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#आशाभोसले
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अहा ले गयी, ओ जिया ले गयी छवि सुंदर सलोने गोपाल की Lyric #shailendra #ShankarJaikishan #shankarjaikishan #लतामंगेशकर #आशाभोसले #शंकरजयकिशन https://www.instagram.com/p/CnL808Qvqwj/?igshid=NGJjMDIxMWI=
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chaitanyabharatnews · 4 years
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जन्मदिन विशेष: संगीत के इतिहास में मेलोडी क्वीन आशा भोसले के नाम दर्ज हैं कई रिकॉर्ड्स, निजी जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा
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चैतन्य भारत न्यूज बॉलीवुड की मेलोडी क्वीन आशा भोसले का 8 सितंबर को जन्मदिन है। आशा ताई के नाम से मशहूर आशा भोसले ने 20 भाषाओं में अब तक 12 हजार से ज्यादा गाने गाए हैं। आशा ताई की प्रोफेशनल लाइफ में जितने उतार चढ़ाव आए, निजी जिंदगी भी कुछ ऐसी ही रही। जन्मदिन के इस खास मौके पर जानते हैं आशा ताई के बारे में खास बातें- आशा भोसले का जन्म 8 सितंबर 1933 को हुआ था। आशा भोसले मशहूर थिएटर एक्टर और क्लासिकल सिंगर 'दीनानाथ मंगेशकर' की बेटी और स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर की छोटी बहन हैं। उन्हें बचपन से ही गाने का शौक था। जब आशा ताई महज 9 साल की थीं तब उनके पिता का देहांत हो गया था जिसकी वजह से अपनी बहन लता मंगेशकर के साथ मिलकर उन्होंने परिवार के सपोर्ट के लिए सिंगिंग और एक्टिंग शुरू कर दी थी।
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उन्होंने 1943 से अपना करियर शुरू किया और तब से वे अब तक लगातार गा रही हैं। हिंदी फिल्मों में उन्होंने गायन की शुरुआत 1948 में रिलीज हुई फिल्म 'चुनरिया' से क�� थी। हंसराज बहल के संगीत निर्देशन में उन्होंने 'सावन आया' गीत गाया था। मात्र 16 साल की उम्र में आशा जी ने 31 साल के गणपतराव भोसले से घर वालों के विरुद्ध जाकर भागकर शादी कर ली थी लेकिन ससुराल में माहौल सही ना होने पर पति और ससुराल को छोड़कर अपने दो बच्चों के साथ मायके चली आई थी और फिर से सिंगिंग शुरू कर दी थी। उस जमाने में जब गीता दत्त, शमशाद बेगम और लता मंगेशकर का नाम हर तरफ हुआ करता था, आशा भोसले को वो गीत दिए जाते थे जिन्हे ये तीनो गायक छोड़ दिया करते थे। यही कारण है कि 50 के दशक में वैम्प्स, बैड गर्ल्स या सेकंड ग्रेड की फिल्मों में ज्यादातर आशा ताई गीत गाया करती थी।
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आशा जी ने ओ पी नय्यर, खय्याम, रवि, सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, इल्लिया राजा, ए। आर रहमान, जयदेव, शंकर जयकिशन, अनु मलिक, मदन मोहन जैसे मशहूर संगीतकारों के लिए भी अपनी आवाज दी है। आशा जी ने 1980 में आर डी बर्मन के साथ शादी की, यह आशा भोसले और पंचम दोनों के लिए दूसरी शादी थी। शादी के वक्त पंचम दा, आशा ताई से 6 साल छोटे थे। आशा भोसले को 7 बार फिल्मफेयर अवॉर्ड , 2 बार नेशनल अवॉर्ड, पद्म विभूषण और दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया है। 1997 में आशा भोसले पहली भारतीय सिंगर बनी जिन्हे ग्रैमी अवॉर्ड्स के लिए नॉमिनेट किया गया था।
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शंकरजयकिशन-----एक मंथन
लेखक
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श्री श्याम शंकर शर्मा
