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Saif Ali Khan In United Voting Campaign For Vote Appeal To People
लोकतंत्र में मतदान का बहुत महत्व, देश का हर नागरिक वोट जरूर दे - सैफ
लोकसभा चुनाव 2019 का असर जबरदस्त तरीके से देशवासियों में देखने को मिल रहा है। राजनैतिक पार्टियों के अलावा बॉलीवुड हस्तियां भी लोगों से वोट देने की अपील कर रही हैं। अक्षय कुमार, आमिर खान और शाहरुख के बाद अब सैफ अली खान ने भी लोगों से वोट देने की अपील की। बॉलीवुड के नवाब सैफ अली खान हालही में एक #UnitedByVote Campaign' की लॉन्चिंग के मौके पर आयोजित एक पैनल चर्चा में शामिल हुए। इस दौरान जब सैफ से पूछा गया कि क्या वे मानते हैं कि चुनाव देश को जोड़ता है? सैफ ने इसके जवाब में कहा ''हां दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में मतदान का बहुत महत्व है। देश के नागरिक के रूप में मतदान आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण है।''
"युवा वर्ग वोट नहीं देने के लिए बदनाम हैं और मुझे लगता है कि हमें आज यहां इसलिए बुलाया गया है ताकि हम लोगों को मतदान की महत्वता को समझाने की कोशिश कर सके।" आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें - https://www.bhaskarhindi.com/news/saif-ali-khan-in-united-voting-campaign-for-vote-appeal-to-people-66145
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जब हम आपसी और सामाजिक एकता तथा राजनीति की बात करते हैं तब हमारे सामने सामाजिक एकता के विघटन के अनेक चित्र उभर कर आते हैं। हमारे यहां मतलब भारत में पहले कभी प्रजातंत्र नहीं था, हमारे यहां राजतंत्र था और राजतंत्र में प्रजा, राजा का सेवक हुआ करती थी । आज भी हमारे भारत में बहुत से उस समय के राजघराने मौजूद हैं।
लेकिन भारत को राजतंत्र बनाकर मटिया में मेट कर दिया गया। क्योंकि राजतंत्र के लिए यहां के नागरिक तो तैयार थे लेकिन उसका मस्तिष्क तैयार नहीं था और ना ही आज है । उनका मस्तिक हर समय अपने राजाओं की सेवा में था। शायद इसलिए भारत में राजतंत्र सफल नहीं हो रहा है और लोग आपस में टूटते जा रहे हैं । लोग खुद अपने द्वारा चुनी हुई सत्ता को ही राजा मान लेती और उनके पीछे चलने लगती है।
भारत में राजतंत्र का जहां जनता का मस्तिक राजा के तरफ आज भी इंगित है क्या सच में उसका राजनीतिकरण किया गया। और आपसी जातिवाद और आपसी धर्मवाद को बढ़ावा देकर लोगों को आपस में तोड़ा गया। लोगों के आपसी प्रेम का सौदा किया गया । ताकि भारत में जो यह प्रजातंत्र लागू हुआ है उसके परोक्ष में राजतंत्र के नियम बनाकर भारत में सत्ता पाया जा सके और फिर उस सत्ता के द्वारा जनता पर शासन किया जाए। चाहे कोई भी पार्टी हो मैं किसी पार्टी का नाम नहीं लेना चाहता। अगर आप गौर से देखेंगे तो आधुनिक भारत और वर्तमान स्थिति यही है और वर्तमान में यही हो रहा है। फैसला खुद कर सकते हैं आप, आपको क्या चाहिए राजतंत्र या प्रजातंत्र, अपना प्रेम का संदेश देने वाला सनातन धर्म, आपसी एकता भाईचा��ा, या फिर आपसी अलगाव। (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
आपसी एकता को तोड़ने वाले मुख्य बिंदु
1. जातिवाद
