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#आर्य आक्रमण
ramanan50 · 2 years
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मनु द्रविड़, राम के पूर्वज
संस्कृत और तमिल दुनिया की सबसे पुरानी भाषाएं हैं । यह जानना असंभव है कि तमिल और सनातन धर्म संस्कृतियों की उत्पत्ति क्या है । तमिल लो पक्ष लगभग 50,000 साल पुराना है । यह उप-पुरातन तमिल, अपने पुरातन और पौराणिक व्याकरणिक ग्रंथ के साथ वेदों का उल्लेख करता है थोलकप्पियम । पुस्तक तमिल राजाओं से संबंधित है । पश्चिमी लेखकों?(बी) यह 5,000 नहीं है । यह भी जल्दी था । आप इसे मेरी अंग्रेजी बोलने वाली…
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vaidicphysics · 2 years
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साम्प्रदायिक कट्टरता का समाधान
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क्या उदयपुर में कन्हैयालाल हत्याकाण्ड को देश में आईएसआईएस अथवा तालिबानी क्रूरता के प्रवेश का संकेत है? आज पुलिस व न्यायालय दोनों के प्रति विश्वास डगमगाया है। अब हम सबको अपने अस्तित्व के लिए, भारत को बचाने के लिए स्वयं आगे आना होगा। संगठन केवल श्मशान वैराग्य की भाँति सिद्ध न हो जाए, बल्कि हिन्दुओं को कथित जातिवाद व निजी स्वार्थी के दुःखद जाल से पूर्णतः मुक्त होकर अपनी रक्षा स्वयं करने तथा एक दूसरे की त्वरित सहायता के लिए सदैव तत्पर रहना होगा। दुर्भाग्यवश हम आर्य से हिन्दू हो गये और अब कोई हिन्दू नहीं है, बल्कि यहाँ केवल कथित जातियाँ ही रह गयी हैं, तो कथित प्रबुद्ध लोग आज इण्डियन हो चुके हैं।
भारत के मुसलमानों को यह आत्मनिरीक्षण करना होगा कि उनमें जो रक्त बह रहा है, वह किसका है? उनका डीएनए भारतीय है वा विदेशी? क्या मजहब बदलने से कभी रक्त वा डीएनए बदल सकता है? तब उन्हें अपने व पराए का स्वयं बोध हो जायेगा। उन्हें पाकिस्तान, अफगानिस्तान व सीरिया जैसे देशों की स्थिति के लिए जिम्मेदार विचारधारा को पहचानना होगा। क्या आप अशफाक उल्ला खाँ, अब्दुल हमीद व ए.पी.जे अब्दुल कलाम को आदर्श मानोगे?
भारत के सभी राजनैतिक दलों, भारत वा विश्व के न्यायवेत्ताओं व मानवतावादियों को इन प्रश्नों के उत्तर अवश्य ढूँढने होंगे -
भारत में किस दल के शासन में साम्प्रदायिक दंगे अधिक हुए?
हिन्दू बहुल क्षेत्रों में अल्पसंख्यकों की स्थिति कैसी है, उधर मुस्लिम वा ईसाई बहुल क्षेत्रों में हिन्दुओं की स्थिति क्या है? दोनों में तुलना करनी होगी।
सभी पूजा स्थलों (मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि) की जाँच की जाए कि कहीं उनमें हथियार वा आपत्तिजनक साहित्य तो नहीं है?
इसी प्रकार सभी भारतीयों के घरों की भी जाँच की जाए।
सभी के मजहबी शिक्षण स्थलों व पाठ्यक्रमों की जाँच की जाए कि कहीं कोई देशविरोधी शिक्षा वा हथियारों के अड्डे तो नहीं हैं?
सभी के ग्रन्थों को पढ़कर उनमें से हिंसा, वैर, भेदभाव, छूआछूत आदि को बढ़ाने वाले प्रसंगों को निकाला जाए। ऐसे प्रसंग मिलने पर उनके विद्वानों से सार्वजनिक स्पष्टीकरण मांगा जाए।
सभी सम्प्रदायों से जुड़े व्यक्तियों के देश के स्वतन्त्रता संग्राम व विकास में योगदान के अनुपात की जाँच की जाए। इससे सबकी देशभक्ति की परख हो जायेगी।
किस समुदाय के लोग दूसरे सम्प्रदायों के प्रति कितने सहनशील रहे हैं, इसकी भी निष्पक्ष जाँच की जाए। भाईचारे का नारा देने वाले नेता किस सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं?
किस सम्प्रदाय के लोग विदेश के लिए अपने देश की जासूसी करते हैं वा करते रहे हैं, इसकी सूची सार्वजनिक की जाए।
किस समुदाय के लोग भारतीय संविधान का अधिक सम्मान करते हैं, इसे भी परखा जाए।
किस विचारधारा के लोग देश के संविधान से अपनी मजहबी मान्यताओं को अधिक महत्व देते हैं तथा संविधान को चुनौती देते हैं वा देते रहे हैं?
किस विचारधारा के लोग अधिक बर्बर व कलहप्रिय होते हैं, इसकी भी जाँच की जाए।
किस समुदाय के महापुरुष कहे जाने वालों के विरुद्ध अन्य सम्प्रदाय वालों के द्वारा अधिक घृणित शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है? और कौन प्रथम व अधिक विषवमन करता है?
किस सम्प्रदाय में राष्ट्र, सेना, प्राचीन इतिहास व संस्कृति के प्रति निष्ठा अधिक है?
किस-किस सम्प्रदाय के आक्रान्ताओं ने भारत सहित अनेक देशों पर आक्रमण किए? इसमें कितने लोग मारे गये?
किस सम्प्रदाय की बहुलता वाले क्षेत्र पाकिस्तान में गये और आज भी कौन लोग भारत विरोधी नारे लगाते हैं?
किस सम्प्रदाय के लोग साम्प्रदायिक दंगों में अधिक लिप्त रहे हैं? राजनेताओं व मीडिया द्वारा आतंकवादियों को धर्मविशेष के लोग बताया जाता है, वह धर्मविशेष क्या है और उसका आधार ग्रन्थ क्या है?
विश्व के अधिकांश आतंकवादी किस सम्प्रदाय से जुड़े हैं? और इसके पीछे मुख्य कारण क्या है?
विश्व के सभी सम्प्रदाय कैसे संसार में फैले? इसकी जाँच भी करना। वे अपने चरित्र व ज्ञान के बल पर अथवा तलवार व बन्दूक के बल पर संसार में फैलते रहे?
अन्त में सबको इस बात पर भी विचार करना होगा कि कट्टरता की इन बढ़ती घटनाओं का कुछ सम्बन्ध कहीं उन वैश्विक शक्तियों से तो नहीं हैं, जो सम्पूर्ण विश्व पर एकछत्र शासन करना चाहती हैं? इसके साथ ही क्या स्वयं को एकमात्र मानव समझ कर एक सत्यधर्म की खोज करने हेतु प्रीतिपूर्वक संवाद एवं कट्टरपंथियों को कठोरतम दण्ड देने के लिए हम सभी एक नहीं हो सकते? क्या हम इतना भी नहीं समझते कि संसार के किसी भी प्राणी में ऐसा क्रूर व्यवहार नहीं देखा जाता, जैसा कि आज इन कट्टरपंथियों का हो गया है। क्या हम पशुओं से भी नहीं सीख सकते?
-आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक
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भारत के बारे में दिलचस्प तथ्य
भारत के बारे में दिलचस्प तथ्य
क्या आप भारत के बारे में ये सब बाते जनता हे अगर नहीं तो आज जानेंगे 1. भारत ने अपने पिछले 100000 वर्षों के इतिहास में कभी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया।2. जब 5000 साल पहले कई संस्कृतियां केवल खानाबदोश वनवासी थीं, भारतीयों ने सिंधु घाटी (सिंधु घाटी सभ्यता) में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की।2. ‘इंडिया’ नाम सिंधु नदी से लिया गया है, जिसके चारों ओर की घाटियाँ शुरुआती बसने वालों का घर थीं। आर्य उपासक…
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naipahalhamirpur · 3 years
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☑️भारतीय इतिहास तिथिक्रम 30 ईस्वी To 2007
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🔰🔰🔰भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं तिथिक्रम में।🔰🔰🔰
🔰🔰भारत के इतिहास के कुछ कालखण्ड🔰🔰
💧सिंधु घाटी सभ्यता का काल : (3300-1700 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧हड़प्पा काल : (1700-1300 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧आर्य सभ्यता का काल : (1500-500 ईस्वी पूर्व के बीच)
💧बौद्ध काल : (563-320 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧मौर्य काल : (321 से 184 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧कुषाण काल : (30-250 ई.)
💧हुण काल : (490 - 542 ई.)
💧गुप्तकाल : (240 ईस्वी से 800 ईस्वी तक के बीच) :
💧मैत्रक राजवंश : (475 - 864 ई.)
💧चप या चावडा काल : (690 -942 ई.)
💧गुर्जर प्रतिहार काल : (725-1036 ई.):
💧मध्यकाल : (600 ईस्वी से 1800 ईस्वी तक) :
💧अंग्रेजों का औपनिवेशिक काल : (1760-1947 ईस्वी पश्चात)
💧स्वतन्त्र और विभाजित भारत का काल : (1947 से प्रारंभ)
🔰🔰ईसा पूर्व🔰🔰
💧2500 - 1800: सिंधु घाटी सभ्यता
💧599: महावीर स्वामी का जन्म
💧563 : गौतम बुद्ध का जन्म, 483 ईसा पूर्व में निर्वाण प्राप्त।
💧327-26: सिकन्दर द्वारा भारत की खोज एवं यूरोप व भारत के मध्य भूमि मार्ग की शुरुआत।
💧269-232: सम्राट अशोक का काल
💧261: कलिंग का युद्ध
💧57: विक्रम काल की शुरुआत
💧30: दक्कन में सातवाहन वंश का आरम्भ तथा दक्षिण में पांड्य का शासन।
🔰🔰ईसवी सन🔰🔰
💧78: शक संवत का आरम्भ
💧320: गुप्त काल का आरम्भ
💧360: समुद्रगुप्त ने संपूर्ण उत्तर भारत तथा दक्कन के अधिकांश भाग को जीत लिया।
💧380-413: चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन, कालिदास का काल
💧606-647: हर्षवर्धन का शासन
💧629-645: ह्वेनसांग का भारत आगमन
💧711 - मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों का सिंध प्रदेश पर आक्रमण
💧1191- तराइन का प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गोरी की पराजय
💧1192- तराइन का द्वितीय युद्ध। पृथ्वीराज चौहान की पराजय और मृत्यु
💧1221- चंगेज खाँ द्वारा प्रथम मंगोल आक्रमण
💧1336- दक्षिण भारत में विजयनगर राज्य की स्थापना।
💧1343- दक्षिण भारत में बहमनी राज्य की स्थापना।
💧1398- तैमूर लंग द्वारा भारत पर आक्रमण
💧1469- गुरुनानक का जन्म
💧1498- 20 मई को वास्कोडिगामा का समुद्र मार्ग से भारत पहुँचना।
💧1526- पानीपत का प्रथम युद्ध। बाबर द्वारा इब्राहिम लोदी की पराजय, उत्तर भारत में मुगलों की स्थापना।
💧1556- पानीपत का द्वितीय युद्ध,
💧1565- तालीकोटा का युद्ध, जजिया का अंत
💧1576- हल्दीघाटी का युद्ध में अकबर ने महाराणा प्रताप को हराया।
💧1600- इस्ट इंडिया कंपनी की स्थआपना।
☑️भारतीय इतिहास तिथिक्रम 30 ईस्वी To 2007
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🔰🔰🔰भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं तिथिक्रम में।🔰🔰🔰
🔰🔰भारत के इतिहास के कुछ कालखण्ड🔰🔰
💧सिंधु घाटी सभ्यता का काल : (3300-1700 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧हड़प्पा काल : (1700-1300 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧आर्य सभ्यता का काल : (1500-500 ईस्वी पूर्व के बीच)
💧बौद्ध काल : (563-320 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧मौर्य काल : (321 से 184 ईस्वी पूर्व के बीच) :
💧कुषाण काल : (30-250 ई.)
💧हुण काल : (490 - 542 ई.)
💧गुप्तकाल : (240 ईस्वी से 800 ईस्वी तक के बीच) :
💧मैत्रक राजवंश : (475 - 864 ई.)
💧चप या चावडा काल : (690 -942 ई.)
