हैं कि वेद ईश्वरकृत है। शब्द प्रमाण के अतिरिक्त हमारे पास और कुछ है भी नहीं। यद्यपि ऋषियों के शब्द प्रमाण में हम सभी वैदिक धर्मियों को कोई भी सन्देह नहीं। हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमें ऋषियों के कथन पर कोई भी सन्देह नहीं, क्योंकि ऋषियों के कथन व शब्द प्रमाण पूर्णतः सत्य होते हैं। किन्तु व्यवहारिक रूप से वैज्ञानिक आधार व दृष्टिकोण से संसार के समस्त वैज्ञानिकों के समक्ष यह कैसे सिद्ध होगा कि वेद ही ईश्वर कृत है? वैज्ञानिक तो वेद को ईश्वरकृत नहीं मानते। हमारे सभी ऋषियों के शब्द प्रमाण मात्र से संसार का कोई भी वैज्ञानिक यह स्वीकार कभी नहीं कर सकता कि वेद ईश्वरकृत रचना है। हम यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि मेरे जितने भी प्रिय महानुभावों ने वेद को ईश्वर कृत सिद्ध करने के लिए अपनी योग्यतानुसार जितने भी विचार व प्रमाण रखे, जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया है, उन सभी विचारों व प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिकों के समक्ष वेद को ईश्वरकृत सिद्ध नहीं किया जा सकता।
वेद को वैज्ञानिक आधार, दृष्टिकोण व विज्ञान के माध्यम से वैज्ञानिकों के समक्ष ईश्वरकृत सिद्ध करने का माध्यम
वैज्ञानिकों के समक्ष वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने के लिए सर्वप्रथम तो हमें ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करना होगा, ठोस वैज्ञानिक प्रमाण के आधार पर, क्योंकि वैज्ञानिक ईश्वर की सत्ता को नहीं मानते। यह भी सत्य है कि कुछ वैज्ञानिक ऐसे भी हुए हैं, जो ईश्वर की सत्ता को तो मानते हैं किन्तु उनके पास भी ईश्वर के अस्तित्वत को सिद्ध करने के लिए वैसा कोई भी वैज्ञानिक आधार नहीं है। उनमें से कुछ वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं कि कोई तत्व ऐसा तो है, जो ब्रह्माण्ड को संचालित कर रहा है परंतु उनके पास इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण, आधार व वैज्ञानिक व्याख्या नही। अतः ईश्वर की अस्तित्वता को लेकर वैज्ञानिकों के बीच बहुत ही विरोधाभास व मतभेद है। इस कारण ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने की सामथ्र्य संसार के किसी भी वैज्ञानिक में नहीं, फलस्वरूप आधुनिक विज्ञान ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता। यदि ईश्वर का अस्तित्वत विज्ञान के माध्यम से सिद्ध हो जाये, तो ही हम आगे की ओर बढ़ सकते हैं वेद को ईश्वर कृत सिद्ध करने की दिशा में वैज्ञानिक आधार, विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम व प्रमाण से वैज्ञानिकों के समक्ष। यद्यपि यह अनुसंधान, शोध व खोज के कार्य तो विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक, विश्व के एकमात्र वैदिक भौतिक वैज्ञानिक, विश्व के एकमात्र वैदिक ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक व सम्पूर्ण विश्व में वर्तमान काल के वेदों के सबसे बड़े महाप्रकाण्ड ज्ञाता पूज्य गुरुदेव आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक के हैं। मैं केवल वह माध्यम व उनके इस महान् खोज, शोध व अनुसंधान को ही यहाँ बताऊंगा, जिससे सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों के समक्ष वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधार व प्रमाण से पूर्ण रूप से यह सिद्ध हो जाएगा कि केवल वेद ही ईश्वरकृत रचना है। यह सिद्ध होने के पश्चात् संसार के सभी वैज्ञानिक व समस्त लोग यह स्वीकार करेंगे कि वेद ही ब्रह्मांडीय व ईश्वरकृत रचना है, फलस्वरूप वेद की ईश्वरीयता को संसार का कोई भी मानव नकार नहीं पायेगा तथा वेद की स्थापना भी स्वतः सम्पूर्ण विश्व में अवश्य होगी।