हिंदी फिल्मी संगीत आकाश पर जो अमिट रूप से छा रहे है,वह निसंदेह शंकरजयकिशन है।जिनका आरम्भ, मिलन, अंत,विवाद,रोचक प्रसंग,सफलता,अनगिनत रोचक कहानियों से पत्र पत्रिकाएं व किताबे भरी पड़ी है।किन्तु इन सबके उपर शंकरजयकिशन की अमर मित्रता है जो इससे पूर्व या तो कृष्ण सुदामा अथवा कर्ण दुर्योधन की थी।फिल्मी जगत में मित्रता के कोई मायने नहीं है!सबकी मित्रता व्यवसायिक है,किन्तु शंकरजयकिशन फ़िल्म नगरी के कीचड़ में मित्रता के कमल के रूप में खिल रहे है।किन्तु विडंबना यह है कि उनके जीवन के जिये प्रत्येक पल,उनके संगीत, उनके व्यवहार,उनकी काबिलियत और शोहरत तथा पतन आदि के कतरे कतरे को उखाड़ा जा रहा है!जिसका भी जो मन आता है उन पर लिख देता है और चार पैसे कमा लेता है।शंकरजयकिशन का नाम आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना की पहले था,इसी कारण उनका नाम सदा चर्चा में रहता है।TV चैनल्स धड़ल्ले से उनके कार्यक्रम दिखाकर TRP कमा रहे है,उनके गीतों का जमकर दोहन हो रहा है। 1949 से 1971 तक शंकरजयकिशन का साथ रहा यानी कुल 22 वर्ष,इन 22 वर्षो में शंकरजयकिशन भौतिक रूप में एक साथ रहे।1971 में जयकिशन के देहावसान के बाद भी शंकर ने जयकिशन को स्वयं से पृथक नही किया अपितु उन्हें आत्मसात कर वर्ष 1987 तक अपने साथ पंचतत्वों में विलीन होने तक रखा।यह भावनात्मक मित्रता की एक अनूठी दास्तान है जिसकी एक झलक भी आज के समस्त समाज मे देखने को नही मिलती। 1971 से 1987 तक यानी 16 वर्षो की अवधि तक शंकर ने शंकरजयकिशन के नाम से ही संगीत दिया जो एक प्रेरक प्रसंग कहा जा सकता है। इस प्रकार 1949 से 1987 तक यानी कुल 38 वर्षो या यूं कह लो चार दशकों तक फिल्मी संगीत नभ पर ध्रुव तारे की भांती चमकते रहे और अभी भी उनकी चमक में जरा सी भी कमी नही आई है!आखिर इसका राज क्या है? शंकरजयकिशन ने अपने आगमन के साथ ही फिल्मी संगीत के मापदंडों को बदल दिया,उनके आगमन से पूर्व फिल्मी संगीत सीमित दायरे में सिमटा हुआ था जिसे उन्होंने बदलकर नूतन विराट स्वरूप दिया और फिल्मी संगीत में एक नए ट्रेंड की स्थापना की जिसे आज तक अपनाया जा रहा है। वह हिंदी फिल्म संगीत के एक मात्र ट्रेंड सेंटर थे,इन्ही कारणों से उन्हें सर्वप्रथम पद्मश्री से नवाजा गया।जैसा की सूत्र बताते है जयकिशन के देहावसान के बाद ओ.पी.नैयर ने उनके समक्ष एक नई जोड़ी निर्मित करने का प्रस्ताव रखा जिसे शंकर ने विनम्रता से यह कहते अस्वीकार कर दिया कि जयकिशन के बिना में स्वयं की कल्पना ही नही कर सकता,वह मेरे लिए क्या ��ा यह कोई भी नही जान पायेगा किन्तु हमारा अस्तित्व एक साथ ही खत्म होगा। शंकरजयकिशन ने हिंदी फिल्म संगीत को क्या नहीं दिया,एक से बढ़कर एक नायाब धुनें नवीन पीढ़ी के लिए विरासत में छोड़ गए,यही कारण है कि सम्पूर्ण भारत मे उनके सर्वाधिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते है जिसका सुखद पक्ष यह है कि यह कार्यक्रम उनके प्रशंसक अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार करते है जो कि शंकरजयकिशन को वास्तविक श्रद्धांजली है। शंकरजयकिशन के अलावा भी अनेक संगीत जोड़ियाँ फ़िल्म नगरी में है,जो सफल भी कहलाती है,जिन्होंने लगभग 500 अथवा 600 फिल्मो में संगीत भी दिया है,किन्तु उनकी फिल्मो का यह संख्या बल शंकरजयकिशन की लगभग 180 फिल्मो के सामने क्यो बोना नज़र आता है?इन 600 के लगभग फिल्मो का संगीत कहाँ उड़ गया? क्यो समस्त चर्चाओं का केंद्र बिंदु शंकरजयकिशन ही रहते है? इन संगीत जोड़ियों पर कोई छिटाकशी नहीं की जाती? समस्त विषवमन शंकरजयकिशन पर ही क्यो किया जाता है?इस पर मंथन की आवश्यकता है।इतिहास वही बनाते है जिनमे अपने अपने क्षेत्र में नूतन अन्वेषण करने का जनून होता है,वो लकीर के फ़क़ीर नहीं होते,वह सिद्धांत पर नही चलते अपितु उसे प्रतिपादित करते है,उनकी शमशीरे कभी म्यान में नही जाती,उनका बस एक उद्देश्य होता है अपनी राह खुद बनाना जो एक नजीर बन जाय।शंकरजयकिशन भी एक नज़ीर थे। हाल ही में सोनी चैनल के इंडियन आइडल कार्यक्रम में शंकरजयकिशन के बेहतरीन नगमों की प्रस्तुति युवा कलाकारों ने बहुत ही बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत की।इस कार्यक्रम में आशापारिख, आशाभोसले, अन्नू मलिक, सलीम मर्चेंट भी उपस्थित थे।