#प्रिय चंद्र दल
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बालवीर देव जोशी जाने वाले हैं चांद पर, शो के बाद अब असल जिंदगी में भी अंतरिक्ष में जाएंगे
बालवीर देव जोशी जाने वाले हैं चांद पर, शो के बाद अब असल जिंदगी में भी अंतरिक्ष में जाएंगे
अगर आपको चांद पर जाने का मौका मिले तो आप क्या करेंगे? थोड़ा सा क्रेजी कॉंक है ना? लेकिन कुछ लोगों के लिए ये मुमकिन हो गया है। जी हां एक भारतीय अभिनेता एक जापानी अरबपति, एक रस्सी रैप्टर और पांच और लोगों को चांद पर जाने का अवसर मिला है। जल्द ही यह ग्रुप हिस्ट्री बनाने के लिए तैयार है। और ये बेहतरीन मौका मिला है भारतीय अभिनेता और इन्फ्लुएंसर देव जोशी की उम्र 22 साल है। कैसा होगा ये मून मिशन और कैसे…
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तीन बार विधायक और एक बार राज्य मंत्री रहे दल बहादुर कोरी का कोरोना से निधन Divya Sandesh
#Divyasandesh
तीन बार विधायक और एक बार राज्य मंत्री रहे दल बहादुर कोरी का कोरोना से निधन
लखनऊ। कोरोना वायर�� का संक्रमण सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के विधायकों के लिए बेहद ही खतरनाक साबित होता जा रहा है। इसी क्रम में रायबरेली के सलोन विधानसभा क्षेत्र से तीन बार विधायक और एक बार राज्य मंत्री रहे दल बहादुर कोरी का लखनऊ के एक अस्पताल में निधन हो गया। बताया जाता है कि वह कोरोना से पीड़ित थे। भाजपा विधायक दल बहादुर कोरी का लखनऊ के अपोलो अस्पताल में इलाज चल रहा था। रायबरेली के सलोन विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक दलबहादुर कोरी का शुक्रवार की सुबह कोरोना से निधन हो गया। करीब एक माह से बीमार विधायक का लखनऊ स्थित अपोलो अस्पताल में इलाज चल रहा था। बताया गया की उन्हें कोरोना हुआ था, इलाज के लिए पीजीआई में भर्ती कराये गये थे । रिपोर्ट निगेटिव आने पर अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी। दोबारा फिर तबीयत खराब हुई। जांच कराई गई तो रिपोर्ट पाजिटिव आई। इसके बाद परिजनों ने अपोलो में भर्ती कराया था।
मुख्यमंत्री योगी ने उनके निधन दु:ख व्यक्त करते हुए ट्वीटर पर लिखा कि ‘ सलोन, रायबरेली से भाजपा विधायक दल बहादुर कोरी जी का निधन अत्यंत दु:खद है। प्रभु श्री राम से प्रार्थना है कि दिवंगत आत्मा को अपने श्री चरणों में स्थान दें और शोकाकुल परिजनों को इस दु:ख को सहने की शक्ति प्रदान करें।’
ये खबर भी पढ़े: राज्य में 8 मई सुबह 6 बजे से 16 मई तक लॉकडाउन: मुख्यमंत्री
उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या ने दु:ख जताते हुए ट्वीटर के माध्यम से लिखा कि ‘ रायबरेली जिले से लोकप्रिय भाजपा विधायक पूर्व मंत्री मेरे प्रिय मित्र दल बहादुर कोरी जी के निधन की सूचना अत्यंत दु:खद है। दलितों, पिछड़ों व गरीबों किसानों के उत्थान के लिए सदैव प्रयासरत रहने वाले दल बहादुर जी का निधन भाजपा परिवार एवं समाज के लिए अपूरणीय क्षति है। ‘
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने विधायक के निधन पर शोक प्रकट करते हुए लिखा कि ‘ सलोन, रायबरेली से भाजपा विधायक दल बहादुर कोरी जी के निधन पर मैं गहरा शोक व्यक्त करता हूँ। ईश्वर दिवंगत आत्मा को अपने श्रीचरणों में स्थान दे एवं परिजनों को यह दु:ख सहने का संबल प्रदान करे।’
रायबरेली के सलोन से भारतीय जनता पार्टी के विधायक दल बहादुर कोरी बीते दिनों कोरोना वायरस क��� संक्रमण की चपेट में थे। ज्ञात हो कि दल बहादुर कोरी से पहले लखनऊ पश्चिम से भाजपा विधायक सुरेश कुमार श्रीवास्तव, औरैया सदर से भाजपा विधायक रमेश चंद्र दिवाकर और बरेली के नवाबगंज से भाजपा के विधायक केसर सिंह गंगवार ने कोरोन�� संक्रमण के कारण दम तोड़ दिया था। यह सभी जिला पंचायत के चुनाव में बेहद सक्रिय थे। केसर सिंह के निधन के बाद उनके बेटे ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर यूपी की योगी सरकार और केंद्र की मोदी सरकार को आड़े हाथों लिया था।