ईश्वर के अस्तित्वत को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने का सामर्थ्य इस संसार में केवल एक ही महात्मा ऋषि कोटि के विश्व के एकमात्र वैदिक वैज्ञानिक व वर्तमान काल के वेदों के सबसे महाप्रकाण्ड ज्ञाता, श्रद्धेय गुरुदेव आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक के पास ही है। श्रद्धेय आचार्य जी के अतिरिक्त संसार के किसी अन्य मानव में यह सामथ्र्य, योग्यता व क्षमता नहीं है और ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध करने की संपूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया, वैज्ञानिक व्याख्या व प्रणाली का ज्ञान केवल आचार्य जी को ही है और आचार्य जी के पास ही यह सामथ्र्य है, जो अटल सत्य है। आचार्य जी बहुत पूर्व ही ईश्वर को विज्ञान के माध्यम से सिद्ध कर चुके हैं और विश्व के सभी बड़े वैज्ञानिकों के समक्ष उन्होंने यह सिद्ध करने हेतु भरसक प्रयास भी किये। कई बार भारत सरकार को भी लिखा और अप्रैल 2018 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के विज्ञान संस्थान में भारत सरकार ने एक अन्तर्राष्ट्रिय काॅफ्रैंस के आयोजन का आयोजन भी किया, परन्तु कुछ षड्यंत्रकारियों ने उस काॅफ्रैंस को बाधित करके विश्वस्तरीय नहीं रहने दिया और उस काॅफ्रैंस में आचार्य जी ने अपनी वैदिक थ्योरी आॅफ यूनिवर्स को सर्वप्रथम प्रस्तुत किया।
अब हम वेद को ईश्वरकृत सिद्ध करने का वह मार्ग व माध्यम, वैज्ञानिक दृष्टिकोण व आधार के बारे में बतलाने जा रहें, जो वस्तुतः श्रद्धेय आचार्य जी की खोज, शोध व अनुसंधान है। यह अत्यंत जटिल है, जिसे साधारण जन नहीं समझ सकते, केवल भौतिक वैज्ञानिक, ब्रह्माण्ड वैज्ञानिक व ब्रह्माण्ड विज्ञान पर शोध करने वाले तथा भौतिक विज्ञान का उच्चतम ज्ञान रखने वाले जन ही समझ सकते हैं। फिर भी मैं अति सरल शब्दों में अति सरल भाषा में व संक्षिप्त में ही बताने का प्रयास करूंगा, ताकि साधारण जन व विज्ञान की उच्चतम जानकारी नहीं रखने वाले लोग भी सरलता से कम शब्दों में इसे समझ सकें।
श्रद्धेय आचार्य जी के कई वर्षों के कठोर परिश्रम, पुरुषार्थ, उनके तपोबल, साधना, तप, तर्क शक्ति, ऊहा के बल पर वेद व ऋषिकृत ग्रँथों पर शोध व अनुसन्धान के पश्चात् आचार्य जी ने यह खोजा व जाना कि वेद मन्त्रों से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है। आचार्य जी ने यह जाना व खोजा कि वेद मंन्त्र वास्तव में एक ध्वनि ऊर्जा है। वेद मंत्र, छन्दों का समूह है। वेद मन्त्रों में आये शब्दों के समूहों को ही छन्द कहा जाता है, ये सभी छन्द ही वेद मंत्र कहलाते हैं। वस्तुतः यह सभी छन्द, अति सूक्ष्म पदार्थ कहलाते हैं। ब्रह्माण्ड के प्रत्येक पदाथ का निर्माण इन्हीं वेद मंत्रों अर्थात छन्दों से होता है। ब्रह्माण्ड अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति में वेद मंन्त्रों की ही भूमिका होती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति वेद मन्त्रों से होती है। वास्तव में जब ईश्वर ब्रह्माण्ड का निर्माण कर रहा होता है तो ईश्वर सर्वप्रथम सूक्ष्म स्पंदन उत्पन्न