2. ऊंच नीच का भेदभाव
3. धर्म और धर्म के प्रति कट्टरवाद
4. धार्मिक एकता का विघटन
5. सामंतवाद
6. परोक्ष को दिखाकर अपरोक्ष से शासन
जातिवाद का राजनीतीकरण
जो लोग यह मानते हैं कि भारतीय राजनीति केवल जातीय समीकरण से चलती है। शायद वे अपने आकलन में ���लती कर रहे हैं। हो सकता है यह जातिवाद वर्तमान में हावी है समाज में लेकिन कल यह हावी रहेगा या नहीं रहेगा या यह जातिवाद राजनीति पर हावी हो जाएगा यह कहना मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि जातियों की आपस में अपनापन नहीं है । जातियों की आपस में अपनापन है लेकिन जातियों में आपसी जलन ने उन्हें अपने अपनों से दूर रखा है। क्योंकि कोई जाति अपने दम पर कोई सीट नहीं जिता सकती यह बात तो हम भी जानते हैं और आप भी जानते हैं।
लेकिन सोचने वाली बात है कि आखिर जातियों का राजनीतिकरण क्यों किया गया इसका फायदा राजनीतिज्ञों को क्या हो रहा है। बंधुओं किसी समूह को नहीं तोड़ा जा सकता है । क्योंकि इतनी शक्ति किसी में नहीं है और इतनी शक्ति लगाने का कोई एहसास भी नहीं करेगा। जैसे मान लीजिए कि एक धर्म का धार्मिक समूह है जिसमें विभिन्न जातियों के लोगों का समावेश है । तो क्या इतने बड़े लोगों के समावेश हो एक साथ तोड़ा जा सकता है। इसके लिए एक उदाहरण देता हूं जैसे लकड़ी का एक गट्ठर है एक आदमी उस गट्ठर को नहीं तोड़ सकता है लेकिन वही लकड़ी जब अकेले रहेगा उसे एक आदमी आसानी से तोड़ देगा।
ठीक इसी तरह राजनीति ने धर्म के समूह को पहले नहीं तोड़ा । राजनीति में जातिवाद लाकर धर्म के समूह को पहले अलग किया। और धर्म का वह समूह अपने धार्मिक समूह को छोड़कर अलग-अलग होता चला गया। जिसमें कोई एक पार्टी सम्मिलित नहीं थी जिसमें अपने अपने क्षेत्र की सभी पार्टियां सम्मिलित रही होगी और अपने अपने पैर पसारने की चादर के अनुसार सभी ने उस समूह को बांटने का प्रयास किया होगा। जब धर्म का वह समूह बंट गया तो अभी स्थिति यह है कि धर्म के नाम पर सेनाएं बनने लगी है इस देश में।
और जो बांटने वाले थे वे बांटने वाले इसी समाज से थे जो अपने आप को धर्म के रक्षक समझते थे । वे यह भी समझ रहे हैं इस धर्म के समूह को तोड़ कर मैं धर्म के उस समूह का भक्षक बन गया हूं । लेकिन सत्ता तो आखिर सत्ता है, लोभ तो उसका रहेगा क्योंकि उसमें ताकत है एक शक्ति है, एक चकाचौंध है और सबसे बड़ी बात वह अपराध को छिपाने में सर्वशक्तिमान है। शायद इसलिए वह राजनीति है ।
धर्म के समूह को छोड़कर समाज अलग हो गया समाज अपने आप में विभक्त हो गया अब समाज एक दूसरे से घृणा करने लगा। इतना घृणा और यहां तक कि उन्होंने अपने भगवान को भी बांट लिया। कोई श्री राम के नाम ��े रहा है, तो कोई श्री कृष्ण का नाम ले रहा है, कोई बुद्ध का नाम ले रहा है, तो कोई श्री परशुराम का नाम ले रहा है। इन सब मूर्खों को यह नहीं समझ में आता है वे जिनके नाम वे ले रहे हैं वह सभी एक ही श्री हरि विष्णु के अवतारी थे। लेकिन आपसी इरिष्या इतनी बढ़ गई कि वह श्री हरि विष्णु का नाम भूल गए और उनके अवतारी नामों को लेकर पृथक हो गए । और इन सब इस आग में घी का काम भारत की राजनीति ने कर दिया। क्या इससे समाज एक हो पाएगा ? क्या इससे समाज में कभी एकता आ पाएगी ?