💧गुर्जर प्रतिहार काल : (725-1036 ई.):
💧मध्यकाल : (600 ईस्वी से 1800 ईस्वी तक) :
💧अंग्रेजों का औपनिवेशिक काल : (1760-1947 ईस्वी पश्चात)
💧स्वतन्त्र और विभाजित भारत का काल : (1947 से प्रारंभ)
🔰🔰ईसा पूर्व🔰🔰
💧2500 - 1800: सिंधु घाटी सभ्यता
💧599: महावीर स्वामी का जन्म
💧563 : गौतम बुद्ध का जन्म, 483 ईसा पूर्व में निर्वाण प्राप्त।
💧327-26: सिकन्दर द्वारा भारत की खोज एवं यूरोप व भारत के मध्य भूमि मार्ग की शुरुआत।
💧269-232: सम्राट अशोक का काल
💧261: कलिंग का युद्ध
💧57: विक्रम काल की शुरुआत
💧30: दक्कन में सातवाहन वंश का आरम्भ तथा दक्षिण में पांड्य का शासन।
🔰🔰ईसवी सन🔰🔰
💧78: शक संवत का आरम्भ
💧320: गुप्त काल का आरम्भ
💧360: समुद्रगुप्त ने संपूर्ण उत्तर भारत तथा दक्कन के अधिकांश भाग को जीत लिया।
💧380-413: चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन, कालिदास का काल
💧606-647: हर्षवर्धन का शासन
💧629-645: ह्वेनसांग का भारत आगमन
💧711 - मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में अरबों का सिंध प्रदेश पर आक्रमण
💧1191- तराइन का प्रथम युद्ध में पृथ्वीराज चौहान द्वारा मुहम्मद गोरी की पराजय
💧1192- तराइन का द्वितीय युद्ध। पृथ्वीराज चौहान की पराजय और मृत्यु
💧1221- चंगेज खाँ द्वारा प्रथम मंगोल आक्रमण
💧1336- दक्षिण भारत में विजयनगर राज्य की स्थापना।
💧1343- दक्षिण भारत में बहमनी राज्य की स्थापना।
💧1398- तैमूर लंग द्वारा भारत पर आक्रमण
💧1469- गुरुनानक का जन्म
💧1498- 20 मई को वास्कोडिगामा का समुद्र मार्ग से भारत पहुँचना।
💧1526- पानीपत का प्रथम युद्ध। बाबर द्वारा इब्राहिम लोदी की पराजय, उत्तर भारत में मुगलों की स्थापना।
💧1556- पानीपत का द्वितीय युद्ध,
💧1565- तालीकोटा का युद्ध, जजिया का अंत
💧1576- हल्दीघाटी का युद्ध में अकबर ने महाराणा प्रताप को हराया।
💧1600- इस्ट इंडिया कंपनी की स्थआपना।
💧1605- अकबर की मृत्यु, सूरत में अंगरेजों द्वारा प्रथम कोठी की स्थापना।
💧1627- शिवाजी का जन्म।
💧1668- सूरत में फ्रांसिसियों की प्रथम फैक्ट्री।
💧1680- शिवाजी की मृत्यु
💧1707- औरंगजेब की मृत्यु, गुरुगोविंद सिंह की मृत्यु। मुगल वंश का पतन आरंभ।
💧1714- बालाजी विश्वनाथ द्वारा पेशवा वंश की स्थापना
💧1739- नादिरशाह का भारत पर आक्रमण तथा मयूर सिंहासन को इरानले जाना।
💧1751- अर्काट का घेरा।
💧1757- पलासी का युद्ध, क्लाइव ने सिराजुद्दौला को हराया
💧1760- बांडीबास का युद्ध, भारत में फ्रांसिसि शक्ति का अंत
💧1761- पानीपत का तृतिय युद्ध।
💧1764- बक्सर का युद्ध, बंगाल में द्वैध शासन।
💧1773- रेगुलेटिंग ऐक्ट पारित
💧1799- चतुर्थ मैसूर युद्ध, टीपू सुल्तान की मृत्यु, मैसूर का विभाजन, रणजीत सिंह द्वारा लाहौर पर अधिपत्य
💧1818- चतुर्थ आंग्ल-मराठा युद्ध।
💧1833- ब्रह्मसमाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय की मृत्यु
💧1835- मैकाले के सुझाप पर अंगरेजी को शिक्षा का माध्यम घोषित किया गया।
💧1853- बंबई से थाणे तक की पहली रेल लाइन का उद्घाटन कलकत्ता से प्रथम तार का उद्घाटन
💧1857 : स्‍वतंत्रता का पहला संग्राम (या सिपाही विद्रोह)
💧1861 : रबीन्‍द्रनाथ टैगोर का जन्‍म
💧1869 : महात्‍मा गांधी का जन्‍म
💧1885 : भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस की स्‍थापना
💧1889 : जवाहरलाल नेहरु का जन्‍म
💧1897 : सुभाष चंद्र बोस का जन्‍म
💧1891 : डा. भीम राव अंबेडकर का जन्‍म
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ashokgehlotofficial · 4 years
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किसानों को फसल का उचित मूल्य दिलाने और उनकी आय बढ़ाने के लिए एग्रो प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने की योजना का लाभ किसानों को प्राथमिकता के आधार दिलवाएं। कृषि तथा सम्बन्धित विभागों के अधिकारियों को इस योजना के तहत बैंक से ऋण दिलाने में किसानों की सहायता करने तथा जिला स्तर पर अभियान चलाकर किसानों को प्रोत्साहित करने के निर्देश दिए।
निवास पर कृषि, सहकारिता एवं अन्य विभागों की समीक्षा बैठक को सम्बोधित किया। इस योजना से न केवल किसानों की आमदनी में वृद्धि होगी बल्कि फसल उत्पादों में वैल्यू एडिशन होने से उनकी कीमत भी बढ़ेगी और स्थानीय स्तर पर कृषि क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। इस योजना के तहत किसानों को कृषि प्रसंस्करण उद्योग लगाने पर एक करोड़ रूपये तक ऋण मिल सकता है जिस पर राज्य सरकार द्वारा 50 प्रतिशत तक अनुदान दिया जाता है।
कई मल्टी स्टेट को-ऑपरेटिव सोसायटियों के द्वारा आम जनता को निवेश के नाम पर धोखा देकर उनकी गाढ़ी मेहनत की कमाई लूटने की शिकायतें चिंता का विषय हैं। अधिकारियों को ऐसा मैकेनिज्म तैयार करने के निर्देश दिए कि भविष्य में प्रदेश में ऐसी कोई भी को-ऑपेरटिव सोसायटी गरीब जनता को झांसे में नहीं ले सके। आम जनता को ऐसी सोसायटियों से बचाने के लिए जागरूक करने की भी जरूरत है।
किसानों को रबी फसल वर्ष 2019-20 के बीमा क्लेम के शीघ्र भुगतान के लिए 250 करोड़ रूपए प्रीमियम कृषक कल्याण कोष से स्वीकृत करने के भी निर्देश दिए। इस निर्णय से लगभग 2.50 लाख किसानों को लगभग 750 करोड़ रूपए के बीमा क्लेम का जल्द से जल्द भुगतान किया जा सकेगा। विभिन्न जिलों में 3,723 डिग्गियों के निर्माण पर कृषक कल्याण कोष से 95.87 करोड़ रूपए के शीघ्र भुगतान के लिए निर्देश दिए। इस हेतु कृषक कल्याण कोष से भी राशि उपलब्ध कराई जाएगी।
विभिन्न सहकारी संस्थाओं में 1,000 पदों पर भर्ती की प्रक्रिया को जल्द शुरू किया जाए। इसके लिए विभाग के सेवा एवं भर्ती नियमों में आवश्यक संशोधन 3 माह में पूरा कर भर्ती की अभ्यर्थना सहकारी भर्ती बोर्ड को भेजने के निर्देश दिए।
प्रदेश की क्रय-विक्रय सहकारी समितियों, पैक्स, लैम्प्स आदि के माध्यम से किसानों को भारत सरकार द्वारा शुरू किए कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर फण्ड का अधिकाधिक लाभ उपलब्ध कराने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक राज्य स्तरीय मॉनिटरिंग कमेटी गठित करने का भी निर्णय लिया है। राजस्थान में इस फण्ड के तहत 9 हजार करोड़ रूपए आवंटित करने का लक्ष्य रखा गया है और नवगठित समिति इसकी क्रियान्विति की नियमित मॉनिटरिंग करेगी।
राज्य की कृषि उपज मण्डी समितियों के प्रांगण में सार्वजनिक सुविधाओं के संचालन के लिए भूखण्डों का आवंटन करने का भी निर्णय लिया है। इन भूखण्डों पर मण्डी में किसानों के लिए सामुदायिक सुविधाओं का विकास किया जाएगा।
कॉनफेड एवं सहकारी उपभोक्ता भण्डारों में एकरूपता लाने तथा इनके माध्यम से दवाओं की पारदर्शी एवं समयबद्ध उपलब्धता सुनिश्चित करने के भी निर्देश दिए। प्रदेश के 4.15 लाख पेंशनरों की सहुलियत के लिए सभी सहकारी भण्डारों के मेडिकल विक्रय केन्द्रों को ऑनलाइन किया जाएगा तथा उसे राज्य सरकार के ट्रेजरी एवं पेंशन विभाग से भी जोड़ा जाएगा। साथ ही, कॉनफेड एवं सहकारी उपभोक्ता भण्डारों के लिए दवाओं की खरीद भी केन्द्रीकृत व्यवस्था के तहत करने का निर्णय लिया गया।
राजस्थान के 5 लाख पशुपालक किसानों को पशुधन के आधार पर भी अधिकाधिक किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) जारी करने हेतु चलाए जा रहे अभियान की नियमित मॉनिटरिंग राज्य सरकार के स्तर पर राज्य स्तरीय बैंकर्स कमेटी एवं आयोजना के माध्यम से की जाएगी। इस निर्णय से जमीन और पशुधन रखने वाले किसानों के लिए केसीसी की साख सीमा बढ़कर 3 लाख रूपए तक हो जाएगी। जिन किसानों के पास केवल पशु हैं, उन्हें 1.60 लाख रूपए की केसीसी साख सीमा तक ऋण दिया जाएगा।
बैठक में प्रदेश की 1,000 नई ग्राम सेवा एवं क्रय-विक्रय सहकारी समितियों को इसी वर्ष निजी गौण मण्डी का दर्जा देने का निर्णय के प्रस्ताव को भी स्वीकृति दी। ये मण्डियां पूर्व में घोषित 550 निजी गौण मण्डियों के अतिरिक्त हैं। साथ ही, शेष रही सहकारी समितियों को भी आगामी वर्षों में चरणबद्ध रूप से गौण मण्डी का दर्जा दिया जाएगा। इससे दूरस्थ गांवों में भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद हो सकेगी।
कृषि एवं सहकारिता विभाग के प्रमुख शासन सचिव श्री कुंजीलाल मीणा ने बताया कि सहकारिता विभाग द्वारा वर्ष 2019-2020 में 21.86 लाख कृषकों को 9541 करोड़ रूपये का अल्पकालीन सहकारी फसली ऋण वितरित किया है। वर्ष 2020-21 में खरीफ सीजन के लिए 23.91 लाख किसानों को 7343.71 करोड़ रूपये का ऋण वितरित किया गया है, इसमें 2.25 लाख नए कृषकों को 393.80 करोड़ रूपये का ऋण बांटा गया। उन्होंने बताया कि कोरोना को देखते प्रदेशभर में गौण मण्डियों के माध्यम से कृषि उपज की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की गई। विभिन्न जिलों में 430 गौण मण्डियों में 155.31 करोड़ रूपये की कृषि उपज खरीदी गई।
कृषि आयुक्त डॉ. ओमप्रकाश ने बताया कि प्रदेश में 5 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में टिड्डी नियंत्रण के लिए दवा छिड़काव किया गया। इस वर्ष प्रदेश के 33 में से 32 जिलों में टिड्डियों का प्रकोप रहा, जिस पर कृषि विभाग ने स्थानीय लोग��ं, जिला प्रशासन तथा अन्य विभागों के साथ मिलकर काबू पाया है। उन्होंने बताया कि आने वाले दिनों में टिड्डियों के नए दलों के आक्रमण की आंशका है। इस पर कहा कि टिड्डियां फिर से फसलों को नुकसान नहीं पहुंचाए, इसके लिए पहले से ही पुख्ता व्यवस्था की जाए।
समीक्षा बैठक में कृषि मंत्री श्री लालचन्द कटारिया, सहकारिता मंत्री श्री उदयलाल आंजना, कृषि राज्यमंत्री श्री भजनलाल जाटव, सहकारिता राज्यमंत्री श्री टीकाराम जूली वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से जुड़े। इस दौरान मुख्य सचिव श्री राजीव स्वरूप, अति. मुख्य सचिव वित्त श्री निरंजन आर्य, राजस्थान राज्य भण्डारण निगम के सीएमडी श्री पवन कुमार गोयल, रजिस्ट्रार सहकारिता श्री मुक्तानन्द अग्रवाल, प्रबंध निदेशक राजफैड सुषमा अरोड़ा, निदेशक कृषि विपणन बोर्ड श्री ताराचन्द मीणा सहित सम्बन्धित विभागों के वरिष्ठ अधिकारी उपस्थित थे।
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onlinekhabarapp · 5 years
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को हुन् सुर र असुर ? कहाँ भएको थियो देवासुर युद्ध ?