जब अन्नु मलिक व सलीम मर्चेंट ने कहना शुरू किया कि शंकरजयकिशन व ओ.पी.नैयर ही पूरी फिल्मी दुनियाँ के एक मात्र संगीतकार थे जिनके फ़ोटो व नाम फिल्मी पोस्टर्स में छपता था,उनके नाम से फाइनेंसर फिल्मो को फ़ाइनेंस करते थे..यह बात कुछ आगे जाती,दर्शकों को कोई नवीन जानकारी मिलती..आशाभोसले ने उन्हें बीच मे ही रोक दिया कि अब में गायकी की बात करूंगी ...वह कहने लगी निर्माता के समक्ष फाइनेंसर की यह शर्त होती थी कि 4 गीत लतामंगेशकर के है या नही?आशाभोसले के 3 नृत्यगीत रखे है अथवा नही तभी वो फिल्मो में पैसा लगाता था। इतनी ऊंचाई पर स्थापित होने के बाद इंसान में अहंकार नही अपितु विशालता का परिचय देना चाहिए था!अगर आशाभोसले अन्नू मालिक व सलीम मर्चेंट की बातों को न काटकर यह कहती कि वास्तव में शंकरजयकिशन तथा ओ.पी.नैयर महान थे तो इससे उनका सम्मान ही बढ़ता! आशापारिख, अन्नु मलिक व सलीम मर्चेंट आशाभोसले के इस व्यवहार को देखकर अवाक रह गए। तब अन्नू मलिक ने तुरंत कहा....ओर हम आशा..यहां वो एक पल ठहरे..आशाभोसले ने समझा उनकी तारीफ होगी किंतु जैसे ही अन्नू मलिक ने कहा की हम आशापारिख की फिल्मे देखने जाते थे तो आशाभोसले का पीटा चेहरा सम्पूर्ण कहानी कह रहा था।वैसे भी आशाभोसले का बयान आधारहीन है,मनगडंत है। यही छोटी सौंच विराट को धरातल पर स्थापित कर देती है। मन मे प्रश्न आता है कि आखिर शंकरजयकिशन की बड़ाई करते ही लोग सुलग क्यो जाते है? क्यो सदा शंकरजयकिशन को विभाजित करने की चेष्ठा की जाती है,क्यो उनके जीवन के प्रत्येक पल का पोस्टमार्टम किया जाता है, इसका जवाब सिर्फ यह है कि जो विशिष्ठ होता है उसकी ही सर्वाधिक आलोचना होती है,उसकी विशिष्ठता लोंगो में ईर्ष्या का भाव भर देतीं है जिसका कोई इलाज नही। नई पीढ़ी सम्भवतया शंकरजयकिशन के इतिहास से परिचित न हो अतः विषय पर आगे बढ़ने से पूर्व उनकी संशिप्त जानकारी देना आवश्यक है,शंकरजयकिशन एक दूसरे के बारे में क्या कहते थे यह जानना भी आवश्यक है। शंकर का जन्म 15-10-1922 को तथा देहावसान 26-4.1987 को मुम्बई में हुआ था।उनके पिता का नाम राम सिंह रघुवंशी तथा माता का नाम तारा बाई था।उनका विवाह कुंदा नामक युवती के साथ वर्ष 1953 में हुआ था जिसके पूर्व पति से रवि कुमार नामक पुत्र था।शंकर की कोई जैविक संतान नहीं थी। शंकर का जन्म कहाँ हुआ था यह आज तक अज्ञात है कोई उनकी जन्म स्थली आंध्रप्रदेश बताता है तो कोई पंजाब अथवा राजस्थान।किन्तु प्रामाणिक तथ्य किसी के पास नही है,किन्तु इतना तय है कि उनका बचपन हैदराबाद, आंध्रप्रदेश में व्यतीत हुआ जो अब तेलंगाना राज्य के अंतर्गत आता है।शंकर की पढ़ाई में जरा भी दिलचस्पी नही थी,उनकी चाहत सिर्फ संगीत थी जो आयुपर्यन्त रही। तबले पर उनका एकाधिकार था इस कारण उन्हें श्रीमती हेमावती की नाट्य मंडली में कार्य मिल गया,मशहूर नृत्य निदेशक सत्यनारायण भी इसी नाट्य मंडली में थे।यह मंडली सम्पूर्ण भारत मे कार्यक्रम किया करती थी,इसका लाभ शंकर को मिला वह विभिन्न राज्यो के।लोकसंगीत व वहां की संस्कृति से परिचित हों गए जिसका लाभ उन्हें कालांतर में मिला,इसी मध्य शंकर ने नृत्य में भी दक्षता हासिल कर ली। अपरिहार्य कारणों से नाट्य मंडली बन्द हो गई,तब हेमावती,सत्यनारायण व शंकर मुम्बई आ गए,यहाँ शंकर को पृथ्वी थियेटर में 75 रुपये प्रतिमाह पर कार्य मिल गया।धीरे धीरे शंकर ने सितार,वायोलिन व सारंगी आदि पर भी अपनी पकड़ मजबूत कर ली।शंकर ने नासिर खान से तबला व कत्थक नृत्य की तालीम कृष्णा कुट्टी से प्राप्त की। जयकिशन का जन्म 14-11-1929 तथा निधन 12-9-1971को मुम्बई में हुआ,उनके पिता का नाम डाहया भाई तथा माता का नाम अम्बा बहन था।उनकी शादी पल्लवी मरिवाला के साथ हुई।उनकी तीन संताने थी जिनके नाम क्रमश चेतन्य,योगेश व भैरवी है। गुजरात मे सूरत के निकट कोसेबा बागरा में जन्मे जयकिशन अपने पिता के संग बलसाड़ जिले के बासंदा गांव में आ बसें जहां उनके पिता को संगीत के शौकीन राजघराने में नॉकरी मिल गई।