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({}); मैं सोचता हूं कि जितनी भक्ति आज है अपने भगवान को लेकर उतनी ही भक्ति उस समय क्यों नहीं थी अपने भगवान को लेकर जब श्री राम जन्म स्थान की जगह बाबरी मस्जिद बना दिया गया। और श्री कृष्ण जन्म स्थान मथुरा में उनके जन्म स्थान की जगह दरगाह बना दिया गया जो आज भी मौजूद है। मैं सोचता हूं यह समाज तब क्यों नहीं खड़ा हुआ जब बुद्ध शांति का उपदेश दे रहे थे। यह समाज तब क्यों नहीं खड़ा हुआ जब महावीर जैन धर्म का उपदेश दे रहे थे। जहां भगवान शिव की काशी नगरी से ही जैन धर्म के चार तीर्थंकर आते हैं ।
विडंबना तो देखिए यह समूह जो धर्म का था कितना जल्दी बिखर गया और इस पर राजनीति हावी हुई वह बिखराव जातिवाद में परिणत हो गई और जातिवाद की ऐसी आग लगी कि समाज छोटे-छोटे टुकड़े में विभक्त हो गया। अपने वर्चस्व की लड़ाई में समाज का जो वर्ग मजबूत था वह कमजोर वर्गों को दबाने लगा और समाज में ऊंच-नीच की भावना उत्पन्न हो गई। दोस्तों यह उस राजनीति की ही देन जिसे हम अपना मत देकर बहुमत देते हैं और वह राजनीति बहुमत पाकर हम पर ही हुकूमत करती है । हमें ही पृथक करती है, अपनों से और अपने आप से भी।
ऊंच-नीच के भेदभाव का जन्म
जब समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव का जन्म हो गया तब समाज का विघटन पूर्ण रूप से होना शुरू हो गया। अब समाज यह नहीं देख रहा कि कौन जी रहा है और कौन मर रहा है । बल्कि समाज उस मरे हुए को मार रहा है और कह रहा है तुम मरे हुए हो । तुम्हारे साथ और तुम्हें हम इस तरह परेशान करेंगें कि तुम्हें हम इतनी यातना देंगे कि तुम जिंदा रहने लायक ही नहीं रहोगे। तो फिर बगावत तो होगा मेरे दोस्त, और यह स्वाभाविक भी है । लोग कब तक सहेंगे एक ना एक दिन तो उन्हें उठना ही पड़ेगा। इसलिए उन्होंने राजनीतिक सहायता से अपनी एक अलग सेना बना ली जिसका नाम मैं नहीं बताऊंगा आप सबको पता है।
आप मेरी इस पोस्ट को भी जरूर पढ़ें: जातिवाद के बंधनों को तोड़कर आपसी एकता कैसे बनेगी।
भला उनको दबाने वाले कहां पीछे रहते हैं उन्होंने भी अपनी एक नहीं कई सेना बना ली जिनके बहुत सारे नाम है और अलग-अलग काम है। सवाल फिर भी जिंदा है मेरे दोस्त आखिर ऐसा क्यों? समाज को यह बोझ देने वाला कौन है ? क्या जो वह नीची जाति के लोग हैं वह हिंदू नहीं है ? क्या इस देश का जैन हिंदू नहीं है ? क्या इस देश का सिख हिंदू नहीं है ? क्या इस देश का गरीब हिंदू नहीं है ? इसलिए मैं कहूंगा संभालिए और चिंतन कीजिए इस पर । समय बहुत बलवान होता है। आज यह आपका है कल किसी और का होगा तो क्या सब दिन इसी तरह आपस में भी कटते रहेगें आपस में टूटते रहेंगे। क्या हम सब राजनीति को पीछे कर एक नहीं हो सकते आपस में। क्या यह राजनीति आपस में हमें एक नहीं होने देगी।
धर्म और धर्म के प्रति कट्टरवाद
दोस्तों जब राजनीति धर्म कि समूह को तोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली तब राजनीति उसी तोरे हुए लोगों से अब धर्म को अलग करना शुरू किया है। कोई राम मंदिर बना रहा है, कोई परशुराम मंदिर बनाने का ऐलान कर दिया है। जंग जारी है राजनीति वोट के लिए सिर्फ अपने फायदे के लिए यह काम कर रही है। समाज कहां जा रहा है इसे कोई देखने वाला नहीं है और कोई पूछने वाला नहीं है।