विभिन्न धार्मिक ग्रन्थमा देवता र असुरहरुको युद्धको प्रसंग जोडिएको पाइन्छ । वैदिक साहित्यहरु महाभारत जस्ता धर्मशास्त्र पढ्दा हामी जान्दछौं कि यी पुरातन समयमा दुई जातीहरु थिए । एउटा आर्य जाति थिए । उनीहरु देवताको कोटीमा पर्थे । साथै अर्का मंगोल र द्रबिड जाति थिए । सम्भवतः उनीहरु नै धर्मशास्त्रहरुमा असुरको नामबाट चिनिएका हुन् कि ? भन्ने विश्वास गरिन्छ ।
वैदिक काल भनेर इतिहासमा इसापूर्व १५०० देखि १००० सम्मको समयलाई मान्ने गरिन्छ । अहिलेसम्म लिपी पढ्न नसकिएको भएपनि सिन्धुघाँटी सभ्यता बसेको ठाउँमा प्राचीन समयको व्यवस्थित नगरको पुरातात्विक प्रमाणहरु भेटिएको छ । त्यसकारण धर्मशास्त्रमा उल्लेख गरिएको असुरहरुको विशाल शहर त्यही सिन्धुघाँटी सभ्यता त होइन ? भन्ने कुरा समेत बहसमा आएको छ ।
त्यो समयसम्म आर्यहरु व्यवस्थित रुपमा समूह बनाएर बस्ने गरेका थिएनन् । उनीहरु घुमन्ते जीवनशैली बिताउने खालका थिए । पछि इसापूर्व १७५० को समयतिर आर्यहरुसँगको युद्धका कारण नै सिन्धुघाँटीको त्यो व्यवस्थित नगरको विनास भएको समेत इतिहासमा पाइन्छ । त्यसैले त्यही सिन्धुघाँटीमा बस्ने द्रबिडहरु नै धर्मशास्त्रमा राक्षसको रुपमा बर्णित जातिहरु त होइन ? भन्ने बहस सुरु भएको छ ।
धर्मशास्त्र अनुसार कसरी भयो राक्षस र देवताको उत्पत्ति
वैदिक साहित्यहरुका अनुसार त्यतिबेला देव, दैत्य, दानव, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, नाग, आदि जातिहरु हुन्थे । देवताहरुलाई सुर भनिन्थ्यो भने राक���षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, नागहरुलाई असुर भन्ने गरिन्थ्यो । देवताहरुको उत्पत्ति अदितिबाट भयो भने दैत्यहरुको उत्पत्ति दितिबाट भएको मानिन्छ ।
यसबाहेक दानवहरुकोे उत्पत्ति दानुबाट, राक्षसहरूको उत्पत्ति सुरसाबाट, गन्धर्वको उत्पत्ति अरिष्टबाट उत्पन्न भयो । यस्तैगरी यक्ष, किन्नर, नाग आदिको उत्पत्ति भएको मानिन्छ ।
कहाँ भएको थियो दैत्य र असुरहरुको युद्ध ?
धेरै धार्मिक ग्रन्थहरुमा लेखिएको असुरहरुका ती विशाल भवनहरु कहाँ थिए होलान् । कुनैपनि धर्मग्रन्थहरुले कोरा कल्पनामा मात्रै पक्कैपनि यति धेरै धर्मशास्त्रहरु लेखेनन् होला भन्ने बुझाई धेरैको हुन्छ ।
देवता र असुरहरुको युद्धको समयताका सबै महाद्वीपहरु एक आपसमा जमिनको भागबाट नै जोडिएका थिए । यो जडित पृथ्वीलाई पुरानो समयमा ७ वटा टापुमा विभाजन गरिएको थियो । जुन जम्बु, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक र पुष्कर टापुको नामबाट चर्चित छ । जम्बु द्वीप सबैको बिचमा अवस्थित छ ।
जम्बु द्वीपलाई पनि ९ खण्डमा विभाजन गरिएको थियो । इलावृता, भद्रशव, किम्पुरुष, भारत, हरिवर्षा, केतुमाल, रम्यक, कुरु र हिरण्यमय । यस क्षेत्रमा त्यहाँ सूर र असुरहरूको साम्राज्य थियो भन्ने विश्वास छ ।
केही व्यक्तिहरू ब्रह्मा र उनका कुलहरू पृथ्वीमा थिएनन् भन्ने विश्वास गर्छन् । उनीहरूले पृथ्वीमा आक्रमण गरे र मधु र कैटभ नामका राक्षसहरूलाई मारे पछि पृथ्वीमा आफ्नो कुल फैलाए भन्ने पनि पाइन्छ । यहीँबाट धर्तीका दैत्यहरु र स्वर्गका देवताहरुको बीचमा लडाईं सुरु भयो । देवासुर युद्ध जम्बुद्वीपको इलाबार्ट (रसिया) क्षेत्रमा १२ पटक भएको धर्मशास्त्रहरुमा पाइन्छ ।
धर्मशास्त्र अनुसार अन्तिम पटक प्रल्हादको नाति, हिरण्यकशिपुका छोरा र विरोचनको छोरा इन्द्रले राजा बालीसँग लडाई गरे र सम्पूर्ण जम्बुद्वीप असुरहरूले शासन गरेको बेलामा देवताहरू पराजित भए । यस जम्बुद्वीपको बीचमा इलावट राज्य थियो ।
यद्यपि, कसैकसैले विश्वास गर्छन् कि अन्तिम लडाईं सम्भवतः शम्बासुरको साथ थियो जसमा राजा दशरथले पनि भाग लिएका थिए ।
युद्धमा बृहस्पतिको सहभागिता
बृहस्पति, देवताहरूको पुजारी र भगवान विष्णुका भक्त थिए । महाभारतको आदिपर्वका अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिराका छोरा र देवताहरूका पुजारी थिए । बृहस्पतिका छोरा कच थिए जसले शुक्राचार्यबाट संजीवनी विद्या सिकेका थिए ।
देवगुरु जुपिटरकी एक श्रीमती शुभा र श्रीमती तारा हुन् । पछि ममताले भारद्वाज र काच नामका दुई छोरालाई जन्म दिइन् । बृहस्पतिको इन्द्रादता इन्द्र हुन् र प्रतिधदेवता ब्रह्मा हुन् ।
शुक्राचार्यको सहभागिता
असुरका पुजारी शुक्राचार्य भगवान शिवका भक्त थिए । भृगु ऋषि र हिरण्यकशिपुकी छोरी दिव्याका छोरा शुक्राचार्यकी छोरीको नाम देवयानी थियो र छोराको नाम शन्द र अमर्क थियो । आचार्य शुक्राचार्य शुत्र नीति शास्त्रका प्रवर्तक थिए । उनको शुक्र नीति अझै पनि चर्चित साहित्यको रुपमा उल्लेख छ ।
सुरुमा उनीहरुले अंगिरस ऋषिको शिष्यत्व ग्रहण गरेका थिए । तर, जब उनले आफ्नो छोराप्रति अनुग्रह देखाउन थाले, उनले शंकरको पूजा गरे र संजीवनीको मरणशील ज्ञान प्राप्त गरे । जसको बलमा देवासुर युद्धमा असुरहरूले धेरै पटक जितेका थिए ।
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rajeshksahu · 5 years
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वही कहानी, वही तरीका केवल नाम भेद : हिन्दु कब सीखेंगे?-डॉ विवेक आर्य
वही कहानी, वही तरीका केवल नाम भेद : हिन्दु कब सीखेंगे?-डॉ विवेक आर्य
09 मई 2019  www.azaadbharat.orgभारत में अधिकतर जगह-जगह पर स्थित कब्रें उन मुसलमानों की हैं, जो भारत पर आक्रमण करने आए थे और हमारे वीर हिन्दू पूर्वजों ने उन्हें अपनी तलवारों से परलोक पंहुचा दिया था। ऐसी ही एक कब्र गुजरात के उनावा में स्थित है।  स्थान -हज़रत सैयद अली मीरा दातार दरगाह, उनावा ग्राम, जिला मेहसाणा, गुजरात  पात्र -सय्यद अली उर्फ़ हज़रत सैयद अली मीरा दातार पूर्वज -बुखारा से दादा और…
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mahenthings-blog · 6 years
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कौन है हम ?? भाग -18 
दक्षिण भारत के प्रथम ऐतिहासिक काल के तीन प्रमुख साम्राज्य चेर ,चोल और पां���्य संगम काल के दौरान लगभग गौण स्थिति में रहते है जिसके चलते संगम साहित्य में इनका विशेष वर्णन नहीं मिलता लेकिन पूर्व मध्यकाल में एक बार फिर ये राज्य चर्चा में आते है जिसके बाद इनका शासन मध्यकाल के दौरान भी जारी रहता है | चेर केरल का प्राचीन नाम है ,चेर राजाओ को इतिहास केरल पुत्र के नाम से भी जानता है, प्रारंभिक चेर राजा वानवार जाति से थे | अशोक के शिलाभिलेखो में केरल पुत्र का जिक्र मिलता है जिसे उसने दक्षिण में बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था | संगम काल (100 -250 ईस्वी ) में उदयनजेरल (130 ईस्वी ) पहला चेर शासक था | उसके बाद नेंदुजेराल आदन ,कुट्टुवन ,शेंगुट्टुवन और कुड्डुकी (190 ईस्वी ) राजा हुए | 210 ईस्वी में चेर राजा मंदारजेराल को पांड्य राजा ने पराजित किया , इसके बाद चेर वंश का इतिहास अज्ञात है | सातवीं आठवीं सदी में पांड्य राजाओ द्वारा चेर प्रदेश कांगू पर अधिकार के बाद चेर अस्तित्व एक बार फिर नजर आता है ,इस समय चेरो ने खुद को पांड्यो से सुरक्षित रखने के लिए पल्लवों से मित्रता की | आठवीं नवीं सदी का चेर राजा चेरमान् पेरुमाल  धर्मसहिष्णु और सर्वधर्मोपासक था, विद्वानों के मत में उसके शासनकाल के अंत के साथ कोल्लम अथवा मलयालम् संवत् का प्रारंभ हुआ (824-24 ई.)। उसके समय में अरबी मुसलमानों मलाबार तट पर बसे और उन्होंने वहाँ की स्त्रियों से विवाह भी किया, जिनसे मोपला लोगों की उत्पत्ति हुई। चेरमान् पेरुमाल लेखक और कवि था।  शंकराचार्य उसके समकालिक लेखकों में थे | नवीं सदी के अंत में चेर शासक स्थाणुरवि ने चोलराज आदित्य के पुत्र परांतक से अपनी पुत्री का विवाह कर चोलों से मित्रता कर ली। स्थाणुवि का पुत्र विजयरागदेव हुआ जिसके वंशजों में भास्कर रविवर्मा (1047-1106) प्रसिद्ध शासक हुआ। किंतु राजरा प्रथम और उसके उत्तराधिकारी चोलों ने चेर का अधिकांश भाग जीत लिया।           
  चेरदेश के नंबूदरी ब्राह्मण विद्या और साहित्य के लिए जाने जाते है ,आर्यवंशी कुरुनंदडक्कन (नवीं सदी) ने वैदिक विद्याओं के प्रचार के लिए दक्षिणी त्रावणकोर में पार्थिवशेखरपुरम् के एक विष्णुमंदिर में विद्यालय और छात्रावास की स्थापना हेतु एक निधि स्थापित की थी। तमिल साहित्य में तृतीय संगम की रचनाओं में से एत्तुथोकै में आठ संग्रह हैं। इनमें चौथे संग्रह पदित्रुपात्तु में दस-दस पदोंवाली दस कविताएँ थीं। इन कविताओं में से पहली और आठवीं उपलब्ध नहीं है। शेष आठ कविताएँ चेर राजाओं के युद्धों और गुणों से संबंधित हैं। इनसे चेर राज्य में तमिल संस्कृति की कई विशेषताओं का ज्ञान होता | सात राजाओं पर विजय एक उच्च पद था जिसके सूचक के रूप में विजित राजाओं के मुकुट की माला धारण की जाती थी। विशेष शक्तिशाली राजाओं के लिए दिग्विजय के द्वारा चक्रवर्ती का पद प्राप्त करने का आदर्श था | । वीरों की स्मृतियों में पत्थर गाड़ने ओर उनकी पूजा करने का चलन था। सांस्कृतिक जीवन की प्रमुख विशेषता उसका मिश्रित स्वरूप थी जिसमें तमिल और आर्य दोनों ही तत्व विद्यमान थे । तमिल कवियों को आर्य परंपरा के अनुवृत्तों और दार्शनिक तथा धार्मिक विचारों का ज्ञान था।चेर देश अपनी भैंस, मिर्च, हल्दी और मूल्यवान् पत्थरों के लिए प्रसिद्ध था। संभवत: अदिगैमान के वंश ने ही गन्ने की खेती को इस प्रदेश में आरंभ किया था | मुशिरि प्रमुख बंदरगाह था जहाँ यूनानी व्यापारी सोने के बदले मिर्च और समुद्र तथा पर्वतों की दुर्लभ उपजों के साथ लौटते थे। पुरनानुरु में धान के बदले मछली और मिर्च की गाँठों के विक्रय का और बड़े जहाजों से छोटे जहाजों पर सामान लादने क वर्णन है। अन्य प्रसिद्ध बंदरगाहों में बंदर और कोडुमणम् के नाम उल्लेखनीय हैं। रोम के साथ चेर देश के व्यापार संबंध की पुष्टि पेरिप्लस और अधिक संख्या में देश में उपलब्ध हुई चाँदी तथा सोने को रोम की मुद्राओं से होती हैं। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ कंचुकि पहनती थीं और केशों में लेप करती थीं, केश की पाँच श्रेणियों में बाँटने का चलन था। स्त्रियों को समाज में पर्याप्त स्वतंत्रता प्राप्त थी, विधवाओं की दशा बुरी थी तथा सती का प्रचलन विशेष रूप से उच्च और सैनिक वर्गों में था | नृत्य और संगीत जनजीवन के महत्वपूर्ण अंग थे , तुणंगै और अल्लियम् नृत्यों में स्त्री और पुरुष दोनों भाग लेते थे।अन्य धर्मों की तुलना में ब्राह्मण धर्म का अत्यधिक प्रसार था।कालि से सुब्रह्मण्य की उत्पत्ति और उनके शौर्य के कृत्य विशेष रूप से असुर शूर का अंत कवियों के प्रिय विषय थे। शेंगुट्टुवन् के लिये कहा जाता है कि उसने पत्तिनि संप्रदाय को प्रचारित किया जिसमें कण्णगि की आदर्श पत्नी के रूप में पूजा होती थी | इस युग के प्रसिद्ध कवियों में परनर्, कपिलर्, पलै कोथम्नार और काक्कै पादिनिआर प्रमुख हैं। प्रसिद्ध ग्रंथ शिलप्पदिकारम् के रचयिता इलंगो अडिगल को चेर नरेश शेंगुट्टुवन् का भाई कहा जाता है। ईसाई यात्री कॉस्मस ने छठी शताब्दी में क्विलन में एक चर्च देखा था, स्थानीय जनता में से भी कुछ लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था और उनको ताम्रपत्रों के द्वारा अनुदान दिए गए थे जिनमें सर्वप्रथम 774 ई. का है। चेर नरेश चेरमान् पेरुमाल के संबंध में कथा है कि उसने इस्लाम स्वीकार किया था और मक्का की यात्रा की थी जहाँ से उसने भारतीय नरेशों को मुसलमानों का आदर करने और मस्जिदें बनवाने के लिए कहा था। यहूदियों के विषय में भी कहा जाता है कि वे पहली शताब्दी ईसवी में आए थे। चेर नरेश भास्कर रविवर्मन् ने जोज़ेफ़ रब्बन और उसके अनुवर्तियों को दान में कुछ भूमि और विशेषाधिकार दिए थे। वैष्णव आल्वारों में कुलशेखर चेर देश का ही निवासी था , केरल दक्षिणाचार सम्प्रदायों के केंद्र के रूप में भी प्रसिद्ध था।केरल में प्रचलित तमिल ही शताब्दियों में स्वयमेव विकसित होकर मलयालम् भाषा बनी। इसने भी संस्कृत-प्रभाव को ग्रहण किया और संस्कृत-उच्चारणों को व्यक्त करने के लिए प्राचीन बट्टे लुत्तु लिपि के स्थान पर तमिलग्रंथ पर आधारित एक नई लिपि का विकास किया।              
तमिल क्षेत्र में संगम काल के बाद कलभ्रों का जिक्र मिलता है जिनके उत्पत्ति के बारे में कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है लेकिन प्रचलित धारणा के अनुसार ये पहाड़ो में रहने वाली कोई जनजाति थी जो जैन और बौद्ध धर्म को मानती थी,इनके कुछ सिक्को पर जैन आचार्य ,बुद्ध तथा स्वस्तिक पाए गए है सिक्को के दूसरी और ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा के शब्द है | लेकिन छठी सदी के बाद के इनके अभिलेखों में प्राकृत के साथ तमिल और हिन्दू देवी देवताओ के चित्र मिलते है | कांची के वैकुण्ठ पेरुमल मंदिर के एक अभिलेख में किसी कलवारा कवलन का जिक्र मुत्तरियार के रूप में होने से टीए गोपिराव इन्हे मुत्तरियार से जोड़ते है | एम् राघव ऐय्यंगार कलभ्रों की पहचान वेल्लाला कल्लाप्पालार्स के रूप में करते है | 770 ईस्वी की पाण्ड्य शासक परांतक नेदुनजदैयन की वेल्विकुडी ताम्र पट्टिका में आर नरसिम्हाचार्य और और वी वेंकैया जैसे कलभ्रों का उल्लेख कर्नाटास के रूप में किया गया है | इस आधार पर केआर वेंकटारामा मानते है कि पांचवी सदी में कलभ्र बेंगलोर -चित्तूर क्षेत्र में निवास करते थे | तिरुचिरापल्ली का पाली भाषा का प्रसिद्ध लेखक बुद्धदत्त कहता है कि चौथी सदी से नवी सदी के बीच तिरुचिरापल्ली का चोल साम्राज्य कालभ्रों के अधिकार में था ,वो कलभ्र शासक अच्युत वैक्रान्ता का वर्णन करता है जो बौद्ध था और कावेरीपमपट्टनम से शासन करता था | तमिल साहित्य में अच्युत नामक शासक का जिक्र है जिसने चेर ,चोल और पाण्ड्य क्षेत्रो पर अधिकार किया था | कलभ्रों का उल्लेख चालुक्य ,पल्लव और पाण्ड्य ताम्र पट्टिकाओं में भी मिलता है जिसके अनुसार छठी से आठवीं सदी के मध्य कलभ्र शासन था | कलभ्रों के शासन में दक्षिण में बौद्ध और जैन धर्मो की काफी उन्नति हुयी | इस काल की साहित्यिक रचनाओं को दी एटीन माइनर वर्क्स में रखा जाता है जिसमे सिलाप्पधिकरम और मनीमेगालै जैसी रचनाये है जो बौद्ध और जैन आचार्यो द्वारा लिखी गयी | शुरुवाती कलभ्र बौद्ध और जैन धर्म को मानते थे लेकिन बाद में वे शैव और वैष्णव धर्म को मानने लगे उन्होंने हिन्दू देव स्कन्द और सुब्रमण्य की पूजा को बढ़ावा दिया |कावेरीपमपट्टनम के कलभ्र शासको के पांचवी सदी के सिक्को पर इनकी आकृति मिलती है | राजा अच्युत विष्णु तिरुमल का उपासक था | पाण्ड्य ,चोल और पल्लव शासको द्वारा इनके विरुद्ध संयुक्त सैन्य कार्यवाही की गयी जिसके बाद इनका शासन समाप्त हुआ |                                                         
प्रारंभिक पाण्ड्य शासन 300 ईस्वी पूर्व से 300 ईस्वी के मध्य था ,प्राचीन पांड्य शासको में नेड्डजेलियन्  द्वितीय ( 210 ईस्वी )प्रसिद्द था जिसने अल्प आयु में  सिंहासन पर बैठते ही अपने समकालीन शासकों के सम्मिलित आक्रमण को विफल किया, उनका चोल देश में खदेड़कर तलैयालंगानम् के युद्ध में पराजित किया और चेर नरेश को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया। छठी शताब्दी में पांड्य राज्य पर कलभ्रों का अधिकार हो गया था। कड्डंगोन् (590 -620 ईस्वी ) और उसके पुत्र मारवर्मन् अरनिशूलामणि (620 -645ईस्वी  ) ने कलभ्रों के आधिपत्य का अंत कर पांड्य राज्य पुनः स्थापित किया । जंयतवर्मन् (645 -670ईस्वी ) ने जो न्याय और शौर्य के कारण प्रसिद्द रहा चेर राज्य की विजय की थी। परांकुश मारवर्मन (670 -710 ईस्वी ) के समय पांड्य साम्राज्य का विस्तार उनकी परंपरागत सीमाओं के बाहर भी हुआ जिसमे   उसका उत्तर में पल्लवों और पश्चिम में केरलों के साथ संघर्ष हुआ। ये ही अनुश्रुतियों में वर्णित कूण पांड्य नाम का राजा था जिसने संत संबदर से प्रभावित होकर शैव सिद्धांत की दीक्षा ली और जैनियों को त्रस्त किया। कोच्चडैयन रणधीर (710 -730 ईस्वी ) ने  कोंगुदेश और मंगलपुरम् (मंगलोर) की भी विजय की। मारवर्मन राजसिंह प्रथम (730 -765 ) ने पल्लव नरेश नदिवर्मन् मल्लवमल्ल को कई युद्धों में पराजित किया, उसने कावेरी नदी पारकर मलकोंगम् की विजय की। पश्चिमी चालुक्य नरेश कीर्तिवर्मन् द्वितीय और उसके गंग सामंत श्रीपुरुष को उसने वेण्वै के प्रसिद्ध युद्ध में पराजित किया । परांतक नेडुंजडैयन् ने जो वरगुरम् महाराज प्रथम (765 -815 ईस्वी ) के नाम से प्रसिद्ध है, पांड्य साम्राज्य के विस्तार में सबसे अधिक योग दिया। उसने अपने राज्यकाल के प्ररंभिक वर्षों में ही पल्लवों को कावेरी के दक्षिणी तट पर पेंणागवम् नाम के स्थान पर पराजित किया , पश्चिमी कोंगु देश के शासक के समंत अदियैमान तथा पल्लव और केरल नरेशों की संगठित शक्ति को पराजित कर कोंगु देश को अपने अधिकार में कर लिया। विलियम् के सुदृढ़ दुर्ग को नष्ट कर उसने वेनाड (दक्षिणी त्रावणकोर) की विजय की। बीच के प्रदेश के आर्य सामंत को भी पराजित किया था। पांड्य सत्ता त्रिचनापली के अतिरिक्त तंजोर, सालेम, कोयंबत्तूर और दक्षिणी त्रावणकोर में भी फैल गई थी। उसने महादेव और विष्णु दोनों के ही मंदिरों का निर्माण कराया। संभवत: यही शैव संत मानिक्क वाचगर से संबधित वरगुण था। श्रीमार श्रीवल्लभ (815 -862 ईस्वी ) ने  लंका पर आक्रमण कर उसके उत्तरी भाग और राजधानी को लूटा।पल्लव नरेश नंदिवम्र् तृतीय ने श्रीमार की विकासवादी नीति के विरुद्ध गंग, चोल और राष्ट्रकूटों के साथ शक्तिशाली संघ बनाया। पांड्यों को पराजित कर पल्लव सेना उनके राज्य के अंदर घुस गई थी किंतु श्रीमार ने कुंबकोणम के समीप उन्हें पराजित किया लेकिन अंत में वह पल्लव नरेश नृपतुंग के हाथों अरिशिल के युद्ध में पराजित हुआ। इसी समय लंका के शासक सेन द्वितीय ने पांड्यों की राजधानी को लूटा। श्रीमार की मृत्यु युद्ध के घावों के कारण हुई। सिंहली सेनापति ने श्रीमार के पुत्र वरगुण वर्मन् द्वितीय (862 -880 ईस्वी ) को सिंहासन पर बैठाया। वरगुण वर्मन् ने पल्लवों की बढ़ती शक्ति को रोकने का प्रयत्न किया किंतु फिर पल्लव, चोल और गंग वंशों की संमिलित सेनाओं ने पांड्यों को श्रीयुरंबियम के युद्ध में पराजित किया। परांतक वीर नारायण (880 -900 ) के समय में चोल नरेश ने कोंगु देश को पांड्यों से छीन लिया। मारवर्मन राजसिंह द्वितीय (900 -920 ) को यद्यपि लंका की सहायता प्राप्त हुई फिर भी उसे चोल नरेश परांतक के हाथों पराजित होना पड़ा , उसने लंका और फिर केरल में शरण ली।
जारी है अतीत का ये सफर --महेंद्र जैन 11 फरवरी 2019        
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karanaram · 3 years
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🚩विभाजन का यह इतिहास आपके कलेजों को फाड़ देगा 15 अगस्त 2021
🚩इस लेख में 1947 में जिन्ना के इशारों पर जो अत्याचार पाकिस्तान में बलूच रेजिमेंट ने हिन्दुओं पर किया उसका उल्लेख किया गया है। हर हिन्दू को यह इतिहास ज्ञात होना चाहिए।
🚩विभाजन पश्चात भारत सरकार ने एक तथ्यान्वेषी संगठन बनाया जिसका कार्य था पाकिस्तान छोड़ भारत आये लोगों से उनकी जुबानी अत्याचारों का लेखा जोखा बनाना। इसी लेखा ज��खा के आधार पर गांधी हत्याकांड की सुनवाई कर रहे उच्च न्यायालय के जज जी डी खोसला लिखित, 1949 में प्रकाशित, पुस्तक 'स्टर्न रियलिटी' विभाजन के समय दंगों, कत्लेआम, हताहतों की संख्या और राजनैतिक घटनाओं को दस्तावेजी स्वरूप प्रदान करती है। हिंदी में इसका अनुवाद और समीक्षा 'देश विभाजन का खूनी इतिहास (1946-47 की क्रूरतम घटनाओं का संकलन)' नाम से सच्चिदानंद चतुर्वेदी ने किया है। नीचे दी हुई चंद घटनायें इसी पुस्तक से ली गई हैं जो ऊंट के मुंह में जीरा समान हैं।
