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#नागरिक शास्त्र
indrabalakhanna · 2 months
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Aaj Tak के पत्रकार Sudhir Chaudhary की झूठी खबरों का पर्दाफाश | Exposing...
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True Guru Sant Rampal Ji
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👇👇👇
🙏हम भारत के नागरिक मांग करते हैं कि
@abpasmitatv तुरंत गुमराह करने वाले लेख को वापस लें!
और संत रामपाल जी महाराज और उनके अनुयायियों से सार्वजनिक माफी मांगे!
*इस माफी में गलतियों को स्वीकार करना!* +
*हुए नुकसान को स्वीकार करना!*
+
*भविष्य में ऐसी गैरजिम्मेदार पत्रकारिता को रोकने के उपायों का उल्लेख होना चाहिए।*
*पूर्ण संत और पूर्ण सतगुरु है संत रामपाल जी महाराज!*
यदि मीडिया को
संत रामपाल जी महाराज क्षमा कर देंगे तो मीडिया समझ लें!
कि परमेश्वर ने उन्हें बख्श दिया !
लेकिन
*भविष्य में दोबारा ऐसी गलती ना करें!*
अगर मीडिया आम व्यक्ति के लिए भी ऐसी गलती करता है तो परमात्मा रुष्ट होते हैं,क्योंकि आत्मा परमात्मा का अंश है!
लेकिन यह तो सतगुरु रूप में स्वयं कबीर परमेश्वर हैं पूजनीय हैं, संत रामपाल जी महाराज जी तो कोई गलती कर ही नहीं सकते, इस संसार को कैसे समझाया जाए!
ऐसे पूर्ण सतगुरु और संत की तो पूजा होनी चाहिए!
जिन्होंने
एक महान सत्य के लिए के लिए संघर्ष किया है !
आत्मा और परमात्मा को मिलाने वाला पवित्र सत्य जन-जन तक पहुंचाने का पूर्ण रूप से प्रयास किया है!
संत रामपाल जी महाराज जो
समाज का सद्भक्ति के माध्यम से
+
सत्य तत्व ज्ञान के माध्यम से_ पूर्ण रूप से सुधार कर रहे हैं!
संत रामपाल जी महाराज के सभी शिष्य पूरी ईमानदारी से संत रामपाल जी महाराज जी की शिक्षाओं + नियमों + आज्ञाओं
का पालन करते हैं!
क्योंकि
संत रामपाल जी महाराज सभी बुराई से जीवात्मा को दूर कर रहे हैं और उनके कष्टों का भी निवारण कर रहे हैं!
संत रामपाल जी महाराज
की
कथनी और करनी में
किंचित मात्र भी अंतर नहीं है
Article Only For INDIAN Media
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🙏(1) मीडिया को चाहिए संत रामपाल जी महाराज के सत्संग अपने चैनलों पर चलाएं और दुनिया को दिखाएं की संत रामपाल जी महाराज सत्संग के माध्यम से क्या बता रहे हैं!
(2) विश्व में जितने भी गुरु हैं उन सब की एक-एक करके डिबेट संत रामपाल जी से महाराज जी से मीडिया के माध्यम से रखी जाए!
(3) मीडिया से अनुरोध है अपनी ईमानदारी दिखाएं !भारत का नाम ऊंचा करें !
फिर से भारत के लोगों में हृदय में अपनी जगह बनाएं!
🙏सत साहेब जी🙏
पूर्ण ब्रह्म कबीर परमेश्वर जी की वाणी में परमेश्वर जी ने कहा है कि
बावले मानव मौत भूल गया है यह बड़ी अचरज की बात है! तन ऐसे मिट्टी में मिल जाएगा,जैसे आटे में नून!!
इसलिए
🙏हे मीडिया वालों सुकर्म कर लो!
संत रामपाल जी महाराज जी से मीडिया के माध्यम से ही माफ़ी मांग लें!
🙏संत रामपाल जी महाराज के पवित्र शास्त्र अनुकूल सत्संग अपने मीडिया पर दिखाएं!
डिबेट रखें अन्य छोटे-बड़े सभी गुरुओं महा मंडलेशवरों के साथ!
जिससे संसार को पूर्ण सत्य रूप से सच्चाई का पता लगे !
आपके कर्म ऊंचे हो !
भगवान की नजरों में उठो !
इंसान की नजर में तो अपने आप उठ जाओगे!
आम जनता धोखे में ना रहने दें!
मनुष्य जन्म सभी के लिए अनमोल है!
बार-बार नहीं मिलता है !
आप इसके साथ खिलवाड़ ना करें!
वरना उस परम शक्ति के अपराधी हो जाएंगे आप !
डरें बुरी वक़्त से!
आशा करती हूं आप दासी की वचनों को हल्के में नहीं लेंगे
और बड़ाई और बधाई का काम करेंगे!
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*🙏मीडिया वालों बोलो *जय बंदी छोड की* आपकी सत्बुद्धि और विवेक दोनों सुचारु रूप से काम कर सकें!
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🙏यही प्रार्थना है हमारी उस परमपिता परमेश्वर से !
क्योंकि
हम सब उसके बच्चे हैं और वह हमारे दुखों से दुखी होता है,हमारी बुराई से भी दुखी होता है!
और
कॉल रूपी राक्षस इसका फायदा उठाता है जिसे हम भगवान समझ रहे हैं वह शैतान का कार्य कर और कर रहा है !
अपनी तीन गुण की माया फैलाकर
हम जीवों को उसने भ्रमित किया हुआ है !
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🙏जागो हे मीडिया वालों !
🙏एक आपके जागने से संसार जाग जाएगा !
🙏क्या आप लोग यह पुण्य कमाना नहीं चाहोगे!
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ratre1 · 2 months
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart57 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart58
"प्रभु कबीर जी द्वारा श्राद्ध भ्रम खण्डन"
एक समय काशी नगर (बनारस) में गंगा दरिया के घाट पर कुछ पंडित जी श्राद्धों के दिनों में अपने पित्तरों को जल दान करने के उद्देश्य से गंगा के जल का लोटा भरकर पटरी पर खड़े होकर सुबह के समय सूर्य की ओर मुख करके पृथ्वी पर लोटे वाला जल गिरा रहे थे। परमात्मा कबीर जी ने यह सब देखा तो जानना चाहा कि आप यह किस उद्देश्य से कर रहे हैं? पंडितों ने बताया कि हम अपने पूर्वजों को जो पित्तर बनकर स्वर्ग में निवास कर रहे हैं, जल दान कर रहे हैं। यह जल हमारे पित्तरों को प्राप्त हो जाएगा। यह सुनकर परमेश्वर कबीर जी उन अंध श्रद्धा भक्ति करने वालों का अंधविश्वास समाप्त करने के लिए उसी गंगा दरिया में घुटनों पानी में खड़ा होकर दोनों हाथों से गंगा दरिया का जल सूर्य की ओर पटरी पर शीघ्र शीघ्र फेंकने लगे। उनको ऐसा करते देखकर सैंकड़ों पंडित तथा सैंकड़ों नागरिक इक‌ट्ठे हो गए। पंडितों ने पूछा कि हे कबीर जी! आप यह कौन-सी कर्मकाण्ड की क्रिया कर रहे हो? इससे क्या लाभ होगा? यह तो कर्मकाण्ड में लिखी ही नहीं है। कबीर जी ने उत्तर दिया कि यहाँ से एक मील (1½ कि.मी.) दूर मेरी कुटी के आगे मैंने एक बगीची लगा रखी है। उसकी सिंचाई के लिए क्रिया कर रहा हूँ। यह जल मेरी बगीची की सिंचाई कर रहा है। यह सुनकर सर्व पंडित हँसने लगे और बोले कि यह कभी संभव नहीं हो सकता। एक मील दूर यह जल कैसे जाएगा? यह तो यहीं रेत में समा गया है। कबीर जी ने कहा कि यदि आपके द्वारा गिराया जल करोड़ों मील दूर स्वर्ग में जा सकता है तो मेरे द्वारा गिराए जल को एक मील जाने पर कौन-सी आश्चर्य की बात है? यह बात सुनकर पंडित जी समझ गए कि हमारी क्रियाएँ व्यर्थ हैं। कबीर जी ने एक घण्टा बाहर पटरी पर खड़े होकर कर्मकाण्ड यानि श्राद्ध व अन्य क्रियाओं पर सटीक तर्क किया। कहा कि आप एक ओर तो कह रहे हो कि आपके पित्तर स्वर्ग में हैं। दूसरी ओर कह रहे हो, उनको पीने का पानी नहीं मिल रहा। वे वहाँ प्यासे हैं। उनको सूर्य को अर्ध देकर जल पार्सल करते हो। यदि स्वर्ग में पीने के पानी का ही अभाव है तो उसे स्वर्ग नहीं कह सकते। वह तो रेगिस्तान होगा।
वास्तव में वे पित्तरगण यमराज के आधीन यमलोक रूपी कारागार में अपराधी बनाकर डाले जाते हैं। वहाँ पर जो निर्धारित आहार है, वह सबको दिया जाता है। जब पृथ्वी पर बनी कारागार में कोई भी कैदी खाने बिना नहीं रहता। सबको खाना-पानी मिलता है तो यमलोक वाली कारागार जो निरंजन काल राजा ने बनाई है, उसमें भी भोजन-पानी का अभाव नहीं है। कुछ पित्तरगण पृथ्वी पर विचरण करने के लिए यमराज से आज्ञा लेकर पृथ्वी पर पैरोल पर आते हैं। वे जीभ के चटोरे होते हैं। उनको कारागार वाला सामान्य भोजन अच्छा नहीं लगता। वे भी मानव जीवन में इसी भ्रम में अंध भक्ति करते थे कि श्राद्धों में एक दिन के श्राद्ध कर्म से पित्तरगण एक वर्ष के लिए तृप्त हो जाते हैं। उसी आधार से रूची ऋषि के चारों पूर्वज पित्तरों ने पैरोल पर आकर काल प्रेरणा से रूची ऋषि को भ्रमित करके वेदों अनुसार शास्त्रोक्त साधना छुड़वाकर विवाह कराकर श्रद्ध आदि शास्त्रविरूद्ध कर्मकाण्ड के लिए प्रेरित किया। उस भले ब्राह्मण को भी पित्तर बनाकर छोडा। पृथ्वी पर आकर पित्तर रूपी भूत किसी व्यक्ति (स्त्री-पुरूष) में प्रवेश करके भोजन का आनंद लेते हैं। अन्य के शरीर में प्रवेश करके भोजन खाते हैं। भोजन की सूक्ष्म वासना से उनका सूक्ष्म शरीर तृप्त होता है। लेकिन एक वर्ष के लिए नहीं। यदि कोई पिता-दादा, दादी, माता आदि-आदि किसी पशु के शरीर को प्राप्त हैं तो उसको कैसे तृप्ति होग��? उसको दस-पंद्रह किलोग्राम चारा खाने को चाहिए। कोई श्राद्ध करने वाला गुरु-पुरोहित भूसा खाता देखा है। आवश्यक नहीं है कि सबके माता-पिता, दादा-दादी आदि-आदि पित्तर बने हों। कुछ के पशु-पक्षी आदि अन्य योनियों को भी प्राप्त होते हैं। परंतु श्राद्ध सबके करवाए जाते हैं। इसे कहते हैं शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण यानि शास्त्र विरूद्ध भक्ति।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
https://online.jagatgururampalji.org/naam-diksha-inquiry
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pradeepdasblog · 2 months
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart54 के आगे पढिए.....)