जयकिशन का बाल्यकाल अत्यन्त निर्धनता में बीता। जब जयकिशन 8 वर्ष के थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गई।बड़े भाई बलवंत जो गायन कर रोजी रोटी जुटाते थे।उनकी इच्छा थी कि जयकिशन पढ़ाई करें, किन्तु जयकिशन को सिर्फ संगीत भाता था,हारमोनियम पर उनकी गहरीं पकड़ थी।इसी मध्य उनके भाई का भी निधन हो गया और जयकिशन अपनी बहन के पास मुम्बई पहुंच गए जहाँ एक फैक्ट्री में वह काम करने लगे।इन समस्त आपदाओं के बाद भी जयकिशन का संगीत प्रेम कम न हुआ।वह अक्सर गुजराती फिल्मकार के ऑफिस के बाहर बैठे रहते की शायद यहां से कोई राह मिल जाय।शंकर भी अक्सर फिल्मकार चंद्र वदन भट्ट के यहाँ अक्सर आया जाया करते थे,उन्होंने देखा कि एक सुंदर सा युवक सदा भट्ट साहीब के ऑफिस के बाहर उदासी में बैठा मिलता है।एक दिन उन्होंने जयकिशन से उनकी परेशानी जानी तथा जब उन्हें विदित हुआ कि जयकिशन कुशल हारमोनियम वादक है तो उन्होंने उनके समक्ष काम करने का प्रस्ताव रखा तो जयकिशन तैयार हो गए।शंकर ने अपने प्रभाव से 75 रुपये मासिक की नोकरी पृथ्वी थियेटर में दिला दी।जयकिशन की यही से शंकर के प्रति श्रद्धा उमड़ पड़ी उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली।यह पल जयकिशन के जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव था।यही से शंकरजयकिशन की मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई।जोधपुर में जब जयकिशन अस्वस्थ हो गए तो जिस प्रकार शंकर ने उनकी सेवा की वह अवर्णीय है इसका जयकिशन पर गहरा प्रभाव पड़ा,वह शंकर को बड़ा भाई मानने लगे।शंकरजयकिशन ने हुस्नलाल भगतराम व राम गाँगुली के साथभी कार्य किया।जब राजकपूर ने अपनी फिल्म बरसात शंकर को ऑफर की,किन्तु शंकर ने एक शर्त रखी कि वह जयकिशन के बिना फ़िल्म स्वीकार नही करेंगे,राजकपूर पशोपेश में पड़ गए ,जयकिशन में उनकी रुचि नहीं थी किन्तु अन्तोगत्वा उन्हें शंकर की शर्त स्वीकार करनी पड़ी और शंकरजयकिशन संगीत जोड़ी अस्तित्व में आई।जयकिशन को शंकर का यह व्यवहार अंदर तक हिला गया उनकी नज़र में शंकर का कद जहां बढ़ गया वही उनकी महानता ने जयकिशन के दि��� मे सदा के लिए स्थापित हो गए। यह क्षण असाधारण था,कलयुग में अकल्पनीय था।जिस आदमी को पहली फ़िल्म का ऑफर मिला हो उसे ही दांव पर लगा देने का कार्य बिरले लोग ही कर सकते है।यह शंकर की महानता थी की उन्होंने व्यवसायिक हितों का ध्यान न रख मित्रता की अनूठी मिसाल प्रस्तुत की जिसकी तारीफ राजकपूर ने भी की।आलोचकों से मेरा प्रश्न है कि शंकर जी की इस उदारता का कोई अन्य उदाहरण उनके पास है?व्यक्तित्व ऐसे ही निखरता है और निखारता है। चाहते तो शंकर स्वयं अकेले संगीतकार बन आगे बढ़ सकते थे।बात यही समाप्त नही हो जाती है।लतामंगेशकर अपने कैरियर के लिए संघर्ष कर रही थी,शंकर ने उनकी प्रतिभा को बहुत पहले ही परख लिया था अतः वह बरसात फ़िल्म में लतामंगेशकर से गंवाने के पक्षधर थे किन्तु राजकपूर का लतामंगेशकर में विश्वास न था किन्तु राजकपूर को यहाँ भी शंकर से सहमत होना पड़ा।जब बाज़ार में बरसात का संगीत आया तो हिंदी फिल्म संगीत में नूतन बहार आ गई।बरसात के समस्त गीत सम्पूर्ण भारत मे जमकर बरसे और शंकरजयकिशन का नाम प्रथम फ़िल्म से ही शोहरत पा गया।इस फ़िल्म ने संगीत की स्थापित परम्पराओ को उखाड़ फेंका जो अनिल विश्वास,नोशाद आदि द्वारा स्थापित थी जो 40 के दशक के स्थापित संगीतकार थे।बरसात ने हिंदी फिल्मी संगीत का ट्रेंड ही बदल दिया,इसीलये शंकरजयकिशन को हिंदी फिल्म संगीत का ट्रेंड सेंटर माना जाता है जिसका अनुकरण आज भी किया जा रहा है।अतः यह लिखने में तनिक भी संकोच नहीं होना चाहिए कि जयकिशन, लतामंगेशकर व राजकपूर की स्थापना में सबसे बड़ा योगदान शंकर का था।