करता है, मनस्तत्व में। वह स्पंदन कम्पन करते हुए तरंग के रूप में फैलता है, जो रश्मि कहलाती है। इसे वैदिक विज्ञान की भाषा में रश्मि कहा जाता है। ऐसे कई प्रकार के सूक्ष्म स्पंदन ईश्वर उत्पन्न करता है। ये रश्मियां ही वैदिक ऋचाएं अर्थात् वेद मंन्त्र हैं। वेद मंत्रों के संघनन से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है। ये रश्मियां ध्वनि ऊर्जा रूपी कम्पन करते हुए तरंगों के रूप में होते हैं। यही सूक्ष्म ध्वनि ऊर्जा ही वेद मंन्त्र हैं। वेद मंत्र ही उपादान कारण भी हैं, ब्रह्माण्ड के निर्माण का। वेद के सभी मंत्र संसार के सभी पदार्थों के अंदर वाणी अर्थात् ध्वनि की परा व पश्यन्ति अवस्था में सर्वत्र कम्पन करते हुए गूंज रहे हैं। यह ध्वनि ऊर्जा रूपी वेद मन्त्रों के शब्द कभी भी नष्ट नहीं होते।
श्रद्धेय आचार्य जी ने यह खोजा व जाना कि हमारे शरीर की एक-एक कोशिका इन्हीं वेद मंत्रों से बनी है। हमारे शरीर की सभी कोशिकाओं के अंदर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में ये वेद मंन्त्र गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड में सर्वत्र वेद के सभी मंत्र शब्द रूप में ध्वनि ऊर्जा के रूप में गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड के सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्थूल से स्थूल व विशाल से विशाल सभी पदार्थों जैसे सभी कण, सूर्य, चन्द्र, तारे, उल्का-पिंड, धूमकेतु, ग्रह, उपग्रह, सौरमण्डल, गैलेक्सी, अंतरिक्ष, आकाश, जल, वायु, अग्नि, प्रकाश, आदि ब्रह्माण्ड में उपस्थित समस्त पदार्थों का निर्माण इन्ही वेद मंत्रों से हुआ है। ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में वेद मंन्त्र ही सर्वत्र गूंज रहे हैं। ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों में कोई न कोई बल, ऊर्जा, गति, त्वरण आदि होते हैं, जो ध्वनि ऊर्जा रूपी वेद मंत्रों से ही होते हैं जो सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि की पश्यन्ति व परा अवस्था में कम्पन करते हुए तरंगों के रूप में रश्मियों के रूप में निरन्तर गूँज रहे हैं तथा इन्हीं वेद मन्त्रों से ही ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों की रचना होती है। सृष्टि की आदि में हुए 4 ऋषियों ने समाधि की अवस्था में अपने अन्तःकरण वा आत्मा के माध्यम से ईश्वर की प्रेरणा से उन सभी ईश्वरीकृत मन्त्रों को जाना। वे सभी मन्त्र ही वेद कहलाये।
यद्यपि ऋषियों के अतिरिक्त संसार का कोई अन्य मनुष्य वेद के इस यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को नहीं जानता। वेद मंत्रों से ब्रह्माण्ड का निर्माण व जितनी भी व्याख्या ऊपर मैंने की है, वेद व वेद मंत्रों से ब्रह्माण्ड के निर्माण की प्रक्रिया, यह ऋषियों के अतिरिक्त और कोई भी नहीं जानता। हमारे ऋषि लोग इसे भली-भाँति जान लिया करते थे व इसका सम्पूर्ण ज्ञान ऋषियों को हो जाता था। आप लोगों को यह भी बतला दूँ कि वेद में तथा ऋषिकृत ग्रँथों में अनेकत्र स्थान पर यह संकेत है कि वेद मंत्रों से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है, किन्तु वेद व ऋषिकृत ग्रँथों को न समझ पाने से साधारण जन व यहां तक कि सभी वैदिक विद्वान् भी यह आज तक नहीं जान व समझ पाऐ कि वेद मंत्रों से यह सृष्टि बनती है। इसका मुख्य कारण यह है कि उनके पास तर्क शक्ति, वैज्ञानिक बुद्धि, ऊहा का अभाव