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#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणPart55
सूक्ष्मवेद में इस शास्त्र विरूद्ध धार्मिक क्रियाओं यानि साधनाओं पर तर्क इस प्रकार किया है कि घर के सदस्य क#हिन्दूसाहेबान_नहींसमझे_गीतावेदपुराणpart54 क्या करते-कराते हैं:-
कुल परिवार तेरा कुटम्ब-कबीला, मसलित एक ठहराई।
बांध पींजरी (अर्थी) ऊपर धर लिया, मरघट में ले जाई।
अग्नि लगा दिया जब लम्बा, फूंक दिया उस ठांही।
पुराण उठा फिर पंडित आए, पीछे गरूड़ पढ़ाई।
प्रेत शिला पर जा विराजे, पित्तरों पिण्ड भराई।
बहुर श्राद्ध खाने कूं आए, काग भए कलि माहीं।
जै सतगुरू की संगति करते, सकल कर्म कटि जाई।
अमरपुरी पर आसन होता, जहाँ धूप न छांई।
शब्दार्थ: कुछ व्यक्ति मृत्यु के पश्चात् उपरोक्त क्रियाएँ तो करते ही हैं, साथ में गरूड़ पुराण का पाठ भी करते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) की वाणी में स्पष्ट किया है कि लोकवेद (दंत कथा) के आधार से ज्ञानहीन गुरूजन मृतक की आत्मा की शांति के लिए गरुड़ पुराण का पाठ करते हैं। गरुड़ पुराण में एक विशेष प्रकरण है कि जो व्यक्ति धर्म-कर्म ठीक से नहीं करता तथा पाप करके धन उपार्जन करता है, मृत्यु के उपरांत उसको यम के दूत घसीटकर ले जाते हैं। ताम्बे की धरती गर्म होती है, नंगे पैरों उसे ले जाते हैं। उसे बहुत पीड़ा देते हैं। जो शुभ कर्म करके गए होते हैं, वे स्वर्ग में हलवा-खीर आदि भोजन खाते दिखाई देते हैं। उस धर्म-कर्महीन व्यक्ति को भूख-प्यास सताती है। वह कहता है कि भूख लगी है, भोजन खाऊँगा। यमदूत उसको पीटते हैं। कहते हैं कि यह भोजन खाने के कर्म तो नहीं कर रखे। चल तुझे धर्मराज के पास ले चलते हैं। जैसा तेरे लिए आदेश होगा, वैसा ही करेंगे। धर्मराज उसके कर्मों का लेखा देखकर कहता है कि इसे नरक में डालो या प्रेत व पित्तर, वृक्ष या पशु-पक्षियों की योनि दी जाती हैं। पित्तर योनि भूत प्रजाति की श्रेष्ठ योनि है। यमलोक में भूखे-प्यासे रहते हैं। उनकी तृप्ति के लिए श्राद्ध निकालने की प्रथा शास्त्रविरूद्ध मनमाने आचरण के तहत शुरू की गई है। कहा जाता है कि एक वर्ष में जब आसौज (अश्विन) का महीना आता है तो भादवे (भाद्र) महीने की पूर्णमासी से आसौज महीने की अमावस्या तक सोलह श्राद्ध किए जाएँ। जिस तिथि को जिसके परिवार के सदस्य की मृत्यु होती है, उस दिन वर्ष में एक दिन श्राद्ध किया जाए। ब्राह्मणों को भोजन करवाया जाए। जिस कारण से यमलोक में पित्तरों के पास भोजन पहुँच जाता है। वे एक वर्ष तक तृप्त रहते हैं। कुछ भ्रमित करने वाले गुरूजन यह भी कहते हैं कि श्राद्ध के सोलह दिनों में यमराज उन पित्तरों को नीचे पृथ्वी पर आने की अनुमति देता है। पित्तर यमलोक (नरक) से आकर श्रद्ध के दिन भोजन करते हैं। हमें दिखाई नहीं देते या हम पहचान नहीं सकते। * भ्रमित करने वाले गुरूजन अपने द्वारा बताई शास्त्रविरुद्ध साधना की सत्यता के लिए इस प्रकार के उदाहरण देते हैं कि रामायण में एक प्रकरण लिखा है कि वनवास के दिनों में श्राद्ध का समय आया तो सीता जी ने भी श्रद्ध किया। भोजन खाते समय सीता जी को श्री रामचन्द्र जी पिता दशस्थ सहित रघुकुल के कई दादा-परदादा दिखाई दिए। उन्हें देखकर सीता जी को शर्म आई। इसलिए मुख पर पर्दा (घूंघट) कर लिया।
* विचार करो पाठकजनो श्री रामचन्द्र के सर्व वंशज प्रेत-पित्तर बने हैं तो अन्य सामान्य नागरिक भी वही क्रियाएँ कर रहे हैं। वे भी नरक में पित्तर बनकर पित्तरों के पास जाऐंगे। इस कारण यह शास्त्रविधि विरूद्ध साधना है जो पूरा हिन्दू समाज कर रहा है। श्रीम‌द्भगवत गीता के अध्याय 9 का श्लोक 25 भी यही कहता है कि जो पित्तर पूजा (श्राद्ध आदि) करते हैं, वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते, वे यमलोक में पित्तरों को प्राप्त होते हैं।
* जो भूत पूजा (अस्थियाँ उठाकर पुरोहित द्वारा पूजा कराकर गंगा में बहाना, तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छः माही, वर्षी आदि-आदि) करते हैं, वे प्रेत बनकर गये स्थान पर प्रेत शिला पर बैठे होते हैं।
* कुछ व्यक्तियों को धर्मराज जी कर्मानुसार पशु, पक्षी, वृक्ष आदि-आदि के शरीरों में भेज देता है।
* परमात्मा कबीर जी समझाना चाहते हैं कि हे भोले प्राणी! गरुड़ पुराण का पाठ उसे मृत्यु से पहले सुनाना चाहिए था ताकि वह परमात्मा के विधान को समझकर पाप कर्मों से बचता। पूर्ण गुरू से दीक्षा लेकर अपना मोक्ष करता। जिस कारण से वह न प्रेत बनता, न पित्तर बनता, न पशु-पक्षी आदि-आदि के शरीरों में कष्ट उठाता। मृत्यु के पश्चात् गरूड़ पुराण के पाठ का कोई लाभ नहीं मिलता।
सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) में तथा चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) तथा इन चारों वेदों के सारांश गीता में स्पष्ट किया है कि उपरोक्त आन-उपासना नहीं करनी चाहिए क्योंकि ये शास्त्रों में वर्णित न होने से मनमाना आचरण है जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ बताया है। शास्त्रोक्त साधना करने का आदेश दिया है। सर्व हिन्दू समाज उपरोक्त आन-उपासना करते हैं जिससे भक्ति की सफलता नहीं होती। जिस कारण से नरकगामी होते हैं तथा प्रेत-पित्तर, पशु-पक्षी आदि के शरीरों में महाकष्ट उठाते हैं। > दास (लेखक) का उद्देश्य किसी की साधना की आलोचना करना नहीं है, अपितु आप जी को सत्य साधना का ज्ञान करवाकर इन कष्टों से बचाना है। प्रसंग चल रहा है कि जो शास्त्रविरूद्ध साधना करते हैं, उनके साथ महाधोखा हो रहा है। बताया है कि-
1. मृतक की गति (मोक्ष) के लिए पहले तो अस्थियाँ उठाकर गुरूजी के द्वारा पूजा करवाकर गंगा दरिया में प्रवाहित की और बताया गया कि इसकी गति हो गई।
2. उसके पश्चात् तेरहवीं, सतरहीं, महीना, छः माही, वर्षी आदि-आदि क्रियाएँ उसकी गति करवाने के लिए कराई।
3. पिण्डदान किया गति करवाने के लिए।
4 . श्राद्ध करने लगे, उसे यमलोक में तृप्त करवाने के लिए।
* श्रद्धों में गुरू जी भोजन बनाकर सर्वप्रथम कुछ भोजन छत पर रखता है। कौआ उस भोजन को खाता है। पुरोहित जी कहता है कि देख! तेरा पिता कौआ बनकर भोजन खा रहा है। कौए के भोग लगाने से श्राद्ध की सफलता बताते हैं।
* परमेश्वर कबीर जी ने यही भ्रम तोड़ा है। कहा है कि आपके तत्वज्ञान नेत्रहीन (अंधे) धर्मगुरूओं ने अपने धर्म के शास्त्रों को ठीक से नहीं समझ रखा। आप जी को लोकवेद (दन्तकथा) के आधार से मनमानी साधना कराकर आप जी का जीवन नष्ट कर रहे हैं।
कबीर जी ने कहा है कि विचार करो। उपरोक्त अनेकों पूजाऐं कराई मृतक पित्ता की गति कराने के लिए, अंत में कौआ बनवाकर दम लिया। अब श्राद्धों का आनंद गुरू जी ले रहे हैं। वे गुरू जी भी नरक तथा पशु-पक्षियों की योनियों को प्राप्त होंगे। यह दास (रामपाल दास) परमात्मा कबीर जी द्वारा बताए तत्वज्ञान द्वारा समझाकर सत्य साधना शास्त्रविधि अनुसार बताकर आप तथा आपके अज्ञानी धर्मगुरूओं का कल्याण करवाने के लिए यह परमार्थ कर रहा है। मेरे अनुयाई भी इसी दलदल में फॅसे थे। इसी तत्वज्ञान को समझकर शास्त्रों में वर्णित सत्य साधना को अपनी आँखों देखकर अकर्तव्य साधना त्यागकर कर्तव्य शास्त्रोक्त साधना करके अपना तथा परिवार के जीवन को धन्य बना रहे हैं। ये दान देते हैं। फिर इन पुस्तकों को छपवाकर आप तक पहुँचाने के लिए पुस्तक बाँटने की सेवा निस्वार्थ निःशुल्क करते हैं। ये आपके हितैषी है। परंतु आप पुस्तक को ठीक से न पढ़कर इनका विरोध करते हैं, प्रचार में बाधा डालकर महापाप के भागी बनते हैं।
आप पुस्तक को पढ़ें तथा शांत मन से विचार करें तथा पुस्तकों में दिए शास्त्रों के अध्याय तथा श्लोकों का मेल करें। फिर गलत मिले तो हमें सूचित करें, आपकी शंका का समाधान किया जाएगा।
* श्राद्ध आदि-आदि शास्त्रविरूद्ध क्रियाएँ झूठे गुरूओं के कहने से करके अपना जीवन नष्ट करते हैं। यदि सतगुरू (तत्वदर्शी संत) का सत्संग सुनते, उसकी संगति करते तो सर्व पापकर्म नष्ट हो जाते। सत्य साधना करके अमर लोक यानि गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहे (शाश्वतं स्थानं) सनातन परम धाम में आप जी का आसन यानि स्थाई ठिकाना होता जहाँ कोई कष्ट नहीं। वहाँ पर परम शांति है क्योंकि वहाँ पर कभी जन्म-मृत्यु नहीं होता। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी इस सनातन परम धाम को प्राप्त करने को कहा है। उसके लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में तत्वदर्शी संतों से शास्त्रोक्त ज्ञान व साधना प्राप्त करने को कहा है। वह तत्वदर्शी संत वर्तमान (इक्कीसवीं सदी) में यह दास (रामपाल दास) है। आओ और अपना कल्याण करवाओ।
भूत पूजा तथा पित्तर पूजा क्या है? यह आप जी ने ऊपर (पहले) पढ़ा। इन पूजाओं के निषेध का प्रमाण पवित्र गीता शास्त्र के अध्याय 9 श्लोक 25 में लिखा है जो आप जी को पहले वर्णन कर दिया है कि भूत पूजा करने वाले भूत बनकर भूतों के समूह में मृत्यु उपरांत चले जाऐंगे। पित्तर पूजा करने वाले पित्तर लोक में पित्तर योनि प्राप्त करके पित्तरों के पास चले जाऐंगे। मोक्ष प्राप्त प्राणी सदा के लिए जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है। > प्रेत (भूत) पूजा तथा पित्तर पूजा उस परमेश्वर की पूजा नहीं है। इसलिए गीता शास्त्र अनुसार व्यर्थ है।
> वेदों में भूत-पूजा व पित्तर पूजा यानि श्राद्ध आदि कर्मकाण्ड को मूखों का कार्य बताया है।
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आध्यात्मिक जानकारी के लिए आप संत रामपाल जी महाराज जी के मंगलमय प्रवचन सुनिए। Sant Rampal Ji Maharaj YOUTUBE चैनल पर प्रतिदिन 7:30-8.30 बजे। संत रामपाल जी महाराज जी इस विश्व में एकमात्र पूर्ण संत हैं। आप सभी से विनम्र निवेदन है अविलंब संत रामपाल जी महाराज जी से नि:शुल्क नाम दीक्षा लें और अपना जीवन सफल बनाएं।
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seedharam · 1 year
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#आजादी_अर्थात्_गुलामी_की_जंजीरों_से_मुक्ति
✳️✳️✳️ आज आजादी का मतलब देश का प्रत्येक नागरिक अच्छी तरह से समझता हैं। हर ब्यक्ति पूर्ण स्वतंत्रता के सांथ अपने घर में,अपने समाज में,अपने राष्ट्र जीवन जीना चाहता हैं और यही प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक और मौलिक अधिकार भी हैं।
लेकिन आप सभी यह जानते हैं कि हमारा यह जीवन नश्वर हैं,काया और माया दोनों खण्ड होने वाली वस्तु हैं, अगले पल क्या क्या दुर्घटना घट जाये, कहा नहीं जा सकता हैं। यहां की हर वस्तु नाशवान हैं ऐसे में हम इस लोक को अपना लोक कैसे कहे ?