इसी फिल्म के साथ शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी भी शंकरजयकिशन से जुड़े और एक मात्र फ़िल्म संगीत टीम का निर्माण हुआ जिसका श्रेय भी जयकिशन, शैलेन्द्र ओर हसरत जयपुरी शंकर को ही देते है।अतः शंकर का आंकलन करने से पूर्व उनकी विशालता का अवलोकन भी कर लेना चाहिए। जयकिशन कहते है.." शंकर का व्यक्तित्व विराट था,वह सदा बड़ी सौंच रखते थे,संगीत के अलावा वह कुछ भी नही सौचते थे,वह जीवन का भरपूर आनंद उठाते थे,शंकर का व्यक्तित्व समस्त संगीतकारो से पृथक था,उन्हें नई नई योजनाएं बनाने व उन्हें क्रियान्वित करने में आनंद आता था।मेरे जीवन मे उनसे बेहतर कोई हो ही नही सकता,में सदा उनका ऋणी रहूँगा।" शंकर जयकिशन के लिए कहते थे." वह सुनियोजित जीवन जीने वाला इंसान है,अंग्रेजी फिल्मे देखना व शाम को मित्रो के साथ मनाना उसकी आदत है,वह सरल और अनुशाषित है,समय की पाबंदी उसका मजबूत पक्ष है,किसी के भी काम मे दखलंदाजी करना उसे पसंद नही,वह निरंतर संगीत के विभिन्न स्वरूपों को खोजता रहता था,विनम्र था,उसका मन उसकी सूरत की भांति अत्यन्त सुंदर था",। शंकरजयकिशन का मानना था हम दोनों का आपसी विश्वास ही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि व सफलता है।इतने प्रगाढ़ संबंधों के उपरांत भी शंकरजयकिशन को प्रश्नों के कटखरे में खड़ा करना यही दर्शाता है कि वह असाधारण व अतिविशिष्ट थे,यह विशिष्ठता अन्य संगीतकारों में नही मिलती!इसी कारण शंकरजयकिशन चर्चा में रहते है।आशाभोसले को यह बात भली भांति समझ लेनी चाहिए। शंकरजयकिशन के अलावा भी कई संगीत जोड़ियाँ है,उन पर कोई चर्चा ही नही करता किन्तु शंकरजयकिशन को सदा विवादों से जोड़ा जाता है,आज भी सर्वाधिक चर्चा शंकरजयकिशन को लेकर ही हो रही है,बड़ी अजीब बाते उठाई जाती है..दोनों में कौन श्रेष्ठ था,उनके कार्य करने के तरीके भिन्न भिन्न क्यो थे!लंबी लंबी चर्चा के बाद भी शंकरजयकिशन को पृथक नही कर पाते,तभी तो उन्हें शंकरजयकिशन कहा जाता है। दुख उस वक़्त और बढ़ जाता है जब शंकरजयकिशन प्रशंसक ही दो खेमो में विभाजित होकर आरोप प्रत्यारोप की झड़ी लगा देते है।सोशल मीडिया पर कई शंकरजयकिशन के ग्रुप्स आपको मिल जायेंगे जो अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग अलाप रहे है?आलोचक तो कुछ भी लिख अथवा कह सकते है क्योकि अभिव्यक्ति की आजादी है!पर शंकरजयकिशन प्रेमी क्यो बंटे हुए है यह मंथन का विषय है।पानी को आप विभाजित नही कर सकते,शंकरजयकिशन को भी विभाजित नही कर सकते,चाहे कितनी ही लंबी चर्चाएं कर लो अथवा शंकरजयकिशन पुराण लिख डालो। अक्सर शंकरजयकिशन प्रेमियों में यह विवाद होता है कि यह गीत शंकर ने बनाया यह गीत जयकिशन ने बनाया,समस्त अच्छी रचनाएं जयकिशन ने बनाई तथा समस्त बकवास रचनाएं शंकर ने बनाई!यही बुद्धिजीवी प्रशंसक यह भी स्वीकारते है कि शैलेंद्र के अधिकांश गीत शंकर ने कंपोज किये तो फिर वो बकवास रचनाएं कैसे हो गई?उन्हें तो सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।वस्तुतः यह जहर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के कारण जन्मा है जिन्होंने सदा सुनियोजित तरीके से शंकरजयकिशन के मध्य स्पष्ठ दरार डालनी चाही और लेख लिखे जिन्हें पड़कर शंकरजयकिशन प्रेमी फिजूल में उलझे रहते है तथा उनके दैवीय संगीत से दूर होते जा रहे है।फ़िल्म जंगली का उदाहरण यहां रखना उचित होगा जिसने हिंदी फिल्म संगीत को एक अनोखा नया अंदाज़ दिया,इसके सभी गीत विविधता लिए हुए थे तथा सभी अतिलोकप्रिय हुए,आप इस फ़िल्म के गीतों में स्पष्ठ पाएंगे की समस्त गीतों में शंकरजयकिशन एक साथ है।किंतु बुद्धिजीवी प्रशंसक तुरंत भेद कर डालेंगे और लिखेंगे जो गीत शैलेंद्र का है वह शंकर ने कंपोज किया तथा जो हसरत ने लिखा व जयकिशन का है,यह सबसे बड़ी विडंबना है।