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#प्रोफेसर लगता सिंह
24daynews · 3 years
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प्रो। सीमा सिंह उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय की प्रथम महिला कुलपति बनीं - प्रो। सीमा सिंह उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विवि की पहली महिला कुलपति बनीं
प्रो। सीमा सिंह उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय की प्रथम महिला कुलपति बनीं – प्रो। सीमा सिंह उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विवि की पहली महिला कुलपति बनीं
{“_id”: “607481118ebc3ed37a205695”, “slug”: “prof-seema-singh-of-the-first-women-VC-chancellor-of-uttar-pradesh-rajarshi-rajarshi-tandon-open-University”, “type” : “कहानी”, “स्थिति”: “प्रकाशित करें”, “title_hn”: ” u092a u094d u0930 u094b। u0938 u0940 u092e u093e u09338 u093f u09909″ u09909 _ _ _909 ” u0924 u0930 u092a u094d u0930 u0926 u0947 u0936 u0930 u093e u091c _09d _0937 u0937 _0909 _0909…
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sirmanojyadav · 2 years
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आज हमारा विश्वविद्यालय100साल का हुवा, मै अपनी12वी तक कि शिक्षाUPBoardसे किया।2007में University Of Delhi दाखिला हुवा,उत्तर प्रदेश के विद्यालयों की नैतिकता से बिल्कुल भिन्न। एक वैश्विक, बृहद सोच से लैस लोग मिले आगे की शिक्षा यही से हुई, सरकार और सरकार समर्थित लोग आज विश्वविद्यालयो को बन्द करने के सभी उनके जरूरी हथकंडे अपना रहे है, विश्वविद्यालय एक ऐसी संस्थान है जहाँ नए जहन को व्यापक, बृहद सोच बनने का अवसर मिलता है, यहाँ ज्ञान का भंडार होता है हमलोग स्नातक में डॉ सुनील मंडीवाल, डॉ समीक्षा ठाकुर, डॉ प्रेम तिवारी, डॉ राजीव कुंवर, डॉ केदार मंडल, डॉ विजयपाल जैसे बहुत ही गुरुओं का सान्निध्य मिला वही कैम्पस आते ही डॉ गपेश्वर सिंह सर रामायण की इतनी गहरी समझ वाह, डॉ संजय सर, डॉ अपूर्वानंद सर, डॉ प्रेम सिंह सर, डॉ प्रेम सिंह मैम, डॉ कुसुमलता मैम, डॉ स्नेहलता मैम जी जैसे प्रोफेसर का अपार स्नेह व हमारे से पहले के हमारे वरीय विद्यार्थियों का विशेष स्नेह मिलता है इस कैंपस में, किसी भी टॉपिक पर पूछ लें ये बड़े होने के बोध के नाते अपना काम रोककर आपको गाइड/सहायता करते है। आज भी ये नज़ारा आपको कैंपस में दिख जाएगा। मैं कहूँ तो विश्वविद्यालय ही वो संस्था है जहाँ नागरिक, जिम्मेदारी, की सोच के इंसानियत का बृहद बोध होता है। आज भी वहाँ बहुत अच्छा लगता है.. #delhiuniversity https://www.instagram.com/p/CdAW2ETPrYP/?igshid=NGJjMDIxMWI=
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hindigenie · 3 years
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साउथ की 10 नयी हिंदी डब मूवीज - देखिये अभी | 10 Latest Hindi Dubbed South Movie to Watch Right Now
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दोस्तों आपको एंटरटेनमेंट का जबरदस्त डोज़ देने के लिए आज मैं आपके लिए लाया हूँ साउथ की 10  नयी हिंदी डब्बड मूवीज | इस लिस्ट में सभी मूवीज अपने आप में एक से बढ़कर एक हैं | दोस्तों तैयार हो जाइये जबरदस्त ड्रामा, एक्शन और रोमांस से भरपूर इन मूवीज को देखने के लिए | आपकी सुविधा के लिए मैं यहाँ मूवीज की लिस्ट के साथ उन वेबसाइट की लिंक भी दे रहा हूँ जहाँ से आप मूवीज को ऑनलाइन देखने के साथ साथ डाउनलोड भी कर पाएंगे | किसी भी लिंक के एक्सपायर होने की स्थिति में मुझे [email protected] मेल कर सकते हैं| मैं यथा संभव आपको नयी लिंक देने का प्रयास करूंगा   Table of Contents
क्रैक (KRACK)
क्रैक वास्तविक घटनाओं पर आधारित एक एक्शन एंटरटेनर है, रवि तेजा एक सख्त और उग्र पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाते हैं जो किसी को कोसने से पहले दो बार नहीं सोचता। घातक गुंडों, हाई-ऑक्टेन एक्शन, चेज़ सीक्वेंस और मनोरम संवादों से भरपूर, क्रैक एक पूर्ण मनोरंजन करने वाला होने का वादा करता है। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=ZhaExlXWdno स्टार कास्ट - रवि तेजा (पोथुराजु वीरा शंकर) - श्रुति हसन (कल्याणी) - समुुथिराकानी (कटारी कृष्णा) - वरलक्ष्मी सरथकुमार (जयम्मा) - पी. रवि शंकर (कोंडा रेड्डी ) - अली (शंकर फ्रेंड ) - वामसी छगंती (SI बालाजी ) - सुधाकर कोमकूला (किरण ) - सात्विक मालिनेनी (चीकू ) - चिराग जानी (सलीम भटकल ) - रघु बाबु (M L A ) - प्रियंका रमन (दीप्ति बेदी ) - हाइपर आदि - चन्दन - वेंकटेश दग्गुबाती (वेंकी voice ) - सप्तगिरि ( सुब्बा रेड्डी ) - भाविका - महेश काठी (कैथी ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - YouTube - Download Now
अरविंदा सामेथा
रायलसीमा में दो गांव, नल्लागुडी और कोम्मडी, क्रमशः बसी रेड्डी और नरपा रेड्डी के नेतृत्व में दशकों से एक झगड़े में लगे हुए हैं। नरपा रेड्डी के बेटे, वीरा राघव रेड्डी, अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद लंदन से लौटते हैं। बसी रेड्डी घर के रास्ते में नारपा रेड्डी पर हमला करता है और मारता है।राघव सहज रूप से तलवार लेता है और अपने विरोधियों को मार डालता है। अपनी दादी से झगड़े के बारे में बात करने के बाद, उसे पता चलता है कि हिंसा इन गाँवों के लोगों के लिए जीवन का एक तरीका बन गई है और वह झगड़े के समाधान की तलाश में हैदराबाद के लिए निकल जाता है।राघव हैदराबाद में अरविंद से मिलता है और उससे प्यार करने लगता है। वह रक्तपात के बिना समस्याओं को हल करने में दृढ़ता से विश्वास करती है और उसे आत्म-खोज के मार्ग पर स्थापित करती है। वह अपने गांव लौटने और झगड़े को खत्म करने का फैसला करता है। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=v8fZ6NLFm44 स्टार कास्ट - एनटीआर रमा रओ जर.(वीरा राघवा रेड्डी ) - पूजा हेगड़े (अरविंधा ) - जगपती बाबू (बसीररेड्डी ) - नवीन चंद्र (बालीरेड्डी ) - सुप्रिया पाठक (जेजी ) - ईशा रेब्बा (सुनंदा ) - सुनील (नीलांबरी ) - नागेंद्र बाबू (नरप्पा रेड्डी ) - चरण राम (प्रतीक ) - शुभलेखा सुधाकरी (सुदर्शन रेड्डी ) - देवयानी (सुगुना ) - ईश्वरी राव (बसिरेड्डी वाइफ ) - ब्रह्माजी (मारप्पा ) - शत्रु (सुब्बाड़ु ) - राव रमेश (कृष्णा रेड्डी ) - लक्ष्मी गोपालस्वामी (अरविन्दा मदर ) - महेश अचंता - अनंत (मैकेनिक ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - YouTube - Download Now
चाणक्य
अर्जुन उर्फ रामकृष्ण दिल्ली के एक रॉ मार्शल हैं, जिनकी आतंकवादियों को पकड़ने में 100% सफलता दर है। क्या होता है जब वह भारत के मोस्ट वांटेड इब्राहिम कुरैशी और उनके बेटे सोहेल से दुश्मन बना लेता है? ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=On03ML4HlSs स्टार कास्ट - मेहरीन पीरज़ादा (ऐश्वर्या ) - नासीर (कुलकर्णी ) - ज़रीन खान (ज़ुबैदा ) - मीर सरवर (अदुल सलीम ) - वी . जयप्रकाश (गृह मंत्री ) - थोटेमपुडी गोपीचंद (अर्जुन ) - अली (डॉक्टर अली ) - सुनील (श्रीनू ) - कोटा श्रीनिवास राव (कॉलोनी सुरक्षा ) - भरत रेड्डी (आजम ) - उपेन पटेल (सोहेल ) - रघु बाबू (बक्का परमेश्वर ) - राजेश खट्टरी (इब्राहिम कुरैशी ) - राजीव कुमार ए (रॉ अधिकारी ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - YouTube - Download Now
रोबर्ट
राघव अपने बेटे अर्जुन के साथ लखनऊ में रहते हैं और एक ब्राह्मण की कैटरिंग यूनिट में हेड कुक हैं। वह एक शांतिपूर्ण अस्तित्व का नेतृत्व करता है, अपने बेटे के लिए सबसे अच्छा चाहता है। ऐसा लगता है कि सब ठीक चल रहा है, जब तक कि कुछ कंकाल उसकी कोठरी से बाहर नहीं निकल जाते और वह अपने मूल अवतार को लेने के लिए मजबूर हो जाता है। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=IBPdSqV2gjs स्टार कास्ट - दर्शन थुगुदीप (राघव ) - विनोद प्रभाकर (राघव दोस्त ) - आशा भाटी (अमृता ) - जगपति बाबू (नाना ) - अशोक (विश्वनाथ भाटी ) - अविनाश (ओंकार शुक्ला ) - जेसन डिसूजा (अर्जुन ) - रवि चैथान (चंद्र मौली ) - देवराज (सत्यदेव अल्वा ) - रवि किशन (बलराम त्रिपाठी ) - सोनल मोंटेइरो (तनु ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - Watch Now - Download Now
यजमान
कृष्णा हुलिदुर्ग में रहने वाले एक मेहनती व्यक्ति हैं और पारंपरिक तेल निष्कर्षण के लिए प्रसिद्ध हैं। बिजनेस टाइकून देवी शेट्टी के प्रवेश के साथ, कृष्णा को उसके असली मालिक के पद से हटा दिया जाता है। उसे अब अपने लोगों को न्याय दिलाने के लिए बाधाओं से लड़ना होगा। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=IN45mI6ONgk स्टार कास्ट - दर्शन थुगुदीप (कृष्ण) - रश्मिका मंदाना (कावेरी ) - देवराज (गुरिकर हुलियप्पा नायक ) - तान्या होप (गंगा ) - धनंजय (मित्तय सूरी ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - YouTube
वोटर
गौतम एक एनआरआई हैं जो अपना वोट डालने के लिए भारत लौटते हैं। जब वह जिस महिला से प्यार करता है, भावना द्वारा चुनौती दी जाती है, तो वह एक राजनेता को अपने अभियान के वादे को पूरा करने के लिए चुनौती देता है, अगर वह उसे जीतना चाहता है, तो गौतम व्यवस्था को बदलने की राह पर निकल पड़ता है। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=SigEAKFwivg स्टार कास्ट - ब्रह्माजी - अब्दुल्ला अल इमरान (रवि ) - सलीम खेजरी - विष्णु मंचू - कृष्णा मुरली पोसानी - नासिर - प्रगति - प्रवीण - संपत राज - कैटरीना रॉस (लोरी ) - सरवन - सुरभि कहाँ देखें (Download or Watch Now) - YouTube - Download Now
कल्कि (KALKI)
नानचेनकोटा समस्याओं से घिरा हुआ है और यहां का नागरिक जीवन एक बुरे सपने जैसा है। हालांकि, न्याय की एक मजबूत भावना के साथ एक निडर पुलिस अधिकारी का आगमन नानचेनकोटा की कानून और व्यवस्था की स्थिति को बदलने वाला है - एक बार और सभी के लिए। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=w796kGshMwM स्टार कास्ट - टोविनो थॉमस (एसआई कलकी ) - संयुक्ता मेनन (संगीता ) - अंजलि नायर (अवनि ) - सैजू कुरूप (सूरज) - हरीश उथमान ( - के.पी.ए.सी. ललिता (ललिताभाई ) - अपर्णा नैरो (आवानी) - धीरज डेनी (गोविंदा ) - अनीश गोपाल (शशांक ) - विनी विश्वा लाल (अप्पू ) - जेम्स एलिया (ए.एस.आई कुट्टन पिल्ल ) - तुशेर पिल्लै (सुधीश की पत्नी ) - शिवाजीथ पद्मनाभन (अमरनाथ ) - आनंद बली (ADV लक्ष्मणन ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - YouTube - Downlaod Now
सुलतान
गैंगस्टरों द्वारा पाला गया एक आदमी उन्हें सुधारने की कोशिश करता है, और एक गाँव की रक्षा के लिए एक किराए की नौकरी उसे सही अवसर प्रदान करती है। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=y9J3M48p6Zg स्टार कास्ट - कार्थी (सुल्तान ) - रश्मिका मांडणा ( रुक्मणी ) - नेपोलियन (सेतुपति ) - लाल (मंसूर ) - योगी बाबू (बॉब बाबू ) - सतीश (शक्ति ) - रामचंद्र राजू (जयसिलानी) - नवाब शाह (व्यवसायी ) - हरीश पैरोडी ( आयुक्त मानिसिका) - एमएस। भास्कर (वकील ) - पोनवनान (रुक्मणी के पिता ) - मयिलसाम्य (ग्रामीण ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - Watch Online - Download Now
महृषि
एक करोड़पति व्यवसायी ऋषि अपनी मातृभूमि लौटता है, जहाँ वह गरीब और दलित किसानों का चैंपियन बन जाता है। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=eQraxc7QbU8 स्टार कास्ट - महेश बाबू ( ऋषि कुमार ) - अल्लारी नरेशो (रवि शंकर ) - पूजा हेगड़े (पूजा ) - जगपति बाबू ( विवेक मित्तल) - प्रकाश राज (.ए. सत्यनारायण, ऋषि) - जयसुधा (ऋषि की माँ ) - मीनाक्षी दीक्षितो (निधि ) - अद्वितीय (पल्ल्वी ) - कमल कामराजु (अजय) - साई कुमार (पल्लवी के पिता ) - तनिकेला भरणी (रवि के पिता ) - नासिर (मुख्यमंत्री ) - सत्यनारायण विकलांग ( पूजा के दादाजी) - मुकेश ऋषि (M P . भानु प्रसाद, अजय की पिता ) - राव रमेश चंद्रशेखर (, ऋषि के प्रोफेसर) - कोटा श्रीनिवास राव (पूजा के नाना ) - अन्नपूर्णा (पूजा की दादी ) - अनीश दामो (पूजा की बहन ) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - Watch Now - Download Now
अनु एंड अर्जुन
दुनिया की सबसे बड़ी आई.टी. घोटाला। ट्रेलर देखें https://www.youtube.com/watch?v=8ctyLQcZze8 स्टार कास्ट - विष्णु मंचू (अर्जुन ) - काजल अग्रवाल (अनु ) - सुनील शेट्टी (एसीपी कुमार ) - रूही सिंह (मोहिनी ) - कर्म मैक्केन (कैथरीन ओ'लेरी ) - नवीन चंद्र (सीड ) - नवदीप (विजय ) - जूलियट ऑड्रे (सुश्री गार्सिया ) - प्रिसिला अविला (श्रीमती फूटरमैन) कहाँ देखें (Download or Watch Now) - Download Now Read the full article
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abhay121996-blog · 3 years
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'ऑक्सिजन लेवल 90 के नीचे, नहीं उतर रहा बुखार...', मन में ऐसे हैं सवाल तो जानिए हर जवाब Divya Sandesh