–आईएएनएस
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रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार:-
रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार:-
भाग-1
मानव ने अपने भविष्य की संभावित दैवीय घटनाऔं का कारण ग्रह गोचर और ज्योतिष को माना। और फिर उन संभावित घटनाऔं को अपने अनुकूल बनाने के लिए इन ग्रहों से संबन्धित अनेंक साधन और माध्यम खोजे। उनमें से एक साधन मणि अथवा रत्न के माध्यम से ग्रहशान्ति और उनका उपचार करना स्वयंसिध्द है।
"रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार" नाम के इस विषय पर आगे बढने से पूर्व मै यह घोषित करता हूँ कि इस लेख में मेरे विचार केवल वैदिक (हिन्दू) ज्योतिष ; जो वर्तमान रूप में ऋषि वराह, ऋषि पाराशर और ऋषि जैमिनी की मिश्रित परंपरा है, उससे संबन्धित है। अतः ज्योतिष की अन्य विधाऔं के विद्वान मित्र यहां अपने तर्क न दें।
वैदिक (हिन्दू) ज्योतिष में मात्र सात आकाशीय पिण्ड एवं वृत्तिय अक्ष पर उत्तरीय और दक्षिणी दो छाया बिन्दुओं की स्थिति को मिला कर मात्र नौ ग्रहों की कल्पना की गई है।
वैदिक मान्यता में ग्रहों को हम देवरुप में मानते हैं। देव! जिसमें दीनता का अभाव है तथा जो दया और दान का शक्तिपुंज है।
देवशरीर क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर जैसे पंचभौतिक पदार्थों से भिन्न भी है और अभिन्न भी। अत: हम उन्हे उनके पंचभूत स्वभाव एवं प्रकृति के अनुरूप उनकी प्रिय वस्तुओं का गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द के माध्यम से समर्पण कर प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।
वैदिक ज्योतिष में ग्रहशान्ति एवं उपचार का यही मर्म है। ...क्रमस:
भाग-2
वैदिक ज्योतिष की आत्मा सनातन धर्म है। वैदिक ज्योतिष मानता है कि पंचमहाभूत का यह हमारा शरीर ग्रह और नक्षत्रों के आकर्षण शक्ति द्वारा प्रत्यक्ष रुप से संचालित होता हैं। किसी अशुभग्रह के अति बलवान होने पर अथवा किसी शुभग्रह के अति निर्बल होने से हम विकारग्रस्त हो जाते हैं।
इस जीवन में हमें जो भी मिला है या मिलना है वह केवल परमेश्वर की इच्छा से ही मिलना है। अतः उस सर्वशक्तिमान की कृपादृष्टि पाने के लिए हम देवार्चना, व्रत, यज्ञ, जप ओर दान आदि कर्म सामान्यरुप में या कभी ग्रहशान्ति के उपचार के रुप में ��रते रहें है।
इसी क्रम में वैदिक ज्योतिष के अन्तर्गत हमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति, औषधि-��ेषज - धातु-मणि की भष्म आदि का सेवन, स्नान और विभिन्न रत्न एवं मणियों को अपने शरीर पर धारण करने का आदेश भी मिलता हैं।
इस लेख में हम केवल मणि अर्थात रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार पर ही चर्चा करेंगे।
मणि अथवा रत्न क्या है?
--प्रकृति से प्राप्त कुछ खनिज! जो स्वयं में अपनी एक प्राकृतिक आभा रखते हैं और वायुमण्डल से प्रकाश का संशलेषण (सोखना) कर उसे पुन: विकीरण (फेकना) करने की योग्यता रखते है, उन्हे हम रत्न कहते हैं।
-- रत्न का प्रयोग हम; 1-उनकी भष्म बना कर औषधि के रुप में, 2-देव अथवा ब्राह्मण को दान एवं 3-स्वयं धारण करके करते हैं।
कैसे जाने कि हमें किस ग्रह से संबंधित रत्न का उपयोग करना चाहिए? इसके लिए सरल और स्पष्ट है कि:-
1-जो ग्रह हमारे लिए स्वाभाविक रुप से शुभफलदायक है किन्तु कुंडली में स्थितिवश आवश्यक बल नही पा रहें हैं तो इस दशा में उस ग्रह से संबंधित रत्न/मंत्र/ व्रत आदि धारण किए जाते हैं।
2-जो ग्रह हमारे लिए स्वाभाविक रुप से अशुभफलदायक है किन्तु कुंडली में स्थितिवश आवश्यकता से अधिक बल पा रहें हैं तो इस स्थिति में उस ग्रह से संबंधित रत्न या उस ग्रह से संबंधित वस्तुओं के दान किए जाते हैं।