शारदा का कोई गीत आ जाय तो बहस बहुत लंबी चलेगी,शंकरजयकिशन के विभाजन के लिए शारदा को दोषी ठहराया जाएगा,शंकर के पतन का कारण ��ताया जाएगा,शारदा की आवाज में नुक्स निकालने के प्रयत्न होंगे किन्तु इन्ही बुद्धिजीवियों को नूरजहां,शमशाद बेगम की विशेष आवाजों में मेलोडी सुनाई देती है? शंकर को सदा कटखरे में खड़ा किया जाता है,उनकी गम्भीरतां,अनुशासन का मजाक उड़ाया जाता है!आखिर ऐसा क्यो होता है? जयकिशन की मृत्यु के बाद शंकर को जबरदस्त मानसिक आघात लगा,शंकर का पारिवारिक जीवन एकाकी था,वह सिर्फ चुनिंदा मित्रो व संगीत में अपने जीवन का आनंद लेते थे।शंकर ने सबसे पहले जयकिशन द्वारा अनुबंधित फिल्मो को पूरा करने का निर्णय लिया। जयकिशन की मृत्यु के बाद उन्होंने दो वर्षों तक कोई फ़िल्म साइन ही नही की।सभी जानते है कि 1971 में शंकरजयकिशन के संगीत की सर्वाधिक फिल्मे रिलीज हुई जिनमे अधिकांश असफल रही,उनकी असफलता के अन्य कारण थे किंतु ठीकरा शंकर के सिर फोड़ दिया गया।शंकर विरोधी जान गए कि अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया है अतः इसे यही खत्म कर दो,अतः सुनियोजित तरीके से उन्हें एक तरफ हटाने की कोशिश हुई जिनमे शंकर के तथाकथित मित्र भी शामिल थे।हसरत जयपुरी लिखते है जो शंकरजयकिशन के मध्य बटवारे की बात करते है वह असत्य है दोनों मिलकर कार्य करते थे आपसी समझ से करते थे।किंतु नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है?हसरत जयपुरी के लिए भी यह पीड़ादायक दौर था और ऐसे विषम समय मे राजकपूर का शंकर को त्यागना शंकर को निराशा प्रदान कर गया।70 का दशक नायक प्रधान हो गया।फिल्मो की कहानियों में बदलाव आ गया,मारकाट करता गुस्से से भरा नायक लोंगो के दिलो दिमाग पर छाने लगा उनकी फिल्मे हिट होने लगी,टपोरी नायक के लिए टपोरी टाइप गीत बनने लगे व नायक के कारण चलने भी लगे,फिल्मो की संख्या बढ़ने लगी,किन्तु जो रुतबा शंकरजयकिशन ने संगीतकारो के लिए स्थापित किया था उसका ग्राफ तेज़ी से गिरता गया और जो निर्माता,अभिनेता लाइन में खड़े होकर शंकरजयकिशन का इंतज़ार करते थे आज नायकों के तलवे चाट रहे है।शंकर समझ चुके थे अब बदलाव का दौर है अतः स्वाभिमान से जीते हुए संगीत देना है।आप देखेंगे कि शंकर ने बहुत ही अलग प्रकार का संगीत टपोरी संगीत युग मे दिया जो बेमिसाल है। जब भी ये दिल उदास होता है,वक़्त थोड़ा सा अभी कुछ औ��� गुजर जाने दे,मन के पंछी कही दूर चल,हमको तो जान से प्यारी है तुम्हारी आंखे,क्या मार सकेगी मौत उसे,चलते चलते इन राहो पर,तुम किंतनी खूबसूरत हो ये मेरे दिल से पूंछो, वो बड़े खुशनसीब होते है आदि गीत टपोरी संगीत काल मे बनाकर दिखाए जो उनकी विशिष्ठता को प्रमाणित करता है तथा उस धारणा की पुष्टि करता है शेर भूखा रह सकता है किन्तु घांस नही खा सकता? शंकर की यह विशेषता थी कि वो कभी भी किसी भी संगीतकार की शैली की और नज़र ही नही डालते थे।उनकी अधिकांश निर्माताओं से इसी कारण नही बनती थी,उन्हें झुठन खाना पसंद ही नही था,वह अपने कार्य मे किसी की भी दखलंदाजी पसंद ही नही करते थे।धर्मेन्द्र की महत्वपूर्ण फ़िल्म उन्होंने इसी कारण छोड़ दी जबकि उन्हें उस वक़्त इसकी जरूरत थी। फिर भी शंकर का जादू चढ़कर बोलता रहा,उनकी अप्रदर्शित फ़िल्म नगीना का एक गीत...तेरे मेरे प्यार का अंदाज़ है निराला..की नकल कर आराधना फ़िल्म का एक गीत बनाया गया..कोरा कागज़ था ये मन मेरा...तथा उनकी अंतिम फ़िल्म गौरी का गीत गौरी है कलाइयां..को हूबहू फ़िल्म आज का अर्जुन में डालकर संगीतकारो ने फ़िल्म फेयर अवार्ड तक हासिल कर लिए।शंकर में व अन्य संगीतकारो में यही फर्क था।तभी तो इस टपोरी संगीतकाल में लतामंगेशकर को कहना पड़ा कि शंकर जी जैसा कंपोजर फिल्मी दुनिया मे दूसरा उत्पन्न ही नही हुआ।भला लतामंगेशकर से ज्यादा शंकर का आंकलन ओर कौन कर सकता है।शंकरजयकिशन प्रेमियों को पता ही नही है कि जयकिशन के बाद किंतनी शानदार रचनाएं शंकर हमारे लिए छोड़कर गए है।किन्तु बुद्धिजीवी प्रशंसको के घड़ी की सुई 1971 से आगे बढ़ती ही नही!