✳️✳️✳️ क्या आप जानते हैं कि हमारे शास्त्र पवित्र गीता जी में बताया गया हैं कि सतगुण,रजगुण और तमगुण ये तीनों गुण इस मृत्युलोक में मनुष्य को कर्म के बंधन में बांधने का,कर्म के जंजीरों में जकड़ने का मूल कारण हैं ।
अब आप ही बताइए कि हम ऐसे में
✓ क्या यहां स्वतंत्र हैं ?
✓ क्या हम अपने हिसाब से कर्म कर सकते हैं ?
✓ क्या यह हमारा निजधाम हो सकता हैं ?
✓ इस लोक का स्वामी कौन हैं ? क्या वह हमारे वास्तविक मालिक हैं ?
और फिर
✓ हम कौन हैं ? हमारा अपना निज स्वरूप क्या हैं ?
✓ कहां से आये हैं ?
✓ वहां हम कैसे जा सकते हैं ? कौन हमें ले जा सकता हैं ?
✓ हमारे उस निजधाम का क्या नाम हैं ? उस लोक की क्या विशेषता हैं ?
इन सभी प्रश्नों के प्रमाण के सांथ उत्तर जानने के लिए सपरिवार आज ही देखिए
साधना टीवी चैनल पर प्रसारित अनमोल सत्संग कार्यक्रम
सायं 07:30 pm.
#KabirIsGod
#santrampalji
राम नाम जाना नहीं, लागी मोटी खोर *
काया हांडी काठ की,ये न चढ़े बहोर **
धन जननी धन भूमि धन, धन नगरी धन देश l
धन करनी धन कुल धन, जहां साधु प्रवेश ll
🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳
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laweducation · 2 years
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अपराधशास्त्र क्या है, अपराधशास्त्र की परिभाषा एंव अपराधशास्त्र का महत्त्व
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अपराधशास्त्र का परिचय - सामान्य शब्दों में ऐसा शास्त्र जिसमे सभी प्रकार के अपराधों का अध्ययन किया जाता है, उसे अपराधशास्त्र कहते है| अपराधशास्त्र में अपराध और आपराधिक व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, जिसमें आपराधिक गतिविधि के कारण, परिणाम और रोकथाम शामिल होते है। अपराधशास्त्र में उन तत्वों का अध्ययन किया जाता है जो आपराधिक व्यवहार में योगदान करते हैं, जैसे -सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारक और इनके साथ साथ अपराधियों की आयु, लिंग, जाति और मानसिक स्वास्थ्य स्थिति का भी अध्ययन किया जा सकता हैं। इसमें आपराधिक न्याय प्रणाली के विभिन्न घटकों, जैसे कानून प्रवर्तन, अदालतों और सुधारों के साथ-साथ इन प्रणालियों को संचालित करने वाली नीतियों और प्रथाओं का अध्ययन भी शामिल है। अपराधशास्त्र का अर्थ एवं परिभाषा - अपराधशास्त्र को अंग्रेजी में 'criminology' कहा जाता है, यह दो शब्दों अपराध और शास्त्र से मिलकर बना है जिसका अर्थ है - ‘’वह शास्त्र या विज्ञान जिसके अन्तर्गत अपराध का अध्ययन किया जाता है’’। अपराध का अध्ययन ही इसका केंद्र बिन्दु होता है| विस्तृत अर्थों में अपराधशास्त्र उस विज्ञान को कहते है जिसमे, अपराध की व्याख्या, दण्ड व्यवस्था तथा अपराधियों की पुनः स्थापना का वैज्ञानिक अध्ययन होता है। डॉ. कैनी (Dr. Kenny) के अनुसार - "अपराधशास्त्र अपराध विज्ञान की वह शाखा है जो अपराध के कारणों, उनके विश्लेषण एवं अपराध निवारण से सम्बन्धित है।" सेलिन (Sellin) के अनुसार - "अपराधशास्त्र में मुख्यतः आचार सम्बन्धी आदर्शों का अध्ययन किया जाता है। आचार सम्बन्धी आदर्श एक ऐसा नियम है जो एक विशेष स्थिति वाले या विशेष समूह वाले व्यक्ति को किन्हीं परिस्थितियों में किसी विशेष प्रकार का व्यवहार करने से रोकता है। संकुचित अर्थों में - "अपराधशास्त्र वह अध्ययन है जो अपराध की व्याख्या करने और यह पता लगाने का प्रयास करता है कि व्यक्ति अपराधी कैसे बन जाता है। सेथना के अनुसार - "अपराधशास्त्र अपराध के अर्थ एवं उसके संघटक कारकों का अध्ययन है तथा अपराध के नाम पर चलने वाली वस्तु के कारणों एवं उपचारों का एक विश्लेषण है।' (M.J. Sethna, Society and the Criminal) अपराधशास्त्र का महत्त्व - (i) मानव शरीर एवं सम्पत्ति के विरुद्ध अपराध, सामाजिक और आर्थिक प्रकृति के अपराध, पर्यावरण एवं जल के प्रदूषण से सम्बन्धित अपराध, राज्य के विरुद्ध अपराध, श्रम और कारखाने की समस्याओं से सम्बन्धित अपराध आदि अपराध लोक के राजकोष पर भारी असर डालते हैं जिनका संयुक्त सर्वेक्षण से ही प्रत्येक वर्ग में व्यय धनराशि का पता लगाया जा सकता है जो अपराध समस्या के अध्ययन को आवश्यक बनाता है। (ii) अपराधशास्त्र की यह मूल धारणा है कि कोई भी व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता, लेकिन परिस्थितियों तथा सामाजिक परिवेश से व्यक्ति अपराधी हो जाता है। इसके अधीन अपराधी की मनोवृत्ति में सुधार करके उसे समाज में विधि का पालन करने वाला सामान्य नागरिक बनाने का प्रयास किया जाता है और इस हेतु वैयक्तिक दण्ड को साधन के रूप में अपनाया जाता है। (iii) अपराधशास्त्र का एक महत्त्व यह भी है कि इसके द्वारा सामाजिक सुरक्षा की सुदृढ़ता सुनिश्चित की जाती है जो असामाजिक तत्व तथा विधि का उल्लंघन करने वालों को सदाचारी बनाने में सहायक होती है| दण्ड का भय अपराधी को अपराध से दूर रखने के लिए शास्ति का कार्य करता है| (iv) इसके अध्ययन से समाजसेवा भी की जा सकती है। जैसे व्यावसायियों, जो सामाजिक सेवा करते हैं उनके लिए अपराधशास्त्र की जानकारी आवश्यक है। इसी प्रकार मजिस्ट्रेट, पुलिस, अधिवक्ता, कारागार अधिकारी, परिवीक्षा एवं पैराल अधिकारियों के लिए आवश्यक है कि उन्हें अपराध तथा आपराधिक व्यवहार से जुड़े सभी पहलुओं की पर्याप्त जानकारी हो जिससे व�� अपराधियों के साथ अच्छा व्यवहार कर सके| (v) अपराधशास्त्र का उद्देश्य अपराधी के व्यवहार और उसके कारणों का अध्ययन करना  है जिससे की उसमे सुधार किया जा सके तथा उन बातों या परिस्थितियों को जो व्यक्ति के आचरण को आपराधिक स्वरूप प्रदान करती हैं समाप्त किया जा सके। Read More -  अपराधशास्त्र क्या है एंव अपराधशास्त्र का महत्त्व Read the full article
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mwsnewshindi · 2 years
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साइबर सुरक्षा को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं : हिमाचल प्रदेश पुलिस शिक्षा विभाग से
साइबर सुरक्षा को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं : हिमाचल प्रदेश पुलिस शिक्षा विभाग से
आखरी अपडेट: 29 दिसंबर, 2022, 18:38 IST हिमाचल पुलिस ने शिक्षा विभाग को पत्र लिखकर स्कूली पाठ्यक्रम में डिजिटल नागरिक शास्त्र और साइबर सुरक्षा को शामिल करने का आग्रह किया है (प्रतिनिधि छवि) आजकल स्कूल जाने वाले बच्चे कम उम्र से ही कंप्यूटर और मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं और उन्हें साइबर क्राइम के बारे में जागरूक करना जरूरी हो गया है। राज्य में बढ़ते साइबर अपराध के मद्देनजर…
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telnews-in · 2 years
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TSPSC Junior Lecturer Recruitment 2022 for 1392 Post, Age, Eligibility,
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TSPSC जूनियर लेक्चरर भर्ती 2022 हिंदी, अंग्रेजी, वनस्पति विज्ञान, जूलॉजी, रसायन विज्ञान, भौतिकी, गणित, अर्थशास्त्र, इतिहास, तेलुगु, नागरिक शास्त्र रिक्ति विवरण, पात्रता, आयु, शुल्क, चयन प्रक्रिया @tspsc.gov.in। तेलंगाना राज्य लोक सेवा आयोग ने इंटरमीडिएट शिक्षा में विभिन्न विषयों के लिए TSPSC जूनियर लेक्चरर भर्ती 2022 अधिसूचना जारी की। उम्मीदवार आधिकारिक वेबसाइट से निर्धारित तिथि पर ऑनलाइन आवेदन…
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nationalnewsindia · 2 years
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vaidicphysics · 4 years
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सर्वश्रेष्ठ प्रबन्धन (Vaidic Management) ईश्वर से सीखें
(लेखक - आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक) 
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विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे इन्द्रस्य युज्यः सखा (ऋग्वेद 1.22.19) 