3-देव/ग्रह स्तुति, अर्चना,यज्ञ, मंत्रजाप दोनों स्थिति में करणीय हैं।
दान का क्या अर्थ है? अपने पारिवारिक दायित्वों से अतिरिक्त किसी अन्य जन या संस्था को कोई वस्तु उनके प्रयोग के लिए कुछ देना दान है।
दान के प्रकार:
1-किसी दीन और असहाय व्यक्ति को उसे उपकृत करने के लिए दिया दान/भेंट। इस प्रकार के दान को उतरन भी कहते हैं। साढेसति,तुला-छाया दान आदि।
2-अपने इष्टदेव अथवा किसी महापुरुष के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए दिया दान/भेंट। देवस्थान,माता-पिता,गुरुजन-ब्राह्मण को दिया दान।
कैसे ज्ञान हो कि कौन ग्रह हमारे लिए शुभकर्ता है और कौन अशुभकर्ता? इसके लिए सर्वप्रथम हम यह तय करलें कि हमारे नवग्रह दो दलों में विभाजित है।
दल एक : -- शनि,शुक्र और बुध के लग्नों (2,7,3,6, 10 एवं 11राशि) में शनि, शुक्र और बुध परस्पर त्रिकोणेश होकर मित्र होते हैं। अत: ये ग्रह राहू और केतु सहित परस्पर शुभफल देने में सहायक होते हैं। ये ग्रह सूर्य,चंद्र, मंगल, और बृहस्पति को अपना शत्रु मानते हैं।
दल दो: -- सूर्य,चंद्र, मंगल, और बृहस्पति के लग्नों (1,4, 5, 8,9 और 12 राशि) में सूर्य, चंद्र, बृहस्पति और मंगल परस्पर त्रिकोणेश होकर अथवा न होकर भी मित्र होते हैं। अत: परस्पर शुभफल देने में सहायक होते हैं। ये ग्रह पहले दल के ग्रह शनि,शुक्र, बुध, राहू और केतु को अपना शत्रु मानते हैं।
इस प्रकार किसी भी जातक के लग्नपति और उसके दल के अन्य ग्रह जो पंचम और नवम भाव के स्वामि बने हैं वे उसके मित्रवर्ग में हैं अत: वे ग्रह सदा शुभफलदायी ह��ंगे।
ठीक इसके विपरीत किसी भी जातक के वे ग्रह जो उसके लग्नभाव,पंचमभाव और नवमभाव के स्वामि न होकर शेष अन्यभावों के स्वामि बने हैं वे उसके शत्रुवर्ग में आते हैं अत: वे ग्रह सदा अशुभफलदायी होंगे।
सूर्य ग्रह नक्षत्र ही नही इस संपूर्ण चराचर की आत्मा और चंद्रमा जीव का मन है । दोनों जातक के लग्न-लग्नेश के समान सदा शुभकारी होते है। जन्मकुंडली में सूर्य और चंद्र की किसी भावस्थिति पर नही (कोई भी हों) अपितु उनके प्राप्त बल के आधार पर विचार करें।......क्रमस:
भाग-3
ग्रह के बल-निर्बल का निश्चय:
1-यदि हम ग्रहों के बल और निर्बलता की जांच के लिए "षड़बल सारणी" का निर्माण करते हैं तो इसके उपरांत अन्य किसी विधि की आवश्यकता नही रह जाती। इस "षड़बल सारणी" के अनुसार: अ)--जो ग्रह एक रुपा बल लिए है वह बलवान है। ब)-- जो ग्रह एक रुपा बल से अधिक बल लिए है वह अति बलवान बलवान है। स)-- जो ग्रह एक रुपा बल से कम बल प्राप्त किए हो वह जातक के लिए निर्बल माना जाता है।
हमारी कुछ धारणाएं:
1- कुंडली में किसी ग्रह का अस्त होना जातक के लिए शुभ नहीं होता। अत: इसका रत्न न पहिने।
-यह धारणा गलत है। अस्त शब्द का अर्थ है की ग्रह प्रकाशहीन है। इस कारण वह शुभ या अशुभ दोनों प्रकार के फल देने में असमर्थ हैं। अत: हमारे लग्न के अनुसार शुभफलकारक ग्रह चाहे वह अस्त हो या किसी भी भाव में हो, या किसी भी राशि में हों उन्हे हमें अतिरिक्त बल देने के लिए उनके रत्न, व्रत, मंत्रजाप, पूजन आदि कर्म करने चाहिए।
2- कुंडली मेंअपनी नीच राशि में स्थित ग्रह जातक के लिए शुभ नहीं होता। अत: इसका रत्न न पहिने।
-यह धारणा गलत है। अपनी नीचराशि पर स्थित ग्रह दुखी अवस्था में होता है। यदि वह ग्रह जातक को शुभफलदायक ग्रह की श्रेणी में आति है तो वह निश्चित ही अपना शुभफल देने में असमर्थ हैं। अत: शुभयोग देने वाले ग्रह चाहे किसी भी राशि में हो उन्हे बल देने के लिए उनके रत्न धारण आदि यथाशक्ति साधन प्रयत्न किया जा सकते हैं।
किन्तु यदि वह नीचराशि का ग्रह अशुभफलदायी शत्रुवर्ग का है तो महाअशुभ फल अवश्य देगा। अत: अशुभयोग देने वाले ग्रह चाहे किसी भी राशि में हो उन्हे शान्त करने के लिए यथाशक्ति दान और शान्तिपाठ जैसे प्रयत्न किया जा सकते हैं।