है। वेद व अनेक ऋषिकृत ग्रन्थ विज्ञान के ग्रन्थ हैं। केवल संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु आदि के परम्परागत अध्ययन के बल पर वेदों व ऋषिकृत ग्रँथों को नहीं समझा जा सकता। उसे समझने के लिए वैदिक संस्कृत व्याकरण, निरुक्त, निघण्टु, छन्द शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, वेदांग, आरण्यक, शाखाएं आदि अनेक ऋषिकृत ग्रँथों का पूर्ण ज्ञान इसके साथ ही ईश्वरीय प्रेरणा, ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा, उच्च कोटि की तर्क शक्ति, ऊहा, वैज्ञानिक बुद्धि से सम्पन्न, विज्ञान की उच्च समझ रखने वाला व पवित्र आत्मा का होना अनिवार्य है। वस्तुतः ऋषियों के पश्चात् वर्तमान में केवल श्रद्धेय आचार्य अग्निव्रत जी नैष्ठिक ही ऐसे ऋषि कोटि के महात्मा हैं, जिन्होंने अपनी कठोर साधना, परिश्रम, पुरुषार्थ, तर्क शक्ति, ऊहा से वेद व ऋषिकृत ग्रँथों पर शोध व अनुसंधान करके यह जाना है। अतएव यह खोज आचार्य जी की है। आचार्य जी द्वारा रचित ‘वेदविज्ञान-आलोकः’ ग्रन्थ का गहन अध्ययन करेंगे, तो इसे और भी अच्छे व विस्तार से आप लोग जान पाएंगे।
इस प्रकार यदि यह सिद्ध हो जाये कि सभी वेद मंत्रों से ही सम्पूर्ण पदार्थों व समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माण होता है, जो ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थों के भीतर ध्वनि के परा व पश्यन्ति अवस्था में सर्वत्र गूंज रहें है, जब यह वैज्ञानिक आधार व प्रमाण से सिद्ध हो जाएगा, तो सभी वैज्ञानिकों व समस्त संसार के समक्ष यह पूर्ण व वैज्ञानिक रूप से, वैज्ञानिक आधार पर, वैज्ञानिक प्रमाण से यह स्वतः सिद्ध हो जाएगा कि वेद ही ईश्वरकृत रचना है, तब संसार का कोई भी मनुष्य वेद के ईश्वरकृत होने को नकार नहीं पायेगा, जिससे स्वतः ही संपूर्ण विश्व में यह सिद्ध हो जाएगा कि केवल वेद ही ईश्वरकृत व ब्रह्मांडीय रचना है, जिससे वेद सम्पूर्ण विश्व में स्थापित होगा, जो आने वाले कुछ ही वर्ष में ही संसार के वैज्ञानिकों को यह बात समझ आ जाएगी, यदि वे पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सकें तो।
यद्यपि मैं पुनः यह स्पष्ट कर दूं कि वेद को किसी वैज्ञानिक से सर्टिफिकेट व प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नही कि वेद ईश्वरकृत है अथवा नहीं? क्योंकि वेद स्वतः प्रमाण है ईश्वरकृत होने का परन्तु समय की यही मांग है कि यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण, आधार व प्रमाण से वेद ईश्वरकृत सिद्ध हो जाये सम्पूर्ण विश्व के वैज्ञानिकों के समक्ष तो वेद को सम्पूर्ण जगत् के लोग स्वीकार करेंगे। वेद व वैदिक धर्म की स्थापना विश्व में स्वतः हो जायेगी। वेद को वैज्ञानिकों के समक्��� ईश्वरकृत सिद्ध करने का केवल यही एक मार्ग है, अन्य कोई भी दूसरा मार्ग व माध्यम नही, क्योंकि केवल इसी वैज्ञानिक ठोस प्रमाण से ही यह सिद्ध किया जा सकता है, समस्त वैज्ञानिकों के समक्ष कि वेद ही ईश्वर कृत रचना है, इससे वेद व वैदिक धर्म की स्थापना सम्पूर्ण विश्व में हो सकेगी व विश्व के सम्पूर्ण मानवों का कल्याण होगा। श्रद्धेय आचार्य जी द्वारा बहुत पूर्व ही यह सिद्ध किया जा चुका है। जैसा कि मैंने पूर्व ही बतलाया कि आगामी कुछ ही समय में विश्व के समस्त बड़े वैज्ञानिकों को कोई भी इस तथ्य का बोध हो जायेगा परन्तु बिना शासन के सहयोग वैज्ञानिकों द्वारा धार्मिकता व पूर्वाग्रहों के त्याग के बिना यह सम्भव नहीं है। आचार्य जी योगेश्वर श्री भगवान् कृष्ण जी महाराज के कथन ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ को शिरोधार्य करके आगे बढ़ रहे हैं। आचार्य जी के पुरुषार्थ से वेद व वैदिक धर्म की स्थापना सम्पूर्ण विश्व में अवश्य होगी, ऐसा हमें आशा व विश्वास करना चाहिए।