#Divyasandesh
'ऑक्सिजन लेवल 90 के नीचे, नहीं उतर रहा बुखार...', मन में ऐसे हैं सवाल तो जानिए हर जवाब
लखनऊ बुखार ठीक होने के बाद भी कोई बुजुर्ग पैरासीटामॉल खाए चला जा रहा था तो कोई सर्दी, जुकाम, बुखार और खांसी के बाद भी जांच करवाने को तैयार नहीं। किसी को इस बात की चिंता थी कि संक्रमित होने के बाद टीका लगवा सकेंगे या नहीं? किसी ने जांच और इलाज में देरी को लेकर चिंता जताते हुए जल्द स्वस्थ होने के टिप्स पूछे।
होम आइसोलेशन और कोविड संक्रमण जैसे लक्षण वाले मरीजों के लिए सोमवार को एनबीटी अखबार और लखनऊ सपोर्ट ग्रुप की पहल पर शुरू हुए ‘हम साथ हैं’ अभियान में ऐसे तमाम सवाल आए। होम आइसोलेशन में रहते हुए तमाम मरीजों में लक्षणों को लेकर तमाम शंकाएं थीं जिन्हें अभियान से जुड़े विशेषज्ञ चिकित्सकों ने दूर किया। पाठकों के कुछ सवाल और डॉक्टरों के जवाब हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। हो सकता है, आपका सवाल भी इनमें से कोई हो तो उसका समाधान यहीं देखें-
सवाल- कई बार लगता है कि सांस कम ले पा रहे हैं? जवाब- कई बार यह मन का भ्रम होता है। इसकी जांच के लिए घड़ी में देखकर अपनी सांसें गिनिए। एक मिनट में अगर 24 बार से कम सांस खींच और निकाल रहे हैं तो मान लीजिए कि आपकी सांसें सामान्य हैं, घबराने की जरूरत नहीं है।
सवाल- ऑक्सिजन लेवल 90 के करीब आ जाता है क्या करें? जवाब- ऐसा होने पर पेट के बल लेट जाएं। इस स्थिति में पेट नहीं दबना चाहिए। कमर, घुटने के नीचे और छाती पर तकिया रखकर सोएं। ऐसा करने से ऑक्सिजन का स्तर पांच अंक तक बढ़ जाता है।
सवाल- दिन में कई बार ऑक्सिमीटर पर ऑक्सिजन का स्तर घटता बढ़ता रहता है? जवाब- ऑक्सिमीटर या जांच के दूसरे उपकरणों का बार-बार इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जब दिक्कत महसूस हो तब नापना चाहिए। बार-बार नापने पर घबराहट बढ़ती है।
सवाल- मेरे पिता की उम्र 80 साल है। उन्हें बुखार उतर गया है, लेकिन वो अब भी पैरासिटामॉल खा रहे हैं? जवाब- महज दोबारा बुखार चढ़ने के डर से बुखार की दवा देना ठीक नहीं है। महज सोशल मीडिया के सुझावों पर इलाज करना और एलोपैथी दवाएं देना नुकसानदायक भी हो सकता है। दवा मरीज की उम्र, वजन और सक्रियता के मुताबिक तय होती है। बुखार नहीं है तो दवा मत दीजिए।
सवाल- मेरी रिपोर्ट पॉजिटिव आई है, कोई लक्षण नहीं हैं, क्या मुझे भर्ती हो जाना चाहिए? जवाब-अगर कोई लक्षण नहीं है तो घर से बेहतर अस्पताल कोई नहीं है। घर के हवादार कमरे में अपने आप को आइसोलेट कर लीजिए और डॉक्टरों की बताई दवाओं के साथ हेल्दी डाइट लीजिए, ताकि ठीक होने के बाद कमजोरी न हो।
सवाल- कोविड से ठीक हो चुका हूं, लेकिन कमजोरी बहुत है? जवाब-कोविड के बाद मरीजों में कमजोरी सामान्य है। यह स्थिति दो से तीन सप्ताह तक रहेगी। मल्टीविटमिन लें, पर्याप्त पानी पिएं और प्रोटीन युक्त हेल्दी डाइट लें, जल्द रिकवरी होगी।
सवाल- कोविड निगेटिव हो चुका हूं, टीकाकरण करवा सकता हूं? जवाब- निगेटिव होने के एक महीने बाद टीकाकरण करवा सकते हैं।
सवाल- कोविड संक्रमित हुए 12 दिन बीत चुके हैं, क्या दोबारा जांच करवा लें? जवाब- संक्रमित होने के 12 दिन बाद कोई दिक्कत नहीं है तो आप खुद को निगेटिव मान सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि 20 दिन बाद ही दोबारा जांच करवाएं, तब तक आइसोलेट रहें।
सवाल- आठ-आठ घंटे पर पैरासिटामॉल लेते हैं, लेकिन बीच में फिर बुखार आ जाता है? जवाब- बुखार 100 फारेनहाइट से ज्यादा नहीं होने देना है। चाहे तो इसके लिए चार-चार घंटे में पैरासिटामॉल देना पड़े। इसके साथ गीले कपड़े से माथा समेत पूरे शरीर को पोंछ भी सकते हैं, ताकि तापमान नियंत्रित रखा जा सके।
सवाल- मुझे जुकाम और गले में खराश है, लेकिन यह मुझे अक्सर हो जाता है। क्या करें? जवाब-बिना देर किए आप आरटीपीसीआर करवाएं। यह लक्षण कोविड के हैं। समय से रिपोर्ट आ जाएगी तो इलाज आसान होगा।
सवाल- मुझे दस दिन से सर्दी, जुकाम, बुखार और कमजोरी है, क्या यह कोविड हो सकता है? जवाब-दस दिन से बुखार है तो आपको आरटीपीसीआर जांच करवा लेनी चाहिए। आप ऑक्सिमीटर से अपना ऑक्सिजन स्तर नापते रहें। देरी करना नुकसानदायक हो सकता है।
सवाल- पिताजी को बुखार है और ऑक्सिजन का स्तर 90 से नीचे हैं, क्या करें? जवाब-इन्हें तुरंत किसी एल1 श्रेणी के अस्पताल में भर्ती करवाएं। बेड नहीं मिलता तो घर में ही ऑक्सिजन सिलिंडर का इंतजाम कर लें। बेड खाली होने का इंतजार करते हुए प्रयास जारी रखें। अब तक कई अस्पतालों में बिना सीएमओ की अनुमति के सीधे भर्ती हो रही है, लिहाजा ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है।
सवाल- संक्रमण के पांच दिन हो गए हैं, ऐसे में दिक्कत बढ़ने के लक्षण क्या हैं? जवाब- आप हार्टबीट के साथ ही ऑक्सिजन का स्तर भी चेक करिए। अगर ऑक्सिजन का स्तर 90 से 95 के बीच स्थिर है, लेकिन उसके बाद भी खांसी, सीने में कफ जमा होने जैसा महसूस होना, बेचैनी और हार्टबीट लगातार बढ़ी हुई है तो एहतियात जरूरी है। डॉक्टर के परामर्श से सीटी चेस्ट समेत कुछ जांचें करवा लें, ताकि समय रहते कुछ नई दवाएं शुरू कर स्थितियों को नियंत्रित किया जा सके।
सवाल- मैंने लक्षण दिखने के चार दिन बाद जांच करवाई थी, छठे दिन रिपोर्ट आई, कहीं इस देरी की वजह से तो दिक्कत नहीं बढ़ गई? जवाब-हमें वायरस से दो कदम आगे रहना है। खांसी, बुखार, बदन दर्द जैसे शुरुआती लक्षण दिखते ही अगर इलाज शुरू हो जाए तो बीमारी को पांच से सात दिन के भीतर नियंत्रित किया जा सकता है। हालांकि कई लोग लक्षण दिखने के बाद भी इसे छिपाए रहते हैं और संक्रमण बढ़ने पर जांच करवाते हैं, लेकिन कई बार यह देरी उन पर भारी पड़ जाती है।
सवाल- वैक्सीन की पहली डोज लगवाने के बाद संक्रमित हुए थे अब दूसरी डोज कब लगवा सकते हैं? जवाब- ऐसी स्थिति में दूसरी डोज निगेटिव होने के छह सप्ताह बाद लगवा सकते हैं।
सवाल- हल्का बुखार, गले में खराश और थकान जैसी महसूस हो रही है, क्या करें? जवाब-इस समय ऐसे लक्षण दिखते ही तुरंत डॉक्टर से पूछकर कोविड प्रॉटोकॉल की दवा शुरू कर दें। साथ ही तुरंत ही आरटीपीसीआर की जांच करवाएं, ताकि रिपोर्ट आने में देरी के चलते इलाज में देरी न हो।
सवाल- संक्रमित होने के बाद हमेशा डर बना रहता है कि ऑक्सिजन कम न हो जाए‌? जवाब-घबराहट और चिंता से इम्युनिटी कम होती है। सुबह-शाम घर की खिड़की खोलकर प्राणायाम करिए। लंबी-लंबी सांसें लीजिए। वॉट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक बंद कर दीजिए। कमरे में अखबार और अच्छी किताबें रखिए ताकि जब मन करे उन्हें पढ़ सकें। दोस्तों, परिचितों और परिवारीजनों से बात करते रहिए।
तीन पालियों में चल रही हेल्पलाइन एनबीटी और लखनऊ सपोर्ट ग्रुप की हेल्पलाइन तीन पालियों में चल रही है। लखनऊ सपोर्ट ग्रुप की मनीषा भाटिया, ममता, तमोषा मुखर्जी और शुभकरन सिंह ने सुबह सात से नौ बजे, सुबह 11 से दोपहर एक बजे और दोपहर तीन से पांच बजे तक मरीज और डॉक्टरों के बीच समन्वय बनाने का काम किया।
मंगलवार को भी कोई भी जरूरतमंद मोबाइल नंबर 7307351811, 7307334898 और लैंडलाइन नंबर 05224113494 पर फोन कर परामर्श ले सकता है।
इन विशेषज्ञों ने दिए परामर्श
डॉ रमा श्रीवास्तव, अध्यक्ष, आईएमए
प्रो. आरबी सिंह, प्रोफेसर ऑफ जनरल सर्जरी एंड मेडिकल सुपरिटेंडेंट, हिंद मेडिकल कॉलेज
डॉ. दर्शन बजाज, असिस्टेंट प्रफेसर, सांस रोग विभाग,केजीएमयू
डॉ. अनूप अग्रवाल, डायरेक्टर, सुश्रुत हॉस्पिटल
डॉ. प्रांजल अग्रवाल, निदेशक, निर्वाण हॉस्पिटल
डॉ. पीके गुप्ता,डायरेक्टर, पीके पैथोलॉजी
डॉ. राजेश प्रजापति, एरा मेडिकल सेंटर
डॉ. शाश्वत विद्याधर, डायरेक्टर, सेंट मेरी हॉस्पिटल
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jaunpur24 · 4 years
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जौनपुर : विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. आदित्य मणि मिश्र की मौत का राज खोल सकता है आइफोन ।
जौनपुर : विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डा. आदित्य मणि मिश्र की मौत का राज खोल सकता है आइफोन ।
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जौनपुर।  वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विवि के प्रो. राजेंद्र सिंह रज्जू भैया शोध संस्थान में गणित के विभागाध्यक्ष असिस्टेंट प्रोफेसर डा. आदित्य मणि मिश्र की आत्महत्या ने हर किसी को उलझा दिया है। छानबीन में जुटी पुलिस को लगता है कि उनके आइफोन का लाक खुलने पर कुछ सुराग मिल सकता है। स्वजन भी मौत को गले लगाने का कारण समझ नहीं पा रहे हैं।
रायबरेली जिले के दरियापुर चौराहा (मुंशीगंज) निवासी अवकाश प्राप्त…
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shaileshg · 4 years
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"गुलामी के दौर में भी जब तक हम अपनी भाषा को पकड़े रखते हैं, तब तक हमारे हाथ में जेल की चाबी होती है।" यानी सोच सकते हैं कि भाषा हमारे लिए कितनी मायने रखती है।
किसी देश और वहां के लोगों के लिए भाषा क्या अहमियत रखती है? उसका सबक हम करीब 250 साल पहले हुए फ्रेंको-प्र���ियन वॉर से सीख सकते हैं। बात 1870-1871 की है। जब फ्रांस को बिस्मार्क की अगुआई में प्रशिया ने युद्ध में हरा दिया था। तब प्रशिया तत्कालीन जर्मनी, पौलैंड और ऑस्ट्रिया से मिलकर बना था।
फ्रांस के अल्सेश और लाॅरेन जिले प्रशिया के हाथ में आ गए थे। दुश्मन सेना यहां के स्कूली छात्रों और गांव के लोगों को अपनी भाषा सिखाना चाह रहे थे, और लोग अपनी भाषा को खोने के डर से आंसू बहा रहे थे। इस कहानी को लिखा है फ्रेंच उपन्‍यासकार और कथाकार अल्फाॅज डाॅडे ने। कहानी का नाम द लास्ट लेसन है, यानी आखिरी सबक।
इसका हिंदी में अनुवाद किया है हमारे लिए डॉक्टर हरि सिंह गौर यूनिवर्सिटी सागर में माइक्रोबायोलॉजी के प्रोफेसर नवीन कानगो ने। हिंदी दिवस के दिन हमें इस कहानी को जरूर पढ़ना चाहिए, ताकि हम भाषा के महत्व को समझ सकें, उसे प्रेम कर सकें, उसे जी सकें।
पढ़िए आखिरी सबक...
उस दिन मुझे स्कूल के लिए देर हो रही थी और मुझे डांट का डर भी लग रहा था। खासकर इसलिए कि मिस्टर हैमेल फ्रेंच व्याकरण पर सवाल पूछने वाले थे और मैं उसका एक शब्द भी नहीं जानता था। मैंने सोचा कि कहीं भाग जाऊं और पूरा दिन बाहर बिता दूं। उस दिन सुनहरी धूप खिली थी और जंगल में चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी। दूसरी ओर आरामिल के पीछे खुले मैदान में प्रशिया के सैनिक युद्धाभ्यास कर रहे थे। यह सब व्याकरण के पाठ से कहीं ज्यादा आर्कषक था, पर अपनी इच्छा को दबाते हुए मैंने स्कूल की ओर रुख किया।
टाॅउन हाॅल से गुजरते हुए मैंने सूचना पटल पर लोगों की भीड़ देखी। पिछले दो सालों में सारी बुरी खबरें, जैसे लड़ाई में हार, नए मसौदे, कमांडिंग अफसर के आदेश- यहीं से मिलते थे। मैंने बिना रुके सोचा- ‘‘अब क्या बात हो सकती है?’’ मुझे जल्दी में देखकर वहां पर मौजूद वाॅचर लुहार ने, जो अपने चेले के साथ वहां सूचना पढ़ रहा था, पुकारा और कहा ‘‘इतनी जल्दबाजी मत करो, बच्चे, तुम्हें स्कूल पहुंचकर बहुत वक्त मिलेगा।’’
मुझे लगा कि वह मेरा मजाक उड़ा रहा है और मैं हांफते हुए मिस्टर हैमेल की कक्षा के बाहर बगीचे में पहुंच गया।
आमतौर पर स्कूल की शुरुआत गली तक सुनाई देने वाले कानफोड़ू सामूहिक पाठ, शोर-शराबे, मेजों का खुलने-बंद होने और शिक्षक के बेंत की मेज पर खटर-पटर से होती थी। पर आज सब कुछ शांत और स्तब्ध था। मैं चुपचाप अपनी डेस्क तक पहुंचने की फिराक में था।
मैंने खिड़की से देखा कि सभी साथी अपनी जगह पर बैठे हैं और मिस्टर हैमेल अपने हाथ में भयंकर बेंत लिए ऊपर-नीचे चल रहे हैं। मुझे सबके सामने दरवाजा खोलकर दाखिल होना पड़ा। मेरी शर्म और भय का आप अंदाजा लगा सकते हैं।
पर कुछ भी नहीं हुआ, बल्कि मिस्टर हैमेल मुझसे बहुत दया से बोले ‘‘प्रिय फ्रांज, तुम अपनी जगह पर जल्दी जाओ, हम तुम्हारे बगैर ही क्लास शुरू करने वाले थे।’’
मैं लपककर अपनी बेंच पर बैठ गया। अभी मेरा डर से कंपकंपाना गया भी नहीं था कि मैंने देखा कि हमारे शिक्षक ने बूटेदार खूबसूरत कोट, झालरदार शर्ट, छोटी काली रेशमी टोपी, जो कि वे सिर्फ निरीक्षण या पुरस्कार वितरण में पहनते थे, पहन रखी है। इसके अलावा सारी क्लास अजीब तरह स��� उदासी ओढ़े हुई थी। पर सबसे चौंकाने वाली बात थी कि पीछे की बेंचों पर हमारी ही तरह गांव के लोग खामोश बैठे हुए थे। इनमें अपनी तिकोनी हैट पहने बूढ़ा हाॅसर, भूतपूर्व महापौर, पोस्टमास्टर और अन्य कई लोग थे। सभी उदास लग रहे थे।
मैं इन हालात पर विचार कर ही रहा था कि मिस्टर हैमेल अपनी कुर्सी पर बैठ गए और उसी उदास और मृदु लहजे में, जैसे उन्होंने मुझसे बात की थी। बोले, ‘‘मेरे बच्चों, आज मैं तुम्हें आखिरी सबक पढ़ाने वाला हूं। बर्लिन से जारी आदेश के तहत अब अल्सेश और लाॅरेन के स्कूलों में सिर्फ जर्मन पढ़ाई जाएगी। नया शिक्षक कल पहुंच जाएगा। यह आपका आखिरी फ्रेंच अभ्यास है। मैं चाहता हूं कि आप बहुत ध्यान दें।’’
क्या ये शब्द मेरे लिए किसी वज्रपात की तरह न थे!