3- त्रिकभाव या दुखभावों में बैठे ग्रहों के रत्न न पहने। -यह धारणा गलत है। लग्नानुसार शुभयोग देने वाले त्रिकोणेश ग्रह चाहे किसी भी भाव में हो, उन्हे बल देने के लिए उनके रत्न धारण किया जा सकते है।
4- भावसंख्या 6, 8 और 12 के स्वामि ग्रहों के रत्न न पहिने। -यह धारणा भी गलत है। यदि भावसंख्या 6,8 और 12 के स्वामि ग्रह लग्नेश के मित्र है अर्थात वे अपनी दूसरी राशि से त्रिकोणेश भी हैं तो उन्हे बल देने के लिए उनका रत्न धारण किया जा सकता है। जैसे मिथुन, कन्या और कुंभ लग्नों के शनि। ध्येय स्पष्ट है ; त्रिकोणेश बलवान, तो दुर्भाग्य हो स्वयंं परेशान।।
5- जो ग्रह अपनी एक राशि से भावसंख्या 6, 8 और 12 के स्वामि हो और अपनी दूसरी राशि से त्रिकोणेश भी नही हैं तो उनका रत्न कदापि धारण न करें। -यह धारणा अर्धसत्य है। कल्पना करें: ऐसा ग्रह जो अपनी एक राशि से भावसंख्या 6, 8 और 12 के स्वामि है और अपनी दूसरी राशि से त्रिकोणेश भी नही हैं यदि वह अपनी दोनों राशियों से 3,6,8,11 या 12 वे आकर किसी केन्द्रीय भाव में बैठ जाय तो विपरीत राजयोग का निर्माण करता है। यह ��रम राजयोगकारी होता है । ( देखे श्री राहुलगांधी और स्व श्री करुणानिधि के दसम भाव मे क��रमस: बृहस्पति और बुध तीसरे और बारहवे भाव के स्वामि होकर अपने भाव से आठवे और तीसरे घर में बसे हैं ) ऐसे राजयोगी ग्रह का रत्न धारण करना तो और भी अधिक आवश्यक हो जाता है।
6- आपनी उच्च राशि पर स्थित ग्रह के रत्न न तो धारण करें न उनके दान करें।
-यह धारणा भी गलत है। हमें स्मरण है कि कोई भी ग्रह किसी राशि विशेष पर आकर बलवान या निर्बल होता है जबकि उसका शुभ या अशुभफलकारक होना उसके भाव विशेष का स्वामि होने से निश्चित होता है।
अत: जो ग्रह लग्न-लग्नेश के मित्रवर्ग में है वे सदा धारणीय है। किन्तु जो ग्रह लग्न-लग्नेश के शत्रुवर्ग के है और विशेष कर अपनी उच्चराशि में हैं अर्थात बलवान शत्रुग्रह है , उनका शमन/ प्रसन्न करने के लिए आवश्यक रूप से दान,शान्तिजाप आदि कर्म करना चाहिए। ....क्रमस: अन्तिम भाग में।
भाग-4
ज्योतिष की उपचार व्यवस्था पर स्वाभाविक प्रश्न है कि जब प्रारब्ध में लिखा हुआ भोगना अटल है तो किसी "ज्योतिष उपचार" से इसे कैसे टाला जा सकता है ?
इस पर ज्योतिष स्वयं कहता है कि ज्योतिषीय उपचार निष्फल नही जाते। बस इन्हें पूर्ण योग्यता और श्रध्दा से समपन्न किया जाय।
निःसन्देह संभावित दुर्भाग्य को टाला जा सकता है और सौभाग्य को दीर्घकालिक भी बनाया जा सकता है।। किसी जातक की जन्मपत्रिका में उपलब्ध अनेंक शुभ-अशुभ योगो से अनेंक शुभ और अशुभ सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं किन्तु वे सब जातक का प्रारब्ध नही होती।
कोई एक ज्योतिषी जिस योग को जातक का प्रारब्ध मान बैठा है तो एक अन्य श्रेष्ठ ज्योतिषी उसी योगायोग को मात्र संभावना जानकर उसे ज्योतिषीय उपचार से अपने अनुकूल कर सकता है।
बस! प्रश्न यह है कि प्रारब्ध क्या है? जो अटल है ; जो अवश्यमेव भुक्तव्यम् है!
प्रारब्ध क्या है? जन्म-जन्मान्तरण में किये गये वे कर्म (सुकर्म अथवा अपकर्म) जो:
1)-हमने स्वेच्छा से सम्मपन्न किए हैं,
2)-हमने अनिच्छा से सम्मपन्न किए हैं,
3)-जो हमने मात्र मानसिक या वाणिक किए हैं,
4)-जो हमें हमारे पूर्वजों (संरक्षक) के प्रताप से मिले हैं, और
5)-जो हमें हमारे आश्रित (पुत्र,सेवक आदि) के कारण मिले या मिलने वाले हैं।
इन पांच प्रकार के कर्मफल (संचित कर्म) का वह भाग जो हमें किसी न किसी योनि में भोगना ही है। हमारा प्रारब्ध है। यही सनातन (हिन्दू) दर्शन के --कर्म के सिध्दान्त "Theory of Karma” का मूल सन्देश है।
परन्तु उपरोक्त प्रकार के कर्म में से क्रम संख्या -1 को छोड़कर शेष चार प्रकार के कर्म क्या हमारे “दृढ़कर्म” है ?