इस मन्त्र में उपदेश किया गया है कि वह परमपिता परमेश्वर अपनी व्यप्ति से जीवात्मा रूपी इन्द्र का मित्र है। हे मनुष्यो! उस सर्वव्यापक परमात्मा के कर्मों को देखो और समझन��� का प्रयास करो। मनुष्य इन कर्मों को देख व समझकर ही अपने व्रतों का पालन कर सकता है। यदि हम ज्ञान व भाषा की उत्पत्ति पर विचार करें, तो स्पष्ट होता है कि मनुष्येतर सभी प्राणी स्वाभाविक ज्ञान व भाषा से युक्त होते हैं। वे किसी अन्य प्राणी से न तो भाषा सीख सकते हैं और न किसी अपवाद को अतिरिक्त ज्ञान ही ले सकते हैं परन्तु मनुष्य स्वाभाविक ज्ञान व भाषा की दृष्टि से अन्य प्राणियों की अपेक्षा बहुत निर्धन है। हाँ, उसे परमात्मा ने बुद्धि अवश्य ही सबसे अधिक प्रदान की है, जिसके कारण वह सृष्टि में ईश्वरीय कर्मों एवं समाज के अपने से श्रेष्ठ जनों से जीवन भर ज्ञान लेता रहता है, नाना भाषाएं भी सीखता रहता है। जो मनुष्य इस सृष्टि को जितना अधिक गम्भीरता से समझेगा, अपने कर्म व व्यवहार का परिष्कार करने में उसे उतना ही अधिक सहयोग मिलेगा। कर्म व व्यवहार में श्रेष्ठता प्राप्त व्यक्ति अन्यों की अपेक्षा अपने व्यक्तित्व, परिवार, कार्यालय, उद्योग, कृषि, समाज, राष्ट्र वा विश्व का अधिक कुशलतापूर्वक प्रबन्धन कर सकेगा। ध्यान रहे परमात्मा से बड़ा कोई प्रबन्धक नहीं और सृष्टि से बड़ा कोई प्रबन्ध नहीं। इस कारण किसी भी क्षेत्र वा स्तर के प्रबन्धन के लिए हमें ईश्वरीय सर्वहितकारी प्रबन्धन से ही प्रेरणा लेनी चाहिये। 
यहाँ हम इस प्रकरण में इस बात को सिद्ध मानकर चलते हैं कि संसार के वैज्ञानिक प्रतिभासम्पन्न जन सृष्टि के सर्वोच्च प्रबन्धक व निर्माता परमात्मा रूपी सर्वव्यापक चेतन तत्व की सत्ता के अस्तित्व पर किंचित् भी सन्देह नहीं करते हैं। इस सन्देह के निवारण करने के प्रयत्न में लेख का विषय ही परिवर्तित हो जायेगा।
आइए, हम इस सृष्टि पर विचार करते हैं- 
यह सम्पूर्ण सृष्टि अनादि नहीं है, बल्कि इसका आदि भी है और अन्त भी। ‘सृष्टि’ शब्द का अर्थ भी यही है कि जो नाना सूक्ष्म पदार्थों के ज्ञानपूर्वक मेल से बने। इस सृष्टि का सूक्ष्म से सूक्ष्म कण, तरंग, आकाश की एक इकाई अथवा इन सबसे सूक्ष्म रश्मि आदि पदार्थ सभी कुछ इतने ज्ञानपूर्वक रचे हुए पदार्थ हैं कि करोड़ों वर्षों से पृथिवी का सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वोत्कृष्ट बुद्धिमान् माना जाने वाला मनुष्य एक भी कण को भी पूर्णतः नहीं जान पाया है। जब किसी कण को ही पूर्णतः नहीं जान सकता, तो उससे सूक्ष्म क्वाण्टा, प्राण-छन्द रश्मियां, आकाश, दिशा, काल, असुर पदार्थ आदि तथा उससे बने स्थूल पदार्थों को वह पूर्णतः कभी नहीं जान सकता और अपूर्ण जानकारी के आधार पर उनका उपयोग करेगा, तो तात्कालिक लाभ के आभास के साथ-2 दूरगामी हानि अवश्य कर बैठेगा। 
वर्तमान विज्ञान एवं तज्जनित प्रौद्योगिकी इसका ज्वलन्त उदाहरण है। आज सम्पूर्ण विश्व में जो भी वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय विकास वा प्रबन्धन देखा जा रहा है, वह मानव जाति ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र को भी क्रूर विनाश के मार्ग पर ही सतत ले जा रहा है। भोजन, वस्त्र, भवन, मृदा, जल, वायु, आकाश के साथ-2 सम्पूर्ण मनस्तत्व तक विषाक्त वा विकृत हो चुका है, अर्थात् सम्पूर्ण पर्यावरण तन्त्र क्षत-विक्षत हो चुका है। इस कारण नाना प्रकार के शारीरिक, मानसिक व आत्मिक रोग निरन्तर उत्पन्न होते जा रहे हैं। दुःख, अशान्ति, हिंसा, रोग, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, काम, क्रोध आदि का ताण्डव सम्पूर्ण विश्व से मानवता को निगलता जा रहा है। ऐसे दुष्काल में जो समाजवादी वा मानवतावादी ध्वजवाहक दिखाई दे रहे हैं, वे भी वस्तुतः समाज व मानवता को खण्ड-2 ही करते दिखाई दे रहे हैं, भले ही ऐसा अज्ञानतावश हो रहा हो। यह अज्ञानता मूलतः सृष्टि-संचालक एवं स्वयं जीवात्मा के सम्बंध में ही नहीं, अपितु सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ के विषय में भी है। हम विद्युत् को अज्ञानता में छूएं अथवा जानकर, वह हमें मारेगी ही, इस कारण अज्ञानता का बहाना हमें दुःख से नहीं बचा सकता, इसी कारण संसार की सभी कथित विधायें चाहे वह विज्ञान हो, प्रोद्योगिकी हो, व्यापार प्रबन्धन, चिकित्सा, कृषि, उद्योग, सामाजिक वा राजनैतिक अध्ययन व प्रबन्धन, मानवजाति के साथ-2 सम्पूर्ण प्राणिजगत् के लिए निरन्तर गम्भीर अनिष्ट का कारण बनते जा रहे हैं। यह सब पाश्चात्य जीवन शैली के अन्धानुकरण का भी फल है। इस कारण आज सर्वोपरि आवश्यकता इस बात की है कि हम कथित विकास व पाश्चात्य सभ्यता की अंधी दौड़ से बाहर निकलें और वेदों, ऋषियों व देवों की सनातन संस्कृति व ज्ञान-विज्ञान के प्रति जिज्ञासा व श्रद्धा का भाव जगाने के साथ-2 अपने अन्दर राष्ट्रिय स्वाभिमान एवं यथार्थ मानवता को जगाएं। 
आइए, हम सृष्टि के रचयिता विष्णु के कर्मों को देखने का प्रयास करते हैं- यह सृष्टि सबसे सूक्ष्म पदार्थ प्रकृति के विकृत होने से बनी है। प्रकृति में सर्वप्रथम ‘ओम्’ की परा वाणी की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा की जाती है। उस ‘ओम्’ के स्पन्दन से अनेक प्राण व मरुत् एवं वैदिक छन्द रश्मियों के स्पन्दन होने लगते हैं। हम अथवा संसार के मनुष्य जिन वेदों को मात्र हिन्दुओं का धर्मग्रन्थ मानते हैं, वे वेद वस्तुतः ब्रह्माण्डीय ग्रन्थ हैं। सभी वेदमन्त्र सृष्टि निर्माण के समय व इस समय उत्पन्न हो रहे स्पन्दन हैं। इन स्पन्दनों से ही आकाश, कण, क्वाण्टा आदि सभी सूक्ष्म पदार्थों एवं उनसे सभी लोक-लोकान्तरों व हमारे शरीरों व वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई है। इस कारण वेद न केवल पृथिवीस्थ मनुष्यों, अपितु सम्पूर्ण सृष्टि में जो भी मनुष्य के समान बुद्धिमान् प्राणी रहते हैं, उन सबका विद्या व धर्म का ग्रन्थ है परन्तु इसके साथ-2 उपादान रूप में सभी प्राणियों व सभी जड़ पदार्थों का कारण रूप भी है। इस सृष्टि में अनेक प्रकार की रश्मियाँ होती हैं। उनके पृथक्-2 गुण, कर्म व स्वभाव होते हैं परन्तु समानता यह होती है कि सभी एक परमात्मा के बल व ज्ञान से व एक प्रकृति पदार्थ से उत्पन्न होती हैं। हम सभी विष्णु के इस कर्म से यह सीखें कि हम सब संसार के न केवल मनुष्य, अपितु सभी प्राणी एक ईश्वर की सन्तान हैं तथा हम सबके शरीर एक ही पदार्थ प्रकृति से बने हैं, इसके साथ ही हम सबके शरीरों में वेद मंत्र ही पश्यन्ती वा परावस्था में निरन्तर गूँज रहे हैं। अतः हम सभी प्राणी परस्पर भाई-भाई के समान एक परिवार के सदस्य हैं। कोई छोटा व बड़ा नहीं है। इसी कारण वेद ने कहा-
‘समानी प्रपा सह वोऽन्नभागः’ (अथर्ववेद 3.30.6)
अर्थात् हमारे पेय व भोज्य पदार्थ समान हों, अर्थात् स्वास्थ्यवर्धक भोजन पर सबका समान अधिकार होना चाहिए। वर्तमान प्रबन्धन में इसका कोई विचार नहीं है।  
इसके  कारण  हम  जहाँ  व  जिस  भी  रूप  हों,  विकास  व  प्रबन्धन  की  जो  भी  योजना  बनाएं,  वे  योजना सर्वहितकारिणी ही होनी चाहिए। यदि हमारा विकास किसी भी प्राणी के हितों के प्रतिकूल होगा, तब उसे विकास नहीं कह सकते, क्योंकि वह किसी के विनाश का कारण भी होगा। इसी कारण महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के छठे नियम में संसार का उपकार करना अर्थात् शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करना प्रमुख उद्देश्य बताया तथा ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ नामक ग्रन्थ में विज्ञान का मुक्चय लक्षण सृष्टि एवं सृष्टा को ठीक-2 जानकर सभी प्राणियों का हित साधना बताया है। विज्ञान व वैज्ञानिक का ऐसा लक्षण किसी भी विचारक के मन में आया ही नहीं। ऋषि दयानन्द जी की इस परिभाषा से विचार करें, तो इस भूमण्डल पर कहीं भी विज्ञान दिखाई नहीं देता। 
इस कारण प्रत्येक समर्थ मनुष्य का अनिवार्य कर्तव्य है कि वह सदैव निर्बलों के उपकार में तत्पर रहे। वह अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहकर सबकी उन्नति में ही अपनी उन्नति सम���े, यही ऋषि दयानन्द ने कहा है।  अब जरा सृष्टि पर विचार करें, तो इसका प्रत्येक पदार्थ अपने लिये नहीं, बल्कि जीवों की भलाई के लिए बना है। 
इस सृष्टि में विष्णु का दूसरा कर्म यह दिखाई देता है कि प्रत्येक पदार्थ निरन्तर कर्मशील है। हम जिन पदार्थों को स्थिर समझते हैं, वे वस्तुतः कभी भी स्थिर नहीं रहते, बल्कि सतत गतिशील रहते हैं, उनके अवयव और अधिक गतिशील रहते हैं। वर्तमान विज्ञान भी इससे कभी नहीं नकार सकता। वैदिक पद ‘जगत्’ तो स्वयं स्पष्ट कर रहा है कि जो निरन्तर गमन करता है, उसे ‘जगत्’ कहते हैं, उसे संसार भी कहते हैं। वह कभी भी विश्राम नहीं करता, आलस्य व प्रमाद नहीं करता। इसीलिए वेद ने कहा है- 
‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्’ (यजुर्वेद 40.2)