🚩11 अगस्त 1947 को सिंध से लाहौर स्टेशन पह़ुंचने वाली हिंदुओं से भरी गाड़ियां खून का कुंड बन चुकी थीं। अगले दिन गैर मुसलमानों का रेलवे स्टेशन पहुंचना भी असंभव हो गया। उन्हें रास्ते में ही पकड़कर उनका कत्ल किया जाने लगा। इस नरहत्या में बलूच रेजिमेंट ने प्रमुख भूमिका निभाई। 14 और 15 अगस्त को रेलवे स्टेशन पर अंधाधुंध नरमेध का दृश्य था। एक गवाह के अनुसार स्टेशन पर गोलियों की लगातार वर्षा हो रही थी। मिलिट्री ने गैर मुसलमानों को स्वतंत्रता पूर्वक गोली मारी और लूटा।
🚩19 अगस्त तक लाहौर शहर के तीन लाख गैर मुसलमान घटकर मात्र दस हजार रह गये थे। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति वैसी ही बुरी थी। पट्टोकी में 20 अगस्त को धावा बोला गया जिसमें ढाई सौ गैर मुसलमानों की हत्या कर दी गई। गैर मुसलमानों की दुकानों को लूटकर उसमें आग लगा दी गई। इस आक्रमण में बलूच मिलिट्री ने भाग लिया था।
🚩25 अगस्त की रात के दो बजे शेखपुरा शहर जल रहा था। मुख्य बाजार के हिंदू और सिख दुकानों को आग लगा दी गई थी। सेना और पुलिस घटनास्थल पर पहुंची। आग बुझाने के लिये अपने घर से बाहर निकलने वालों को गोली मारी जाने लगी। उपायुक्त घटनास्थल पर बाद में पहुंचा। उसने तुरंत कर्फ्यू हटाने का निर्णय लिया और उसने और पुलिस ने यह निर्णय घोषित भी किया। लोग आग बुझाने के लिये दौड़े। पंजाब सीमा बल के बलूच सैनिक, जिन्हें सुरक्षा के लिए लगाया गया था, लोगों पर गोलियाँ बरसाने लगे। एक घटनास्थल पर ही मर गया, दूसरे हकीम लक्ष्मण सिंह को रात में ढाई बजे मुख्य गली में जहाँ आग जल रही थी, गोली लगी। अगले दिन सुबह सात बजे तक उन्हें अस्पताल नहीं ले जाने दिया गया। कुछ घंटों में उनकी मौत हो गई।
🚩गुरुनानक पुरा में 26 अगस्त को हिंदू और सिखों की सर्वाधिक व्यवस्थित वध की कार्यवाही हुई। मिलिट्री द्वारा अस्पताल में लाये जाने सभी घायलों ने बताया कि उन्हें बलूच सैनिकों द्वारा गोली मारी गयी या 25 या 26 अगस्त को उनकी उपस्थिति में मुस्लिम झुंड द्वारा छूरा या भाला मारा गया। घायलों ने यह भी बताया कि बलूच सैनिकों ने सुरक्षा के बहाने हिंदू और सिखों को चावल मिलों में इकट्ठा किया। इन लोगों को इन स्थानों में जमा करने के बाद बलूच सैनिकों ने पहले उन्हें अपने कीमती सामान देने को कहा और फिर निर्दयता से उनकी हत्या कर दी। घायलों की संख्या चार सौ भर्ती वाले और लगभग दो सौ चलंत रोगियों की हो गई। इसके अलावा औरतें और सयानी लड़कियाँ भी थीं जो सभी प्रकार से नंगी थीं। सर्वाधिक प्रतिष्ठित घरों की महिलाएं भी इस भयंकर दु:खद अनुभव से गुजरी थीं। एक अधिवक्ता की पत्नी जब अस्पताल में आई तब वस्तुतः उसके शरीर पर कुछ भी नहीं था। पुरुष और महिला हताहतों की संख्या बराबर थी। हताहतों में एक सौ घायल बच्चे थे।
🚩शेखपुरा में 26 अगस्त की सुबह सरदार आत्मा सिंह की मिल में करीब सात आठ हजार गैर मुस्लिम शरणार्थी शहर के विभिन्न भागों से भागकर जमा हुये थे । करीब आठ बजे मुस्लिम बलूच मिलिट्री ने मिल को घेर लिया। उनके फायर में मिल के अंदर की एक औरत की मौत हो गयी। उसके बाद कांग्रेस समिति के अध्यक्ष आनंद सिंह मिलिट्री वालों के पास हरा झंडा लेकर गये और पूछा आप क्या चाहते हैं । मिलिट्री वालों ने दो हजार छ: सौ रुपये की मांग की जो उन्हें दे दिया गया। इसके बाद एक और फायर हुआ और एक आदमी की मौत हो गई। पुन: आनंद सिंह द्वारा अनुरोध करने पर बारह सौ रुपये की मांग हुई जो उन्हें दे दिया गया। फिर तलाशी लेने के बहाने सबको बाहर निकाला गया। सभी सात-आठ हजार शरणार्थी बाहर निकल आये। सबसे अपने कीमती सामान एक जगह रखने को कहा गया। थोड़ी ही देर में सात-आठ मन सोने का ढेर और करीब तीस-चालीस लाख जमा हो गये। मिलिट्री द्वारा ये सारी रकम उठा ली गई। फिर वो सुंदर लड़कियों की छंटाई करने लगे। विरोध करने पर आनंद सिंह को गोली मार दी गयी। तभी एक बलूच सैनिक द्वारा सभी के सामने एक लड़की को छेड़ने पर एक शरणार्थी ने सैनिक पर वार किया। इसके बाद सभी बलूच सैनिक शरणार्थियों पर गोलियाँ बरसाने लगे। अगली प्रांत के शरणार्थी उठकर अपनी ही लड़कियों की इज्जत बचाने के लिये उनकी हत्या करने लगे।
🚩1 अक्टूबर की सुबह सरगोधा से पैदल आने वाला गैर मुसलमानों का एक बड़ा काफिला लायलपुर पार कर रहा था। जब इसका कुछ भाग रेलवे फाटक पार कर रहा था अचानक फाटक बंद कर दिया गया। हथियारबंद मुसलमानों का एक झुंड पीछे रह गये काफिले पर टूट पड़ा और बेरहमी से उनका कत्ल करने लगा। रक्षक दल के बलूच सैनिकों ने भी उनपर फायरिंग शुरु कर दी। बैलगाड़ियों पर रखा उनका सारा धन लूट लिया गया। चूंकि आक्रमण दिन में हुआ था, जमीन लाशों से पट गई। उसी रात खालसा कालेज के शरणार्थी शिविर पर हमला किया गया। शिविर की रक्षा में लगी सेना ने खुलकर लूट और हत्या में भाग लिया। गैर मुसलमान भारी संख्या में मारे गये और अनेक युवा लड़कियों को उठा लिया गया।
🚩अगली रात इसी प्रकार आर्य स्कूल शरणार्थी शिविर पर हमला हुआ। इस शिविर के प्रभार वाले बलूच सैनिक अनेक दिनों से शरणार्थियों को अपमानित और उत्पीड़ित कर रहे थे। नगदी और अन्य कीमती सामानों के लिये वो बार बार तलाशी लेते थे। रात में महिलाओं को उठा ले जाते और बलात्कार करते थे। 2 अक्टूबर की रात को विध्वंश अपने असली रूप में प्रकट हुआ। शिविर पर चारों ओर से बार-बार हमले हुये। सेना ने शरणार्थियों पर गोलियाँ बरसाईं। शिविर की सारी संपत्ति लूट ली गई। मारे गये लोगों की सही संख्या का आंकलन संभव नहीं था क्योंकि ट्रकों में बड़ी संख्या में लादकर शवों को रात में चिनाब में फेंक दिया गया था।
🚩करोर में गैर मुसलमानों का भयानक नरसंहार हुआ। 7 सितंबर को जिला के डेढ़ेलाल गांव पर मुसलमानों के एक बड़े झुंड ने आक्रमण किया। गैर मुसलमानों ने गांव के लंबरदार के घर शरण ले ली। प्रशासन ने मदद के लिये दस बलूच सैनिक भेजे। सैनिकों ने सबको बाहर निकलने के लिये कहा। वो औरतों को पुरूषों से अलग रखना चाहते थे। परंतु दो सौ रूपये घूस लेने के बाद औरतों को पुरूषों के साथ रहने की अनुमति दे दी। रात मे सैनिकों ने औरतों से बलात्कार किया। 9 सितंबर को सबसे इस्लाम स्वीकार करने को कहा गया। लोगों ने एक घर में शरण ले ली । बलूच सैनिकों की मदद से मुसलमानों ने घर की छत में छेद कर अंदर किरोसिन डाल आग लगा दी। पैंसठ लोग जिंदा जल गये।
🚩यह लेख हमने संक्षिप्त रूप में दिया है। विभाजन से सम्बंधित अनेक पुस्तकें हमें उस काल में हिन्दुओं पर जो अत्याचार हुए, उससे अवगत करवाती हैं, हर हिन्दू को इन पुस्तकों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए। क्योंकि "जो जाति अपने इतिहास से कुछ सबक नहीं लेती उसका भविष्य निश्चित रूप से अंधकारमय होता है।" -डॉ. विवेक आर्य
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hindiworld · 6 years
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August 15, 2018 at 01:06AM नागवंश और नाग पूजा : नागपंचमी
एक जानकारी के मुताबिक, उड़ने वाले सांपों की प्रजाति का पता चला है। दक्षिण अमेरिका में इस प्रकार की प्रजाति के सांप के फन अवशेष शोधकर्ताओं को प्राप्त हुए टेरासोर।
की इस नई प्रजाति को 'ऑलकारेन' नाम दिया गया है। शोधकर्ताओं का प्रमुख उद्देश्य उड़ने वाले सांपों के खास समूह की उत्‍पत्ति व विकास के बारे में नई जानकारी के साथ उनके मस्तिक संरचना को समझना आदि रहा है। कुछ वर्ष पूर्व भी उड़ने वाले सांपों की प्रजाति मिली थी, जो क्रिसोपेलिया प्रजाति की पाई गई थी। ये सांप एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाते समय अपने शरीर के आकार में परिवर्तन कर लेते हैं। ये एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाकर पहुंचते हैं, जिससे सभी को उड़ने का आभास होता है। भारत में भी कई प्रदेशों के अलावा वर्षा वनों में पेड़ों पर ये अपना बसेरा करते हैं। सांपों की बात करें तो, मणिधारी, इच्छाधारी, मूंछ वाले सांप, सात फन वाले आदि सांपों के बारे में कहानी-किस्से वर्षों से सुनते आ रहे हैं, मगर देखा किसी ने नहीं। नागपंचमी को सांप पंचमी क्यों नहीं कहा जा सकता? सरीसृप प्रजाति के प्राणी को पूजा जाता है, वह सर्प है किन्तु नाग तो एक जाति है, जिनके संबंध में अलग-अलग मत हैं- यक्षों की एक समकालीन जाति सर्प चिन्ह वाले नागों की थी, जो यहां भी दक्षिण भारत में पनपी थी। नागों ने लंका के कुछ भागों पर ही नहीं वरन प्राचीन मलाबार पर अधिकार जमा रखा था। रामायण में सुरसा को नागों की माता और समुद्र को उनका अधिष्ठान बताया गया है। महेंद्र और मैनाक पर्वतों की गुफाओं में भी नाग निवास करते थे। हनुमानजी द्वारा समुद्र लांघने की घटना को नागों ने प्रत्यक्ष देखा था। नागों की स्त्रियां अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थीं। रावण ने कई नाग कन्याओं का अपहरण किया था। प्राचीनकाल में विषकन्याओं का चलन भी कुछ ज्यादा ही था। इनसे शारीरिक संपर्क करने पर व्यक्ति की मौत हो जाती थी। ऐसी विषकन्याओं को राजा अपने राजमहल में शत्रुओं पर विजय पाने तथा षड्यंत्र का पता लगाने हेतु भी रखा करते थे। रावण ने नागों की राजधानी भोगवती नगरी पर आक्रमण करके वासुकि, तक्षक, शंक और जटी नामक प्रमुख नागों को परास्त किया था। कालान्तर में नाग जाति चेर जाति में विलीन गई, जो ईस्वी सन् के प्रारंभ में अधिक संपन्न हुई थी। नागपंचमी मनाने हेतु एक मत यह भी है कि अभिमन्यु के बेटे राजा परीक्षित ने तपस्या में लीन मैंनऋषि के गले में मृत सर्प ��ाल दिया था। इस पर ऋषि के शिष्य श्रृंगी ऋषि ने क्रोधित होकर शाप दिया कि यही सर्प सात दिनों के पश्चात तुम्हें जीवित होकर डंस लेगा, ठीक सात दिनों के पश्चात उसी तक्षक सर्प ने जीवित होकर राजा को डसा। तब क्रोधित होकर राजा परीक्षित के बेटे जन्मजय ने विशाल सर्प यज्ञ किया, जिसमें सर्पों की आहुतियां दीं। इस यज्ञ को रुकवाने हेतु महर्षि आस्तिक आगे आए। उनका आगे आने का कारण यह था कि महर्षि आस्तिक के पिता आर्य और माता नागवंशी थी। इसी नाते से वे यज्ञ होते देख न देख सके। सर्प यज्ञ रुकवाने, लड़ाई को ख़त्म करके पुनः अच्छे सबंधों को बनाने हेतु आर्यों ने स्मृति स्वरूप अपने त्योहारों में 'सर्प पूजा' को एक त्यौहार के रूप में मनाने की शुरुआत की। नागवंश से ताल्लुक रखने पर उसे नागपंचमी कहा जाने लगा होगा। मास्को के लेखक ग्रीम वागर्द लोविन ने प्राचीन 'भारत का इतिहास' में नाग राजवंशों के बारे में बताया कि मगध के प्रभुत्व में सुधार करने के लिए अजातशत्रु का उत्तराधिकारी उदय (461 ई.