नही । ये कर्म परिस्थितिजन्य हमें मिले हैं। ये हमारे दृढ़ कर्म नही है। क्योंकि इनका दायित्व किसी अन्य पर हमसे अधिक है। हम इनमें मात्र सहभागी हैं ।अतः इनका परितोष किया जा सकता।
अब यह किस प्रकार नियत करें कि लग्नकुण्डली की कौन सी घटना जातक का प्रारब्ध है और कौन नही तो इसका संकेत हमे नवमांश और द्रेषकाण कुंडली से जान सकते हैं।
कैसे? लग्नकुण्डली में दिखाई देनेे वाला कोई योग यदि हमे नवमांश और द्रेषकाण कुंडली में भी दिखाई देनेे लगे तो निश्चित ही यह जातक का दृढ़ कर्म है, जातक इसे अवश्य भोगेगा, यही अटल प्रारब्ध है।
इसके विपरीत लग्नकुण्डली में दिखाई देनेे वाला कोई योग यदि नवमांश और द्रेषकाण कुंडली में बल न पा रहा हो तो निश्चित ही यह जातक का संचित कर्म (अदृढ कर्म ) से बना शुभाशुभ योग है। यह योग संभवत: उसने अपने संरक्षक या किसी आश्रित के शुभाशुभ कर्म से पाए है।
एक विद्वान ज्योतिषी इन्ही दृढ़ और अदृढ कर्म को संज्ञान में लेकर ग्रहोपचार का मार्ग प्रशस्त करता है।
देवपूजन,जप-तप-यज्ञकर्म,धारण, निवारण (उतारण) के उपाय अथवा सर्वजनहिताय किए गए हमारे क्रियमाण हमारे दृढ कर्म है जो कभी निष्फल नही हो सकते।
अत: हमारे ये पुण्यकर्म न केवल हमारे संचितकर्मों में निश्चितरुप से परिवर्तन करते हैं अपितु हमें देश-काल में यश-मान भी दिलवाते हैं।
..सादर सहित।।
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रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार:-
रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार:- भाग-1
मानव ने अपने भविष्य की संभावित दैवीय घटनाऔं का कारण ग्रह गोचर और ज्योतिष को माना। और फिर उन संभावित घटनाऔं को अपने अनुकूल बनाने के लिए इन ग्रहों से संबन्धित अनेंक साधन और माध्यम खोजे। उनमें से एक साधन मणि अथवा रत्न के माध्यम से ग्रहशान्ति और उनका उपचार करना स्वयंसिध्द है।
"रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार" नाम के इस विषय पर आगे बढने से पूर्व मै यह घोषित करता हूँ कि इस लेख में मेरे विचार केवल वैदिक (हिन्दू) ज्योतिष ; जो वर्तमान रूप में ऋषि वराह, ऋषि पाराशर और ऋषि जैमिनी की मिश्रित परंपरा है, उससे संबन्धित है। अतः ज्योतिष की अन्य विधाऔं के विद्वान मित्र यहां अपने तर्क न दें।
वैदिक (हिन्दू) ज्योतिष में मात्र सात आकाशीय पिण्ड एवं वृत्तिय अक्ष पर उत्तरीय और दक्षिणी दो छाया बिन्दुओं की स्थिति को मिला कर मात्र नौ ग्रहों की कल्पना की गई है।
वैदिक मान्यता में ग्रहों को हम देवरुप में मानते हैं। देव! जिसमें दीनता का अभाव है तथा जो दया और दान का शक्तिपुंज है।
देवशरीर क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर जैसे पंचभौतिक पदार्थों से भिन्न भी है और अभिन्न भी। अत: हम उन्हे उनके पंचभूत स्वभाव एवं प्रकृति के अनुरूप उनकी प्रिय वस्तुओं का गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द के माध्यम से समर्पण कर प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।
वैदिक ज्योतिष में ग्रहशान्ति एवं उपचार का यही मर्म है।
...क्रमस: रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार: भाग-2
वैदिक ज्योतिष की आत्मा सनातन धर्म है। वैदिक ज्योतिष मानता है कि पंचमहाभूत का यह हमारा शरीर ग्रह और नक्षत्रों के आकर्षण शक्ति द्वारा प्रत्यक्ष रुप से संचालित होता हैं। किसी अशुभग्रह के अति बलवान होने पर अथवा किसी शुभग्रह के अति निर्बल होने से हम विकारग्रस्त हो जाते हैं।
इस जीवन में हमें जो भी मिला है या मिलना है वह केवल परमेश्वर की इच्छा से ही मिलना है। अतः उस सर्वशक्तिमान की कृपादृष्टि पाने के लिए हम देवार्चना, व्रत, यज्ञ, जप ओर दान आदि कर्म सामान्यरुप में या कभी ग्रहशान्ति के उपचार के रुप में करते रहें है।
इसी क्रम में वैदिक ज्योतिष के अन्तर्गत हमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति, औषधि-भेषज - धातु-मणि की भष्म आदि का सेवन, स्नान और विभिन्न रत्न एवं मणियों को अपने शरीर पर धारण करने का आदेश भी मिलता हैं।
इस लेख में हम केवल मणि अर्थात रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार पर ही चर्चा करेंगे।
मणि अथवा रत्न क्या है?