अधिकांश शंकरजयकिशन प्रेमी 1971 के बाद शंकर के उन गीतों को नकार देते है जो उन्होंने लगभग 50 फिल्मो में दिए। शंकरजयकिशन प्रेमियों का यह व्यवहार एक जीनियस संगीतकार के लिए न्यायोचित नही है,यह पीड़ादायक व कष्टकारी है।शंकर ने तो 1971 के बाद भी कभी यह नही कहा कि यह धुन मेरी है वह तो उसे शंकरजयकिशन की धुन ही बताते रहे।जयकिशन प्रेमियों को तो शंकर का आभारी होना चाहिए कि वो जयकिशन के नाम को 1971 से 1987 तक ले जाने में कामयाब रहे।
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फलो से लदे वृक्षो पर ही पत्थर मारे जाते है शंकर के साथ ऐसा ही हुआ और हो रहा है।अन्य कई संगीत जोड़ियां है जिनके एक पात्र इस दुनियाँ में नही है जबकि दूसरे मौजूद है,उनके पास कोई काम भी नही है जबकि जयकिशन के बिछुड़ने के बाद भी शंकर आखिर तक संगीत देते रहे।किन्तु अन्य संगीतकारो पर कोई कुछ भी नही लिखता?उनका केंद्र बिंदु तो बस शंकरजयकिशन है।क्योकि शंकरजयकिशन ने हिंदी फिल्म संगीत की मजबूत आधारशिला रखी थी। जब कार्य की अधिकता होती है तो कार्यो को आपस मे बाटा जाता है इसमे अलग होने का नहीं पूर्णता का भाव होता है। फिल्मो के अनुबंध की जिम्मेदारी जयकिशन के हवाले थी।फ़िल्म पूरी होने के बाद शंकरजयकिशन मिलकर उस पर चर्चा कर गीतों को फाइनल कर देते थे,किसने धुन बनाई यह महत्वपूर्ण नहीं होता था!महत्वपूर्ण यह होता था धुन कैसी बनी।1969 से 1971 तक जयकिशन ने बिना सोचे समझे कई फिल्मे साइन कर डाली उनकी गुणवत्ता की परख ही नही की ओर 1971 में अचानक उनका देवलोकगमन हो गया,यही फिल्मे जो जयकिशन ने अनुबंधित की थी शंकर को भारी पड़ी,क्योकि किसी मे थुल थुल शम्मीकपूर थे तो किसी मे प्रौढ़ राजेन्द्रकुमार तो नवीन कलाकारों में विनोद मेहरा तथा राकेश रोशन जैसे कलाकार थे,जबकि उस वक़्त जयकिशन को राजेश खन्ना वाली फिल्मो के निर्माताओं को तरजीह देनी चाहिए थी जो कि उन्होंने किया नही जिसका खामियाजा शंकर को उठाना पड़ा,उसके तुरंत बाद टपोरी टाइप के नायकों का उदय हो गया जिनके गीत भी टपोरी टाइप के होते थे जो शंकर के फ्रेम में फिट नही बैठते थे?किन्तु इन्ही जयकिशन की अनुबंधित फिल्मो के कारण शंकर ने 2 वर्षो तक कोई फ़िल्म अनुबंधित ही नही की,यह दो वर्ष की रिक्तिता शंकर को भारी पड़ी !वह मूलधारा से कट गए।किन्तु शंकरजयकिशन को विभाजित करना एक भूल है उनकी प्रत्येक फ़िल्म के गीत आपसी विचार विमर्श से ही फाइनल होते थे।इस जगह में फ़िल्म तीसरी कसम का उदाहरण रखूंगा।जयकिशन को फ़िल्म तीसरी कसम का पार्श्व संगीत तैयार करना था,उन्होंने तीसरी कसम के सभी गीत सुनने के बाद प्रतिक्रिया दी कि फ़िल्म के गीत शंकरजयकिशन ब्रांड के नही है,तीसरी कसम के सम्पूर्ण गीतों की जिम्मेदारी शंकर को ही सौंपी गई थी,इस कारण जयकिशन से भी राय लेनी आवश्यक थी।तब शैलेंद्र ने कहा मेरी फिल्म को उपयुक्त गीत शंकर ने दिए है जिनसे में संतुष्ट है।शैलेन्द्र के सामने जयकिशन कभी भी तर्क नहीं करते थे।फ़िल्म रिलीज हुई,पिटी, पुरुस्कृत भी हुई किन्तु इसका प्रत्येक गीत शंकरजयकिशन ब्रांड से भी बहुत उच्चकोटि का था जो शंकर की काबिलियत का नायाब उदाहरण प्रस्तुत करता है ओर सिद्ध करता है कि वो जीनियस थे।अतः शंकरजयकिशन प्रेमियों को उनका विभाजन नही करना चाहये।अंत मे शंकर निर्मित गीत से लेख को विराम देता हूँ..... चलो भूल जाए जहाँ को यहां दो घड़ी बीते हुए पल नहि लौटतें फिर कभी अतः शंकरजयकिशन प्रेमियो उनमे विभाजन मत करो उन्हें संयुक्त ही समझो। Shyam Shanker Sharma Jai pur,raajasthan