आशा करता हूँ कि वेद के इस वास्तविक सत्य यथार्थ वैज्ञानिक स्वरूप को जानकर आप सभी प्रियजनों को गर्व महसूस हो रहा होगा, जिस ईश्वरकृत वेद के बारे में अब तक आप सभी अनभिज्ञ थे।
- इंजीनियर संदीप आर्य
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Dr. Narayan Dutt Shrimali Life Story in Hindi
डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली की जीवनी
ॐ गुं गुरूभ्यो नमः
ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरूभ्यो नमः
गुरु भगवान की कृपा आप सभी पर सदा बनी रहे ।
जन्म :
21 अप्रैल 1935
नाम : डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली
सन्यासी नाम : श्री स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज
जन्म स्थान : खरन्टिया
पिता : पंडित मुल्तान चन्द्र श्रीमाली
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी) राजस्थान विश्वविद्यालय 1963.
पी.एच.डी. (हिन्दी) जोधपुर विश्वविद्यालय 1965
योग्यता क्षेत्र :
आपने प्राच्य विद्याओं दर्शन, मनोविज्ञान, परामनोविज्ञान, आयुर्वेद, योग, ध्यान, सम्मोहन विज्ञानं एवं अन्य रहस्यमयी विद्याओं के क्षेत्र में विशेष रूचि रखते हुए उनके पुनर्स्थापन में विशेष कार्य किया हैं. आपने लगभग सौ से ज्यादा ग्रन्थ – मन्त्र – तंत्र, सम्मोहन, योग, आयुर्वेद,
ज्योतिष एवं अन्य विधाओं पर लिखे हैं.
चर्चित कृतियाँ :
प्रैक्टिकल हिप्नोटिज्म, मन्त्र रहस्य, तांत्रिक सिद्धियाँ, वृहद हस्तरेखा शास्त्र, श्मशान भैरवी (उपन्यास), हिमालय के योगियों की गुप्त सिद्धियाँ, गोपनीय दुर्लभ मंत्रों के रहस्य, तंत्र साधनायें.
अन्य :
कुण्डलिनी नाद ब्रह्म, फिर दूर कहीं पायल खनकी, ध्यान, धरना और समाधी, क्रिया योग, हिमालय का सिद्धयोगी, गुरु रहस्य, सूर्य सिद्धांत, स्वर्ण तन्त्रं आदि.
सम्मान एवं पारितोषिक :
भारतीय प्राच्य विद्याओं मन्त्र, तंत्र, यंत्र, योग और आयुर्वेद के क्षेत्र में अनेक उपाधि एवं अलंकारों से आपका सम्मान हुआ हैं. पराविज्ञान परिषद् वाराणसी में सन् 1987 में आपको “तंत्र – शिरोमणि” उपाधि से विभूषित किया हैं. मन्त्र – संसथान उज्जैन में 1988 में आपको मन्त्र – शिरोमणि उपाधि से अलंकृत किया हैं. भूतपूर्व उपराष्ट्रपति डॉ. बी.डी. जत्ती ने सन् 1982 में आपको महा महोपाध्याय की उपाधि से सम्मानित किया हैं.
उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने 1989 में समाज शिरोमणि की उपाधि प्रदान कर उपराष्ट्रपति भवन में डॉ. श्रीमाली का सम्मान कर गौरवान्वित किया हैं. नेपाल के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री भट्टराई ने 1991 में उनके सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में विशेष योगदान के लिए नेपाल में आपको सम्मानित किया हैं.
अध्यक्षता :
भारत की राजधानी दिल्ली में आयोजित होने वाली विश्व ज्योतिष सम्मलेन 1971 में आपने कई देशों के प्रतिनिधियों के बीच अध्यक्ष पद सुशोभित किया. सन् 1981 से अब तक अधिकांश अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलनों के अध्यक्ष रहे.