--प्रकृति से प्राप्त कुछ खनिज! जो स्वयं में अपनी एक प्राकृतिक आभा रखते हैं और वायुमण्डल से प्रकाश का संशलेषण (सोखना) कर उसे पुन: विकीरण (फेकना) करने की योग्यता रखते है, उन्हे हम रत्न कहते हैं।
-- रत्न का प्रयोग हम; 1-उनकी भष्म बना कर औषधि के रुप में, 2-देव अथवा ब्राह्मण को दान एवं 3-स्वयं धारण करके करते हैं।
कैसे जाने कि हमें किस ग्रह से संबंधित रत्न का उपयोग करना चाहिए? इसके लिए सरल और स्पष्ट है कि:-
1-जो ग्रह हमारे लिए स्वाभाविक रुप से शुभफलदायक है किन्तु कुंडली में स्थितिवश आवश्यक बल नही पा रहें हैं तो इस दशा में उस ग्रह से संबंधित रत्न/मंत्र/ व्रत आदि धारण किए जाते हैं।
2-जो ग्रह हमारे लिए स्वाभाविक रुप से अशुभफलदायक है किन्तु कुंडली में स्थितिवश आवश्यकता से अधिक बल पा रहें हैं तो इस स्थिति में उस ग्रह से संबंधित रत्न या उस ग्रह से संबंधित वस्तुओं के दान किए जाते हैं।
3-देव/ग्रह स्तुति, अर्चना,यज्ञ, मंत्रजाप दोनों स्थिति में करणीय हैं।
दान का क्या अर्थ है? अपने पारिवारिक दायित्वों से अतिरिक्त किसी अन्य जन या संस्था को कोई वस्तु उनके प्रयोग के लिए कुछ देना दान है।
दान के प्रकार:
1-किसी दीन और असहाय व्यक्ति को उसे उपकृत करने के लिए दिया दान/भेंट। इस प्रकार के दान को उतरन भी कहते हैं। साढेसति,तुला-छाया दान आदि।
2-अपने इष्टदेव अथवा किसी महापुरुष के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए दिया दान/भेंट। देवस्थान,माता-पिता,गुरुजन-ब्राह्मण को दिया दान।
कैसे ज्ञान हो कि कौन ग्रह हमारे लिए शुभकर्ता है और कौन अशुभकर्ता? इसके लिए सर्वप्रथम हम यह तय करलें कि हमारे नवग्रह दो दलों में विभाजित है।
दल एक : -- शनि,शुक्र और बुध के लग्नों (2,7,3,6, 10 एवं 11राशि) में शनि, शुक्र और बुध परस्पर त्रिकोणेश होकर मित्र होते हैं। अत: ये ग्रह राहू और केतु सहित परस्पर शुभफल देने में सहायक होते हैं। ये ग्रह सूर्य,चंद्र, मंगल, और बृहस्पति को अपना शत्रु मानते हैं।
दल दो: -- सूर्य,चंद्र, मंगल, और बृहस्पति के लग्नों (1,4, 5, 8,9 और 12 राशि) में सूर्य, चंद्र, बृहस्पति और मंगल परस्पर त्रिकोणेश होकर अथवा न होकर भी मित्र होते हैं। अत: परस्पर शुभफल देने में सहायक होते हैं। ये ग्रह पहले दल के ग्रह शनि,शुक्र, बुध, राहू और केतु को अपना शत्रु मानते हैं।
इस प्रकार किसी भी जातक के लग्नपति और उसके दल के अन्य ग्रह जो पंचम और नवम भाव के स्वामि बने हैं वे उसके मित्रवर्ग में हैं अत: वे ग्रह सदा शुभफलदायी होंगे।
ठीक इसके विपरीत किसी भी जातक के वे ग्रह जो उसके लग्नभाव,पंचमभाव और नवमभाव के स्वामि न होकर शेष अन्यभावों के स्वामि बने हैं वे उसके शत्रुवर्ग में आते हैं अत: वे ग्रह सदा अशुभफलदायी होंगे।
सूर्य ग्रह नक्षत्र ही नही इस संपूर्ण चराचर की आत्मा और चंद्रमा जीव का मन है । दोनों जातक के लग्न-लग्नेश के समान सदा शुभकारी होते है। जन्मकुंडली में सूर्य और चंद्र की किसी भावस्थिति पर नही (कोई भी हों) अपितु उनके प्राप्त बल के आधार पर विचार करें।
......क्रमस: रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार:- भाग-3
ग्रह के बल-निर्बल का निश्चय:
1-यदि हम ग्रहों के बल और निर्बलता की जांच के लिए "षड़बल सारणी" का निर्माण करते हैं तो इसके उपरांत अन्य किसी विधि की आवश्यकता नही रह जाती। इस "षड़बल सारणी" ��े अनुसार: अ)--जो ग्रह एक रुपा बल लिए है वह बलवान है। ब)-- जो ग्रह एक रुपा बल से अधिक बल लिए है वह अति बलवान बलवान है। स)-- जो ग्रह एक रुपा बल से कम बल प्राप्त किए हो वह जातक के लिए निर्बल माना जाता है।