ओह, कितना दुर्भाग्यपूर्ण! तो टाउन हाॅल में उन्होंने यही सब लगा रखा था।
मेरा आखिरी फ्रेंच सबक! क्यों? अभी तो मैं बमुश्किल लिखना सीख पाया था। अब मैं और नहीं सीख पाऊंगा! मुझे यहीं रुकना पड़ेगा फिर! ओह! मुझे अपने सबक न सीखने का कितना अफसोस था, जिसके बदले मैं चिड़ियों के अंडे खोजता रहा और सार नदी में छलांग लगाता रहा। जो व्याकरण की किताबें और संतों की कहानियां अब तक मुझे रुकावट और बोझ लगती थीं, अचानक अब मेरे पुराने, न छोड़ सकने वाले दोस्तों में बदल गई थीं और मिस्टर हैमेल भी!
बेचारे मिस्टर हैमेल! तो ये सजावटी कपड़े अपने आखिरी पाठ के समापन में पहन कर आए थे और अब मैं गांव के बूढ़े आदमियों के कमरे में पीछे बैठे होने का सबब भी समझ चुका था। वे भी इस बात को लेकर उदास थे कि वे अक्सर स्कूल न जा सके। अपने शिक्षक उसकी चालीस साल की विश्वसनीय सेवाओं और देश के प्रति निष्ठा, जो कि अब उनका नहीं रहा था, उसके प्रति उनके आभार जताने का तरीका था।
अभी जब मैं यह सब सोच ही रहा था कि मेरा नाम पुकारा गया है। अब मेरे पढ़ने की बारी थी/पाठ दोहराने की बारी थी। क्या मैं व्याकरण के नियम को बता सकता था। जोर से साफ आवाज में, बिना गलती के, पर शुरुआती शब्दों में ही मेरी जबान फिसल गई और मेरी धड़कनें तेज हो गईं, मैं नजरें नीची किए हुए डेस्क पकड़े खड़ा रह गया।
तभी ‘‘मैं तुम्हें नहीं डांटूंगा’’- मैंने मिस्टर हैमेल को कहते सुना। ‘‘छोटे फ्रांज, तुम्हें खुद ही बुरा लगना चाहिए। देखो ऐसा है! हम रोज ही अपने आपसे कहते हैं- अरे; अभी बहुत समय पड़ा है, इसे मैं कल सीख लूंगा और अब तुम देखो, हम कहां हैं। आह! ’’
‘तुम्हारे माता-पिता, अभिभावक भी तुम्हारे सीखने के प्रति गंभीर नहीं थे, वे चाहते थे कि तुम उनके साथ खेत या मिल पर काम करो, ताकि कुछ ओर पैसे मिल सकें। और मैं? मुझ पर भी तो इल्जाम आना चाहिए। यदि मैंने तुम्हें पाठ पढ़ने कि बजाए अक्सर अपने फूल-पौधों पर पानी डालने न भेजा होता। और क्या मैंने जब भी मछली पकड़ने जाना चाहा, तुम्हें छुट्टी नहीं दे दी?’
फिर एक बात से दूसरी बात तक मिस्टर हैमेल फ्रेंच भाषा का बखान करते रहे कि वह दुनिया कि सबसे सुन्दर भाषा है। सबसे साफ, सबसे तार्किक और यह कि हमें उसकी रक्षा करनी चाहिए, उसे बिना कभी भूले। वह यूं कि जब किन्हीं लोगों को गुलाम बनाया जाता है तो जब तक वे अपनी भाषा को पकड़े रखते हैं, तब तक उनके हाथ में जेल की चाबी रहती है।’
फिर उन्होंने व्याकरण की किताब से हमें एक पाठ सुनाया। मैं आश्चर्य चकित था कि यह सबक मुझे कितना स्पष्ट था। वे जो कह रहे थे वह बहुत आसान लग रहा था, बहुत आसान! मुझे लगता है कि मैंने कभी इतने ध्यान से उन्हें सुना ही नहीं और न ही उन्होंने कभी इतने व्यवस्थित ढंग से हमें समझाया। ऐसा लग रहा था कि बेचारे मिस्टर हैमेल हमें अपना सारा ज्ञान जाने से पहले दे जाना चाहते थे।
व्याकरण के बाद, हमने एक लेखन का सबक सीखा! उस दिन मिस्टर हैमेल के पास हमारे लिए सुंदर गोल अक्षरों में लिखी कापियां थीं- फ्रांस, अल्सेश, फ्रांस, अल्सेश।
ऐसा लग रहा था मानों कक्षा में चारों तरफ फ्रांस के छोटे-छोटे झंडे फैल गए हों। वे छत की राॅड से हमारी डेस्क पर लटके हुए। आपको देखना चाहिए था कि कैसे सब लिखने में व्यस्त हो गए और कितना सन्नाटा था। सिर्फ कागजों पर कलम के चलने की आवाजें आ रही थीं। छत पर कुछ कबूतर धीरे-धीरे गुटरगूं कर रहे थे और मैंने सोचा कि क्या वे कबूतरों को भी जर्मन में गाने को कहेंगे?
मैंने जब-जब ऊपर देखा तो पाया कि मिस्टर हैमेल कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह को बड़े ध्यान से हमें देख रहे हैं, मानो वे अपने दिमाग में इस कक्षा को जज्ब कर लेना चाहते हों। यह सब छोड़ते हुए उन बेचारे का दिल कैसा टूटा होगा; जबकि वे ऊपरी कमरे में अपनी बहन के चलने और ट्रंक में पैकिंग करने की आवाज सुन पा रहे थे!
उनका कल ही देश छोड़ना जरूरी था, पर आज उनमें सारे अध्यायों को आखिर तक सुनने का साहस था। लेखन के बाद हमें इतिहास का अध्याय पढ़ना था और तभी कुछ शिशुओं की आवाज आई ...... बा, बे, बी, बो, बू। वहीं पीछे बूढ़ा हाॅसर चश्मा लगाए बारहखड़ी की पुस्तिका को दोनों हाथों से थामे हुए उन्हीं के साथ कुछ शब्दों का उच्चारण कर रहा था। आप देख सकते थे कि वह भी रो रहा था। उसकी आवाज भावनाओं से लरज रही थी, और उसे सुनना इतना मजेदार था कि हम रोते हुए हंसना चाहते थे।
आह! कितने अच्छे से याद है मुझे, वह आखिरी सबक!
यकायक चर्च की घड़ी ने बारह बजाए और फिर एंजेल्स प्रार्थना शुरू हो गई। ठीक उसी वक्त युद्धाभ्यास से लौटते हुए प्रशियन सैनिकों की तुरही की आवाज हमारी खिड़कियों के पीछे सुनाई दे रही थी। मांशियर हैमेल का चेहरा पीला पड़ चुका था और वे कुर्सी पर निढाल बैठे थे, मुझे वे इतने ऊंचे कभी नहीं लगे थे।
‘‘मेरे दोस्तों’ मैं,,, मैं,...... कुछ कहने की कोशिश में उनका गला रुंध गया। वे और नहीं बोल पाए। फिर वे ब्लैकबोर्ड की तरफ घूमे, उन्होंने चाॅक का एक टुकड़ा उठाया और अपने ताकत से जितना बड़ा वा लिख सकते थे, लिखा ‘विवे ला फ्रांस’ (फ्रांस जिंदाबाद)।
फिर वे रुक गए और उन्होंने अपना सिर दीवार पर टिका दिया और बिना कोई शब्द बोले, अपने हाथों के इशारों से कहा, ‘‘स्कूल समाप्त हुआ- आप जा सकते हैं’’।
250 साल पहले हुए फ्रेंको-प्रशियन वॉर का एक दृश्य।
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Franco-Prussian War that happened 250 years ago tells the importance of language, we must read this story on Hindi Day
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lyrics360t · 5 years
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एटा. चीन के वुहान में फंसे उत्तर प्रदेश के एटा जिले के रहने वाले एक एसोसिएट प्रोफेसर ने वीडियो जारी करकेभारत सरकार से मदद मांगी है। वीडियो में उन्हाेंने बताया कि वह, उनकी पत्नी समेत 23 भारतीय यहां फंसे हैं, जो नोवेल कोरोनोवायरस प्रकोप का केंद्र है। एटा निवासी आशीष यादव (35) वुहान टेक्सटाइल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उनकी पत्नी नेहा (30) कंप्यूटर साइंस में पीएचडी कर रही हैं। दोनों लगभग हर रोज वीडियो संदेश भेजकर उत्तर प्रदेश में अपने परिवारों के संपर्क में हैं। नेहा अपने वीडियो संदेश में भावुक होते हुए कहा- खिड़की से बाहर देखती हूं तो ऐसा लग रहा है जैसे हॉलीवुड कि किसी मूवी का सीन हो।
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आशीष की मां सरोज देवी ने कहा- दो साल से वह वहां काम कर रहे हैं। इसी साल फरवरी में आने वाला था, लेकिन नहीं आया है। आशीष ने कहा कि अभी यहां से फ्लाइट नहीं निकल रही है। अभी घर में ही रह रहे हैं। कह रहा है कि जल्दी आउंगा। लेकिन यहां से भी अभी कुछ नहीं हुआ है। पिता ने भंमर सिंह ने बताया विधायक और सांसद से बात हुई है। आशीषकाफी परेशान है। बार-बार उसका फोन आ रहा है। वह प्राइवेट जहाज से तो आ नहीं सकता है। उसने आने के लिए ट्वीट भी किया था। हंसते-खेलते शहर में पूरी तरह बीरानी छाई हुई है: नेहा अपने परिवार को एक संदेश में नेहा ने कहा, " हम 22 दिसम्बर से ही अपने कमरे में बंद हैं। हमारी भारत सरकार से अपील है कि हमें यहां से बाहर निकालने का प्रयास करे। पहले हमें बताया गया कि यह दो सप्ताह के भीतर समाप्त हो जाएगा, लेकिन यह लगातार बढ़ता जा रहा है। यहां दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ है। ऐसा लग रहा है जैसे हॉलीवुड की कोई मूवी चल रही है। यह हंसता खेलता हुआ शहर था, लेकिन आधी रात को यह शहर पूरी तरह से बंद हो गया।'' हमें बताया था- 14 दिन में सामान्य हो जाएगा सब: आशीष आशीष ने कहा, ''अपनी स्थिति के बारे में भारतीय दूतावास को अलर्ट किया। वुहान के 22 जनवरी को लॉकडाउन से पहले, हमें बताया गया था कि चूंकि कोरोनोवायरस का इन्क्यूबेशन पीरियड सिर्फ 14 दिन है, इसलिए स्थिति फरवरी के पहले सप्ताह तक सामान्य हो जाएगी, लेकिन अब स्थिति गंभीर हो गई है।" चीन से भारत आने की अनुमति नहीं मिल रही इस दंपति ने एक पत्र भेजा है, जिसमें वुहान में अधिकारियों से कहा गया है कि वे भारत जाने के लिए उन्हें एयरपोर्ट जाने की अनुमति दें। लेकिन, वुहान के अधिकारी भारतीय राजदूत या विदेश मामलों के मंत्री द्वारा उन्हें यात्रा करने की अनुमति देने के लिए सीधे फोन कॉल या हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं। इस जोड़े की शादी नवंबर 2018 में हुई थी और ठीक एक साल बाद नेहा वुहान चली गईं। Also, check out the latest Mehndi Designs Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
आशीष और नेहा की शादी नवंबर 2018 में हुई थी।
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blogbazaar · 5 years
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“ “ “ चमन कोहली आज जो विग पहन के कॉलेज गए हैं वो उन्हें परेशान कर रहा है. आदत नहीं है न. और इसलिए वो बार-बार अपने बाल खुजला रहे हैं. वॉशरूम में जाते हैं और विग खोलकर चैन की सांस लेते हैं. लेकिन उनका ये सारा क्रियाकलाप एक एमएमएस के रूप में पूरे कॉलेज में वायरल हो जाता है और चमन कोहली की खूब कॉलेज-हंसाई होती है. अब इस पूरे सिक्वेंस में वही दिक्कत है जो पूरी ‘उजड़ा चमन’ मूवी में है. उस दिक्कत का नाम है- ‘अतिश्योक्ति’. ये दिक्कत इसलिए बड़ी लगती है क्यूंकि फिल्म अपने प���रोमो और अपनी पैकेजिं�� में मॉडेस्ट और रियल्टी के करीब लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है. # कहानी- 30 साल का चमन कोहली दिल्ली के हंसराज कॉलेज में हिंदी का प्रोफेसर है. वो और उसकी फैमली लगी हुई है कि कैसे न कैसे चमन की शादी हो जाए. लेकिन इसमें तीन बड़ी अड़चनें हैं. सबसे बड़ी दिक्कत है उसका गंजापन, जिसके चलते हर दूसरी लड़की उसे रिजेक्ट कर देती है और बची हुई आधी लड़कियों की या तो फैमिली रिजेक्ट करती है या उन लड़कियों को कैसे एप्रोच करना है ये चमन नहीं जानता. दूसरी दिक्कत है कि उसके पास वक्त बहुत कम है. क्यूंकि उसके फैमिली पंडित ने कहा है कि अगर 31 साल तक उसकी शादी नहीं हो जाती तो वो आजीवन कुंवारा रहेगा. तीसरी दिक्कत है चमन की खुद की एक्सपेक्टेशन. चमन कोहली के पैरामीटर के हिसाब से अप्सरा बत्रा कुछ भी हो, अप्सरा तो कतई नहीं है. वो चाहे कैसा भी हो, लेकिन उसे लड़की चाहिए खूबसूरत. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि उसकी ज़िंदगी में अप्सरा बत्रा आ जाती हैं जो चमन के मानकों में खूबसूरती में माइनस मार्किंग पाती हैं. इस सब घटनाओं और आपदाओं के दौरान चमन कोहली के सेल्फ रियलाइजेशन की स्टोरी है ‘उजड़ा चमन’. # रीमेक – रोमांस और कॉमेडी, यानी रॉम-कॉम विधा की ये मूवी, कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ का ऑफिशियल रिमेक है. इसलिए ही कन्नड़ मूवी के राइटर और डायरेक्टर राज बी शेट्टी को हिंदी फिल्म में राइटर का क्रेडिट दिया गया है. स्क्रीनप्ले के हिसाब से कई चीज़ें अलग हैं, कुछ चीज़ें हटाई गई हैं और कुछ जोड़ी गई हैं. जैसे कन्नड़ वाले वर्ज़न में कॉलेज गर्ल का चमन को धोखा देने वाला पार्ट नहीं है जो इस मूवी में जोड़ा गया है. होने को कहीं-कहीं ट्रीटमेंट भी अलग है, जैसे लीड एक्टर-एक्ट्रेस के बीच का कॉन्फ्लिक्ट दोनों ही फिल्मों में अलग तरह से शुरू और अलग ही तरह से खत्म होता है. लेकिन ओवरऑल स्टोरीलाइन में ये सब चीज़ें थोड़ा सा भी अंतर नहीं डालतीं. और कई जगह तो ‘उड़ता चमन’ सीन दर सीन भी अपने कन्नड़ काउन्टरपार्ट की ज़िरॉक्स लगती है. जैसे प्रिंसिपल द्वारा एक स्टूडेंट का फाइन किया जाना या जैसे चमन कोहली द्वारा पंडित को शादी तोड़ने के लिए कन्विंस करना. # बाला से टक्कर – अभी कुछ ही दिनों बाद बाला भी रिलीज़ होने वाली है. उस फिल्म का भी मेन प्लॉट, लीड करैक्टर का गंजा होना ही है. वैसे अगर दोनों फिल्मों के प्रोमो देखें तो समानताएं ज़्यादा और अंतर कम नज़र आते हैं लेकिन ये कितनी हैं और कौन ज़्यादा शाबाशी बटोरेगी वो बाला देखने के बाद ही पता चलेगा. एक फिल्म को अगर पहले रिलीज़ होने और ऑरिजनल मूवी का ऑफिशियल रीमेक होने का एडवांटेज़ मिला है तो दूसरी को आयुष्मान खुराना और भूमि पेडणेकर जैसी बड़ी स्टारकास्ट का. # एक्टिंग- ‘प्यार का पंचनामा 2’ और ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ जैसी हल्की फुल्की फ़िल्में कर चुके सनी सिंह के पास इस फिल्म से अपने को साबित करने का अच्छा मौका था. लेकिन अगर उन्होंने मौका गंवाया नहीं भी तो उसे पूरी तरह से कैश भी नहीं करवा पाए. दो कारणों के चलते. एक तो मूवी के इमोशनल पार्ट इतने स्ट्रॉन्ग नहीं हैं कि उसमें अपना हुनर कोई दिखा पाए. दूसरा उनके एक्सप्रेशन पूरी मूवी में ऑलमोस्ट सेम रहते हैं. हां उन्हें ‘मेकअप’ का एडवांटेज़ ज़रूर मिला है, जिसके चलते उनको पहचानना मुश्किल है. उनकी पिछली मूवीज़ देखने के बाद आप इस बात पर उनकी तारीफ़ ज़रूर करेंगे कि उन्होंने करैक्टर के लो कॉन्फिडेंस और सेल्फ डाउट को काफी अच्छे से कैरी किया है. अतुल कुमार और ग्रुशा कपूर ने अच्छी एक्टिंग की है. लेकिन थोड़ी लाउड भी. जो कि ऑफ़ कोर्स स्क्रिप्ट की मांग थी. मूवी का सबसे बड़ा हासिल हैं मानवी गग्रू. ये पहली बार है जब उन्होंने किसी फुल लेंग्थ फीचर फिल्म में लीड एक्ट्रेस प्ले किया हो. होने को ‘फोर मोर शॉट्स प्लीज़’, ‘ट्रिपलिंग’ और ‘पिचर्स’ जैसी वेब सीरीज़ में उनके काम को काफी सराहा गया था. इस फिल्म में भी उनके एक्सप्रेशन्स, उनकी एक्टिंग और अपने करैक्टर के लिए की गई उनकी मेहनत पर्दे पर दिखती है और उन्हें बॉलीवुड में अच्छे से स्थापित करने का माद्दा रखती है. चमन के मम्मी पापा बने अतुल कुमार और ग्रुशा कपूर पंजाबी एक्सेंट और दिल्ली वाले हाव भाव बड़ी अच्छी तरह से पकड़ पाए हैं. सबसे अच्छी कॉमिक टाइमिंग सौरभ शुक्ला की है. बेशक वो दो एक छोटे-छोटे सीन में हैं, और बेशक वो सीन और उनका वो रोल उतना दमदार भी नहीं है. शारिब हाशमी ने कॉलेज के पियोन का किरदार बखूबी निभाया है. होने को ऑरिजनल मूवी में इस किरदार के पास करने को ज़्यादा था. हिंदी वाले वर्ज़न में उसकी स्टोरी को काफी कम कर दिया गया है साथ में उससे जुड़ा इमोशन भी सतही बनकर रह गया है. बाकी एक्टर्स का काम रूटीन तरह का है जिसमें कुछ भी अच्छा या बुरा इतना प्रोमिनेंट नहीं है. # स्क्रिप्ट- दो घंटे की मूवी में भी अगर दर्शक एंटरटेन नहीं हो पा रहे हैं तो यकीनन कहीं स्क्रिप्ट में बहुत बड़ा झोल है. फिल्म का कॉन्सेप्ट बहुत अच्छा है. और स्क्रिप्ट के अपने मोमेंट्स भी हैं लेकिन लचर डायरेक्शन उसे पूरी तरह कैश नहीं करवा पाता. चमन और अप्सरा की सगाई के टूटने वाला सीन और चमन का पियोन राज कुमार के घर विज़िट करने वाला सीन काफी पावरफुल और इमोशनल हो सकता था. लेकिन ‘है’ और ‘हो सकता था’ का ये अंतर ही ‘मास्टरपीस’ और ‘औसत’ के बीच का अंतर है. # ह्यूमर और लव कोशेंट- हर हिट रॉम-कॉम मूवी में दो चीज़ें कमोबेश होती ही होती हैं. यूनिक लव स्टोरी और गुदगुदाने वाली कॉमेडी. जैसे ‘जब वी मेट’ या ‘समवन लाइक इट हॉट’. इस मूवी में भी लव स्टोरी यूनिक है, लेकिन इसे देखते हुए आपको बार-बार लगता है जैसे आप छोटे बजट की कोई वेब सीरीज़ देख रहे हों. क्यूंकि ये लव स्टोरी आईडिया के लेवल पर तो यूनिक है, लेकिन स्टोरीबोर्ड से होते हुए स्क्रिप्ट के रास्ते स्क्रीनप्ले तक पहुंचते-पहुंचते अपने साथ कई क्लिशे चिपका लेती है. फिर चाहे वो ‘प्यार की पहली सीढ़ी लड़ाई’ जैसा घिसा पि���ा कॉन्सेप्ट हो या लड़की के सामने लड़के का कान पकड़ के कन्फेशन करना या ‘जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है’ जैसे डायलॉग्स. ‘ओंडू मोटेया काथे’,’बाला’ और ‘उजड़ा चमन’ के पोस्टर्स. रही बात कॉमेडी की तो वो रिपीटेटिव लगती है जब ‘मेटाबॉलिज्म’,’सेलिबेसी’ और ‘टेस्टोस्टेरोन‘ जैसे एक नहीं तीन-तीन शब्दों को तोड़-मरोड़ के उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. वो सतही लगती है जब एक विशेष प्रकार के कल्चर और एक्सेंट से उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. कहीं-कहीं उबाती और इरिटेट करती है जब टाइमिंग और बैकग्राउंड म्यूज़िक उसका साथ नहीं दे पाए हों. और वो जब अच्छी लगती है तो याद आता है कि ये वाली सीधे ऑरिजनल कन्नड़ मूवी में भी ठीक ऐसी ही थी. # अतिश्योक्ति- फिल्म में कई ऐसी चीज़ें हैं जिसपर आप कहेंगे ऐसा कहां होता है? कुछ चीज़ें फिजिक्स के लेन्ज लॉ की तरह अपने ही स्रोत का विरोध करती लगती हैं. एक तरफ ये गंजेपन और मोटापे को लेकर ‘एक्सेपटेंस’ बढ़ाने का प्रयास करती है दूसरी तरफ दिल्ली और पंजाबियों को लेकर अपने प्री कंसीव नोशन रखती है. जैसे पंजाबी फैमली है तो लाउड होगी. पंजाबी हैं तो शराब पिएंगे ही पिएंगे. और इस चीज़ को हाईलाईट करने के लिए जैसे ही शराब की बात आती है, बैकग्राउंड में ‘पंजाबी’ शब्द सुनाई देता है. एक पुराने से कॉमन बैकग्राउंड म्यूज़िक के रूप में. बैकग्राउंड म्यूज़िक की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं. न केवल इसकी लाउडनेस से बल्कि इसकी टाइमिंग से भी दिक्कत है. कई जगह ये किसी जोक के पंच से सिंक नहीं करता तो कई जगह सीन के साथ. हिंदी का प्रोफेसर, रोमन में टाइप करता है और इकोनॉमिक्स के टीचर के साथ टेबल वाइन के साथ फाइव स्टार में डिनर करता है. तब जबकि उसकी सैलरी, जैसा वो बताता है साठ हज़ार रुपल्ली है. आप कहेंगे कि तो क्या हो गया, ये इम्पॉसिबल तो नहीं. बेशक इम्पॉसिबल नहीं लेकिन अपाच्य ज़रूर है. और तब जबकि जैसा स्टार्ट में कहा था कि मूवी अपनी पैकेजिंग में काफी आर्गेनिक लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है. # दिल्ली- अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में दिल्ली अपने ‘पुरानी दिल्ली’ और ‘चांदनी चौक’ वाले पारंपरिक बॉलीवुड रूप में नहीं है. राजौरी गार्डन, हंसराज कॉलेज, मेट्रो स्टेशन, मयूर विहार, हौज़ ख़ास विलेज जैसी जगहें देखकर या उनके बारे में सुनकर एक डेल्हीआईट को कहीं भी ‘आउट ऑफ़ दी वर्ल्ड’ या ‘काल्पनिकता’ का आभास नहीं होता. मूवी का दिल्ली रियल है. # डायलॉग्स- मैं बार-बार रिपीट कर रहा हूं कि हर डिपार्टमेंट में ‘आईडिया’ के लेवल पर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन उसकी तामीर, उसके मटरियलाइज़ेशन में परेशानी पैदा की गई है. उगाई गई है. डेलीब्रेटली. यही हाल डायलॉग्स का भी है. जैसे,’ ‘दिलों की बात करता है जमाना, पर मोहब्बत अब भी चेहरे से शुरू होती है.’ जैसे शायराना डायलॉग्स जो अलग तरह से लिखे जाने के बदले सिंपल होते तो ज़्यादा इंपेक्टफुल होते. # म्यूज़िक- मूवी खत्म होने के बाद क्रेडिट रोल होते वक्त यू ट्यूब सेलिब्रेटी और टी सीरीज़ स्टार गुरु रंधावा का गीत सुपरहिट होने का पूरा माद्दा रखता है. बंदया गीत भी अच्छा है. लेकिन इसका म्यूज़िक न तो इसका सबसे अच्छा डिपार्टमेंट है और न ही ऐसा कि बाकी कमियों के ऊपर पर्दे का काम करे. # ओवरऑल निष्कर्ष- मूवी बुरी नहीं है. लेकिन ऐसी मूवीज़ थियेटर के लिए नहीं होतीं. शुरू होने से पहले ये आपको बताती है कि इसके ऑनलाइन स्ट्रीमिंग राइट्स एमेज़ॉन प्राइम और टीवी राइट्स ज़ी टीवी के पास हैं. बाकी आप समझदार हैं हीं. और साथ में बोनस में ये बता दूं कि मैंने कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ नेटफ्लिक्स पर देखी थी. ” - http://moviesbuzz29.blogspot.com/2019/11/ujada-chaman.html from Tumblr https://blogbazaar.tumblr.com/post/188765466819 ” - http://moviesbuzz29.blogspot.com/2019/11/blog-post.html from Tumblr https://blogbazaar.tumblr.com/post/188765696519” - http://moviesbuzz29.blogspot.com/2019/11/blog-post_2.html from Tumblr https://blogbazaar.tumblr.com/post/188769620344
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सेंसर बोर्ड से कहा, जनवरी से हर अश्लील भोजपुरी फिल्म का विरोध
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श्री प्रसून जोशी जी,  अध्यक्ष, भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड
व श्री वामन केंद्रे, श्री नरेंद्र कोहली, सुश्री विद्या बालन , श्री विवेक अग्निहोत्री , श्री रमेश पतंगे सुश्री गौतमी तादिमल्ला, श्री टी एस नागभरन, सुश्री वाणी त्रिपाठी टिक्कू , सुश्री जीविता राजशेखर, श्री  मिहिर भुत्ता , श्री नरेश चन्दर लाल, श्री नील हर्बर्ट नोंगकिनरिह  माननीय सदस्यगण, भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड
तथा  श्री तुषार करमरकर , रीजनल ऑफिसर , भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, मुंबई
निवेदन : भोजपुरी फिल्मों के प्रमाणन में नियमों का सख्ती से पालन हो। माना जाने लगा है कि भोजपुरी फ़िल्में अश्लीलता का पर्याय बन गयी हैं। वे स्त्रियों के प्रति होनेवाली यौन हिंसा और अनाचार-अत्याचार की घटनाएं बढ़ा रही हैं, और कला के दूसरे रूपों को भी बिगाड़ रही हैं।  भोजपुरी फिल्मों में अश्लीलता क्यों फ़ैली है, और कैसे रुकेगी, इसकी सम्यक जांच कराई जाए। अश्लीलता रोकने के लिए नियमों में कोई बदलाव भी जरूरी हों तो उस बारे में समुचित विचार किया जाए। इस मामले में तुरंत हस्तक्षेप की जरूरत इसलिए है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड के भोजपुरी क्षेत्र का कुछ हिस्सा पहले से ही अश्लीलता प्रभावित रहा है, और वहां अश्लीलता का कोई हल्का सा भी उद्रेक बड़ी विषम स्थितियां पैदा करता है। पूर्वांचल की कई पीढ़ियां पहले भी अश्लीलता के भंवर में डूबी हैं, और समय रहते हस्तक्षेप न किया गया तो आनेवाली कई पीढ़ियां आगे फिर अश्लीलता के भंवर में डूबेंगी।
सूचना: पहली जनवरी २०१९ से रिलीज़ होनेवाली हर भोजपुरी फिल्म की पूर्वांचल के जाने-माने लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों, समाजसेवियों और विद्वानों द्वारा इस आधार पर समीक्षा कि अश्लीलता को लेकर फिल्म में भोजपुरी समाज के मूल्यों और मानकों को ध्यान में रखा गया है कि नहीं। समीक्षा की प्रति भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को भी भेजी जाएगी। फिल्म के अश्लील पाए जाने पर विरोध।
माननीय महोदयगण,
भोजपुरी फिल्मों की मौजूदा छवि से आप सभी वाकिफ ही होंगे। उन्हें अश्लीलता, अभद्रता, फूहड़ता, भ्रष्टता का पर्याय कहा जाने लगा है। समाज के एक बड़े वर्ग ने इन फिल्मों को देखना ही छोड़ दिया है, और जो देख भी रहे हैं, वे परिवार के साथ बैठ कर इन्हें नहीं देख सकते। अधिकांश फिल्मों में औरत को केवल देह, वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। फिल्मों ने मनोरंजन के दूसरे माध्यमों को भी प्रभावित किया है , और सबने मिल कर भोजपुरी भाषा, पुरबिया रहन-सहन, सोच-विचार और संस्कृति की बहुत गंदी छवि बनायी है। पुलिस के आला अधिकारी मान रहे हैं कि औरतों के प्रति अनाचार और दुष्कर्म की जो घटनाएं बड़ी हैं, उसके पीछे अश्लीलता इस आंधी का भी बड़ा हाथ है। स्थिति इतनी बिगड़ी है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड तीनों ही राज्यों में पुलिस निर्देश जारी हुए हैं कि पर्वों-उत्सवों में फ़िल्मी गीत-संगीत न बजाए जाएँ। बिहार में तो राज्य सरकार को यह आदेश भी निकालना पड़ा है कि किसी भी यात्री वाहन में कोई भी भोजपुरी गीत-संगीत न बजाय जाए। फिल्मों और भोजपुरी मनोरंजन उद्योग में छाई इस अश्लीलता के खिलाफ जगह-जगह आंदोलन चल रहे हैं, धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं। जन जागरण सभाएं, या��्राएं निकल रही हैं। अदालतों के भी दरवाजे खटखटाये गए हैं।  कुल मिला कर मोटामोटी स्थिति ये है-