पू.) राजधानी को राजगृह से पाटलीपुत्र ले गया, जो प्राचीन भारत प्रमुख बन गया। अवंति शक्ति को बाद में राजा शिशुनाग के राज्यकाल में ध्वस्त किया गया था। एक अन्य राज शिशुनाग वंश का था। शिशु नाग वंश का स्थान नन्द वंश (345 ई.पू.) ने लिया। भाव शतक में इसे धाराधीश बताया गया है अर्थात नागोह्ण का वंश राज्य उस समय धारा नगरी (वर्तमान में धार) तक विस्तृत था। धाराधीश मुंज के अनुज और राजाभोज के पिता सिन्धुराज या सिंधुज ने विंध्याटवी के नागवंशीय राजा शंखपाल की कन्या शशिप्रभा से विवाह किया था। इस कथानक पर परमार कालीन राज कवि परिमल पदमगुप्त ने नवसाहसांक चरित्र ग्रंथ की रचना की। मुंज का राज्यकाल 10वीं शती (ई.पू.) का है। अतः इस काल तक नागों का विंध्य क्षेत्र में अस्तित्व था। नागवंश का अंतिम राजा गणपतिनाग था। वंश की नाग जनजाति का नर्मदा घाटी में निवास स्थान होना बताया गया है। हेययो ने नागों को वहां से उखाड़ फेंका था। कुषान साम्राज्य के पतन के बाद नागों का पुनरोदय हुआ और ये नव नाग कहलाए। इनका राज्य मथुरा, विदिशा, कांतिपुरी, (कुतवार) व पद्मावती (पवैया) तक विस्तृत था। नागों ने अपने शासनकाल के दौरान जो सिक्के चलाए थे। उसमें सर्प के चित्र अंकित थे। इससे भी यह तथ्य प्रमाणित होता है कि नागवंशीय राजा सर्प पूजक थे। शायद इसी पूजा की प्रथा को निरंतर रखने हेतु श्रावण शुक्ल की पंचमी को नागपंचमी का चलन रखा गया होगा। कुछ लोग नागदा नामक ग्रामों को नागदाह से भी जोड़ते हैं। शायद यहीं पर सर्प यज्ञ हुआ होगा। नाग-नागिन की प्रतिमाएं और चबूतरे अधिकतर गांव में बने हुए हैं, इन्हें भिलट बाबा के नाम से भी पुकारा जाता है। उज्जैन में नागचंद्रेश्वर का मंदिर नागपंचमी के दिन ही खुलता है व सर्प उद्यान भी है। खरगोन में नागलवाड़ी क्षेत्र में नागपंचमी के दिन मेला व बड़े ही सुसज्जित तरीके से भंडारा होता है। देखा जाए तो हर गांव-शहर में नाग मंदिर स्थापित है। सर्प दूध नहीं पीता है, उनकी पूजा और रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। सर्प कृषि मित्र भी है, वह फसलों को हानि पहुंचाने वाले जीवों से फसलों की रक्षा करता है।
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bisaria · 6 years
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नागेश्वर ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रान्त के द्वारकापुरी से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। यह स्थान गोमती द्वारका से बेट द्वारका जाते समय रास्ते में ही पड़ता है। द्वारका से नागेश्वर-मन्दिर के लिए बस,टैक्सी आदि सड़क मार्ग के अच्छे साधन उपलब्ध होते हैं। रेलमार्ग में राजकोट से जामनगर और जामनगर रेलवे से द्वारका पहुँचा जाता है।
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नागेश्वर मन्दिर Nageshwar Temple
पौराणिक इतिहास
इस प्रसिद्ध शिवलिंग की स्थापना के सम्बन्ध में इतिहास इस प्रकार है- एक धर्मात्मा, सदाचारी और शिव जी का अनन्य वैश्य भक्त था, जिसका नाम ‘सुप्रिय’ था। जब वह नौका (नाव) पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय ‘दारूक’ नामक एक भयंकर बलशाली राक्षस ने उस पर आक्रमण कर दिया। राक्षस दारूक ने सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बन्दी बना लिया। चूँकि सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिव जी की आराधना में तन्मय रहता था। कारागार में भी उसकी आराधना बन्द नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरूक कर दिया। वे सभी शिवभक्त बन गये। कारागार में शिवभक्ति का ही बोल-बाला हो गया।
जब इसकी सूचना राक्षस दारूक को मिली, तो वह क्रोध में उबल उठा। उसने देखा कि कारागार में सुप्रिय ध्यान लगाए बैठा है, तो उसे डाँटते हुए बोला– ‘अरे वैश्य! तू आँखें बन्द करके मेरे विरुद्ध कौन-सा षड्यन्त्र रच रहा है?’ वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता हुआ धमका रहा था, इसलिए उस पर कुछ भी प्रभाव न पड़ा।
घमंडी राक्षस दारूक ने अपने अनुचरों को आदेश दिया कि सुप्रिय को मार डालो। अपनी हत्या के भय से भी सुप्रिय डरा नहीं और वह भयहारी, संकटमोचक भगवान शिव को पुकारने में ही लगा रहा। उस समय अपने भक्त की पुकार पर भगवान शिव ने उसे कारागार में ही दर्शन दिया। कारागार में एक ऊँचे स्थान पर चमकीले सिंहासन पर स्थित भगवान शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में उसे दिखाई दिये। शंकरजी ने उस समय सुप्रिय वैश्य का अपना एक पाशुपतास्त्र भी दिया और उसके बाद वे अन्तर्धान (लुप्त) हो गये। पाशुपतास्त्र (अस्त्र) प्राप्त करने के बाद सुप्रिय ने उसक बल से समचे राक्षसों का संहार कर डाला और अन्त में वह स्वयं शिवलोक को प्राप्त हुआ। भगवान शिव के निर्देशानुसार ही उस शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा। ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ के दर्शन करने के बाद जो मनुष्य उसकी उत्पत्ति और माहात्म्य सम्बन्धी कथा को सुनता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करता है-
एतद् य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशद्भवमादरात्। सर्वान् कामनियाद् धीमान् महापातकनशनान्।।
उपर्युक्त ज्योतिर्लिंग के अतिरिक्त नागेश्वर नाम से दो अन्य शिवलिंगों की भी चर्चा ग्रन्थों में प्राप्त होती है। मतान्तर से इन लिंगों को भी कुछ लोग ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं।
इनमें से एक नागेश्वर ज्योतिर्लिंग निजाम हैदराबाद, आन्ध्र प्रदेश ग्राम में अवस्थित हैं। मनमाड से द्रोणाचलम तक जाने वाली रेलवे पर परभणी नामक प्रसिद्ध स्टेशन है। परभनी से कुछ ही दूरी पर पूर्णा जंक्शन है, जहाँ से रेलमार्ग पर ‘चारेंडी’ नामक स्टेशन है, जहाँ से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी ‘औढ़ाग्राम’ है। स्टेशन से मोटरमार्ग द्वारा ‘औढ़ाग्राम’ पहुँचा जाता है।
इसी प्रकार उत्तराखंड प्रदेश के अल्मोड़ा जनपद में एक ‘योगेश या ‘जागेश्वर शिवलिंग’ अवस्थित है, जिसे नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ बताया जाता है। यह स्थान अल्मोड़ा से लगभग 25 किलोमीटर उत्तर पूर्व की ओर है, जिसकी दूरी नैनीताल से लगभग 100 किलोमीटर है। यद्यपि शिव पुराण के अनुसार समुद्र के किनारे द्वारका पुरी के पास स्थित शिवलिंग ही ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रमाणित होता है।
ऐतिहासिक कारण
‘जागेश्वर शिवलिंग को नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कहने या मानने के कुछ प्रमुख ऐतिहासिक कारण इस प्रकार हैं-–
द्वादश ज्योतिर्लिंगों के पाठ में ‘नागेश दारूकावने’ ऐसा उल्लेख मिलता है। अल्मोड़ा के समीप स्थित शिवलिंग जागेश्वर के नाम से जाना जाता है। ऐसी स्थिति में ‘योगेश’ किस प्रकार नागेश बन गये? इस सन्दर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह है कि कश्मीर प्रान्त के पहाड़ियों तथा विभिन्न मैदानी क्षेत्रों से अनेक में पौण्ड्रक, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक पल्लव, राद, किरात, दरद, नाग और खस आदि प्रमुख थीं। महाभारत के अनुसार ये सभी जातियाँ बहुत पराक्रमी तथा सभ्यता-सम्पन्न थीं। जब पाण्डवों को इन लोगों से संघर्ष करना पड़ा तब उन्हें भी ज्ञान हुआ कि ये सभी क्षत्रिय धर्म और उसके गुणों से सम्पन्न हैं।
इतिहास के पन्नों को देखने से यह भी ज्ञात होता है कि कुमाऊँ की अनार्य जातियों ने भी ब्राह्मण धर्म में प्रवेश पाने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहीं। वसिष्ठ और विश्वामित्रके बीच वर्षो तक चला संघर्ष इसी आशय का प्रतीक है। श्री ओकले साहब ने उपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘पवित्र हिमालय’ में लिखा है कि कश्मीर और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में नाग लोगों की एक जाति रहती है। ओकले के अनुसार सर्प की पूजा करने के कारण ही उन्हें ‘नाग’ कहा जाता है।
राई डेविडस् जो एक प्रसिद्ध बौद्ध लेखक थे, उनका मत है कि पुराने बौद्ध काल में चित्रों और मूर्तियों में मनुष्य तथा साँप के जुड़े हुए स्वरूप में नाग पूजा को अंकित किया गया है। यह प्रथा आज भी गढ़वाल तथा कुमाऊँ में प्रचलित है।
एटकिंशन नामक विद्वान् का भी यही अभिमत है, जिन्होंने ‘हिमालय डिस्ट्रिक्स’ नामक ग्रन्थ लिखा है, गढ़वाल के अधिकांशत: मन्दिरों में आज भी नागपूजा होती चली आ रही है।
जागेश्वर शिवमन्दिर जहाँ अवस्थित है, उसके आसपास में आज भी वेरीनाग, धौलेनाग, कालियनाग आदि स्थान विद्यमान हैं, जिनमें ‘नाग’ शब्द उस नाग जाति की याद दिलाता है। उनके आधार पर यह बात तर्क संगत लगती है कि इन नाग-मन्दिरों के बीच ‘नागेश’ नामक कोई बड़ा मन्दिर प्राचीनकाल से कुमाऊँ में विद्यमान है। पौराणिक धर्म और भूत-प्रेतों की पूजा की भी शिवोपासना में गणना की गई है।
आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के मत और सिद्धान्त के प्रचार से पहले कुमाऊँ के लोगों को ‘पाशुपतेश्वर’ का नाम नहीं मालूम था। इन देवों की बलि पूजा होती थी या नहीं, यह कहना कठिन है, ��िन्तु इतिहास के पृष्ठों से इतना त��� निश्चित है कि काठमाण्डू, नेपाल के ‘पाशुपतिनाथ, और कुमाऊँ में ‘यागेश्वर’ के ‘पाशुपतेश्वर’ दोनों वैदिक काल से पूजनीय देवस्थान हैं। पवित्र हिमालय की सम्पूर्ण चोटियों को तपस्वी भगवान शिवमूर्तियों के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु कैलास पर्वत को तो आदि काल से नैसर्गिक शिव मन्दिर बताया गया है।
इन सब बातों से स्पष्ट है कि कुमाऊँ मण्डल में शिवपूजन का प्रचलन अति प्राचीन है।
एक प्रसिद्ध आख्यायिका के अनुसार ‘यागेश्वर मन्दिर’ हिमालय के उत्तर पश्चिम की ओर अवस्थित है तथा यहाँ सघन देवदार का वन है। इस मन्दिर का निर्माण तिब्बतीय और आर्य शैली का मिला जुला स्वरूप है। जागेश्वर-मन्दिर के अवलोकन से पता चलता है कि इसका निर्माण कम से कम 2500 वर्षों पूर्व का है। इसके समीप मृत्युंजय और डिण्डेश्वर-मन्दिर भी उतने ही पुराने हैं। जागेश्वर-मन्दिर शिव-शक्ति की प्रतिमाएँ और दरवाजों के द्वारपालों की मूर्तियाँ भी उक्त प्रकार की अत्यन्त प्राचीन हैं। जागेश्वर-मन्दिर में राजा दीपचन्द की चाँदी की मूर्ति भी स्थापित है।
स्कन्द पुराण के अनुसार
स्कन्द पुराण के मानस खण्ड और रेवा खण्ड में गढ़वाल तथा कुमाऊँ के पवित्र तीर्थो का वर्णन मिलता है। चीनी यात्री ह्रेनसांग ने बौद्ध धर्म की खोज में कुमाऊँ की यात्रा की थी।
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नागेश्वर महादेव, द्वारका, गुजरात Nageshwar Mahadev, Dwarka, Gujarat
कुमाऊँ और कोसल राज्य
कुमाऊँ कोसल राज्य का ही एक भाग था। कुमाऊँ में वैदिक तथा बौद्ध धर्म समानान्तर रूप से प्रचलित थे। मल्ल राजाओं ने भी पाशुपतेश्वर या जागेश्वर के दर्शन किये थे तथा जागेश्वर को कुछ गाँव उपहार में समर्पित किये थे। चन्द राजाओं की जागेश्वर के प्रति अटूट श्रृद्धा थी। इनका राज्य कुमाऊँ की पहाड़ियों तथा तराईभाँवर के बीच था। देवीचन्द, कल्याणचन्द, रतनचन्द, रुद्रचन्द्र आदि राजाओं ने जागेश्वर-मन्दिर को गाँव तथा बहुत-सा धन दान में दिये थे।
सन 1740 में अलीमुहम्मद ख़ाँ ने अपने रूहेला सैनिकों के साथ कुमाऊँ पर आक्रमण किया था। उसके सैनिकों ने भारी तबाही मचाई और अल्मोड़ा तक के मन्दिरों को भ्रष्ट कर उनकी मूर्तियों को तोड़ डाला। उन दुष्टों ने जागेश्वर-मन्दिर पर भी धावा बोला था, किन्तु ईश्वर इच्छा से वे असफल रहे। सघन देवदार के जंगल से लाखों बर्र निकलकर उन सैनिकों पर टूट पड़े और वे सभी भाग खड़े हुए। उनमें से कुछ कुमाऊँ निवासियों द्वारा मार दिये गये, तो कुछ सर्दी से मर गये।
बौद्धों के समय में
बौद्धों के समय में भगवान 'बदरी विशाल' की प्रतिमा की तरह जागेश्वर की देव-प्रतिमाएँ भी सूर्य कुण्ड में कुछ दिनों तक पड़ी रहीं। अपने दिग्विजय-यात्रा के दौरान आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने पुन: मूर्तियों को स्थापित किया और जागेश्वर-मन्दिर की पूजा का दायित्त्व दक्षिण भारतीय कुमारस्वामी को सौंप दिया।
इस प्रकार प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि, जागेश्वर-मन्दिर अत्यन्त प्राचीन काल का है और नाग जातियों के द्वारा इस शिवलिंग की पूजा होने के कारण इसे ‘यागेश’ या ‘नागेश’ कहा जाने लगा। इसी के कारण इसे ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ मानने के पर्याप्त आधार मिल जाता है।
शिवपुराण की कथा
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के सम्बन्ध में श्री शिव पुराण की कथा इस प्रकार है–
‘दारूका’ नाम की एक प्रसिद्ध राक्षसी थी, जो पार्वती जी से वरदान प्राप्त कर अहंकार में चूर रहती थी। उसका पति ‘दारूका’ महान् बलशाली राक्षस था। उसने बहुत से राक्षसों को अपने साथ लेकर समाज में आतंक फैलाया हुआ था। वह यज्ञ आदि शुभ कर्मों को नष्ट करता हुआ सन्त-महात्माओं का संहार करता था। वह प्रसिद्ध धर्मनाशक राक्षस था। पश्चिम समुद्र के किनारे सभी प्रकार की सम्पदाओं से भरपूर सोलह योजन विस्तार पर उसका एक वन था, जिसमें वह निवास करता था।
दारूका जहाँ भी जाती थी, वृक्षों तथा विविध उपकरणों से सुसज्जित वह वनभूमि अपने विलास के लिए साथ-साथ ले जाती थी। महादेवी पार्वती ने उस वन की देखभाल का दायित्त्व दारूका को ही सौंपा था, जो उनके वरदान के प्रभाव से उसके ही पास रहता था। उससे पीड़ित आम जनता ने महर्षि और्व के पास जाकर अपना कष्ट सुनाया। शरणागतों की रक्षा का धर्म पालन करते हुए महर्षि और्व ने राक्षसों को शाप दे दिया। उन्होंने कहा कि ‘जो राक्षस इस पृथ्वी पर प्राणियों की हिंसा और यज्ञों का विनाश करेगा, उसी समय वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। महर्षि और्व द्वारा दिये गये शाप की सूचना जब देवताओं को मालूम हुई, तब उन्होंने दुराचारी राक्षसों पर चढ़ाई कर दी। राक्षसों पर भारी संकट आ पड़ा। यदि वे युद्ध में देवताओं को मरते हैं, तो शाप के कारण स्वयं मर जाएँगे और यदि उन्हें नहीं मारते हैं, तो पराजित होकर स्वयं भूखों मर जाएँगे। उस समय दारूका ने राक्षसों को सहारा दिया और भवानी के वरदान का प्रयोग करते हुए वह सम्पूर्ण वन को लेकर समुद्र में जा बसी। इस प्रकार राक्षसों ने धरती को छोड़ दिया और निर्भयतापूर्वक समुद्र में निवास करते हुए वहाँ भी प्राणियों को सताने लगे।
एक बार उस समुद्र में मनुष्यों से भरी बहुत-सारी नौकाएँ जा रही थीं, जिन्हें उन राक्षसों ने पकड़ लिया। सभी लोगों को बेड़ियों से बाँधकर उन्हें कारागार में बन्द कर दिया गया। राक्षस उन यात्रियों को बार-बार धमकाने लगे। एक ‘सुप्रिय’ नामक वैश्य उस यात्री दल का अगुवा (नेता) था, जो बड़ा ही सदाचारी था। वह ललाट पर भस्म, गले में रुद्राक्ष की माला डालकर भगवान शिव की भक्ति करता था। सुप्रिय बिना शिव जी की पूजा किये कभी भी भोजन नहीं करता था। उसने अपने बहुत से साथियों को भी शिव जी का भजन-पूजन सिखला दिया था। उसके सभी साथी ‘नम: शिवाय’ का जप करते थे तथा शिव जी का ध्यान भी करते थे। सुप्रिय परम भक्त था, इसलिए उसे शिव जी का दर्शन भी प्राप्त होता था।
इस विषय की सूचना जब राक्षस दारूका को मिली, तो वह करागार में आकर सुप्रिय सहित सभी को धमकाने लगा और मारने के लिए दौड़ पड़ा। मारने के लिए आये राक्षसों को देखकर भयभीत सुप्रिय ने कातरस्वर से भगवान शिव को पुकारा, उनका चिन्तन किया और वह उनके नाम-मन्त्र का जप करने लगा। उसने कहा- देवेश्वर शिव! हमारी रक्षा करें, हमें इन दुष्ट राक्षसों से बचाइए। देव! आप ही हमारे सर्वस्व हैं, आप ही मेरे जीवन और प्राण हैं। इस प्रकार सुप्रिय वैश्य की प्रार्थना को सुनकर भगवान शिव एक 'विवर'[1] अर्थात् बिल से प्रकट हो गये। उनके साथ ही चार दरवाजों का एक सुन्दर मन्दिर प्रकट हुआ।
उस मन्दिर के मध्यभाग में (गर्भगृह) में एक दिव्य ज्योतिर्लिंग प्रकाशित हो रहा था तथा शिव परिवार के सभी सदस्य भी उसके साथ विद्यमान थे। वैश्य सुप्रिय ने शिव परिवार सहित उस ज्योतिर्लिंग का दर्शन और पूजन किया–
इति सं प्रार्थित: शम्भुर्विवरान्निर्गतस्तदा। भवनेनोत्तमेनाथ चतुर्द्वारयुतेन च।। मध्ये ज्योति:स्वरूपं च शिवरूपं तदद्भुतम्। परिवारसमायुक्तं दृष्टवा चापूजयत्स वै।। पूजितश्च तदा शम्भु: प्रसन्नौ ह्यभवत्स्वयम्। अस्त्रं पाशुपतं नाम दत्त्वा राक्षसपुंगवान्।। जघान सोपकरणांस्तान्सर्वान्सगणान्द्रुतम्। अरक्षच्च स्वभक्तं वै दुष्टहा स हि शंकर:।।[2]
सुप्रिय के पूजन से प्रसन्न भगवान शिव ने स्वयं पाशुपतास्त्र लेकर प्रमुख राक्षसों को, उनके अनुचरों को तथा उनके सारे संसाधनों (अस्त्र-शस्त्र) को नष्ट कर दिया। लीला करने के लिए स्वयं शरीर धारण करने वाले भगवान शिव ने अपने भक्त सुप्रिय आदि की रक्षा करने के बाद उस वन को भी यह वर दिया कि ‘आज से इस वन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, इन चारों वर्णों के धर्मों का पालन किया जाएगा। इस वन में शिव धर्म के प्रचारक श्रेष्ठ ऋषि-मुनि निवास करेंगे और यहाँ तामसिक दुष्ट राक्षसों के लिए कोई स्थान न होगा।’
राक्षसों पर आये इसी भारी संकट को देखकर राक्षसी दारूका ने दैन्यभाव (दीनता के साथ) से देवी पार्वती की स्तुति, विनती आदि की। उसकी प्रार्थना से प्रसन्न माता पार्वती ने पूछा– ‘बताओ, मैं तेरा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’! दारूका ने कहा– ‘माँ! आप मेरे कुल (वंश) की रक्षा करें।’ पार्वती ने उसके कुल की रक्षा का आश्वासन देते हुए भगवान शिव से कहा– ‘नाथ! आपकी कही हुई बात इस युग के अन्त में सत्य होगी, तब तक यह तामसिक सृष्टि भी चलती रहे, ऐसा मेरा विचार है।’ माता पार्वती शिव से आग्रह करती हुईं बोलीं कि ‘मैं भी आपके आश्रय में रहने वाली हूँ, आपकी ही हूँ, इसलिए मेरे द्वारा दिये गये वचन को भी आप सत्य (प्रमाणित) करें। यह राक्षसी दारूका राक्षसियों में बलिष्ठ, मेरी ही शक्ति तथा देवी है। इसलिए यह राक्षसों के राज्य का शासन करेगी। ये राक्षसों की पत्नियाँ अपने राक्षसपुत्रों को पैदा करेगी, जो मिल-जुलकर इस वन में निवास करेंगे-ऐसा मेरा विचार है।’