हमारी कुछ धारणाएं:
1- कुंडली में किसी ग्रह का अस्त होना जातक के लिए शुभ नहीं होता। अत: इसका रत्न न पहिने।
-यह धारणा गलत है। अस्त शब्द का अर्थ है की ग्रह प्रकाशहीन है। इस कारण वह शुभ या अशुभ दोनों प्रकार के फल देने में असमर्थ हैं। अत: हमारे लग्न के अनुसार शुभफलकारक ग्रह चाहे वह अस्त हो या किसी भी भाव में हो, या किसी भी राशि में हों उन्हे हमें अतिरिक्त बल देने के लिए उनके रत्न, व्रत, मंत्रजाप, पूजन आदि कर्म करने चाहिए।
2- कुंडली मेंअपनी नीच राशि में स्थित ग्रह जातक के लिए शुभ नहीं होता। अत: इसका रत्न न पहिने।
-यह धारणा गलत है। अपनी नीचराशि पर स्थित ग्रह दुखी अवस्था में होता है। यदि वह ग्रह जातक को शुभफलदायक ग्रह की श्रेणी में आति है तो वह निश्चित ही अपना शुभफल देने में असमर्थ हैं। अत: शुभयोग देने वाले ग्रह चाहे किसी भी राशि में हो उन्हे बल देने के लिए उनके रत्न धारण आदि यथाशक्ति साधन प्रयत्न किया जा सकते हैं।
किन्तु यदि वह नीचराशि का ग्रह अशुभफलदायी शत्रुवर्ग का है तो महाअशुभ फल अवश्य देगा। अत: अशुभयोग देने वाले ग्रह चाहे किसी भी राशि में हो उन्हे शान्त करने के लिए यथाशक्ति दान और शान्तिपाठ जैसे प्रयत्न किया जा सकते हैं।
3- त्रिकभाव या दुखभावों में बैठे ग्रहों के रत्न न पहने। -यह धारणा गलत है। लग्नानुसार शुभयोग देने वाले त्रिकोणेश ग्रह चाहे किसी भी भाव में हो, उन्हे बल देने के लिए उनके रत्न धारण किया जा सकते है।
4- भावसंख्या 6, 8 और 12 के स्वामि ग्रहों के रत्न न पहिने। -यह धारणा भी गलत है। यदि भावसंख्या 6,8 और 12 के स्वामि ग्रह लग्नेश के मित्र है अर्थात वे अपनी दूसरी राशि से त्रिकोणेश भी हैं तो उन्हे बल देने के लिए उनका रत्न धारण किया जा सकता है। जैसे मिथुन, कन्या और कुंभ लग्नों के शनि। ध्येय स्पष्ट है ; त्रिकोणेश बलवान, तो दुर्भाग्य हो स्वयंं परेशान।।
5- जो ग्रह अपनी एक राशि से भावसंख्या 6, 8 और 12 के स्वामि हो और अपनी दूसरी राशि से त्रिकोणेश भी नही हैं तो उनका रत्न कदापि धारण न करें। -यह धारणा अर्धसत्य है। कल्पना करें: ऐसा ग्रह जो अपनी एक राशि से भावसंख्या 6, 8 और 12 के स्वामि है और अपनी दूसरी राशि से त्रिकोणेश भी नही हैं यदि वह अपनी दोनों राशियों से 3,6,8,11 या 12 वे आकर किसी केन्द्रीय भाव में बैठ जाय तो विपरीत राजयोग का निर्माण करता है। यह परम राजयोगकारी होता है । ( देखे श्री राहुलगांधी और स्व श्री करुणानिधि के दसम भाव मे क्रमस: बृहस्पति और बुध तीसरे और बारहवे भाव के स्वामि होकर अपने भाव से आठवे और तीसरे घर में बसे हैं ) ऐसे राजयोगी ग्रह का रत्न धारण करना तो और भी अधिक आवश्यक हो जाता है।
6- आपनी उच्च राशि पर स्थित ग्रह के रत्न न तो धारण करें न उनके दान करें।
-यह धारणा भी गलत है। हमें स्मरण है कि कोई भी ग्रह किसी राशि विशेष पर आकर बलवान या निर्बल होता है जबकि उसका शुभ या अशुभफलकारक होना उसके भाव विशेष का स्वामि होने से निश्चित होता है।
अत: जो ग्रह लग्न-लग्नेश के मित्रवर्ग में है वे सदा धारणीय है। किन्तु जो ग्रह लग्न-लग्नेश के शत्रुवर्ग के है और विशेष कर अपनी उच्चराशि में हैं अर्थात बलवान शत्रुग्रह है , उनका शमन/ प्रसन्न करने के लिए आवश्यक रूप से दान,शान्तिजाप आदि कर्म करना चाहिए। ....क्रमस: अन्तिम भाग में।
रत्न के माध्यम से ग्रहदोष की शान्ति एवं उपचार:- भाग-4
ज्योतिष की उपचार व्यवस्था पर स्वाभाविक प्रश्न है कि जब प्रारब्ध में लिखा हुआ भोगना अटल है तो किसी "ज्योतिष उपचार" से इसे कैसे टाला जा सकता है ?