संस्थापक एवं संरक्षक : अखिल भारतीय सिद्धाश्रम साधक परिवार. संस्थापक एवं संरक्षक – डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली फौंडेशन चेरिटेबल ट्रस्ट सोसायटी.
विशेष योगदान :
सम्मलेन, सेमिनार एवं अभिभाषणों के सन्दर्भ में आप विश्व के लगभग सभी देशों की यात्रा कर चुके हैं. आपने तीर्थ स्थानों एवं भारत के विशिष्ट पूजा स्थलों पर आध्यात्मिक एवं धार्मिक द्रष्टिकोण से विशेष कार्य संपन्न किये हैं. उनके एतिहासिक एवं धार्मिक महत्वपूर्ण द्रष्टिकोण को प्रामाणिकता के साथ पुनर्स्थापित किया हैं. सभी 108 उपनिषदों पर आपने कार्य किया हैं, उनके गहन दर्शन एवं ज्ञान को सरल भाषा में प्रस्तुत कर जन सामान्य के लिए विशेष योगदान दिया हैं. अब 23 उपनिषदों का प्रकाशन हो रहा हैं. मन्त्र के क्षेत्र में आप एक स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं, तंत्र जैसी लुप्त हुयी गोपनीय विद्याओं को डॉ. श्रीमाली जी ने सर्वग्राह्य बनाया हैं. आपने अपने जीवन में कई तांत्रिक, मान्त्रिक सम्मेलनों की अध्यक्षता की हैं. भारत की प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं में 40 से भी अधिक शोध लेख मंत्रों के प्रभाव एवं प्रामाणिकता पर प्रकाशित कर चुके हैं.
आप पुरे विश्व में अभी तक कई स्थानों पर यज्ञ करा चुके हैं, जो विश्व बंधुत्व एवं विश्व शांति की दिशा में अद्वितीय कार्य हैं. योग, मन्त्र, तंत्र, यंत्र, आयुर्वेद विद्याओं के नाम से अभी तक सैकडो साधना शिविर आपके दिशा निर्देश में संपन्न हो चुके हैं.
सिद्धाश्रम :
डॉ. नारायण दत्त श्रीमाली फौंडेशन इंटरनॅशनल चेरिटेबल ट्रस्ट सोसायटी द्वारा निर्मित एक भव्य, जिवंत, जाग्रत, शिक्षा, संस्कृति व अध्यात्म का विशालतम केंद्र सिद्धाश्रम. न केवल भारतवर्ष अपितु विदेशों में उपरोक्त विद्याओं का विस्तार, साधना शिविरों की देशव्यापी श्र्रंखला. प्राकृतिक चिकित्सा व आयुर्वेद अनुसन्धान व उत्थान केंद्र. मानवतावादी अध्यात्मिक चेतना का विस्तार.
मेरे गुरुदेव क्यों छिपाएं रखते हैं अपने आपको?
मुझे यह फक्र हैं की मेरे गुरु पूज्य श्रीमालीजी (डॉ. नायारण दत्त श्रीमालीजी) हैं, मुझे उनके चरणों में बैठने का मौका मिला हैं, और यथा संभव उन्हें निकट से देखने का प्रयास किया हैं.
उस दिन वे अपने अंडर ग्राउंड में स्थित साधना स्थल पर बैठे हुए थे, अचानक निचे चला गया और मैंने देखा उनका विरत व्यक्तित्व, साधनामय तेजस्वी शरीर और शरीर से झरता हुआ प्रकाश…. ललाट से निकलता हुआ ज्योति पुंज और साधना की तेजस्विता से ओतप्रोत उस समय का वह साधना कक्ष…. जब की उस साधनात्मक विद्युत् प्रवाह से पूरा कक्ष चार्ज था, ऊष्णता से दाहक रहा था और मात्र एक मिनट खडा रहने पर मेरा शरीर फूंक सा रहा था, कैसे बैठे रहते हैं, गुरुदेव घंटों इस कक्ष में?
बाहर जन सामान्य में गुरुदेव कितने सरल और सामान्य दिखाई देते हैं, कब पहिचानेंगे हम सब लोग उन्हें? उस अथाह समुद्र में से हम क्या ले पाएं हैं अब तक…… क्यों छिपाएं रखते हैं, वे अपने आपको?