अर्थात् प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह शुभ कर्म करते हुए ही जीने की इच्छा करे। इससे यह अर्थ भी स्वतः प्रकट होता है कि आज मानव की, विशेषकर भारतीयों की यह प्रवृत्ति हो गयी है कि बिना श्रम के अधिक सम्पदा पाना चाहता है। इसके लिये वह अपनी मय्र्यादाओं का अतिक्रमण करके परद्रव्य का हरण करने का प्रयत्न करता है, तो कोई निष्क्रिय व आलसी होकर दुःखी जीवन व्यतीत करने को विवश होता है, तो कोई इसे ही अपना भाग्य मान बैठता है। किसी भी राष्ट्र के लिये उसके नागरिकों की यह प्रवृत्ति बहुत घातक होती है। आज हमारे देश में हड़ताल, प्रदर्शन, धरने, तोड़-फोड़ आदि जो भी देखा जा रहा है वा देखा जाता रहा है, उसका एक बड़ा कारण शासन की कुछ भूलों के अतिरिक्त नागरिकों की यह प्रवृत्ति भी है। यह प्रवृत्ति न केवल भारत में, अपितु सम्पूर्ण विश्व में अशान्ति वा निर्धनता का एक बड़ा कारण बनी हुई है। इसलिए प्रत्येक राष्ट्र-हितैषी नागरिक का कर्तव्य है कि वह पुरुषार्थी बने और अपने अपने पुरुषार्थ पर ही विश्वास करे, बिना श्रम कोई भी सुविधा पाने की स्वप्न में भी इच्छा न करे, क्योंकि ऐसा करना शास्त्र की दृष्टि में चोरी ही है। ध्यान रहे, पुरुषार्थ का कोई विकल्प नहीं है। 
इसके पश्चात् विष्णु का तृतीय कर्म यह देखा जाता है कि सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों के साथ संगतिकरण करते हुए ही अपना कर्म करता है, न कि किसी को नष्ट करके अपना लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। प्रत्येक रश्मि का अन्य रश्मियों के साथ पूर्ण समन्वय व संगतिकरण होता है, प्रत्येक मूलकण व क्वाण्टा का अन्य कणों व क्वाण्टा के साथ संगतिकरण वा समन्वय होता है। यदि यह समन्वय विकृत हो जाये वा नष्ट हो जाये, तो सम्पूर्ण सृष्टि पर संकट आ सकता है। किसी एटम में एक इलेक्ट्राॅन ही इधर उधर हो जाये, तो एटम का स्वरूप ही परिवर्तित हो जाता है। शरीर में मस्तिष्क के साथ शरीर के अन्य अंगों का समन्वय नहीं रहे, तो क्या होगा? सभी जानते हैं। सृष्टि के इस कर्म को देखकर प्रत्येक मानव का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक मनुष्य ही नहीं, अपितु प्रत्येक प्राणी के साथ समन्वय व संगतिकरण करके ही जीवन जीए अर्थात् ‘जीओ और जीने दो’ की सनातन परम्परा, जो ‘अहिंसा परमोधर्मः’ (महाभारत) एवं ‘मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे’ (यजुर्वेद 36.18) के आदर्शों पर टिकी है, को निरन्तर पल्लवित करता रहे। आज संसार भर में यह कर्म कहीं देखा नहीं जा रहा है। अधिकांश व्यक्ति स्वार्थी एवं भोगवादी प्रवृत्ति में जीते रहकर दूसरों को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं। धनी निर्धन का, ज्ञानी अज्ञानी का, बलवान् निर्बल का शोषण कर रहा है। देश व संसार की अधिकांश सम्पत्ति मात्र कुछ पूंजीपतियों के हाथ में सिमट चुकी है। वे पूंजीपति अपनी तृष्णा को निरन्तर बढ़ाते ही जा रहे हैं। राजसत्ताएं भी इन पूंजीपतियों के हाथों की कठपुतली मात्र बन गयी हैं। करोड़ों बच्चे भूखे व नंगे फुटपाथों वा झुग्गी झोंपडियों में अभिशप्त जीवन जीने को विवश हैं। इससे वर्गसंघर्ष, हिंसा, प्रतिशोध व अराजकता का वातावरण बनता जा रहा है, ऐसे में न तो हमारे देश का भविष्य सुरक्षित दिखाई दे रहा है और न विश्व का।  निर्धनता व धनसम्पन्नता के मध्य बहुत अधिक बढ़ती दूरी किसी भी राष्ट्र के लिए अत्यन्त घातक है। किसी राष्ट्र वा समाज अथवा संस्थान में ऐसा कोई प्रबन्धन कभी कल्याणकारक नहीं हो सकता, जहाँ उच्च व निम्र वर्ग की आय में बहुत अधिक भिन्नता होती है। सर्वहितकारिणी व्यवस्था हम ईश्वरीय कर्मों से ही सीख सकते हैं। जरा विचार करें कि यदि हमारे शरीर में शरीर के किसी अंग में आवश्यकता से अधिक रक्त पहुँचे और किन्हीं अंगों में रक्त प्रवाह कम होवे, तब सम्पूर्ण शरीर ही रोगी हो जायेगा, जिसमें न्यून रक्त वाला अंग तो रुग्ण होगा ही, अधिक रक्त वाला अंग भी रुग्ण होगा। आज देश व विश्व भी ऐसा रुग्ण हो चुका है, जहाँ आज दुर्बल व निर्धन दुःखी हैं, भयाक्रान्त हैं, तो भविष्य में धनी व बलवान् भी दुःखी होने को विवश होंगे, विश्व अराजकता, आतंकवाद व नक्सलवाद वैसी समस्याओं से त्रस्त हो उठेगा। यदि कोई तन्त्र दुर्बलों को दबा कर अराजकता को रोकना चाहेगा, तो इसका परिणाम और अधिक भीषण होगा, जो ईश्वरीय व्यवस्था ही करेगी।  
सृष्टि में ईश्वर का एक अन्य कर्म यह देखा जाता है कि प्रत्येक पदार्थ अपनी योग्यता के अनुसार ही कार्य में नियुक्त होता है। कोई अपने से श्रेष्ठ का स्थान लेने के लिए न तो संघर्ष करता है और न उसे वह स्थान मिलता ही है। सम्पूर्ण सृष्टि में न तो किसी को वरीयता प्रदान की जाती है और न किसी की उपेक्षा ही होती है। हाँ, यह अवश्य है कि जब कुछ छन्द रश्मियाँ कार्य करते-2 दुर्बल हो जाती हैं, तो उन्हें पृथक् करके पुनः सबल होने पर कार्य में नियुक्त किया जाता है। कुछ छन्द रश्मियाँ दुर्बल रश्मियों को बल भी प्रदान करती हैं। विष्णु के इस कर्म से शासन को सीखना चाहिए कि कथित जाति, सम्प्रदाय, भाषा, लिंग, क्षेत्र, रंग आदि के नाम पर न तो किसी को वरीयता दे और न किसी का तिरस्कार करे और न ही कोई ऐसे पक्षपात की मांग कर सके। हाँ, दुर्बल को प्रोत्साहित अवश्य किया जाये, उसे योग्य बनाने का उचित व न्यायसंगत अवसर अवश्य प्रदान किया जाये परन्तु बिना योग्यता के अधिकार कदापि नहीं  दिया जाये। आज हमारे देश में सृष्टि विरुद्ध ऐसा अनाचार व्यापक रूप से हो रहा है। न शासन को इसका ज्ञान है और न प्रजा को, सर्वत्र अन्धकार व स्वार्थ का ही साम्राज्य दिखाई देता है। 
ईश्वरीय सृष्टि में अगला कर्म यह दिखाई देता है कि कभी-2 असुर रश्मियाँ वा असुर पदार्थ, जिसकी वर्तमान विज्ञान के डार्क मैटर वा डार्क एनर्जी से पूर्णतः तुलना नहीं कर सकते हैं, किन्हीं कणों के संयोग में बाधा पहुँचाते हैं, उस समय इन्द्र नामक तीक्ष्ण विद्युत् तरंगें उन असुर पदार्थों को नष्ट कर देती हैं। इसी प्रकार राज प्रबन्धकों का अनिवार्य कर्तव्य है कि जब कभी समाजकण्टक वा राष्ट्रविरोधी तत्त्व अराजकता उत्पन्न करें, दुर्बलों का शोषण करें, तब उन्हें न्याययुक्त बलपूर्वक नष्ट कर दें, क्योंकि अराजक राष्ट्र में कोई सुखी नहीं रह सकता। समाज का सुसंगठित रहना अत्यावश्यक है। इसी प्रकार अकर्मण्य व भ्रष्ट राजा हो वा प्रजा, सबको अपराध के अनुसार अवश्य दण्डित करें, अन्यथा उसके कारण सम्पूर्ण व्यवस्था चरमरा जायेगी। हाँ, इतना अवश्य है कि दण्ड देते समय भी मानवीय मूल्यों का त्याग कभी नहीं करना चाहिए और निरपराध को कभी भी दण्ड नहीं देना चाहिए। न्यायार्थ दण्ड किसी भी राष्ट्र व समाज के लिए अनिवार्य है। इसे भगवान् मनु ने इस प्रकार कहा है- 
‘दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। (मनु. 7.18) 
दण्ड व्यवस्था के वि��य में भगवान् मनु का यह भी कथन है कि जो जितना अधिक प्रबुद्ध वा समर्थ हो, उसे समान अपराध करने पर भी अशिक्षित व निर्बल की अपेक्षा अधिक दण्ड दिया जाये। उन्होंने स्पष्ट किया है कि किसी श्रमिक की अपेक्षा सामान्य व्यापारी, पशुपालक वा कृषक को समान अपराध करने पर दो गुना दण्ड, सुरक्षा वा प्रशासनिक अधिकारी को चार गुना, धर्माचार्य वा शिक्षाविद् को आठ से लेकर सोलह गुना, मंत्री वा बड़े नेताओं को एक सौ गुना तथा राजा अर्थात् वर्तमान व्यवस्था में मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री वा राष्ट्रपति को एक सौ पच्चीस गुना दण्ड देना चाहिए। आज विश्व में बड़े-बड़े उद्योगपति किसी भी प्रकार इनसे न्यून सामर्थ्य वाले नहीं होते, इस कारण उन्हें भी इतना दण्ड देना चाहिए। ईश्वर की सृष्टि में भी हल्के पदार्थ को उठाने, फैंकने वा नियन्त्रित करने में न्यून बल तथा विशाल लोकों को प्रक्षिप्त करने में बहुत अधिक बल की आवश्यकता होती है, यह कर्म भी हमें मनुनिर्दिष्ट वेदोक्त दण्ड व्यवस्था पर चलने का संकेत करता है। वर्तमान प्रबन्धन में इसका विपरीत देखा जाता है, जो सृष्टिविज्ञान अर्थात् ईश्वर के विरुद्ध होने से अपराध है, जिसका कभी सुफल प्राप्त नहीं हो सकता। हाँ, कुफल अवश्य भोगना पड़ता है और हम भोग भी रहे हैं। 