१. औरतों को वस्तु के रूप में चित्रित किया जा रहा है। उन्हें वस्तु बनाया जा रहा है। इस मामले में समाज को आगे ले जाने के बदले उसे पीछे की ओर , सामंती मूल्यों और औरतों को लूट और उपभोग की वस्तु समझने की मध्ययुगीन कुरीतियों की ओर ले जाया जा रहा है।  इससे औरतों की सुरक्षा भी प्रभावित हो रही है और उन पर यौनिक हमले, अनाचार और अत्याचार बढ़ रहे हैं।  २. भोजपुरी फ़िल्में मनोरंजन के दूसरे माध्यमों को भी गन्दा कर रही हैं।  ३. अश्लीलता का भाषा, साहित्य, संस्कृति तथा लोक और प्रदर्शनकारी कलाओं पर भी बुरा असर पड़ रहा है।  ४. लैंगिक समता-समानता की सारी अवधारणाओं का हनन हो रहा है। लैंगिक संवेदीकरण के सारे सरकारी-गैरसरकारी प्रयासों पर पानी फिर रहा है।  ५. भोजपुरी फ़िल्में और उनसे जुडी अश्लीलता, फूहड़पन, अभद्रता, स्तरहीनता भोजपुरी समाज की बहुत बुरी छवि बना रही हैं। इससे समाज का रहन-सहन, विकास आदि तो प्रभावित हो ही रहा है; समाज अरक्षित ( vulnerable ) भी हो रहा है। गुजरात में हाल में हिंदीभाषियों को लेकर जो कुछ हुआ, समाज के अरक्षित हो जाने का वह एक ज्वलंत उदहारण है।  ६. पूर्वांचल के कुछ इलाकों में भोजपुरी फ़िल्में और भोजपुरी मनोरंजन उद्योग सामाजिक और जातीय विद्वेष और हिंसा का भी कारण बन रहा है। अभी २६ अक्टूबर, २०१८ को वैशाली में भोजपुरी के एक सुपरस्टर पर लोगों ने धावा बोल दिया। अभिनेता वहां से जान बचा कर भागे। बाद में उन्होंने रोते हुए बयान भी जारी किया कि `` मैं भी अश्लीलता के विरोध में हूँ। '' लेकिन दो-तीन दिन बाद ही ३१ अक्टूबर को उन पर हुए हमले के विरोध में उनके समर्थकों ने छपरा में सड़क जाम कर दिया, हिंसा फैलायी और ट्रेनों पर पथराव किया। एक-दो नहीं, दर्जनों जगहों पर ऐसा हो रहा है। यह कहना अनुचित नहीं कि भोजपुरी फिल्मों और उसके लाव-लश्कर द्वारा अश्लीलता को लेकर बरती जा रही सामाजिक असंवेदनशीलता और उत्तरदायित्वहीनता पूर्वांचल के लिए कैंसर बन रही है।  ७. भोजपुरी फ़िल्में बच्चों, युवाओं की यौनिक समझ पर बुरा असर डाल रही हैं। उग्र यौनिक हमलों में बच्चे, तरुण, किशोर शामिल पाए जा रहे हैं। यह कहानी बहुत कुछ कहती है। निर्भया काण्ड को ही याद कर लें।  ८. भोजपुरी फ़िल्में समाज के कमजोर वर्गों के नवोदय को दिशाहीन कर रही हैं, और उनके सशक्तीकरण के रास्ते में बाधक बन रही हैं।  ९, कुछ इलाकों में लड़कियों, स्त्रियों की कमज़ोर होती स्थिति, उनकी असुरक्षा आतंरिक पलायन का भी कारण बन रही है।
हमें लगता है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय और भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को भोजपुरी सिनेमा के दुष्प्रभावों को लेकर तुरंत एक विस्तृत सर्वेक्षण कराना चाहिए, और उसके नतीजे सार्वजनिक करने चाहिए। हमारी समझ यह भी है कि भोजपुरी सिने उद्योग में संसाधनों , प्रशिक्षण, कलात्मक गुणवत्ता आदि की जो कमी है, कुछ तिजारती लोग उसकी व्यावसायिक भरपाई औरतों को वस्तु के रूप में प्रस्तुत करके कर रहे हैं। भोजपुरी समाज के साथ किये जा रहे इस घात का भी पर्दाफाश किया जाना चाहिए।
साथ ही, कुछ और बुनियादी बातों की ओर हम आपका ध्यान खींचना चाहते हैं । सेंसर बोर्ड बनाये जाने के पांच उद्देश्य बताये गए हैं--  १. ताकि सिनेमा सामाजिक मूल्यों और मानकों के अनुरूप और उनके प्रति संवेदनशील रहे। २. ताकि वह स्वस्थ और साफ़-सुथरा मनोरंजन दे।  ३. ताकि उसका स्तर ठीक रहे और उसमें कलात्मक सौंदर्यबोध हो।
४. ताकि सिनेमा सामाजिक बदलावों के प्रति उत्तरदायी रहे। और,  ५. ताकि कलात्मक अभिव्यक्ति और सर्जनात्मक स्वतंत्रता पर असम्यक रोक न लगे।
अश्लीलता, फूहड़ता, नंगई और अभद्रता का, बल्कि असामाजिकता का पर्याय बन चुका भोजपुरी सिनेमा पहले चार उद्देश्यों का तो उल्लंघन ही कर रहा है, इसमें विवाद की तो कोई गुंजाइश ही नहीं। लैंगिक समानता जैसे आधुनिक बदलावों की भी उपेक्षा ही हो रही है। रहा पांचवां उद्देश्य तो, उस बारे में सम्यक रोक लगी ही नहीं। अश्लीलता, नंगई , अभद्रता, भ्रष्टता फैलाने की इस तरह की खुली छूट दे दी गयी कि भोजपुरी सिनेमा की अश्लीलता भाषा, साहित्य, समाज , संस्कृति, लोक कला आदि सभी का हनन कर रही है।
फिल्म पास करने के कुछ मानक ये हैं --
१. उनसे किसी किस्म के आपराधिक कृत्य को बढ़ावा न मिले।  २. उनमें अभद्रता, अश्लीलता और भ्रष्टता न हो.  ३. उनमें घटिया भावनाएं पैदा करनेवाले द्विअर्थी संवाद न हों।  ४. उनमें औरतों को किसी भी रूप में नीचा न दिखाया गया हो और उनकी अवमानना न की गयी हो।  ५. उनमें सेक्सुअल विकृति न दिखाई गयी हो।  ६. औरतों के खिलाफ यौनिक हमले, छेड़छाड़ आदि के दृश्य बढ़ा कर न दिखाए गए हों। बल्कि उन्हें सूक्ष्म किया गया हो।
हमारी समझ है कि इन मामलों में भी प्रमाणन के वक्त नियमों का ठीक से पालन नहीं हो रहा है । उन भावनाओं का ख्याल नहीं रखा जा रहा जिनकी वजह से ये नियम बनाये गए थे। हमारा मानना है कि सेंसर बोर्ड द्वारा नियमों और उद्देश्यों का ठीक से अनुपालन न किये जाने से ही भोजपुरी सिनेमा , भोजपुरी भाषा, भोजपुरी समाज आदि की यह दुर्गति हुई है।
अब कुछ बातें हमारे बारे में; ज्ञात हो कि पूर्वांचल के आर्थिक-औद्योगिक विकास और उसके लिए जरूरी सांस्कृतिक बदलावों के लिए काम कर रही संस्था पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान ने भोजपुरी मनोरंजन उद्योग में फ़ैली अश्लीलता के खिलाफ पूरे पूर्वांचल में सघन अभियान छेड़ रखा है। पद्मविभूषण पं. छन्नूलाल मिश्र, पद्मश्री सुश्री शोमा घोष, कथाकार डॉ काशीनाथ सिंह, क्रींकुण्ड पीठाधीश्वर श्री गौतम राम , कबीर मठ के महंत स्वामी विवेक दास , ज्योतिषाचार्य श्री चंद्रमौलि उपाध्याय , उत्तर प्रदेश की काबीना मंत्री श्रीमती रीता बहुगुणा ज���शी , संगीतकार श्री साजन मिश्र , संकटमोचन के महंत श्री विश्वम्भरनाथ मिश्र, महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री द्वय श्री चंद्रकांत त्रिपाठी और श्री कृपा शंकर सिंह , पत्रकार श्री उमेश त्रिवेदी , श्री सुमंत मिश्र, डॉ. त्रिविजय सिंह, श्री विमल मिश्र , श्री सत्यप्रकाश पांडे असीम , श्री हेमंत तिवारी, श्री अजीत सिंह, श्री राजेंद्र गहरवार, श्री हेमंत पाल, श्री विभूति शर्मा, श्री उमेश सिंह , मीडिया प्रबंधक श्री अखंड प्रताप सिंह, लेखक श्री दयानन्द पांडे, समाज सुधारक स्वामी सारंग, पूर्वांचल के दो बहुत जाने-माने डॉक्टर डॉ, इंदु सिंह और डॉ. शिप्रा धर, प्रशासनिक अधिकारी श्री रंजन द्विवेदी, जाने-माने उद्योगपति श्री केशव जालान, काशी विद्यापीठ के मालवीय पत्रकारिता संस्थान के निदेशक डॉ. ओम प्रकाश सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के पूर्व अध्यक्ष श्री सुनील श्रीवास्तव, जौनपुर के सांसद श्री के पी सिंह, जौनपुर पत्रकार संघ के अध्यक्ष श्री ओम प्रकाश सिंह, बदलापुर के विधायक श्री रमेश मिश्र , मड़ियाहूं की विधायक श्रीमती लीना तिवारी, जफराबाद के विधायक डॉ. हरेंद्र सिंह, रांची विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. जय राम तिवारी, माइक्रो फाइनेंस एक्सपर्ट डॉ. जी. पी. सिंह, लैंगिक संवेदीकरण विशेषज्ञ सुश्री कुमुद सिंह , टी डी कॉलेज के प्रबंधक श्री अशोक सिंह, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष अधिवक्ता श्री जेड के फैज़ान, मुंबई मारवाड़ी सम्मेलन के अध्यक्ष श्री सुशील व्यास, हम -आप फाउंडेशन के चेयरमैन अधिवक्ता सय्यद जलालुद्दीन, लखनऊ के शिक्षक विधायक श्री उमेश द्विवेदी, उत्तर क्षेत्रीय महिला मंच, मुंबई की अध्यक्ष डॉ. पुष्पा सिंह, मुंबई कांग्रेस के उपाध्यक्ष श्री जय प्रकाश सिंह, मुंबई भाजपा उपाध्यक्ष श्री आर यू सिंह, बीएचयू के प्रो. डॉ. रत्नाकर त्रिपाठी, विद्यापीठ की प्रो डॉ. निशा सिंह जैसे प्रतिष्ठित लोग इस अभियान का समर्थन कर रहे हैं। देश के २५ ००० से ज्यादा जाने-माने लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों , राजनीतिक-सामाजिक व्यक्तित्वों और सुधी लोगों ने उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड के मुख्यमंत्रियों को इस बाबत दिए जा रहे ज्ञापन पर दस्तखत करके अपने को इस अभियान से जोड़ा है। प्रतिष्ठान के समर्थन में आये कई जाने-माने गायक अपने कार्यक्रम की शुरुआत ही अश्लीलता के खिलाफ पब्लिक अपील से कर रहे हैं। प्रतिष्ठान की ओर से अब तक मुंबई, बनारस और जौनपुर में बड़ी अभियान सभाएं हो चुकी हैं, और पटना और रांची में जल्द ही होने जा रही हैं। शुरुआती प्रयास के तौर पर जौनपुर को सम्पूर्ण अश्लीलतामुक्त जिला बनाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं।प्रतिष्ठान की पहल पर जौनपुर और मुंबई में सपना चौधरी और राकेश प्रेमी जैसे गायकों के कार्यक्रम रद्द किये गए हैं। हमें उम्मीद है कि यह जनांदोलन और बढ़ेगा और फिल्मों और भोजपुरी मनोरंजन उद्योग को अश्लीलता से मुक्त कराके उसे सबके लिए ग्राह्य बनाएगा।
पत्र समापन की ओर है तो प्रमाणन बोर्ड के दिशा निर्देशों का पहला वाक्य मन को बार-बार मथ रहा है- ``The objective of film certification will be to ensure that the medium of film remains responsible and sensitive to the values and standards of society. '' तो क्या भोजपुरी फिल्मों के मामले में इस दिशानिर्देश का अनुपालन हो रहा है? या कि प्रमाणन बोर्ड ने भी मान लिया है कि भोजपुरी समाज के मूल्य और मानक ही अश्लील और गंदे हैं? हमारी विनती है कि सेंसिटिव कब होंगे आप हमारे प्रति?  इस सम्बन्ध में हम आपकी एक मदद भी करना चाहते हैं। चाहें तो आप हमें इसके लिए अधिकृत भी कर सकते हैं। पहली जनवरी, २०१९ से रिलीज़ हो रही हर भोजपुरी फिल्म की पूर्वांचल के जाने-माने विद्वानों से हम एक समीक्षा कराएँगे। यह भोजपुरी समाज द्वारा अपने मूल्यों और मानकों व प्रमाणन बोर्ड के नियमों के हिसाब से की गयी समीक्षा होगी। इससे प्रमाणन बोर्ड के काम में कोई चूक हो रही होगी तो आप सभी उस पर ज्यादा तल्लीनता से ध्यान दे सकेंगे। हमने इस बारे में भी आपको सूचित किया है कि फ़िल्में अश्लील पायीं गयीं तो समाज द्वारा उसका विरोध किया जाएगा।
आशा है, जब तक उचित कार्रवाइयां नहीं होतीं, हमारे और आपके बीच अब निरंतर संवाद बना रहेगा।
सादर प्रणाम,  ओम प्रकाश, पत्रकार, संपादक; सचिव, पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान
प्रति: श्री राज्यवर्धन राठौर  माननीय सूचना प्रसारण राज्य मंत्री, नई दिल्ली।
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sablogpatrika · 3 years
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नये समय में मीडिया शिक्षा की चुनौतियाँ
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  डिजीटल ट्रांसफार्मेशन के लिए तैयार हों नये पत्रकार      एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष 2020 को लोग चाहे कोरोना महामारी की वजह से याद करेंगे, लेकिन एक मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरे लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है कि पिछले वर्ष भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष 1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था। लगभग एक दशक बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था, पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहाँ पत्रकारिता विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक  कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष 1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की।     इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे अग्रणी संस्थान है।  आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष जरूर पूर्ण कर चुका है, परन्तु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा के लिए जहाँ उत्तरदायी है, वहाँ सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने को विवश करता है।     भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. ई. ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं।  पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है?