भारत देश में मुख्यतः दो धर्मों के बीच टकराव होता है हिंदू और मुसलमान। कभी आपने हिंदू और मुसलमान के नेताओं को आपस में लड़ते हुए देखा है। किसी भी दंगे फसाद में संसद या विधानसभा में कार्यवाही होती है तो वहां हिंदू और मुस्लिम दोनों धर्मों के मानने वाले सदस्य होते हैं । क्या आपस में हुए लड़ जाते हैं, क्या आपस में वे मारकाट करने लगते हैं। जहां धर्म के कट्टरपंथ के नाम पर रोड खून से सराबोर होता है वही भारत के ये दो धर्मों की राजनेता संसद और विधानसभा में साथ बैठकर खाना खाते हैं, हंसते हैं, मुस्कुराते हैं। और आपसी बात भी, अलगाव की बात तो ये सिर्फ हम लोगों को दिखाने के लिए करते हैं। मैं कई जगहों पर यह उदाहरण दे चुका हूं धर्म का अपने पिछले पोस्ट में भी। पूर्ण विश्वास है कि आप इसे जरूर पढ़े होंगे नहीं तो मैं उस पोस्ट का लिंक यहां दे रहा हूं इसे जरूर पढ़ें।
आपसी एकता को ललकार का आज का वर्तमान धर्म और वर्तमान धर्म को मानने वाले राजनीतिज्ञ
धार्मिक एकता का विघटन
धार्मिक कट्टरपंथ राजनीति की वजह से इतना वर्चस्व हासिल कर लिया है की आपसी सद्भावना कोसों दूर चली गई। लोगों में आपसी प्रेम खत्म होने लगे। धर्म के नाम पर समाज गुमराह हो रहा। धर्म के नाम पर समाज में कई सारी कुरीतियों ने जन्म ले लिया है। धर्म के नाम पर भारत की राजनीति ऐसे करवे वचनों का इस्तेमाल करती हैं जिससे ऐसा लगता है कि कभी न मिटने वाले इस धर्म को एक दिन राजनीति लील लेगी। जहां ना समाज रहेगा, ना समाज के लोग रहेंगे सारा कुछ अस्त-व्यस्त हो जाएगा इस राजनीति की आग में। क्योंकि राजनीति चाहती है ऐसा हो। इससे उनको रास्ता मिलता है बचने का, अपने किए हुए गुना�� को छिपाने का, जिसके ऊपर वे आसानी से राजनीति कर लेते हैं। क्या इतना सब होने के बाद भी आज का समाज एक हो पाएगा ? यह प्रश्न भी अभी जिंदा रहेगा मेरे दोस्त।
सामंतवाद और आपसी एकता
सामंतवाद समाज की आपसी एकता का शोषक है। सामंतवाद ठीक राजनीति के समानांतर चाल समाज में चलती है। जो लोगों को तोड़ती है, जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर ताकि लोग उनसे आगे नहीं निकल जाए। सामंतवाद हर समय लोगों को लड़ाना चाहती है भूल जाना जानती है सामंतवाद समाज के किसी लोगों का पोषण नहीं करती बल्कि समाज के लोगों का शोषण करती है ।
अगर ऐसा नहीं होता तो सामंतवाद समाज के लोगों को तोड़ती नहीं समाज के लोगों को जोड़कर रखती । क्योंकि सामंतवाद को लगता है कि अगर हम समाज को जोड़ दिए समाज को एक कर दिए तो वही समाज एक दिन हमारे विरोध में खड़ा हो जाएगा और फिर हम उस समाज का कुछ नहीं कर पाएंगे। इसलिए सामंतवाद भी राजनीति की तरह सामाजिक एकता का विघटन कर रही है क्योंकि समाज का संगठन उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है । सामंतवाद कभी समाज के संगठन के क्षेत्र में अपना पैर नहीं जमाता है ।
परोक्ष को दिखाकर अपरोक्ष में शासन
राजनीति कभी सामने से वार नहीं करती है समाजिक एकता पर। क्योंकि राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं है और जो होता है वह दिखता नहीं है। भाषणों में वह एक दूसरे को कितनी भी गालियां दें। लेकिन असल जिंदगी में वे कभी नहीं लड़ते बल्कि एक दूसरे के लिए जीते हैं और एक दूसरे की सहायता भी करते हैं । इसके विपरीत समाज के लोग यानी वोटर्स आपस में लड़ते हैं, मरते हैं, कटते हैं, एक दूसरे से ईर्ष्या द्वेष करते हैं यह राजनीति की तो देने और किसकी। जो परोक्ष भी है जो सापेक्ष भी है। और अपरोक्ष क्या है जो भाषणों में एक दूसरे को गाली देते हैं और पीठ पीछे एक दूसरे के लिए अपनापन एक दूसरे से लगाव है। शायद इसलिए यह राजनीति समाज को आप को और समाज एक दूसरे से परोक्ष और अपरोक्ष दोनों रूपों में खंडित करती है । जिससे समाज में कभी एकता नहीं आ सकती है। समाज आपस में कभी एक नहीं हो सकता है ।
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Lockdown...