इस पर ज्योतिष स्वयं कहता है कि ज्योतिषीय उपचार निष्फल नही जाते। बस इन्हें पूर्ण योग्यता और श्रध्दा से समपन्न किया जाय।
निःसन्देह संभावित दुर्भाग्य को टाला जा सकता है और सौभाग्य को दीर्घकालिक भी बनाया जा सकता है।। किसी जातक की जन्मपत्रिका में उपलब्ध अनेंक शुभ-अशुभ योगो से अनेंक शुभ और अशुभ सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं किन्तु वे सब जातक का प्रारब्ध नही होती।
कोई एक ज्योतिषी जिस योग को जातक का प्रारब्ध मान बैठा है तो एक अन्य श्रेष्ठ ज्योतिषी उसी योगायोग को मात्र संभावना जानकर उसे ज्योतिषीय उपचार से अपने अनुकूल कर सकता है।
बस! प्रश्न यह है कि प्रारब्ध क्या है? जो अटल है ; जो अवश्यमेव भुक्तव्यम् है!
प्रारब्ध क्या है? जन्म-जन्मान्तरण में किये गये वे कर्म (सुकर्म अथवा अपकर्म) जो:
1)-हमने स्वेच्छा से सम्मपन्न किए हैं,
2)-हमने अनिच्छा से सम्मपन्न किए हैं,
3)-जो हमने मात्र मानसिक या वाणिक किए हैं,
4)-जो हमें हमारे पूर्वजों (संरक्षक) के प्रताप से मिले हैं, और
5)-जो हमें हमारे आश्रित (पुत्र,सेवक आदि) के कारण मिले या मिलने वाले हैं।
इन पांच प्रकार के कर्मफल (संचित कर्म) का वह भाग जो हमें किसी न किसी योनि में भोगना ही है। हमारा प्रारब्ध है। यही सनातन (हिन्दू) दर्शन के --कर्म के सिध्दान्त "Theory of Karma” का मूल सन्देश है।
परन्तु उपरोक्त प्रकार के कर्म में से क्रम संख्या -1 को छोड़कर शेष चार प्रकार के कर्म क्या हमारे “दृढ़कर्म” है ?
नही । ये कर्म परिस्थितिजन्य हमें मिले हैं। ये हमारे दृढ़ कर्म नही है। क्योंकि इनका दायित्व किसी अन्य पर हमसे अधिक है। हम इनमें मात्र सहभागी हैं ।अतः इनका परितोष किया जा सकता।
अब यह किस प्रकार नियत करें कि लग्नकुण्डली की कौन सी घटना जातक का प्रारब्ध है और कौन नही तो इसका संकेत हमे नवमांश और द्रेषकाण कुंडली से जान सकते हैं।
कैसे? लग्नकुण्डली में दिखाई देनेे वाला कोई योग यदि हमे नवमांश और द्रेषकाण कुंडली में भी दिखाई देनेे लगे तो निश्चित ही यह जातक का दृढ़ कर्म है, जातक इसे अवश्य भोगेगा, यही अटल प्रारब्ध है।
इसके विपरीत लग्नकुण्डली में दिखाई देनेे वाला कोई योग यदि नवमांश और द्रेषकाण कुंडली में बल न पा रहा हो तो निश्चित ही यह जातक का संचित कर्म (अदृढ कर्म ) से बना शुभाशुभ योग है। यह योग संभवत: उसने अपने संरक्षक या किसी आश्रित के शुभाशुभ कर्म से पाए है।
एक विद्वान ज्योतिषी इन्ही दृढ़ और अदृढ कर्म को संज्ञान में लेकर ग्रहोपचार का मार्ग प्रशस्त करता है।
देवपूजन,जप-तप-यज्ञकर्म,धारण, निवारण (उतारण) के उपाय अथवा सर्वजनहिताय किए गए हमारे क्रियमाण हमारे दृढ कर्म है जो कभी निष्फल नही हो सकते।
अत: हमारे ये पुण्यकर्म न केवल हमारे संचितकर्मों में निश्चितरुप से परिवर्तन करते हैं अपितु हमें देश-काल में यश-मान भी दिलवाते हैं। ..सादर सहित।।
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