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    दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।     मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो।     न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिन्दी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहाँ पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।
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    एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। अस्सी के दशक में रिलीज हुई अमेरिकी फिल्म Ghostbusters (घोस्टबस्टर्स) में सेक्रेटरी जब वैज्ञानिक से पूछती है कि ‘क्या वे पढ़ना पसन्द करते हैं? तो वैज्ञानिक कहता है ‘प्रिंट इज डेड’। इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का विषय था, परन्तु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य पर जिस तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं, उसे देखकर ये लगता है कि ये सवाल आज की स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठता है। आज दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से हमें ये सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। ये भी कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार खत्म हो जाएंगे। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने ‘प्रिंट इज डेड’ पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था। उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, “यह किताब उन सब लोगों के लिए ‘वेकअप कॉल’ की तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है।” वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गयी थी, उसके अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म हो जाएंगे। मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है। . Read the full article
#1920 मेंथियोसोफिकलसोसायटीकेतत्वावधानमेंमद्रासराष्ट्रीयविश्वविद्यालयमेंडॉक्टरएनीबेसेंटन#1938 मेंअलीगढ़मुस्लिमविश्वविद्यालयमेंपत्रकारिताकेपाठ्यक्रमकोएकसर्टिफिकेटकोर्सकेरूपमें#उस्मानियायूनिवर्सिटी#एकसमयथाजबमानाजाताहैकिपत्रकारपैदाहोतेहैंऔरपत्रकारितापढ़ाकरसिखाईनहींजासकती#कलकत्ताविश्वविद्यालय#जनसंचारकाक्षेत्रशिक्षाकीदृष्टिसेबहुतमहत्वपूर्ण#जयपुरमेंहरिदेवजोशीपत्रकारिताएवंजनसंचारविश्वविद्यालय#डिजीटलट्रांसफार्मेशनकेलिएतैयारहोंनयेपत्रकार#नयेसमयमेंमीडियाशिक्षाकीचुनौतियां#नागपुरयूनिवर्सिटी#न्यूमीडियाआजन्यूनॉर्मलहै#पंजाबविश्वविद्यालय मेंपहलेपत्रकारिताविभागकीस्थापना#पत्रकारिताएवंजनसंचारशिक्षाकेपाठ्यक्रममेंसुधार#प्रो.संजयद्विवेदी#प्रोफेसरईपनभारतमेंपत्रकारिताशिक्षाकेतंत्रमेंव्यावहारिकप्रशिक्षणकेपक्षधरथे#प्रोफेसरके. ई. ईपन#भोपालमेंमाखनलालचतुर्वेदीराष्ट्रीयपत्रकारिताएवंसंचारविश्वविद्यालय#मीडियाशिक्षणसंस्थानअपनेछात्रोंको'डिजिटलट्रांसफॉर्म'केलिएपहलेसेतैयारकरें#मीडियाशिक्षाकीगुणवत्ताबढ़ानेकेलिएआज मीडियाएजुकेशनकाउंसिल कीआवश्यकताहै#मीडियाशिक्षाकेअलगअलगपहलुओंपरध्यानदेनाहोगा#मैसूरकेमहाराजाकॉलेज#रायपुरमेंकुशाभाऊठाकरेपत्रकारिताएवंजनसंचारविश्वविद्यालय#वर्ष2040तकविश्वसेअखबारोंकेप्रिंटसंस्करणखत्महोजाएंगे#सबसेपहलेमद्रासविश्वविद्यालयनेवर्ष 1947 मेंपत्रकारिताएवंजनसंचारविभागकीस्थापनाकी
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abhay121996-blog · 4 years
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गांधी अतीत नहीं भविष्य है : गहलोत Divya Sandesh
#Divyasandesh
गांधी अतीत नहीं भविष्य है : गहलोत
दांडी मार्च की 91 वीं वर्षगांठ पर निकाला प्रत्येक आत्मक दांडी मार्च
खादी संस्थान संघ से गांधी सर्किल तक मंत्रियों एवं कांग्रेसजनों के साथ पैदल चले सीएम जयपुर, समाचार जगत न्यूज। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अतीत नहीं बल्कि भविष्य है। उनके विचार आज भी प्रेरणा देते हैं। गांधी जयंती पर पूरा विश्व 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस मनाता है। गहलोत ने कहा कि गांधी जी ने लोकतंत्र के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी लेकिन आज वर्तमान केंद्र सरकार की नीतियों के चलते देश में लोकतंत्र के सामने प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। उन्होंने कहा कि सरकार ईडी सीबीआई इनकम टैक्स सहित अन्य संस्थाओं का दुरुपयोग कर रही है। देश में असहमति व्यक्त की जाती है तो उसे देशद्रोही कहा जाने लगता है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी पूरे विश्व में गए उनका वहां भव्य स्वागत हुआ लेकिन इस स्वागत के पीछे देश को बनाने में कई नेताओं का योगदान रहा। मोदी ने अपने विदेश दौरों में उन नेताओं के नाम का जिक्र भी नहीं किया।
गहलोत ने कहा कि सरकारी कभी भी जिद नहीं करती है। आज किसान आंदोलन और अन्य आंदोलनों से देश में कैसे हालात बने हुए हैं, यह सब जानते हैं। उन्होंने कहा कि छुआछूत मानवता पर कलंक है। भाजपा और आरएसएस हिंदू की बात करते हैं तो उन्हें इस छुआछूत को समाप्त करने के लिए आंदोलन चलाना चाहिए।
गहलोत ने कहा कि भाजपा और आरएसएस भी लोगों को जाति और वर्ग के नाम पर लड़ा रहे हैं अब दलित और जनरल के नाम पर लडाएंगे। उन्होंने कहा कि मैं अभी भी अपील करता हूं कि सरकार सही रास्ते पर आ जाए वरना जनता सही रास्ते पर ले आएगी।
गहलोत ने शुक्रवार को सुबह 8 बजे खादी संस्थान संघ से दांडी मार्च को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। वे स्वयं भी मंत्रियों बीडी कल्ला प्रताप सिंह खाचरियावास प्रमोद जैन भाया भजन लाल जाटव सुभाष गर्ग भंवर सिंह भाटी ममता भूपेश लालचंद कटारिया राजेंद्र चौधरी सहित कई विधायकों एवं दांडी मार्च में शामिल लोगों के साथ पैदल चलते हुए गांधी सर्किल तक पहुंचे। यहां उन्होंने महात्मा गांधी की मूर्ति पर पुष्प अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि दी।
कार्यक्रम में आभार व्यक्त करते हुए पूर्व महाधिवक्ता एवं जयपुर नागरिक मंच के जीएस बाफना ने कहा कि चुटकी भर नमक के सहारे गांधी जी ने अंग्रेजी संतलत की नींव हिला दी थी। 78 लोगों से शुरू हुआ दांडी मार्च लाखों की संख्या में बदल गया था। आज भी देश में इसी तरह के हालात हैं , लोकतंत्र को समाप्त किया जा रहा है। लोकतंत्र को बचाने के लिए सभी को संघर्ष करना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि यह एक छोटा सा प्रयास है, जिसे सरकार के सहयोग से पूरा किया गया है। भविष्य में गांधीजी को लेकर अन्य कार्यक्रम किए जाएंगे। कार्यक्रम को महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष डॉ लाड कुमारी जैन एवं गांधी दर्शन की चिंतक प्रोफेसर विद्या जैन ने भी संबोधित किया। दोनों ने गांधी दर्शन पर अपने विचार रखे और देश के वर्तमान हालात में गांधी दर्शन की प्रासंगिकता एवं आवश्यकता को रेखांकित किया।
प्रतीकात्मक दांडी मार्च में गांधी जी की दांडी मार्च वाली प्रतिमाओं से सजा रथ आगे आगे चला। उसके पीछे आजादी के नारों से लिखी तख्तियां पकड़े कांग्रेसजन चले। सभी ने खादी के वस्त्र और गांधी टोपी पहन रखी थी। मार्च जैसे ही गांधी सर्किल पर पहुंचा तो यहां स्कूली बच्चों ने गांधी जी के जीवन पर आधारित एक नाटक का मंचन किया।
इस अवसर पर जयपुर नागरिक मंच के संयोजक जीएस बाफना राजस्थान समग्र सेवा संघ के अध्यक्ष सवाई सिंह वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विपिन काला खादी संस्था के अध्यक्ष जवाहर सेठिया धर्मवीर कटेवा शांति एवं अहिंसा प्रकोष्ठ के कोऑर्डिनेटर मनीष शर्मा अतिरिक्त महाधिवक्ता विभूति भूषण शर्मा सुनील शर्मा हेमंत धारीवाल गिरिराज शर्मा सहित अन्य उपस्थित रहे।
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yarokiyari · 7 years
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बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के एक ���्रोफेसर ने ऐसा मोबाइल ऐप बनाया है जो आपको पोर्न देखने से रोक सकता है. अगर आप अपने फोन में कोई पोर्न वेबसाइट खोलना भी चाहेंगे, तो यह ऐप सीधा भजन बजाने शुरू कर देगा. प्रोफेसर डॉ. विजयनाथ मिश्रा की इस ऐप का नाम 'हर-हर महादेव' है. विजयनाथ ने यह ऐप अपनी एक छोटी टीम के साथ बनाई है. जिसमें स्मृति सिंह, आकांशा श्रीवास्तव, पत्रकार अमन और अंकित शामिल हैं. हालांकि, इस ऐप को आधिकारिक तौर पर बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी का ऐप नहीं कहा जा सकता है. लेकिन यूनिवर्सिटी के ही ओपी उपाध्याय ने इसकी जमकर तारीफ की है, उनका कहना है कि यह लोगों को गंदगी की ओर जाने से बचाएगी. ये धरती मदन मोहन मालवीय की है. ऐप बनाने वाले विजयनाथ मिश्रा ने न्यूज एजेंसी ANI को बताया कि वे जल्द ही इस ऐप में ऐसा फीचर लाएंगे जिससे किसी भी धर्म का व्यक्ति इसे यूज़ कर सकेगा. उन्होंने कहा कि उदाहरण के तौर पर अगर कोई मुस्लिम इस ऐप को खोलता है तो अल्लाह-हू-अकबर बजेगा, ऐसा ही अन्य धर्मों के साथ भी होगा. उन्होंने बताया कि जब वह इस ऐप को बना रहे थे, तब उनके ध्यान में उनका परिवार था. लेकिन उन्हें लगता है कि अब इस ऐप को पूरी दुनिया को इस्तेमाल करना चाहिए. एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस ऐप को 6 महीने में तैयार किया गया है, इसके अतंर्गत करीब 3800 ऐसी वेबसाइट लाई गई हैं, जिन्हें चलाने पर भजन चलेगा.
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mohit-trendster · 7 years
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Interview with #comics Superfan Supratim Saha
नागपुर में रह रहे सुप्रतिम साहा का नाम भारतीय कॉमिक्स प्रेमियों के लिए नया नहीं है। सुप्रतिम भारत के बड़े कॉमिक्स कलेक्टर्स में से एक हैं, जो अपने शौक के लिए जगह-जगह घूम चुके हैं। कहना अतिश्योक्ति नहीं, ऐसे सूपरफैंस की वजह से ही भारतीय कॉमिक्स उद्योग अभी तक चल रहा है। पहले कुछ कॉमिक कम्युनिटीज़ में इनका अभूतपूर्व योगदान रहा और समय के साथ ये अपने काम में व्यस्त हो गए। हालांकि, अब भी कुछ कॉमिक्स ग्रुप पर सुप्रतिम दिख जाते हैं। ये मृदुभाषी और सादा जीवन व्यतीत करने में विश्वास करते हैं, इनके बात करने और वाक्य गढ़ने का तरीका मुझे बहुत भाता है इसलिए साक्षात्कार के जवाब में मेल से भेजे इनके जवाबों को जस का तस रखा है। 
अपने बारे में कुछ बताएं?
सुप्रतिम - 80 के दशक में भारत के पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में मेरा जनम हुआ। मैने अपनी स्कूलिंग अगरतला शहर से की। मैने इंजिनियरिंग की नागपुर शहर से और बॅंगलुर शहर मे कुछ टाइम जॉब करने के बाद मैने मास्टर्स की चेन्नई शहर मे, आज मैं नागपुर के एक कॉलेज मे वाइस प्रिन्सिपल के पद पे काम कर रहा हू. आज भी मैं रेगुलार कॉमिकस खरीदता हू और पढ़ता हु्। मुझे मालूम हैं मेरा यह जुड़ाव कॉमिक्स के साथ हमेशा  रहेगा. इस सफ़र मे मैं अपने कुछ दोस्तो का नाम लेना चाहूँगा जिन्होने हमेशा मेरा साथ निभाया, बंटी फ्रॉम कोलकाता, संजय आकाश  दिल्ली से, गुरप्रीत पटियाला से, और बहत सारे दोस्त, वरुण ,मोहित, महफूज़ ,ज़हीर,विनय,अजय ढिल्लों  जिन्हे मैं ऑनलाइन मिला और इन सब से भी मेरी काफ़ी अच्छी दोस्ती हैं। सबके नाम शायद मैं यहा लिख नही पाया पर  मैं सबका आभारी हूँ जिन्होने इस सफ़र पे मेरा साथ निभाया। 
कॉमिक्स कलेक्शन का आपका सफर कैसे शुरू हुआ?
सुप्रतिम - मेरे कॉमिक्स पढ़ने की अगर बात करे तो ये शुरुवात हुई थी 1991-92 के आसपास। उन दिनों मैं क्वार्टर में रहता था और हर एक  घर से बटोर के जो कॉमिक्स मुझे मिलते थे उनमे से ज़्यादा तर या तो टिनटिन होते थे या फिर इंद्रजाल कॉमिक्स।  हिंदी कॉमिक इंडस्ट्री से मैं जुड़ा 1994 में जब मेरे एक राजस्थानी मित्र ने मुझे दो कॉमिक्स दी, वो दो कॉमिक्स थे डॉ नो और उड़ती मौत। राज कॉमिक्स और साथ ही अन्य हिंदी  कॉमिक्स के साथ मैं इन्ही दो कॉमिक्स की वजह से जुड़ा। 
अब तक कॉमिक्स के लिए कहाँ-कहाँ घूम चुके हैं?
सुप्रतिम - कॉमिक्स के लिए ट्रेवल करना मैंने शुरू किया सन 2009 से, यह वो समय था जब मैं बैंगलोर में था.बैंगलोर के अनिल बुक शॉप से बहत सारी कॉमिक्स मैंने रिकलेक्ट की.इसको छोड़के मैंने सबसे ज़्यादा कॉमिक्स कलेक्ट की नागपुर से। इस शहर ने मुझे ऑलमोस्ट 1500 + कॉमिक्स दी जिनमे मैक्सिमम दुर्लभ कॉमिक्स थे। इन 8 सालो में मैंने दिल्ली, नागपुर, कोलकाता, हैदराबाद, बैंगलोर, चेन्नई, पटियाला, अम्बाला, अगरतला जैसे शहरो से भी कॉमिक्स ली। दिल्ली शहर में दरीबा कलां के गोडाउन  से भी मैंने 1000+ कॉमिक्स ली।  इन दो शहर को छोड़के हैदराबाद शहर में भी मुझे 300+ विंटेज डायमंड कॉमिक्स मिलें। ऐसी कॉमिक्स जो की 35 साल से भी अधिक पुराने हैं,जैसे की लंबू मोटू ,फौलादी सिंह ,महाबली शाका ,मामा भांजा और वॉर सीरीज वाली कॉमिक्स। इन सब को छोड़के मेरे पास बंगाली कॉमिक्स ���ी है भारी संख्या में, करीबन 500 ,जिनमे पिछले 60-80 साल पुराने कॉमिक्स भी हैं। मैं आज भीं रेगुलर कॉमिक्स लेता हु हिंदी बंगाली इंग्लिश में। 
पहले के माहौल और अब में क्या अंतर दिखते हैं आपको?
सुप्रतिम - पहले के माहौल में कॉमिक्स एक कल्चर हुआ करता  था, आजकल कॉमिक्स तो दूर की बात हैं किताबों को पढ़ने के लिए भी पेरेंट्स बच्चो को प्रोत्साहित नहीं करते।  विडियो गेम्स केबल टीवी आदि तो मेरे बचपन में भी आराम से उपलब्ध थे ,पर इन सबके बावजूद अगर हर दिन खेलने नहीं गए, तैराकी नहीं की तो घर पे डांट पड़ती थी। आजकल कॉमिक्स,खासकर के कोई भी "रीजनल " फ्लेवर की कॉमिकस को पढ़ना लोगो के सामने खुदको हास्यास्पद करने जैसा हैं। यही वजह हैं की सिर्फ वही लोग देसी कामिक्से पढ़ते हैं जिनमे रियल पैशन हैं, वरना मंगा और वेस्��र्न कॉमिक्स को ही सीरियस कॉमिक्स सम��ने और ज़ाहिर करने वालो की भी कमी नहीं हैं। एक कॉमिक बुक फैन होने के नाते मुझे सभी कामिक्से देसी  या विदेसी  अच्छे  लगते  है पर भाषा के नाम पे यह भेदभाव आज बहत ज़्यादा प्रभावशाली हैं। 
अपने शहर के बारे में बताएं।
सुप्रतिम - मेरा जन्म भारत के पूर्वोत्तर मे स्थित अगरतला शहर मे हुआ। गौहाटी के बाद ये पूर्वोत्तर के सात राज्यो मे दूसरा प्रमुख शहर भी हैं। बॉर्डर से सटे होने की वजह से यहा बीएसएफ भी कार्यरत हैं जिनमे से काफ़ी लोग हिन्दी भाषी है। साथ ही साथ ओ एन जी सी होने के कारण से हिन्दी भाषी लोग काफ़ी मात्रा मे मौजूद भी है। ज़ाहिर सी बात हैं की इस वजह से हिन्दी कॉमिक्स शुरू से ही यहा रहते लोगो का मनोरंजन करती आ रही हैं. समय के साथ साथ हिन्दी कॉमिक्स का क्रेज़ यहा काफ़ी कम हो चुका हैं पर आज भी मैं घर जाता हू तो भूले भटके एक आधा दुकान मे कुछ दुर्लभ कॉमिकसे खोज ही निकलता हूँ। 
आप अक्सर स्केच बनाते हैं, स्केचिंग का शौक कब लगा?
सुप्रतिम - स्केचिंग का  शौक  मुझे कॉमिक्स से नही  लगा। उन दिनो (1993) जुरासिक पार्क फिल्म का क्रेज़  सबके सिर चढ़के बोल रहा था , मेरे घर पे एक किताब थी जिसका नाम था "अतीत साक्षी फ़ॉसिल" उस किताब मे डाइनॉसॉर के बारे मे जानकारियाँ थी और अनूठे चित्र थे, मैं दिन भर उन्ही के चित्र कॉपी करने के कोशिश मे लगा रहता था। कुछ एक बार जब मेरे इन प्रयासो को लोगो ने मुर्गी,बतक के चित्र के रूप मे शिनाख्त की तो मैं फिर कॉमिक स्टार्स के चित्र बनाने लगा। बचपन मे सबसे ज़्यादा चित्र मैने भेड़िया के बनाए (प्री-1997) ,नागराज के चित्र बनाते हुए मैं काई बार पढ़ाई के वक़्त पकड़ा भी गया। आज कल समय मिलता नही हैं पर उत्सुकता पहले जैसी ही हैं।
आपके हिसाब से एक अच्छी कॉमिक्स के क्या मापदण्ड हैं? 