इस प्रकार हम सृष्टि रचयिता परमात्मा के कर्मों को देखकर अपने कर्मों का सुधार करें, ईश्वर को अपना आदर्श मानें, यही वास्तविक ईश्वर पूजा है। बाह्य-आडम्बरों से ईश्वर पूजा का कोई सम्बंध नहीं है। जिस प्रकार ईश्वर सम्पूर्ण सृष्टि का न्याययुक्त सर्वहित में प्रबन्धन करता है, उसी प्रकार हम भी अपने परिवार, उद्योग, व्यापार, कार्यालय, समाज, राष्ट्र वा विश्व का प्रबन्धन करें। ध्यान रहे, ईश्वर से बड़ा हमारा न कोई गुरु हो सकता है और न मार्ग-दर्शक माता-पिता। उससे बड़ा तो क्या, उसके समकक्ष भी कभी कोई प्रबन्धक राजा नहीं हो सकता। जैसे सृष्टि का प्रबन्धक न्यायकारी होने के साथ दयालु भी है, उसी प्रकार किसी भी प्रबन्धक को चाहिए कि अपने प्रबन्धन में रहने वालों के साथ दया व न्याय से युक्त व्यवहार ही सदैव करे। 
यही वास्तविक प्रबन्धन है, जो हमें सृष्टि से ही सीखना चाहिए, न कि सृष्टिविद्या से अनभिज्ञ पाश्चात्य शैली के प्रबन्धक गुरुओं से। जब तक अय्र्यावर्त (भारत) में वेदानुकूल अर्थात् सृष्टिविद्या के अनुकूल प्रबन्धन था, शासन था, तब तक यह हमारा देश सुखी, समृद्ध, सशक्त, जगद्गुरु व चक्रवर्ती राष्ट्र रहा। वह अपने बल से नहीं, बल्कि चरित्र व विज्ञान से ही सबका मार्गदर्शक था। यदि हम पुनः प्राचीन वैदिक आदर्शों पर चलने लगें, तो फिर से हमारा राष्ट्र उसी शिखर पर पहुँच सकता है।
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ncertsolutionsbook · 6 years
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NCERT Solutions for Class 7 Social Science (Hindi Medium)
NCERT Solutions for Class 7 Social Science 
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NCERT Solutions for Class 7 Social Science History: Our Pasts - II (इकाई 1: इतिहास - हमारे अतीत - II)
Chapter 1 Tracing Changes through a Thousand Years (हज़ार वर्षों के दौरान हुए परिवर्तनों की पड़ताल)
Chapter 2 New Kings and Kingdoms (नए राजा और उनके राज्य)
Chapter 3 The Delhi Sultans (दिल्ली के सुलतान)
NCERT Solutions for Class 7 Social Science Geography: Our Environment (इकाई 2: भूगोल - हमारा पर्यावरण)
Chapter 1 Environment (पर्यावरण)
Chapter 2 Inside our Earth (हमारी पृथ्वी के अन्दर)
Chapter 3 Our Changing Earth (हमारी बदलती पृथ्वी)
Chapter 4 Air (वायु)
NCERT Solutions for Class 7 Social Science Civics: Social & Political Life - II (इकाई 3: नागरिक शास्त्र-सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन - II)
Chapter 1 On Equality (समानता)
Chapter 2 Role of the Government in Health (स्वास्थ्य में सरकार की भूमिका)
Chapter 3 How the State Government Works (राज्य शासन कैसे काम करता है)
Chapter 4 Growing up as Boys and Girls (लड़के और लड़कियों के रूप में बड़ा होना)
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samvadprakriya · 2 years
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श्री धर्मेंद्र प्रधान तंजावुर में शास्त्र विश्वविद्यालय के 36वें दीक्षांत समारोह में शामिल हुए
श्री धर्मेंद्र प्रधान तंजावुर में शास्त्र विश्वविद्यालय के 36वें दीक्षांत समारोह में शामिल हुए
श्री धर्मेंद्र प्रधान ने वैश्विक नागरिक तैयार करने के लिए सभी भारतीय भाषाओं और भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर जोर देने का आह्वान किया केंद्रीय शिक्षा एवं कौशल विकास मंत्री श्री धर्मेंद्र प्रधान आज तंजावुर में शास्त्र विश्वविद्यालय के 36वें दीक्षांत समारोह में शामिल हुए। सूचना एवं प्रसारण, मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी राज्य मंत्री श्री एल. मुरुगन ने भी इस कार्यक्रम में भाग लिया।     उपस्थित लोगों को…
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baba85 · 2 years
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आजादी का अमृत महोत्सव के अंतर्गत हर घर तिरंगा कार्यक्रम की शुरुआत
आजादी का अमृत महोत्सव के अंतर्गत हर घर तिरंगा कार्यक्रम की शुरुआत
उच्च प्राथमिक विद्यालय परसिया आलम में कार्यशाला का आयोजन। कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक नागरिक के मन में राष्ट्रप्रेम भावना को जागृत करना : नवल किशोर पाठक शास्त्र तिवारी ब्यूरो पयागपुर/बहराइच – आजादी का अमृत महोत्सव के अंतर्गत “हर घर तिरंगा”कार्यक्रम के तहत उच्च प्राथमिक विद्यालय परसिया आलम पयागपुर बहराइच में कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसके तहत क्लास 5,6, 7 व 8 के छात्र – छात्रा ने…
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sharpbharat · 3 years
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Jamshedpur : राज्यपाल रमेश बैस से मिले नगर के ज्योतिषाचार्य राजेश पाठक, ज्योतिष शास्त्र पर की चर्चा
Jamshedpur : राज्यपाल रमेश बैस से मिले नगर के ज्योतिषाचार्य राजेश पाठक, ज्योतिष शास्त्र पर की चर्चा
जमशेदपुर : जमशेदपुर के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य पंडित राजेश पाठक पिछले दिनों कोल्हान के पूर्व डीआईजी राजीव रंजन सिंह के बेटे के विवाह समारोह रांची में शामिल हुए। इस अवसर पर वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी राजीव रंजन सिंह को शुभकामनाएं दी व वर वधू को आशीर्वाद दिया। इस दौरान झारखंड ���े प्रथम नागरिक, राज्यपाल रमेश बैस से भी श्री पाठक मिले। उन्होंने अपने व्यक्तित्व के अनुसार हाल जाना। इसके उपरांत आशीर्वाद भी…
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pushkar63929 · 3 years
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➡️ शास्त्र विरूद्ध साधना व्यर्थ है।
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🤔✍एक समय काशी नगर (बनारस) में गंगा दरिया के घाट पर कुछ पंडित जी श्राद्धों के दिनों में अपने पितरों को जल दान करने के उद्देश्य से गंगा के जल का लोटा भरकर पटरी पर खड़े होकर सुबह के समय सूर्य की ओर मुख करके पृथ्वी पर लोटे वाला जल गिरा रहे थे।
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परमात्मा कबीर जी ने यह सब देखा तो जानना चाहा कि आप यह किस उद्देश्य से कर रहे हैं?
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पंडितों ने बताया कि हम अपने पूर्वजों को जो पितृ बनकर स्वर्ग में निवास कर रहे हैं, जल दान कर रहे हैं। यह जल हमारे पितरों को प्राप्त हो जाएगा।
यह सुनकर परमेश्वर कबीर जी उन अंध श्रद्धा भक्ति करने वालों का अंधविश्वास समाप्त करने के लिए उसी गंगा दरिया में घुटनों पानी खड़ा होकर दोनों हाथों से गंगा दरिया का जल सूर्य की ओर पटरी पर शीघ्र-शीघ्र फैंकने लगे उनको ऐसा करते देखकर सैंकड़ों पंडित तथा नागरिक इकट्ठे हो गए।
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पंडितों ने पूछा कि आप यह कौन-सी कर्मकाण्ड की क्रिया कर रहे हो? इससे क्या लाभ होगा?
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कबीर जी ने उत्तर दिया कि यहाँ से एक मील दूर मेरी कुटी के आगे मैंने एक बगीची लगा रखी है। उसकी सिंचाई के लिए क्रिया कर रहा हूँ। यह जल मेरी बगीची की सिंचाई कर रहा है। यह सुनकर सर्व पंडित हँसने लगे और बोले कि यह कभी संभव नहीं हो सकता। एक मील दूर यह जल कैसे जाएगा? कबीर जी ने कहा कि यदि आपके द्वारा गिराया जल करोड़ों मील दूर स्वर्ग में जा सकता है तो मेरे द्वारा गिराए जल को एक मील जाने पर कौन-सी आश्चर्य की बात है।
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यह बात सुनकर पंडित जी समझ गए कि हमारी क्रियाऐं व्यर्थ हैं। कबीर जी ने एक घण्टा खड़े होकर कर्मकाण्ड यानि श्राद्ध व अन्य क्रियाओं पर सटीक तर्क दिया।
कहा कि आप एक ओर तो कह रहे हो कि आपके पितर स्वर्ग में हैं। दूसरी ओर कह रहे हो, उनको पीने का पानी नहीं मिल रहा। वे वहाँ प्यासे हैं। यदि स्वर्ग में पीने के पानी का ही अभाव है तो उसे स्वर्ग नहीं कह सकते। वह तो रेगिस्तान होगा। वास्तव में वे पितृगण यमराज के आधीन यमलोक रूपी कारागार में अपराधी बनाकर डाले जाते हैं। वहाँ पर जो निर्धारित आहार है, वह सबको दिया जाता है। जब पृथ्वी पर बनी कारागार में कोई भी कैदी खाने बिना नहीं रहता। सबको खाना-पानी मिलता है तो यमलोक वाली कारागार जो निरंजन (ॐ) काल राजा ने बनाई है, उसमें भी भोजन-पानी का अभाव नहीं है।
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जीवित बाप से लट्ठम-लठ्ठा , मूवे गंग पहुँचईयाँ ।
जब आवै आसौज महीना , कौवा बाप बणईयाँ
रे भोली सी दूनियाँ गुरु बिन कैसे सरिया!