"तीन हफ्ते रहेगा देश कर्फ्यू के साये में" प्रधानमंत्री ने आज एक बार फिर देशवासियों को बताया कि वैश्विक महामारी कोरोना देश में लगातार पैर पसार रही है । विशेषज्ञों के अनुसार इसकी चैन तोड़ने के लिए कम से कम 21 दिन का लॉक डाउन जरूरी है । इसलिए आज रात 12 बजे से 21 दिनों का लॉक डाउन लागू किया जाता है । यह जनता कर्फ्यू से आगे बढ़कर एक तरह का कर्फ्यू ही है । "क्या यह मेडिकल इमरजेंसी है !" अब जब देश के प्रधानमंत्री ने ही पूरे देश में कर्फ्यू लगाने की घोषणा कर दी है तो फिर राज्य सरकार के आदेश/निर्देश महत्वहीन हो जाते हैं । बागड़ोर केन्द्र सरकार ने अपने हाथों सम्हाल ली है । इसे एक प्रकार की मेडिकल इमरजेंसी भी समझा जा सकता है । "अभी भी स्पष्ट कुछ नहीं है" वैसे प्रधानमंत्री ने बड़ी चतुराई के साथ 21 दिन के कर्फ्यू को इमरजेंसी कहने से परहेज किया है । मगर प्रधानमंत्री भी निश्चित रूप से अभी यह बता पाने की स्थिति में नहीं है कि 21 दिन बाद कर्फ्यू हटा ही दिया जायेगा । इतना तो तय हो गया है कि देश संकट के दौर से गुजर रहा है । सब कुछ भगवान भरोसे ही है । "राजनीति से बाज नहीं आते" वास्तव में राजनीति कुत्ती से भी गई बीती होती है । और जब उसे सत्ता का मीठा जहर लग जाता है तो फिर क्या कहने । राजनीतिक दल और उनके पदाधिकारी मौतों के मंजर में भी ��ुद को हीरो की तरह प्रोजेक्ट कर प्रचार करने का एक भी मौका नहीं छोड़ते । "एक आवाज पर खुद को कैद किया घर में" देशवासी वैश्विक महामारी कोरोना से जूझ रहा है । प्रदेश सरकारें महामारी को कंट्रोल करने के लिए तरह तरह के प्रतिबंधात्मक आदेश जारी कर रही हैं । नागरिक अपने दैनिक जीवन की जरूरतों के अभाव में भी शासन को सहयोग कर रहा है । लोगों ने खुद को घरों में कैद कर लिया है । "आग लगने पर कुआं खोदने की तैयारी" सरकार ने तब कुआं खोदा जब घर में आग लग गई । सरकार तब जागी जब मौत ने घर में दस्तक दे दी । पड़ोसी देशों में फैली महामारी को देख कर भी हमने कोई तैयारी नहीं की थी । जनता को जागरूक करने के लिए भी पहले से कोई जागरूकता अभियान भी नहीं चलाया गया । "सब कुछ अचानक, अनिश्चित' अचानक एक दिन शाम को देश के मुखिया ने टेलीविजन पर आकर देशवासियों को बताया कि वैश्विक महामारी कोरोना देश में आ गई है । एक दिन के लिए सभी जनता कर्फ्यू के नाम पर घरों में कैद हो जायें । शाम को ताली, थाली, शंख, घड़ियाल बजाएं । सरकार ने खुद कोरोना महामारी से निपटने के लिए क्या व्यवस्थायें की हैं इसका कोई खुलासा नहीं किया गया । जनता कर्फ्यू कब तक चल सकता है इसका भी कोई संकेत नहीं दिया गया । "हनुमान की पूंछ सी ' हर नागरिक ने यही सोचा कि एक दिन का ही तो बंद है इसलिए घर पर दैनिक रूप पर लगने वाली आवश्यक वस्तुओं का कोई पूर्व संग्रह नहीं किया । नागरिकों को क्या पता था कि जनता के नाम पर लगाया गया कर्फ्यू हनुमान की पूंछ की तरह बढ़ाया जाएगा । "गरीब के सामने रोजी रोटी का संकट !" अगर जनता को पूर्व में यह संदेश दे दिया जाता तो आदमी मानसिक रूप से भी खुद को तैयार कर सकता था । अब जब घरेलू कैदखाने को बढ़ाया जा रहा है तो सम्पन्न परिवार भी परिवार