-सेवानंद ज्ञानी १९८४ जन. – फर.
परमारथ के कारणे साधू धरियो शरीर.
बात उस समय की हैं, जब पूज्यपाद सदगुरुदेव अपने संन्यास जीवन से संकल्पबद्ध होकर वापस अपने गृहस्थ संसार में लौटे थे. जब वे सन्यास जीवन के लिए ईश्वरीय प्रेरणा से घर से निकले थे, तो उनके पास तन ढकने के लिए एक धोती, एक कुरता और एक गमछा था. साथ में एक छोटे से झोले में एक धोती और कुरता अतिरिक्त रूप से था. इसके अलावा उनके पास और कुछ भी नहीं था. न ही कोई दिशा स्पष्ट थी और न ही कोई मंजिल स्पष्ट थी, केवल उनके हौसले बुलंद थे और ईश्वर में आस्था थी. यही उनकी कुल पूंजी थी, जिसके सहारे संघर्स्मय एवं इतने लम्बे जीवन की यात्रा पूरी करनी थी.
जब वे कुछ समय सन्यास जीवन में बिताकर वापस अपने गाँव लौटे, तो गाँव वाले, परिवार के लोग एवं क्षेत्र के सभी गणमान्य व्यक्ति उपस्थित हुए. सभी ने उनका सहर्ष स्वागत सत्कार किया, लेकिन सभी के मनोमस्तिष्क में यही गूंज रहा था कि इन्हें क्या मिला? हमें भी कुछ दिखाएं.
जब यह प्रश्न सदगुरुदेव जी तक पहुंचा, तो वे बड़े ही प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि हमारी भी यही इच्छा हैं कि जो कुछ भी हमारे पास हैं वह मैं सभी को दिखाऊं.
गुरुदेव जी सभी के मध्य में खड़े हुए और अपना एक हाथ फैलाया और बताया कि जब मैं यहाँ से गया था तो मेरे पास यह था और हाथ की बंधी मुट्ठी को खोला तो उसमें कुछ कंकण निकले. उन्होंने बताया कि यही मेरे पास थे, जिन्हें मैं लेकर अपने साथ गया था और जो कुछ मैं लेकर लौटा हूँ, वह मेरी हाथ की दूसरी मुट्ठी में हैं. सभी लोग दूसरी मुट्ठी को देखने के लिए आतुर हो उठे. लेकिन गुरुदेव जी ने जब दूसरी मुट्ठी खोली तो सभी हैरत में पड गए. क्योंकि वह मुट्ठी बिलकुल ही खाली थी. सभी को आशा था कि इसमें कुछ अजूबा होगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
गुरुदेव जी ने बताया कि जो कुछ मेरे पास था वह भी मैं गँवा कर आ रहा हूँ. मैं बिलकुल ही खाली होकर आ रहा हूँ. बिलकुल खाली हूँ, इसलिए अब जीवन में कुछ कर सकता हूँ. मैं अपने सन्यास जीवन में कोई जादू टोने टोटके सीखने नहीं गया था, हाथ सफाई की ये क्रियाएं यहाँ रहकर भी सीख सकता था, लेकिन मैं अपने जीवन में पूर्ण अष्टांग योग, सहित यम, नियम, आहार, प्रत्याहार, ……धारणा, ध्यान, समाधि, के पूर्णत्व स्तर पर पहुँचाने के लिए ही यह सन्यास मार्ग चुना. अब मुझे इन कंकनो पत्थरों के भार को ढोना नहीं पड़ेगा, अगर ढोना नहीं पड़ेगा तो मैं स्वतंत्र होकर बहुत कुछ कर सकता हूँ. क्योंकि ज्ञान को धोने की जरुरत नहीं पड़ेगी, वह स्वयं ही उत्पन्न होता रहता हैं. स्वतः ही उसमें सुगंध आने लगती हैं.