💓🙏सत साहेब जी🙏💓
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sphhindi · 3 years
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श्रीकैलाश राष्ट्र के संविधान का पहला संशोधन:
प्रत्येक नागरिक को स्वयं को परमशिव के रूप में बोध करने का अधिकार है। प्रत्येक के साथ  परमशिव की तरह व्यवहार करना चाहिए और दूसरों को परमशिव के रूप में माना जाना चाहिए।
महावाक्य - शास्त्र प्रमाण के अनुसार 1. ऐतरेय उपनिषद् 3.3 प्रज्ञानम् ब्रह्म चेतना ही परमशिव है ! 2.छान्दोग्योपनिषद् 6.8.7 तत्त्वमसि आपही वह परमशिव हैं! 3. बृहदारण्यक उपनिषद | 1.4.10 अहं ब्रह्मस्मि | मै ही ब्रम्ह हूं ! 4. माण्डूक्य उपनिषद | 1.2 अयं आत्मब्रह्म | मैं आत्मब्रह्म हूँ ! 5. सोमशम्भुपद्धति |  श्लोक 35
शिवोहमादिसर्वज्ञो मम यज्ञे प्रधानता। अत्यर्थ भावयेदेवं ज्ञानखड़करो गुरुः ।।
शिवोहं = शिव अहम् = मैं शिव हूँ !
6. सूर्योपनिषत् | सूर्य आत्मा जगतस्थस्थुशंका: सूर्य भगवान वह आत्मा है जो चेतन और निर्जीव दोनों संसार पर राज करते हैं !
हंसः सोऽहमग्निनारायणयुक्तं बीजम् | इस सूर्य उपनिषद में सोहम, बीज में से एक होने के नाते 'मैं वही हूँ' की घोषणा करते हैं!
7. तैत्तरीय संहिता यजुर्वेद : नारायण परो ध्याता ध्यानं नारायणः परः | जो व्यक्ति नारायण का ध्यान कर रहा है वह वास्तव में नारायण ही है !
8. कामिक आगम | श्लोक 112
समचम्य शुचिर्भूतो सकलीकृतः विग्रहः |
पूजा से पहले उसे सकलीकरण के माध्यम से परमशिव का रूप धारण करना चाहिए !
9. तैत्तरीय उपनिषद |
हा 3 वु॒ हा 3 वु॒ हा 3 वू अ॒हमन्नम॒हमन्नम॒हमन्नम्
हे अद्भुत! मैं भोजन हूँ! इस उपनिषद में, ऋषि भृगु इस अनुभूति के साथ प्रारंभ करते हैं कि भोजन ब्रह्म है। उन्हें वरुण द्वारा आत्मज्ञान की ओर ले जाया जाता है। ज्ञान प्राप्ति पर, ऋषि भृगु को ज्ञात होता है कि वह वास्तव में भोजन हैं (ब्रह्म के रूप में स्वंय का बोध किया) !
10. ईषा उपनिषद |  श्लोक 16
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोहमस्मि | यह श्लोक सोहमस्मि के साथ समाप्त होता है - मैं वही हूं !
परमशिवोहं परमशिवोहं परमशिवोहं !
आप परमशिव हैं आप परमशिव हैं आप परमशिव हैं !
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indianpride · 3 years
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पाराशर ऋषि द्वारा लिखित विमानन शस्त्र जिसे जानने को अमेरिका बैताब--------
प्राचीन भारतीय विमान शास्त्र : सनातन वैदिक विज्ञान का अप्रतिम स्वरूप :
हिंदू वैदिक ग्रंथोँ एवं प्राचीन मनीषी साहित्योँ मेँ वायुवेग से उड़ने वाले विमानोँ (हवाई जहाज़ोँ) का वर्णन है, सेकुलरोँ के लिए ये कपोल कल्पित कथाएं हो सकती हैँ, परन्तु धर्मभ्रष्ट लोगोँ की बातोँ पर ध्यान ना देते हुए हम तथ्योँ को विस्तार देते हैँ।ब्रह्मा का १ दिन, पृथ्वी पर हमारे वर्षोँ के ४,३२,००००००० दिनोँ के बराबर है। और यही १ ब्रह्म दिन चारोँ युगोँ मेँ विभाजित है यानि, सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं वर्तमान मेँ कलियुग।
सतयुग की आयु १,७२,८००० वर्ष निर्धारित है, इसी प्रकार १,००० चक्रोँ के सापेक्ष त्रेता और कलियुग की आयु भी निर्धारित की गई है।
सतयुग मेँ प्राणी एवं जीवधारी वर्तमान से बेहद लंबा एवं जटिल जीवन जीते थे, क्रमशः त्रेता एवं द्वापर से कलियुग आयु कम होती गई और सत्य का प्रसार घटने लगा,
उस समय के व्यक्तियोँ की आयु लम्बी एवं सत्य का अधिक प्रभाव होने के कारण उनमेँ आध्यात्मिक समझ एवं रहस्यमयी शक्तियां विकसित हुई, और उस समय के व्यक्तियोँ ने जिन वैज्ञानिक रचनाओँ को बनाया उनमेँ से एक थी "वैमानिकी"।
उस समय की मांग के अनुसार विभिन्न विमान विकसित किए गए, जिन्हेँ भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओँ के आदेश पर यक्षोँ (जिन्हेँ इंजीनियर कह सकते हैँ) ने बनाया था,
ये विमान प्राकृतिक डिज़ाइन से बनाए जाते थे, इनमेँ पक्षियोँ के परोँ जैसी संरचनाओँ का प्रयोग जाता था, इसके पश्चात् के विमान, वैदिक ज्ञान के प्रकांड संतएवं म��ीषियोँ द्वारा निर्मित किए गए, तीनोँ युगोँ के अनुरूप विमानोँ केभी अलग अलग प्रकार होते थे,
प्रथम युग सतयुग मेँ विमान मंत्र शक्ति से उड़ा करते थे, द्वितीय युग त्रेता मेँ मंत्र एवं तंत्र की सम्मिलित शक्ति का प्रयोग होता था, तृतीय युग द्वापर मेँ मंत्र-तंत्र-यंत्र तीनोँ की सामूहिक ऊर्जा से विमान उड़ा करते थे, वर्तमान मेँ अर्थात् कलियुग मेँ मंत्र एवं तंत्र के ज्ञान की अथाह कमी है, अतः आज के विमान सिर्फ यंत्र (मैकेनिकल) शक्ति से उड़ा करते हैँ,
युगोँ के अनुरूप हमेँ विमानोँ के प्रकारोँ की संख्या ज्ञात है, सतयुग मेँ मंत्रिका विमानोँ के २६ प्रकार (मॉडल) थे, त्रेता मेँ तंत्रिका विमानोँ के ५६ प्रकार थे, तथा द्वापर मेँ कृतिका (सम्मिलित) विमानोँ के भी २६ प्रकार थे,
हालांकि आकार और निर्माण के संबंध मेँ इनमेँ आपस मेँ कोई अंतर नहीँ हैँ।
महान भारतीय आचार्य महर्षि भारद्वाज ने एक ग्रंथ रचा, जिसका नाम है, "विमानिका" या "विमानिका शास्त्र"
१८७५ ईसवीँ में दक्षिण भारत के एक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की एक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से ४०० वर्ष पूर्व का बताया जाता है, इस ग्रंथ का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के ९७ अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा २० ऐसी कृतियों का वर्णन है ��ो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियां अब लुप्त हो चुकी हैं। कई कृतियोँ को तो विधर्मियोँ ने नालंदा विश्वविद्यालय मेँ जला दिया,
इस महान ग्रंथ मेँ विभिन्न प्रकार के विमान, हवाई जहाज एवं उड़न-खटोले बनाने की विधियाँ दी गई हैँ, तथा विमान और उसके कलपुर्जे तथा ईंधन के प्रयोग तथा निर्माण की विधियोँ का भी सचित्र वर्णन किया गया है, उन्होँने अपने विमानोँ मेँ ईंधन या नोदक अथवा प्रणोदन (प्रोपेलेँट) के रूप मेँ पारे (मर्करी Hg) का प्रयोग किया।
बहुत कम लोग जानते हैँ कि कलियुग का पहला विमान राइट ब्रदर्स ने नहीँ बनाया था, पहला विमान १८९५ ई. में मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे, ने अपनी पत्नी (जो स्वयं भी संस्कृत की विदुषा थीं) की सहायता से बनाया एवं उड़ाया था। उन्होँने एक मरुत्सखा प्रकार के विमान का निर्माण किया। इसकी उड़ान का प्रदर्शन तलपड़े ने मुंबई चौपाटी पर तत्कालीन बड़ौदा नरेश सर शिवाजी राव गायकवाड़ और बम्बई के प्रमुख नागरिक लालजी नारायण के सामने किया था। विमान १५०० फुट की ऊंचाई तक उड़ा और फिर अपने आप नीचे उतर आया। बताया जाता है कि इस विमान में एक ऐसा यंत्र लगा था, जिससे एक निश्चित ऊंचाई के बाद उसका ऊपर उठना बन्द हो जाता था। इस विमान को उन्होंने महादेव गोविन्द रानडे को भी दिखाया था।
दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर, १९१८ ईँसवी को उनका देहावसान हो गया।
राइट ब्रदर्स के काफी पहले वायुयान निर्माण कर उसे उड़ाकर दिखा देने वाले तलपड़े महोदय को आधुनिक विश्व का प्रथम विमान निर्माता होने की मान्यता देश के स्वाधीन (?) हो जाने के इतने वर्षों बाद भी नहीं दिलाई जा सकी, यह निश्चय ही अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। और इससे भी कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पाठ्य-पुस्तकों में शिवकर बापूजी तलपड़े के बजाय राइटब्रदर्स (राइट बन्धुओं) को ही अब भी प्रथम विमान निर्माता होने का श्रेय दिया जा रहा है, जो नितान्त असत्य है।
"समरांगन:-सूत्र धारा" नामक भारतीय ग्रंथ मेँ भी विमान निर्माण संबंधी जानकारी है। इस ग्रंथ मेँ युद्ध के समय वैमानिक मशीनोँ के प्रयोग का वर्णन है, इस ग्रंथ मेँ संस्कृत के २३० श्लोक हैँ, स्थान की कमी के कारण हम यहाँ इस ग्रंथ के पूरे श्लोक नहीँ लिख रहे हैँ, अन्यथा लेख लंबा हो जाएगा।
परन्तु हम इस ग्रंथ के १९० वेँ श्लोक का अनुवाद अवश्य कर रहे हैँ :-
"[२:२० . १९०] परिपत्रोँ से पूर्ण विमान के दाहिने पंख से अंदर जाते हुए केंद्र पर ध्वनि की गति से पारे को ईँधन के सापेक्ष पहुँचाने पर एक छोटी पर अधिक दबाव वाली आंतरिक ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो आपके यंत्र को आकाश मेँ शनैः शनैः ले जाएगी, जिससे यंत्र के अंदर बैठा व्यक्ति अविस्मरणीय तरीके से नभ की यात्रा करेगा, चार कठोर धातु से बने पारे के पात्रोँ का संयोजन उचित स्थिति मेँ किया जाना चाहिए, एवं उन्हेँ नियंत्रित तरीके से ऊष्मा देनी चाहिए, ऐसा करने से आपका विमान आकाश मेँ चमकीले मोती के समान उड़ता नज़र आएगा।।"
इस ग्रंथ के एक गद्य का अनुवाद इस प्रकार है -
"सर्वप्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। तत्पश्चात अन्य विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-
(१) रुकमा – रुकमा नुकीले आकार के और स्वर्ण रंग के विमान थे।
(२) सुन्दरः –सुन्दर: त्रिकोण के आकार के तथा रजत (चाँदी) युक्त विमान थे।
(३) त्रिपुरः – त्रिपुरः तीन तल वाले शंक्वाकार विमान थे।
(४) शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था। तथा ये अंतर्राक्षीय विमान थे।
दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का प्रशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुर्ज़े, उपकरण, चालकों एवं यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये। ग्रंथ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबू अथवा सेब या अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।
साथ ही, ७ प्रकार के इंजनों का वर्णन किया गया है, तथा उनका किस विशिष्ट उद्देश्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊंचाई पर उसका प्रयोग सफल और उत्तम होगा ये भी वर्णित है।
ग्रंथ का सारांश यह है कि इसमेँ प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्ध है। विमान आधुनिक हेलीकॉप्टरों की तरह सीधे ऊंची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे-पीछे तथा तिरछा चलने में भी सक्षम बताये गये हैं
इसके अतिरिक्त हमारे दूसरे ग्रंथोँ - रामायण, महाभारत, चारोँ वेद, युक्तिकरालपातु (१२ वीं सदी ईस्वी) मायाम्तम्, शतपत् ब्राह्मण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, भागवतपुराण, हरिवाम्सा, उत्तमचरित्र ,हर्षचरित्र, तमिल पाठ जीविकाचिँतामणि, मेँ तथा और भी कई वैदिक ग्रंथोँ मेँ भी विमानोँ के बारे मेँ विस्तार से बताया गया है,
महर्षि भारद्वाज के शब्दों में - "पक्षियों की भान्ति उडने के कारण वायुयान को विमान कहते हैं, (वेगसाम्याद विमानोण्डजानामिति ।।)
विमानों के प्रकार:-
(१) शकत्युदगम विमान -"विद्युत से चलने वाला विमान"
(२) धूम्र विमान - "धुँआ, वाष्प आदि से चलने वाला विमान"
(३) अशुवाह विमान - "सूर्य किरणों से चलने वाला विमान",
(४) शिखोदभग विमान - "पारे से चलने वाला विमान",
(५) तारामुख विमान -"चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला विमान",
(६) मरूत्सख विमान - "गैस इत्यादि से चलने वाला विमान"
(७) भूतवाहक विमान - "जल,अग्नि तथा वायु से चलने वाला विमान"
वो विमान जो मानवनिर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडनतशतरियों’ के अनुरूप है। विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया।
प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्होंने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उनमें से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान-विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-