चलाने में कठनाई महसूस करने लगा है । रोज कमा कर परिवार चलाने वालों के सामने तो रोजी रोटी का संकट पैदा हो रहा है । वो घर से निकल नहीं सकता, निकलेगा भी तो रोजगार तो मिलेगा नहीं हां पुलिस के डंडे और ज्यादा हुआ तो हवालात की सैर जरूर मिल जाएगी । घर पर इसी तरह रहा तो भूख से मर जायेगा । "स्पष्ट विजन का अभाव" जब आदमी खुद अभाव में जियेगा तब तो मूक पशुओं के खाने का इंतजाम करना भी दुष्कर हो जाएगा । अभी तो सरकार को भी नहीं मालूम कि घरेलू कैदखाने कब तक चालू रखने हैं । सब कुछ अंधेरे में लठ्ठ घुमाया जा रहा है । जिस तरह से ताबड़तोड़ रोज नित नए दिशा निर्देश जारी किए ��ा रहे हैं उससे साफ दिखता है कि सरकार के पास कोई स्पष्ट विजन नहीं है । क्या यह घरेलू कैदखाना रूपी हनुमानी पूंछ सब कुछ जला देने के बाद ही रुकेगी ? "राजनीतिक दलों क�� छूट है क्या !" प्रशासन द्वारा जितने भी नियम कानून जारी किए जा रहे हैं । लगता तो यही है कि ये केवल आम आदमी के लिए ही हैं । खास आदमियों खासतौर पर राजनीतिक दलों उनके लोगों को कुछ भी करने की छूट मिली हुई है । जिसका नजारा मुख्यमंत्री की शपथ के दौरान दिखाई दिया । आज एक पोस्ट भारतीय जनता पार्टी कटनी के जिलाध्यक्ष द्वारा प्रदेश अध्यक्ष के निर्देश का हवाला देते हुए जारी की गई है कि भाजपा जन बूथ स्तर पर कोरोना के प्रति लोगों को जागरूक करें । आज ही जिला दंडाधिकारी ने आदेश जारी कर जिले भर में घरेलू कैदखाने की उमर 31 मार्च तक बढ़ा दी है । तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या जिला दंडाधिकारी का प्रतिबंधात्मक आदेश भाजपा के कार्यकर्ताओं पर लागू नहीं होता । उन्हें घर से निकलने के लिए किस नियम के तहत छूट दी गई है ? "जन जागरण की आड़ में झाड़ काटने की तैयारी" कलको कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के लोग भी इसी तरह लोगों को जागरूक करने के लिए निकलने लगेंगे । क्योंकि निकट भविष्य में नगरीय चुनाव होने हैं । विधानसभा के उपचुनाव या मध्यावधि चुनाव होंगे तो निश्चय रूप से अपनी फितरत के अनुसार ये राजनीतिक दल आज किये जाने वाले कामों को वोट में भांजने से नहीं चूकेंगे । राजनीतिक दलों की ये जन सेवा नहीं आने वाले चुनाव के लिए बोये जाने वाले बीज हैं जिनसे तैयार होने वाली वोट रूपी फसल को चुनाव में काटा जाएगा । "स्वमेव संज्ञान लें जिम्मेदार" भाजपा जिलाध्यक्ष कटनी द्वारा जारी की गई विज्ञप्ति निश्चित रूप से जिला दंडाधिकारी के प्रतिबंधात्मक आदेश का उल्लंघन करती है । क्या जिला दंडाधिकारी स्वमेव संज्ञान लेकर दण्डात्मक कार्यवाही करेंगे ? या फिर ! "विनम्र अपील" सभी से अपील है कि वैश्विक महामारी कोरोना से दो दो हाथ कर रही सरकार के साथ सरकार द्वारा चाहा जा रहा सहयोग दें । अफवाहों से सावधान रहें । हर निर्णय में अपने बुद्धि विवेक का भी उपयोग करें । "विनम्र अनुरोध" स्थानीय प्रशासन से भी अनुरोध है कि इस विपरीत परिस्थितियों में आम आदमी को मदद करें कि उन्हें जीवन जीने के लिए दैनिक वस्तुओं का आभाव न हो कालाबाजारी का शिकार न हों ।
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