सुप्रतिम - एक अच्छी  कॉमिक्स का मापदंड किसी एक विषय पे निर्भर नहीं करता, पर पहला मापदंड ��ह हैं की उसके चित्र और कहानी में से कोई भी एक पहलु जोरदार होनि चाहिये। हालाकी चित्र अव्वल दर्जे का हो तो सबसे पहले ध्यान आकर्षित करता है। पर ऐसे कॉमिक भी होते हैं जिनमे चित्र का योगदान कम होता है और कहानी इतनी ज़बरदस्त होती है की दिल को छु जाती हैन.जैसे की "अधूरा प्रेम".वैसे ही काफ़ी ऐसे कॉमिक्स भी होते हैं जिनके साधारण से कहानी कोचित्रकला के वजह से एक अलग ही आकर्षण मिलता हैन. मनु जी के द्वारा बनाए गये सभी परमाणु के कॉमिक्स इस श्रेणी मे आते हैं. आज भी अगर कॉमिक्स के क्वालिटी की बात आए तो आकर्षक चित्रकला ही वो प्रमुख माध्यम हैं जिससे आप एक कॉमिक्स से प्रभावित होते हैं।
अपनी पसंदीदा कॉमिक्स, लेखक, कलाकार और कॉमिक किरदारों के बारे में बताएं। 
सुप्रतिम - मेरी पसंदीदा कॉमिक्स, किरदार के हिसाब से देखा जायें तो  होंगे ग्रांड मास्टर रोबो, ख़ज़ाना सीरीज़, भूल गया डोगा, टक्कर, खरोंच, 48 घंटे सीरीज़, लाश कहा गयी, चमकमणी, महारावण सीरीज़, अग्नि मानव सीरीज़, प्रोफ शंकु सीरीज़ आदि। अनुपम सिन्हा जी ,सत्यजीत राय,संजय जी मेरे प्रिय लेखक मे से हैं। प्रताप जी,अनुपम जी, मनु जी, डिगवॉल जी, ललित शर्मा जी, चंदू जी, सुजोग ब्न्दोपध्यय जी, अभिषेक चटेर्ज़ी, मलसुनी जी, मयुख चौधरी जी,गौतम कर्मकारजी मेरे प्रिय कलाकार हैं।  ध्रुव, नागराज, परमाणु, डोगा, भेड़िया, प्रोफेसर शंकु, कौशिक, फेलूदा, महाबली शाका,फॅनटम, घनादा मेरे फ़ेवरेट क़िरदार हैं। 
बचपन की कोई हास्यास्पद घटना, याद बांटिये। 
सुप्रतिम - बचपन मे मेरे एक राजस्थानी मित्र राकेश कुमार मीना ने मुझे पहली बार राज कॉमिक से अवगत कराया। उसीके साथ हुआ एक वाक़या मुझे याद हैं जिसे हास्यास्पद घटना कहा जा सकता हैं। राकेश और मेरे पास जितनी भी कॉमिकस थी, उनको हम एक्सचेंज करके पढ़ते थे। एक बार हुआ यह की मुझे उससे दो कॉमिक से लेनी थी, जिनमे से एक थी इंद्र की और दूसरी थी ताउजी कि, अब हुआ यह की यह दोनो कॉमिक आठ रुपये के थे। जब मैने उसे अपने दो कॉमिकसे दी तो उसने मुझे कहा की तेरे दो कॉमिक्सो का मूल्य पन्द्रह रुपये हैं तो मैं तुझे मेरे दो कॉमिक, जो की सोलह रुपये के हैं, तुझे नही दे सकता। उसके इस बिज़नेस माइंडनेस की जब भी कल्पना करता हू तो आज 22 साल बाद यह घटना हास्यास्पद ही लगता हैं। दूसरी घटना भी 1995 की ही हैं, मैं अपने फॅमिली के साथ जा रहा था बन्गलोर्, हम कलकत्ता  मे ठहरे हुए थे और मशहूर कॉलेज स्ट्रीट से होके गुज़र रहे थे की मुझे एक दुकान मे कॉमिकस दिखि। मेरे कहने पे पापा ने मुझे दो कॉमिकसे दिलवाई, एक थी “बौना शैतान” और दूसरी “ताजमहल की चोरिं “मुझे हैरत हुई जब दुकानदार ने पापा से 6 ही रुपये माँगे, और मुझे पहली बार मालूम पड़ा की सेकेंड हॅंड बुक्स किसे कहते है। बचपन के यह मासूम किससे सही मायने मे हास्यास्पद ना सही,होठों पे मुस्कान ज़रूर लाती हैं। 
बदलते समय के अनुसार कॉमिक्स प्रकाशकों को क्या सलाह देना चाहेंगे?
सुप्रतिम - देसी कॉमिक्स के दौर को मैं कूछ किस्म मे बाँटना चाहूँगा. 1940-1970 के दशक मे बंगाल मे वीदेसी कॉमिक्स के अनुकरण मे काफ़ी विकसित कॉमिकस बनी, जिनमे सायबॉर्ग जैसे कॉन्सेप्ट्स काम मे लाए गये। 1970 से हिन्दी कॉमिक इंडस्ट्री मे भी सहज सरल चित्रो के साथ कॉमिकसे आई। 1980 से कॉमिकसे काफ़ी विकसित हो गई और 1990-2000 तक हिन्दी कॉमिक इंडस्ट्री का सुनेहरा दौर रहा। 2000 के बाद की बात करें तो डिजिटल फॉरमॅट्स के बदौलत हिन्दी कॉमिक इंडस्ट्री मे काफ़ी चेंजस आयें। आज भी कुछ कॉमिक्स मे जैसे की बंगाली कॉमिक्स इंडस्ट्री मे मैनुअल कलरिंग का प्रयोग बखूबी से किया जाता हैं। समय के साथ कुच्छ इंडस्ट्रीस बदल गये और कूछ ने अपना पुराना स्टाइल बरकरार रखा, पर एक अच्छी कॉमिक्स को आज भी फैंस जैसे  भाँप लेते है। बदलते समय में स्टाइल बदला होगा पर अच्छे कॉमिक्स का मापदंड वही हैं जो पहले से थे। प्रकशको से मेरी बीनति रहेगी की यह पॅशन ही हैं जो एक कॉमिक को आकर्षक बनाती हैं ना की नयी तकनीक. कॉमिक बनाते वक़्त उन मौलिकताओ का ध्यान रखे जिनकी वजह से कॉमिक्स ने हमारे बचपन को इतने रंगो मे रंगा। 
कॉमिक्स पाठकों के लिए आपका क्या सन्देश है?
सुप्रतिम - कॉमिक्स पाठक बंधुओ के लिए मैं यही बोलना चाहूँगा की आप मे से काफ़ी लोग अभी किसी कारणवश कॉमिक्स से दूर होते जा रहे हैं, कोशिश  करिए की अपने आनेवाले पीढ़ी को आप प्रोत्साहित करे कॉमिक्स पढ़ने के लिए और खुद भी पढ़ें और खरीदें। 
- मोहित शर्मा ज़हन
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खास मकसद से यूपी में बनाए गए हैं सीएम के अलावा दो डिप्टी सीएम यूथ इण्डिया न्यूज, संवाददाता। भाजपा ने सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए पहली बार मुख्यमंत्री महंत आदित्यनाथ के साथ दो डिप्टी सीएम बनाए हैं। नए राज के सियासी समीकरण में भाजपा ने ठाकुर, ब्राह्मण और बैकवर्ड को साधा है। इन्हीं के वोटों के भरोसे भाजपा ने इस चुनाव में तीन चौथाई से ज्यादा बहुमत हासिल किया है। भाजपा को इस बार सवर्ण वोटों के साथ ही गैर यादव पिछड़ों और गैर जाटव दलित वोटों का बड़ा हिस्सा मिला है। पिछड़ों, अति पिछड़ों की लामबंदी खासतौर से भाजपा के पक्ष में रही। भाजपा की चिंता 2019 तक इस समीकरण को बरकरार रखने की है। मनोनीत मुख्यमंत्री गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत आदित्यनाथ संन्यासी हैं। वह भाजपा में प्रखर हिंदुत्व का चेहरा हैं, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दों पर बेबाकी से बोलते हैं। इस चुनाव में भी पश्चिमी यूपी से पूर्वांचल तक वे इन मुद्दों को गरमाते रहे। भाजपा ने प्रदेश में पहली बार किसी संन्यासी को सीएम का ताज सौंपकर जातीय जोड़तोड़ से ऊपर उठने की कोशिश की है। साफ है कि भाजपा ने हिंदुत्व के मुद्दों को तरजीह देने का संदेश दे दिया है। हालांकि, संन्यासी बनने से पहले आदित्यनाथ उत्तराखंड के राजपूत परिवार से थे, इस नाते उन पर अब भी ठाकुर होने का लेवल लगता रहता है। उन्हें सीएम बनाने से हिंदुओं की अन्य जातियों के साथ राजपूत खास तौर पर सधते हैं। उनका पूर्वांचल में अच्छा जनाधार भी है। गोरक्षपीठ के अनुयायियों की संख्या भी ठीक-ठाक है। प्रदेश में पिछड़ी जातियों की तादाद 54 फीसदी से ज्यादा है। भाजपा ने पिछले एक.डेढ़ साल में इन जातियों पर काफी काम किया है। अति पिछड़ी जातियां पहले बसपा या सपा के पक्ष में दिखाई पड़ती थीं। इन्हें अपने साथ जोड़ने के लिए भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी। इसका नतीजा चुनाव में दिखाई दिया है। भाजपा को पिछड़ों के साथ ही अति पिछड़ों के वोट काफी तादाद में मिले। इस पिछड़े वोट बैंक को सहेजे रखने के लिए केशव प्रसाद मौर्य को डिप्टी सीएम की जिम्मेदारी दी गई है। विधानसभा चुनाव में इस बार पश्चिम से पूरब तक ब्राह्मण समाज का अधिकतर वोट भाजपा के पक्ष में गया है। भाजपा ने चुनाव में समर्थन के बदले ब्राह्मणों का ख्याल रखने का संदेश दिया है। विधायक नहीं होने के बावजूद लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा को इसीलिए डिप्टी सीएम बनाया गया है। लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दिनेश ब्राह्मणों में निर्विवाद और साफ-सुथरा छवि के हैं। इससे पहले उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और गुजरात का प्रभारी बनाया गया था। केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाते ही अटकलें लगने लगी हैं कि उनकी जगह भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष की बागडोर किसे सौंपी जाएगी। पिछड़े वर्ग की कुर्मी बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले स्वतंत्र देव सिंह मोदी-शाह के नजदीक माने जाते हैं। एक बार तो उनका नाम भी मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में उभरा था। अब पार्टी संगठन में उनकी भूमिका रहेगी या सरकार में, इस पर भी सबकी नजर है। एक भाजपा नेता के मुताबिक मंत्री न बनने पर स्वतंत्र देव को प्रदेश भाजपा की बागडोर सौंपी जा सकती है।
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blogbazaar · 5 years
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“ “ चमन कोहली आज जो विग पहन के कॉलेज गए हैं वो उन्हें ��रेशान कर रहा है. आदत नहीं है न. और इसलिए वो बार-बार अपने बाल खुजला रहे हैं. वॉशरूम में जाते हैं और विग खोलकर चैन की सांस लेते हैं. लेकिन उनका ये सारा क्रियाकलाप एक एमएमएस के रूप में पूरे कॉलेज में वायरल हो जाता है और चमन कोहली की खूब कॉलेज-हंसाई होती है. अब इस पूरे सिक्वेंस में वही दिक्कत है जो पूरी ‘उजड़ा चमन’ मूवी में है. उस दिक्कत का नाम है- ‘अतिश्योक्ति’. ये दिक्कत इसलिए बड़ी लगती है क्यूंकि फिल्म अपने प्रोमो और अपनी पैकेजिंग में मॉडेस्ट और रियल्टी के करीब लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है. # कहानी- 30 साल का चमन कोहली दिल्ली के हंसराज कॉलेज में हिंदी का प्रोफेसर है. वो और उसकी फैमली लगी हुई है कि कैसे न कैसे चमन की शादी हो जाए. लेकिन इसमें तीन बड़ी अड़चनें हैं. सबसे बड़ी दिक्कत है उसका गंजापन, जिसके चलते हर दूसरी लड़की उसे रिजेक्ट कर देती है और बची हुई आधी लड़कियों की या तो फैमिली रिजेक्ट करती है या उन लड़कियों को कैसे एप्रोच करना है ये चमन नहीं जानता. दूसरी दिक्कत है कि उसके पास वक्त बहुत कम है. क्यूंकि उसके फैमिली पंडित ने कहा है कि अगर 31 साल तक उसकी शादी नहीं हो जाती तो वो आजीवन कुंवारा रहेगा. तीसरी दिक्कत है चमन की खुद की एक्सपेक्टेशन. चमन कोहली के पैरामीटर के हिसाब से अप्सरा बत्रा कुछ भी हो, अप्सरा तो कतई नहीं है. वो चाहे कैसा भी हो, लेकिन उसे लड़की चाहिए खूबसूरत. लेकिन हालात ऐसे बनते हैं कि उसकी ज़िंदगी में अप्सरा बत्रा आ जाती हैं जो चमन के मानकों में खूबसूरती में माइनस मार्किंग पाती हैं. इस सब घटनाओं और आपदाओं के दौरान चमन कोहली के सेल्फ रियलाइजेशन की स्टोरी है ‘उजड़ा चमन’. # रीमेक – रोमांस और कॉमेडी, यानी रॉम-कॉम विधा की ये मूवी, कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ का ऑफिशियल रिमेक है. इसलिए ही कन्नड़ मूवी के राइटर और डायरेक्टर राज बी शेट्टी को हिंदी फिल्म में राइटर का क्रेडिट दिया गया है. स्क्रीनप्ले के हिसाब से कई चीज़ें अलग हैं, कुछ चीज़ें हटाई गई हैं और कुछ जोड़ी गई हैं. जैसे कन्नड़ वाले वर्ज़न में कॉलेज गर्ल का चमन को धोखा देने वाला पार्ट ��हीं है जो इस मूवी में जोड़ा गया है. होने को कहीं-कहीं ट्रीटमेंट भी अलग है, जैसे लीड एक्टर-एक्ट्रेस के बीच का कॉन्फ्लिक्ट दोनों ही फिल्मों में अलग तरह से शुरू और अलग ही तरह से खत्म होता है. लेकिन ओवरऑल स्टोरीलाइन में ये सब चीज़ें थोड़ा सा भी अंतर नहीं डालतीं. और कई जगह तो ‘उड़ता चमन’ सीन दर सीन भी अपने कन्नड़ काउन्टरपार्ट की ज़िरॉक्स लगती है. जैसे प्रिंसिपल द्वारा एक स्टूडेंट का फाइन किया जाना या जैसे चमन कोहली द्वारा पंडित को शादी तोड़ने के लिए कन्विंस करना. # बाला से टक्कर – अभी कुछ ही दिनों बाद बाला भी रिलीज़ होने वाली है. उस फिल्म का भी मेन प्लॉट, लीड करैक्टर का गंजा होना ही है. वैसे अगर दोनों फिल्मों के प्रोमो देखें तो समानताएं ज़्यादा और अंतर कम नज़र आते हैं लेकिन ये कितनी हैं और कौन ज़्यादा शाबाशी बटोरेगी वो बाला देखने के बाद ही पता चलेगा. एक फिल्म को अगर पहले रिलीज़ होने और ऑरिजनल मूवी का ऑफिशियल रीमेक होने का एडवांटेज़ मिला है तो दूसरी को आयुष्मान खुराना और भूमि पेडणेकर जैसी बड़ी स्टारकास्ट का. # एक्टिंग- ‘प्यार का पंचनामा 2’ और ‘सोनू के टीटू की स्वीटी’ जैसी हल्की फुल्की फ़िल्में कर चुके सनी सिंह के पास इस फिल्म से अपने को साबित करने का अच्छा मौका था. लेकिन अगर उन्होंने मौका गंवाया नहीं भी तो उसे पूरी तरह से कैश भी नहीं करवा पाए. दो कारणों के चलते. एक तो मूवी के इमोशनल पार्ट इतने स्ट्रॉन्ग नहीं हैं कि उसमें अपना हुनर कोई दिखा पाए. दूसरा उनके एक्सप्रेशन पूरी मूवी में ऑलमोस्ट सेम रहते हैं. हां उन्हें ‘मेकअप’ का एडवांटेज़ ज़रूर मिला है, जिसके चलते उनको पहचानना मुश्किल है. उनकी पिछली मूवीज़ देखने के बाद आप इस बात पर उनकी तारीफ़ ज़रूर करेंगे कि उन्होंने करैक्टर के लो कॉन्फिडेंस और सेल्फ डाउट को काफी अच्छे से कैरी किया है. अतुल कुमार और ग्रुशा कपूर ने अच्छी एक्टिंग की है. लेकिन थोड़ी लाउड भी. जो कि ऑफ़ कोर्स स्क्रिप्ट की मांग थी. मूवी का सबसे बड़ा हासिल हैं मानवी गग्रू. ये पहली बार है जब उन्होंने किसी फुल लेंग्थ फीचर फिल्म में लीड एक्ट्रेस प्ले किया हो. होने को ‘फोर मोर शॉट्स प्लीज़’, ‘ट्रिपलिंग’ और ‘पिचर्स’ जैसी वेब सीरीज़ में उनके काम को काफी सराहा गया था. इस फिल्म में भी उनके एक्सप्रेशन्स, उनकी एक्टिंग और अपने करैक्टर के लिए की गई उनकी मेहनत पर्दे पर दिखती है और उन्हें बॉलीवुड में अच्छे से स्थापित करने का माद्दा रखती है. चमन के मम्मी पापा बने