प्रथम ग्रंथ :
(१) ऋगवेद- इस आदिग्रन्थ में कम से कम २०० बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हेँ अश्विनों (वैज्ञानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणतया तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण,रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई संदेह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी।
यातायात के लिये ऋग्वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-
(१) जलयान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ६.५८.३)
(२) कारायान – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ९.१४.१)
(३) त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋगवेद ३.१४.१)
(४) त्रिचक्र रथ – यह रथ के समान तिपहिया विमान आकाश में उड़ सकता था। (ऋगवेद ४.३६.१)
(५) वायुरथ – रथ के जैसा ये यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ५.४१.६)
(६) विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ३.१४.१).
द्वितीय ग्रंथ :
(२) यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी एक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिसका निर्माण जुड़वा अश्विन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्होँने राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।
तृतीय ग्रंथ :
(३) यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रंथ भी महर्षि भारद्वाज रचित है। इसके ४० भाग हैं जिनमें से एक भाग मेँ ‘विमानिका प्रकरण’ के आठ अध्याय, लगभग १०० विषय और ५०० सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारद्वाज ने विमानों को तीन श्रैँणियों में विभाजित किया हैः-
(१) अन्तर्देशीय – जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
(२) अन्तर्राष्ट्रीय – जो एक देश से दूसरे देश को जाते हैँ।
(३) अन्तर्राक्षीय – जो एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते हैँ।
इनमें सें अति-उल्लेखनीय सैनिक विमान थे जिनकी विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं।
उदाहरणार्थ - सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-
☀ पूर्णत्या अटूट,
☀ अग्नि से पूर्णतयाः सुरक्षित
☀ आवश्यक्तता पड़ने पर पलक झपकने मात्र के समय मेँ ही एक दम से स्थिर हो जाने में सक्षम,
☀ शत्रु से अदृश्य हो जाने की क्षमता (स्टील्थ क्षमता),
☀ शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्षम।
☀ शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृश्योँ को विमान मेँ ही रिकार्ड कर लेने की क्षमता,
☀ शत्रु के विमानोँ की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना,
☀ शत्रु के विमान चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता,
☀ निजी रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता,
☀ आवश्यकता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता,
☀ चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता,
☀ स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता,
☀ हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बड़ा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णतयाः नियन्त्रित कर सकने की सक्षमता,
विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ विमानोँ और अन्य हवाई जहाज़ोँ का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारद्वाज कोई आधुनिक ‘फिक्शन राइटर’ तो थे नहीं। परन्तु ऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित करता है, कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञानिक माडल का विचार कैसे किया।
उन्होंने अंतरिक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती-बाड़ी का ज्ञान भी हासिल नहीं कर पाये थे।
चतुर्थ ग्रंथ :
(४) कथा सरित सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों (इंजीनियरोँ) का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वाले विमानों को बना सकते थे। यह रथ विमान मन की गति से चलते थे।
पंचम ग्रंथ :
(५) अर्थशास्त्र - चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सेविकाओं (पायलट) का भी उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उड़ाती थी। चाणक्य ने उनके लिये विशिष्ट शब्द "आकाश युद्धिनाः" का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलट)
आकाश-रथ, का उल्लेख सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी किया गया है जो उसके काल (२३७-२५६ ईसा पूर्व) में लगाये गये थे। ☀
भारद्वाज मुनि ने विमानिका शास्त्र मेँ लिखा हैं, -"विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है।"
शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। क्योँकि वहीँ सफल पायलट हो सकता है।
विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है।
अब हम कुछ विमान रहस्योँ की चर्चा करेँगे।
(१) कृतक रहस्य - बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार हम विश्वकर्मा , छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्रोँ के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बना सकते , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर यानी कल-पुर्जोँ का वर्णन है।
(२) गूढ़ रहस्य - यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने (स्टील्थ मोड) की विधि दी गयी है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण हरने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है।
(३) अपरोक्ष रहस्य - यह नौँवा रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
(४) संकोचा - यह दसवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।
(५) विस्तृता - यह ग्यारहवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा या छोटा करना होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।
(६) सर्पागमन रहस्य - यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी - मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है, उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी - मेढ़ी हो जाती है।
(७) परशब्द ग्राहक रहस्य - यह पच्चीसवाँ रहस्य है। इसमें कहा गया है कि शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है।
(८) रूपाकर्षण रहस्य - इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का दृश्य देखा जा सकता है।
(९) दिक्प्रदर्शन रहस्य - दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा का पता चलता है।
(९) स्तब्धक रहस्य - एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग मूर्छित हो जाते हैं।
(१०) कर्षण रहस्य - यह बत्तीसवाँ रहस्य है, इसके अनुसार आपके विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार दिशा से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।
"विमान-शास्त्री महर्षि शौनक" आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा "महर्षि धुण्डीनाथ" विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या तूफानोँ का उल्लेख करते हैं और उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।
आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है -
(१) १० किलोमीटर - रेखा पथ - शक्त्यावृत्त तूफान या चक्रवात आने पर
(२) ५० किलोमीटर - वातावृत्त - तेज हवा चलने पर
(३) ६० किलोमीटर - कक्ष पथ - किरणावृत्त सौर तूफान आने पर
(४) ८० किलोमीटर - शक्तिपथ - सत्यावृत्त बर्फ गिरने पर
एक महत्वपूर्ण बात विमान के पायलटोँ को विमान मेँ तथा पृथ्वी पर किस तरह भोजन करना चाहिए इसका भी वर्णन है
उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज के विमान की उतरने की जगह (लैँडिग) निश्चित है, पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे।
अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना चाहिए, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया गया है, जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है। जब तक दूसरे विमान आपको खोज नहीँ लेते।
विमानिका शास्त्र में कहा गया है कि पायलट को विमान कभी खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए। १९९० में अमेरिकी वायुसेना ने १० वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है।
अब जरा विमानोँ मेँ लगे यंत्रोँ और उपकरणोँ के बारे मेँ ��थ्य प्रस्तुत कियेँ जाएं -
"विमानिका-शास्त्र" में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनके विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है -
(१) विश्व क्रिया दर्पण - इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गतिविधियों का दर्शन पायलट को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।
(२) परिवेष क्रिया यंत्र - ये यंत्र विमान की गति को नियंत्रित करता था।
(३) शब्दाकर्षण मंत्र - इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को "पक्षी-टकराने" जैसी दुर्घटना से बचाया जा सकता था।
(४) गर्भ-गृह यंत्र - इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजा जाता था।
(५) शक्त्याकर्षण यंत्र - इस यंत्र का कार्य था, विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें ऊष्णता में परिवर्तित करना और ऊष्णता के वातावरण में छोड़ना।
(६) दिशा-दर्शी यंत्र - ये दिशा दिखाने वाला यंत्र था (कम्पास)।
(७) वक्र प्रसारण यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।
(८) अपस्मार यंत्र - युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।
(९) तमोगर्भ यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।
"विमानिका-शास्त्र" मेँ विमान को संचालित करने हेतु विभिन्न ऊर्जा स्रोतोँ का वर्णन किया गया है, महर्षि भारद्वाज इसके लिए तीन प्रकार के ऊर्जा स्रोतों उल्लेख करते हैं।
(१) विभिन्न दुर्लभ वनस्पतियोँ का तेल - ये ईँधन की भाँति काम करता था।
(२) पारे की भाप - प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह जब ऊपर गया, तब उसमेँ विस्फोट हो गया। पर यह सिद्ध हो गया कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है, इस दिशा मेँ अभी और कार्य करने बाकी हैँ।
(३) सौर ऊर्जा - सूर्य की ऊर्जा द्वारा भी विमान संचालित होता था। सौर ऊर्जा ग्रहण कर विमान उड़ाना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है। इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से सूर्य शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। सेटेलाइट इसी प्रक्रिया द्वारा चलते हैँ।
"विमानिका-शास्त्र" मेँ महर्षि भारद्वाज विमान बनाने के लिए आवश्यक धातुओँ का वर्णन किया है, पर प्रश्न उठता है कि क्या "विमानिका-शास्त्र" ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके?
यदि कोई ऐसा भाग है, तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं?
क्या उनमें कुछ सफलता मिली है
सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं।
हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने "विमानिक-शास्त्र" ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया । प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशाष्पद हैं।
अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर
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