उसमें आनंद के अमृत की वर्ष होने लगती हैं और वह तब तक नहीं प्राप्त हो सकता, जब तक हम इन कंकनों एवं पत्थरों को ढोते रहेंगे. अपने इस हाड-मांस को ढोने से कुछ नहीं होने वाला हैं, जब तक इसमें चेतना नहीं होगी. चेतना को पाने के लिए एकदम से खाली होना पड़ता हैं, सब कुछ गंवाना पड़ता हैं, सब कुछ दांव पर लगाना पड़ता हैं. तब जाकर चेतना प्रस्फुटित होती हैं और तब उस प्रस्फुटित चेतना को दिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं, बल्कि दुनिया उसे स्वयं देखती हैं, बार-बार देखती हैं, घुर-घूरकर देखती हैं. क्योंकि उसे इस हाड मांस में कुछ और ही दिखाई देता हैं, जिसे चैतन्यता कहते हैं. चेतना कहते हैं, ज्ञान कहते हैं. और उसे उस मुट्ठी में देखने की जरुरत नहीं हैं, क्योंकि वह मुट्ठी में समाने वाली चीज नहीं हैं, वह इस समस्त संसार में समाया हैं, जो सब कुछ सबको दिखाई दे रहा हैं.
Books by Dr. Narayan Dutta Shrimali Ji:-
1. Practical Palmistry
2. Practical Hypnotism
3. The Power of Tantra
4. Mantra Rahasya
5. Meditation
6. Dhyan, Dharana aur Samadhi
7. Kundalini Tantra
8. Alchemy Tantra
9. Activation of Third Eye
10. Guru Gita
11. Fragrance of Devotion
12. Beauty – A Joy forever
13. Kundalini naad Brahma
14. Essence of Shaktipat
15. Wealth and Prosperity
16. The Celestial Nymphs
17. The Ten Mahavidyas
18. Gopniya Durlabh Mantron Ke Rahasya.
19. Rahasmaya Agyaat tatntron ki khoj men.
20. Shmashaan bhairavi.
21. Himalaya ke yogiyon ki gupt siddhiyaan.
22. Rahasyamaya gopniya siddhiyaan.
23. Phir Dur Kahi Payal Khanki
24. Yajna Sar
25. Shishyopanishad
26. Durlabhopanishad
27. Siddhashram
28. Hansa Udahoon Gagan Ki Oar
29. Mein Sugandh Ka Jhonka Hoon
30. Jhar Jhar Amrit Jharei
31. Nikhileshwaranand Chintan
32. Nikhileshwaranand Rahasya
33. Kundalini Yatra- Muladhar Sey Sahastrar Tak
34. Soundarya
35. Mein Baahen Feilaaye Khada Hoon
36. Hastrekha vigyan aur panchanguli sadhana.
ब्रह्मवैवर्त पुराण में व्यास मुनि ने स्पष्ट लिखा है, कि भगवान् के अवतारों स्वरुप में दस गुण अवश्य ही परिलक्षित होंगे और इन्हीं दस गुणों के आधार पर संसार उन्हें पहिचानेगा।
तपोनिष्ठः मुनिश्रेष्ठः मानवानां हितेक्षणः ।
ऋषिधर्मत्वमापन्नः योगी योगविदां वरः
दार्शनिकः कविश्रेष्ठः उपदेष्टा नीतिकृत्तथा ।
युगकर्तानुमन्ता च निखिलः निखिलेश्वरः ॥
एभिर्दशगुणैः प्रीतः सत्यधर्मपरायणः ।
अवतारं गृहीत्चैव अभूच्च गुरुणां गुरुः ॥
सदगुरुदेव पूज्यपाद डॉ नारायणदत्त श्रीमाली जी, संन्यासी स्वरुप निखिलेश्वरानंद जी का विवेचन आज यदि महर्षि व्यास द्वारा उध्दृत दस गुणों के आधार पर किया जाए, तो निश्चय ही सदगुरुदेव अवतारी पुरूष हैं, जिन्होनें अपने सांसारिक जीवन का प्रारम्भ एक सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार में किया – सुदूर पिछडा रेगिस्तानी गांव था। जब इनका जन्म हुआ तो माता-पिता को प्रेरणा हुई, कि इस बालक का नाम रखा जाए – ‘नारायण’।
यह नारायण नाम धारण करना और उस नारायण तत्व का निरंतर विस्तार केवल युगपुरुष नारायण दत्त श्रीमाली के लिए ही सम्भव था, जिन्होनें अपने अल्पकालीन भौतिक जेवण में शिक्षा का उच्चतम आयाम ग्रहण कर पी.एच.डी. अर्थात डाक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की।
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