अतुल कुमार और ग्रुशा कपूर पंजाबी एक्सेंट और दिल्ली वाले हाव भाव बड़ी अच्छी तरह से पकड़ पाए हैं. सबसे अच्छी कॉमिक टाइमिंग सौरभ शुक्ला की है. बेशक वो दो एक छोटे-छोटे सीन में हैं, और बेशक वो सीन और उनका वो रोल उतना दमदार भी नहीं है. शारिब हाशमी ने कॉलेज के पियोन का किरदार बखूबी निभाया है. होने को ऑरिजनल मूवी में इस किरदार के पास करने को ज़्यादा था. हिंदी वाले वर्ज़न में उसकी स्टोरी को काफी कम कर दिया गया है साथ में उससे जुड़ा इमोशन भी सतही बनकर रह गया है. बाकी एक्टर्स का काम रूटीन तरह का है जिसमें कुछ भी अच्छा या बुरा इतना प्रोमिनेंट नहीं है. # स्क्रिप्ट- दो घंटे की मूवी में भी अगर दर्शक एंटरटेन नहीं हो पा रहे हैं तो यकीनन कहीं स्क्रिप्ट में बहुत बड़ा झोल है. फिल्म का कॉन्सेप्ट बहुत अच्छा है. और स्क्रिप्ट के अपने मोमेंट्स भी हैं लेकिन लचर डायरेक्शन उसे पूरी तरह कैश नहीं करवा पाता. चमन और अप्सरा की सगाई के टूटने वाला सीन और चमन का पियोन राज कुमार के घर विज़िट करने वाला सीन काफी पावरफुल और इमोशनल हो सकता था. लेकिन ‘है’ और ‘हो सकता था’ का ये अंतर ही ‘मास्टरपीस’ और ‘औसत’ के बीच का अंतर है. # ह्यूमर और लव कोशेंट- हर हिट रॉम-कॉम मूवी में दो चीज़ें कमोबेश होती ही होती हैं. यूनिक लव स्टोरी और गुदगुदाने वाली कॉमेडी. जैसे ‘जब वी मेट’ या ‘समवन लाइक इट हॉट’. इस मूवी में भी लव स्टोरी यूनिक है, लेकिन इसे देखते हुए आपको बार-बार लगता है जैसे आप छोटे बजट की कोई वेब सीरीज़ देख रहे हों. क्यूंकि ये लव स्टोरी आईडिया के लेवल पर तो यूनिक है, लेकिन स्टोरीबोर्ड से होते हुए स्क्रिप्ट के रास्ते स्क्रीनप्ले तक पहुंचते-पहुंचते अपने साथ कई क्लिशे चिपका लेती है. फिर चाहे वो ‘प्यार की पहली सीढ़ी लड़ाई’ जैसा घिसा पिटा कॉन्सेप्ट हो या लड़की के सामने लड़के का कान पकड़ के कन्फेशन करना या ‘जो भी होता है, अच्छे के लिए होता है’ जैसे डायलॉग्स. ‘ओंडू मोटेया काथे’,’बाला’ और ‘उजड़ा चमन’ के पोस्टर्स. रही बात कॉमेडी की तो वो रिपीटेटिव लगती है जब ‘मेटाबॉलिज्म’,’सेलिबेसी’ और ‘टेस्टोस्टेरोन‘ जैसे एक नहीं तीन-तीन शब्दों को तोड़-मरोड़ के उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. वो सतही लगती है जब एक विशेष प्रकार के कल्चर और एक्सेंट से उत्पन्न करने की कोशिश की गई हो. कहीं-कहीं उबाती और इरिटेट करती है जब टाइमिंग और बैकग्राउंड म्यूज़िक उसका साथ नहीं दे पाए हों. और वो जब अच्छी लगती है तो याद आता है कि ये वाली सीधे ऑरिजनल कन्नड़ मूवी में भी ठीक ऐसी ही थी. # अतिश्योक्ति- फिल्म में कई ऐसी चीज़ें हैं जिसपर आप कहेंगे ऐसा कहां होता है? कुछ चीज़ें फिजिक्स के लेन्ज लॉ की तरह अपने ही स्रोत का विरोध करती लगती हैं. एक तरफ ये गंजेपन और मोटापे को लेकर ‘एक्सेपटेंस’ बढ़ाने का प्रयास करती है दूसरी तरफ दिल्ली और पंजाबियों को लेकर अपने प्री कंसीव नोशन रखती है. जैसे पंजाबी फैमली है तो लाउड होगी. पंजाबी हैं तो शराब पिएंगे ही पिएंगे. और इस ची��़ को हाईलाईट करने के लिए जैसे ही शराब की बात आती है, बैकग्राउंड में ‘पंजाबी’ शब्द सुनाई देता है. एक पुराने से कॉमन बैकग्राउंड म्यूज़िक के रूप में. बैकग्राउंड म्यूज़िक की दिक्कतें यहीं खत्म नहीं होतीं. न केवल इसकी लाउडनेस से बल्कि इसकी टाइमिंग से भी दिक्कत है. कई जगह ये किसी जोक के पंच से सिंक नहीं करता तो कई जगह सीन के साथ. हिंदी का प्रोफेसर, रोमन में टाइप करता है और इकोनॉमिक्स के टीचर के साथ टेबल वाइन के साथ फाइव स्टार में डिनर करता है. तब जबकि उसकी सैलरी, जैसा वो बताता है साठ हज़ार रुपल्ली है. आप कहेंगे कि तो क्या हो गया, ये इम्पॉसिबल तो नहीं. बेशक इम्पॉसिबल नहीं लेकिन अपाच्य ज़रूर है. और तब जबकि जैसा स्टार्ट में कहा था कि मूवी अपनी पैकेजिंग में काफी आर्गेनिक लगती है, या ऐसा प्रोजेक्ट करती है. # दिल्ली- अच्छी बात ये है कि इस फिल्म में दिल्ली अपने ‘पुरानी दिल्ली’ और ‘चांदनी चौक’ वाले पारंपरिक बॉलीवुड रूप में नहीं है. राजौरी गार्डन, हंसराज कॉलेज, मेट्रो स्टेशन, मयूर विहार, हौज़ ख़ास विलेज जैसी जगहें देखकर या उनके बारे में सुनकर एक डेल्हीआईट को कहीं भी ‘आउट ऑफ़ दी वर्ल्ड’ या ‘काल्पनिकता’ का आभास नहीं होता. मूवी का दिल्ली रियल है. # डायलॉग्स- मैं बार-बार रिपीट कर रहा हूं कि हर डिपार्टमेंट में ‘आईडिया’ के लेवल पर कोई दिक्कत नहीं है लेकिन उसकी तामीर, उसके मटरियलाइज़ेशन में परेशानी पैदा की गई है. उगाई गई है. डेलीब्रेटली. यही हाल डायलॉग्स का भी है. जैसे,’ ‘दिलों की बात करता है जमाना, पर मोहब्बत अब भी चेहरे से शुरू होती है.’ जैसे शायराना डायलॉग्स जो अलग तरह से लिखे जाने के बदले सिंपल होते तो ज़्यादा इंपेक्टफुल होते. # म्यूज़िक- मूवी खत्म होने के बाद क्रेडिट रोल होते वक्त यू ट्यूब सेलिब्रेटी और टी सीरीज़ स्टार गुरु रंधावा का गीत सुपरहिट होने का पूरा माद्दा रखता है. बंदया गीत भी अच्छा है. लेकिन इसका म्यूज़िक न तो इसका सबसे अच्छा डिपार्टमेंट है और न ही ऐसा कि बाकी कमियों के ऊपर पर्दे का काम करे. # ओवरऑल निष्कर्ष- मूवी बुरी नहीं है. लेकिन ऐसी मूवीज़ थियेटर के लिए नहीं होतीं. शुरू होने से पहले ये आपको बताती है कि इसके ऑनलाइन स्ट्रीमिंग राइट्स एमेज़ॉन प्राइम और टीवी राइट्स ज़ी टीवी के पास हैं. बाकी आप समझदार हैं हीं. और साथ में बोनस में ये बता दूं कि मैंने कन्नड़ मूवी ‘ओंडू मोटेया काथे’ नेटफ्लिक्स पर देखी थी. ” - http://moviesbuzz29.blogspot.com/2019/11/ujada-chaman.html from Tumblr https://blogbazaar.tumblr.com/post/188765466819 ” - http://moviesbuzz29.blogspot.com/2019/11/blog-post.html from Tumblr https://blogbazaar.tumblr.com/post/188765696519
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abhay121996-blog · 4 years
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डायबिटीज को लेकर लापरवाही दिल की सेहत पर पड़ रही भारी, जानिए मधुमेह रोगियों में हार्ट अटैक के लक्षण Divya Sandesh
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डायबिटीज को लेकर लापरवाही दिल की सेहत पर पड़ रही भारी, जानिए मधुमेह रोगियों में हार्ट अटैक के लक्षण
लखनऊ। मधुमेह यानी डायबिटीज भले ही आज एक आम बीमारी हो गई हो, लेकिन अभी भी लोग इसके खतरे को लेकर लापरवाह बने हुए हैं। डायबिटीज कई बीमारियों की जड़ होने के साथ दिल की बीमारी, हृदय रोग जैसी समस्या की बड़ी वजह बन रही है। ऐसे में इसके प्रति गम्भीर नहीं होना जान के खतरे का सबब बन सकता है। 
डायबिटीज एक प्रकार से हृदयाघात की स्थिति राजधानी लखनऊ के डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान (आरएमएलआईएमएस) में हृदय रोग विभागाध्यक्ष प्रो. भुवन चंद्र तिवारी के मुताबिक डायबिटीज का मतलब है कि एक प्रकार से आपको हृदयाघात हो गया है। यह बात डराने के लिए नहीं है, लेकिन ये चेतावनी है कि अगर आपको डायबिटीज हो गई है तो आप हाट अटैक की स्थिति में पहुंच गये हैं। इसके रिस्क फैक्टर की बात करें तो कोलेस्ट्रोल ज्यादा बढ़ जाता है, शुगर का स्तर बढ़ने के कारण रक्त गाढ़ा होना शुरू हो जाता है। ऐसी स्थिति में ब्लड का फ्लो धीमा हो जाता है। शुगर के कारण खून चिपचिपा हो जाता है। दिल की धमनियों में एलडीएल यानी बैड कोलेस्ट्रॉल जमा होना शुरू हो जाता है। इस एलडीएल के बढ़ने से दिल से जुड़ी परेशानी शुरू हो जाती है जो हृदय रोग का कारण बनती है।
डायबिटीज मरीज में हार्ट अटैक की सम्भावना कई गुना ज्यादा प्रो. तिवारी के मुताबिक सामान्य रोगी के मुकाबले डायबिटीज के मरीज में हार्ट अटैक होने की सम्भावना कई गुना ज्यादा होती है। इसलिए डायबिटीज को खतरे की घंटी समझना चाहिए। इसका पता लगते ही सचेत होकर अपनी जीवनशैली में सकारात्मक बदलाव शुरू कर दें। ऐसा करने से हृदय रोग के के खतरे को समय रहते कम किया जा सकता है।
दिल तक रक्त पहुंचाने वाली तीनों धमनियों में कोलेस्ट्रॉल होने लगता है एकत्र सामान्य ब्लड प्रेशर वाले मरीज या दिल के रोगी में एलडीएल किसी एक जगह या दो जगह इकट्ठा होता है। वहीं इसके मुकाबले डायबिटीज वाले मरीज में दिल तक रक्त पहुंचाने वाली तीनों धमनियों में कोलेस्ट्रॉल जमा होना शुरू हो जाता है। नसों के काफी हिस्से में समस्या होने के कारण स्थिति गंभीर हो जाती है जो दिल के दौरे की वजह के रूप में भी सामने आती है। प्रो. तिवारी कहते हैं कि सरल भाषा में कहा जाए तो अगर एक मरीज को हार्ट अटैक हुआ और एक को डायबिटीज हुई है और उसने जीवनशैली में सुधार नहीं किया है, तो दोनों इंसान एक ही स्तर पर हैं।
युवाओं में पहले की अपक्षा ज्यादा बढ़ा खतरा उन्होंने बताया कि डायबिटीज के मरीजों की संख्या धीरे-धीरे काफी बढ़ रही है। खासतौर से कम उम्र के लोगों में अब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा डायबिटीज के मामले सामने आ रहे हैं। इसकी वजह से भी युवाओं में हृदय रोग में भी इजाफा देखने को मिल रहा है।
समय रहते जीवनशैली में बदलाव लाना बेहद जरूरी डायबिटीज आनुवांशिक भी होती है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में यह देखने को मिलती है। इसके अलावा जंक फूड का ज्यादा प्रयोग, फिजिकल एक्टिविटी कम होना, आरामदायक जीवन शैली जैसे बड़े फैक्टर भी इस मर्ज के बढ़ने की वजह है। ऐसे में यह बेहद जरूरी हो जाता है कि अगर किसी व्यक्ति को डायबिटीज है ��ो ना सिर्फ उसको अपनी जीवनशैली में तत्काल बदलाव लाकर हृदय रोग के खतरे को लेकर सचेत हो जाना चाहिए बल्कि अपने बच्चों को लेकर भी सतर्कता बरतनी चाहिए।
जाहिर तौर पर मां-पिता अगर ज्यादा तला-भुना खायेंगे, जंक फूड घर में लायेंगे तो बच्चे भी उसका सेवन करेंगे। मां-बाप की आदतों का असर अगली पीढ़ी पर पड़ना स्वभाविक है। ऐसे में कई बार बच्चों में माता-पिता की तरह मोटापा जैसी समस्या भी कम उम्र में देखने को मिलती है। जो आगे जाकर और गम्भीर हो जाती है। इसलिए जैसे ही किसी व्यक्ति को पता चलता है कि उसे मधुमेह है, तो न सिर्फ उसे स्वयं अच्छी जीवनशैली को अपना चाहिए बल्कि बच्चों को इससे जोड़ना चाहिए।
हाई ब्लड शुगर से हार्ट ब्लड वेसेल्स को पहुंचता है नुकसान केजीएमयू के हृदय रोग विशेषज्ञ प्रोफेसर अरविंद मिश्रा के मुताबिक ज्यादा वक्त से डायबिटीज होने पर हाई ब्लड शुगर शरीर में मौजूद ब्लड वेसल्स, हार्ट ब्लड वेसेल्स और दिल को नियंत्रित करने वाले नर्व्स को नुकसान पहुंचा सकता है। जितना अधिक समय तक किसी व्यक्ति में डायबिटीज रहेगी, उतनी अधिक संभावना हृदय रोग की बढ़ेगी। उन्होंने बताया कि डायबिटीज की वजह से हार्ट डिजीज का खतरा युवा अवस्था से ही शुरू हो जाता है। ज्यादातर डायबिटीज के वयस्क मरीजों में मौत का कारण हार्ट डिजीज ही होते हैं। डॉ. अरविंद के मुताबिक अगर डायबिटीज को नियंत्रित रखा जाए तो दिल की बीमारी या स्ट्रोक का खतरा कम हो सकता है। डायबिटीज और हृदय रोग का आपस में एक-दूसरे से सम्बन्ध हैं। लगभग 80 फीसदी डायबिटीज से ग्रस्त मरीजों को दिल की बीमारी होती है। डायबिटीज की वजह से ग्रस्त कई व्यक्तियों में हार्ट डिजीज के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। इसलिए, इसे अक्सर साइलेंट हार्ट डिजीज भी कहा जाता है।
डायबिटीज रोगियों में दिल का दौरा पड़ने पर कई बार नहीं होता दर्द हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ. जेपी सिंह के मुताबिक शहरीकरण, जीवन शैली में आया बदलाव अपने साथ कई समस्याओं का लेकर आया है। दिल इनकी वजह से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। डायबिटीज को लेकर सतर्क और सजग होना बेहद जरूरी है। कई बार दिल का दौरा पड़ने पर डायबिटीज​ रोगियों में अन्य रोगियों के मुकाबले अधिक दर्द नहीं होता है। इसे मेडिकल भाषा में एसिम्पटोमेटिक कहा जाता है। इस तरह के मामलों में मरीज खतरा भांप नहीं पाते और समय पर इलाज नहीं मिलना भारी पड़ता है। इसलिए डायबिटीज के मरीज लापरवाही न बरतें। अगर लोग इसे लेकर जागरूक रहें तो बड़े खतरे को टाला जा सकता है।
डायबिटीज रोगियों में हार्ट अटैक के लक्षण लम्बे समय तक डायबिटीज होने से दर्द महसूस करने वाली कोशिकाएं कमजोर हो जाती हैं। इससे हार्ट अटैक में दर्द महसूस नहीं होता है। दर्द की जगह उनकी सांसें फूलने लगत��� हैं और पसीना आने लगता है। इसके अलावा घबराहट होना, चक्कर आना, बेहोश होने जैसी स्थिति, अत्यधिक पसीना, कंधों में दर्द, जबड़ा और बांया हाथ में असर पड़ना, जी मिचलाना आदि प्रमुख लक्षण हैं।
डायबिटीज रोगी सचेत होकर टाल सकते हैं खतरा -कोलेस्ट्रॉल की समस्या स्थिति और ज्यादा घातक बना सकती है, इस​लिए इसको बढ़ने न दें। -शुगर का स्तर ज्यादा होने पर धूम्रपान नहीं करना चाहिए। धूम्रपान और डायबिटीज दोनों ही रक्त वाहिकाओं को संकीर्ण करते हैं। -समय पर खाना और थोड़ी-थोड़ी देर पर भोजन की आदत डालें। -शुगर नियंत्रण के लिए पैदल चलें, प्रतिदिन व्यायाम जरूर करें। -वसा युक्त और जंक फूड से दूरी बनाना बेहतर है। -मौसमी सब्जियों-फलों का सेवन जरूर करें।
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