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#आज_कोई_आयेगा #आशाभोसले #चंदा_और_बिजली -1969 #पद्मिनी #शंकरजयकिशन #Indeevar #aajkoiaayega #chandaaurbijli #Padmini #ShankarJaikishan #शंकर_जयकिशन गीतकार #इंदीवर https://www.instagram.com/p/Ci7xLqSD6-l/?igshid=NGJjMDIxMWI=
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chaitanyabharatnews · 4 years
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जन्मदिन विशेष: संगीत के इतिहास में मेलोडी क्वीन आशा भोसले के नाम दर्ज हैं कई रिकॉर्ड्स, निजी जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा
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चैतन्य भारत न्यूज बॉलीवुड की मेलोडी क्वीन आशा भोसले का 8 सितंबर को जन्मदिन है। आशा ताई के नाम से मशहूर आशा भोसले ने 20 भाषाओं में अब तक 12 हजार से ज्यादा गाने गाए हैं। आशा ताई की प्रोफेशनल लाइफ में जितने उतार चढ़ाव आए, निजी जिंदगी भी कुछ ऐसी ही रही। जन्मदिन के इस खास मौके पर जानते हैं आशा ताई के बारे में खास बातें- आशा भोसले का जन्म 8 सितंबर 1933 को हुआ था। आशा भोसले मशहूर थिएटर एक्टर और क्लासिकल सिंगर 'दीनानाथ मंगेशकर' की बेटी और स्वर सम्राज्ञी लता मंगेशकर की ���ोटी बहन हैं। उन्हें बचपन से ही गाने का शौक था। जब आशा ताई महज 9 साल की थीं तब उनके पिता का देहांत हो गया था जिसकी वजह से अपनी बहन लता मंगेशकर के साथ मिलकर उन्होंने परिवार के सपोर्ट के लिए सिंगिंग और एक्टिंग शुरू कर दी थी।
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उन्होंने 1943 से अपना करियर शुरू किया और तब से वे अब तक लगातार गा रही हैं। हिंदी फिल्मों में उन्होंने गायन की शुरुआत 1948 में रिलीज हुई फिल्म 'चुनरिया' से की थी। हंसराज बहल के संगीत निर्देशन में उन्होंने 'सावन आया' गीत गाया था। मात्र 16 साल की उम्र में आशा जी ने 31 साल के गणपतराव भोसले से घर वालों के विरुद्ध जाकर भागकर शादी कर ली थी लेकिन ससुराल में माहौल सही ना होने पर पति और ससुराल को छोड़कर अपने दो बच्चों के साथ मायके चली आई थी और फिर से सिंगिंग शुरू कर दी थी। उस जमाने में जब गीता दत्त, शमशाद बेगम और लता मंगेशकर का नाम हर तरफ हुआ करता था, आशा भोसले को वो गीत दिए जाते थे जिन्हे ये तीनो गायक छोड़ दिया करते थे। यही कारण है कि 50 के दशक में वैम्प्स, बैड गर्ल्स या सेकंड ग्रेड की फिल्मों में ज्यादातर आशा ताई गीत गाया करती थी।
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आशा जी ने ओ पी नय्यर, खय्याम, रवि, सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, इल्लिया राजा, ए। आर रहमान, जयदेव, शंकर जयकिशन, अनु मलिक, मदन मोहन जैसे मशहूर संगीतकारों के लिए भी अपनी आवाज दी है। आशा जी ने 1980 में आर डी बर्मन के साथ शादी की, यह आशा भोसले और पंचम दोनों के लिए दूसरी शादी थी। शादी के वक्त पंचम दा, आशा ताई से 6 साल छोटे थे। आशा भोसले को 7 बार फिल्मफेयर अवॉर्ड , 2 बार नेशनल अवॉर्ड, पद्म विभूषण और दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया है। 1997 में आशा भोसले पहली भारतीय सिंगर बनी जिन्हे ग्रैमी अवॉर्ड्स के लिए नॉमिनेट किया गया था।
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