माता पार्वती के उक्त प्रकार के आग्रह को सुनकर भगवान शिव ने उनसे कहा– ‘प्रिय! तुम मेरी भी बात सुनो। मैं भक्तों का पालन तथा उनकी सुरक्षा के लिए प्रसन्नतापूर्वक इस वन में निवास करूँगा। जो मनुष्य वर्णाश्रम-धर्म का पालन करते हुए श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। कलि युग के अन्त में तथा सत युग के प्रारम्भ में महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का महाराज होगा। वह मेरा परम भक्त तथा बड़ा पराक्रमी होगा। जब वह इस वन में आकर मेरा दर्शन करेगा। उसके बाद वह चक्रवर्ती सम्राट हो जाएगा।’ तत्पश्चात् बड़ी-बड़ी लीलाएँ करने वाले शिव-दम्पत्ति ने आपस में हास्य-विलास की बातें की और वहीं पर स्थित हो गये। इस प्रकार शिवभक्तों के प्रिय ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान शिव ‘नागेश्वर’ कहलाये और शिवा (पार्वती) देवी भी ‘नागेश्वरी’ के नाम से विख्यात हुईं। इस प्रकार शिव ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए हैं, जो तीनों लोगों की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। जो कोई इस नागेश्वर महादेव के आविर्भाव की कथा को श्रद्धा-प्रेमपूर्वक सुनता है, उसके समस्त पातक नष्ट हो जाते हैं और वह अपने सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को प्राप्त कर लेता है–
इति दत्तवर: सोऽपि शिवेन परमात्मना। शक्त: सर्वं तदा कर्त्तु सम्बभूव न संशय:।। एवं नागेश्वरो देव उत्पन्नो ज्योतिषां पति:। लिंगस्पस्त्रिलोकस्य सर्वकामप्रद: सदा।। एतद्य: श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्। सर्वान्कामानियाद्धिमान्ममहापातक नाशनान्।।[3]
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raozofindia-blog · 6 years
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Follow us @raoz_of_india तैमूर को किसने हराया? डॉ विवेक आर्य---#वीर_अहीर हिन्दू समाज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे जातिवाद से ऊपर उठ कर सोच ही नहीं सकते। यही पिछले 1200 वर्षों से हो रही उनकी हार का मुख्य कारण है। इतिहास में कुछ प्रेरणादायक घटनाएं मिलती है। जब जातिवाद से ऊपर उठकर हिन्दू समाज ने एकजुट होकर अक्रान्तायों का �� केवल सामना किया अपितु अपने प्राणों की बाजी लगाकर उन्हें यमलोक भेज दिया। तैमूर लंग के नाम से सभी भारतीय परिचित है। तैमूर के अत्याचारों से हमारे देश की भूमि रक्तरंजित हो गई। उसके अत्याचारों की कोई सीमा नहीं थी। तैमूर लंग ने मार्च सन् 1398 ई० में भारत पर 92000 घुड़सवारों की सेना से तूफानी आक्रमण कर दिया। तैमूर के सार्वजनिक कत्लेआम, लूट खसोट और सर्वनाशी अत्याचारों की सूचना मिलने पर संवत् 1455 (सन् 1398 ई०) कार्तिक बदी 5 को देवपाल राजा की अध्यक्षता में हरयाणा सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन जि० मेरठ के गाँव टीकरी, निरपड़ा, दोगट और दाहा के मध्य जंगलों में हुआ। सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये - (1) सब गांवों को खाली कर दो। (2) बूढे पुरुष-स्त्रियों तथा बालकों को सुरक्षित स्थान पर रखो। (3) प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति सर्वखाप पंचायत की सेना में भर्ती हो जाये। (4) युवतियाँ भी पुरुषों की भांति शस्त्र उठायें। (5) दिल्ली से हरद्वार की ओर बढ़ती हुई तैमूर की सेना का छापामार युद्ध शैली से मुकाबला किया जाये तथा उनके पानी में विष मिला दो। (6) 500 घुड़सवार युवक तैमूर की सेना की गतिविधियों को देखें और पता लगाकर पंचायती सेना को सूचना देते रहें। पंचायती सेना - पंचायती झण्डे के नीचे 80,000 मल्ल योद्धा सैनिक और 40,000 युवा महिलायें शस्त्र लेकर एकत्र हो गये। इन वीरांगनाओं ने युद्ध के अतिरिक्त खाद्य सामग्री का प्रबन्ध भी सम्भाला। दिल्ली के सौ-सौ कोस चारों ओर के क्षेत्र के वीर योद्धा देश रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने रणभूमि में आ गये। सारे क्षेत्र में युवा तथा युवतियां सशस्त्र हो गये। इस सेना को एकत्र करने में वीर सेनापति #दुर्जनपाल_अहीर,धर्मपालदेव जाट योद्धा ने बड़ा सहयोग दिया था। उसने घोड़े पर चढ़कर दिन रात दूर-दूर तक जाकर नर-नारियों को उत्साहित करके इस सेना को एकत्र किया। उनने इस सेना के लिए अन्न, धन तथा वस्त्र आदि का प्रबन्ध किया। प्रधान सेनापति, उप-प्रधान सेनापति तथा सेनापतियों की नियुक्ति सर्वखाप पंचायत के इस अधिवेशन में सर्वसम्मति से वीर योद्धा जोगराजसिंह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाया गया। यह खूबड़ परमार वंश का योद्धा था जो हरद्वार के पा (at Gurgaon, Haryana)
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onlinekhabarapp · 6 years
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चाडपर्व विदा कटौती फिर्ताको माग गर्दै युएईबाट प्रधानमनत्रीलाई ज्ञापनपत्र
युएई/नेपाल आदिवासी जनजाति महासंघ युएईले आदिवासी जनजातिहरुले मनाउँदै आएको चाडपर्वमा कटौती भएको सार्वजनिक विदालाई पुनस्र्थापना गर्न माग गर्दै प्रधानमन्त्रीलाई ज्ञापनपत्र बुझाएको छ ।
महासंघ संघीय सचिवालयको निर्धारित कार्यक्रम अनुसार आइतबार नेपाली राजदुतावास अबुधाबीका कार्यबहाक राजदूत सागरप्रसाद फुयाँलमार्फत प्रधानमन्त्री केपी शर्मा ओलीलाई ज्ञापनपत्र बुझाइएको महासंघ युएईका अध्यक्ष पासाङ शेर्पाले बताए ।
महासंघले बुझाएको ज्ञापनपत्रमा नेपालका आदिवासी जनजातिहरुको ऐतिहासिक, सामाजिक सांस्कृतिक पहिचान र सभ्यतासँग जोडिएका चाडपर्वहरु -माघी/माघे संक्रान्ति, उभौली, तमु ल्होसार, सोनाम ल्होसार, ग्याल्पो ल्होसार आदि)लाई राष्ट्रिय मान्यता र सम्मानस्वरुप दिइदै आएको सार्वजनिक विदा वर्तमान सरकारले खारेज गरेको प्रति गम्भीर आपत्ति जनाएको छ ।
वर्तमान सरकारले विकास र समृद्धिको लागि काम गर्नुपर्ने बहाना बनाएर विदा खारेजी निर्णय गर्नु नेपालका समस्त आदिवासी-जनजाति समुदाय माथीको सांस्कृतिक आक्रमण र असमान्ता कायमै रहेको उल्लेख गरिएको छ ।
साथै सरकारको यो निर्णयले संघिय लोकतान्त्रिक धर्मनिरपेक्ष गणतन्त्र नेपालको उपहास गरेको, संबिधानको मुल मर्म र भावना विरुद्ध भएको, परिर्वतनको वर्खिलाप भएको र महेन्द्रकालीन पञ्चायती व्यवस्थाको पुनरावृति भएको आदिवासीहरुको भनाइ छ ।
सरकारले ३१ प्रतिशत आर्य समुदायको लागि अझैपनि १२ दिन सार्वजनिक विदा दिएको र ३७ प्रतिशत आदिवासी जनजातिका लागि विगतमा दिदैँ आएको ५ दिनको सार्वजनिक विदा पनि पूर्णरुपले खारेज गर्नु सामाजिक न्याय र समान्ताको दृष्टिकोणले कदापी सहृय हुन नसक्ने उनीहरुको चेतावनी छ ।
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jayveer18330 · 7 years
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हिन्दू
      " हिन्दू " आज इस शब्द को जानते है । यह शब्द है भारत के अस्तित्व का । शब्द है इसकी ना आदि ना अंत वाली संस्कृति का । शब्द है इस भारत की धरती का । लेकिन अफ़सोस से कहना पड़ता है की भारतीय ही इसके बारे में कुछ जानते ही नहीं । वे सब जो जानते है वह सब आतताइयों द्वारा कहा गया इतिहास है जो पूर्वग्रहों और संकुचितता से ग्रस्त है । जो कतय विश्वास करने योग्य नही । किन्तु पूर्व चलन के अनुसार आज भी आज़ादी के 70 साल बाद भी इसका प्रभाव कम नहीं हुआ । बल्क़ि ज्यादा प्रभावी हुआ है ।  सच्चाई यही है कि जहाँ से भारत के इतिहास की शरुआत होती है , जो सबको पढ़ाया और बताया जाता है कि आर्यो ने आक्रमण करके इस देश का निर्माण किया है । ईसापूर्व 1500 से 1000 वर्ष के बीच आर्यो ने यहाँ आकर अपनी सभ्यता की रचना की और सारे भारतीय  इनकी ही सन्ताने है । पूरी वैदिक सभ्यता का श्रेय इन्ही को दिया गया । मानो पश्चिम से ही लोग यहाँ भारत में आये और इन्ही लोगो ने वैदिक संस्कृति को विक्सया ।       
        कितना बड़ा झूठ !!!!!        
 हम सब यह मानते भी रहे । लेकिन अब यह सिद्ध हो चूका है कि वैदिक सभ्यता किसी और आर्य या दूसरी प्रजा ने नही प्रस्थापित की बल्कि यह पुरातन भव्य सभ्यता भारत के ही पूर्वजो ने स्थापित और विकसित की । वे भारतीय थे और हम सब उनके ही वंशज है जिस हमे गर्व होना चाहिए ।     यह सब कोई सिर्फ दोपहर की बात नही बल्कि सिद्ध हुआ सच है । लेकिन आज भी भारत की शिक्षा में ना यह पढ़ाया जाता है और ना ही इसका कोई प्रचार । इसके विपरीत कुछ भारतीय पश्चिम के विद्वानों द्वारा दिए गए सिध्धांत को मान्य रखते है । जो एक सिध्धांत ढ़ेर हो जाता है तो वे लोग दूसरा ढूंढ लेते है । जैसे क़ी ईसापूर्व 1500 से 1000 साल के बीच की वैदिक सभ्यता बताने वालों के विरोध में जब   ■ शताब्दी के तीसरे दशक में हड़प्पा और मोहे - जो - दड़ो में हुए पुरातत्व खोजबीन के दौरान उजागर हुए तथ्यों के इन सबका मुँह बंद कर दिया । क्योंकि इस खोज के " आर्यो के आक्रमण " की थियरी की धज्जियां उड़ा दी । क्योकि जो वे महान विद्वान् बता रहे थे उनके पहले से ही भारत में एक विकसित नगरीय सभ्यता मौजूद थी । जो बिना कोई शंका के ईसापूर्व 2600 वर्ष में अपना अस्तित्व बताती है । जो इसके विकास का मध्याह्न था । इसके आरम्भ को तो 3100 वर्ष पूर्व निर्धारित किया गया । यह थप्पड़ था उन बेबुनियाद , ग्रसित और घमंडी पश्चिम के विद्वानों पर साथ ही कुछ पूर्व से प्रभावित भारतीयों पर भी ।      जब आर्य का आक्रमण सिध्धांत हवा हो गया तो उन्होंने उसके भाई जैसा दूसरा सिध्धांत बनाया ।     अप्रवासन और यदाकदा का ।     ◆ रोमिला थापर :  " यदि आक्रमण की बात नकार दी जाय तो अप्रवासन और यदाकदा संपर्क की युक्ति केंद्रबिंदु बन जाती है । ऐसा लगता है कि अश्वेतों और ऋग्वेद में पशु चारण करने वाले के बीच अप्रवासन का महत्व रहता है । "    ◆ आर. एस. शर्मा : " पशु  चारण करने वाले लोग बैक्टेरिया मार्जिएना पुरातात्विक परिसर या बी एम् ऐ सी से भारतीय सीमा तक आये और इसी परिसर में भारतीय वैदिक सभ्यता का विकास हुआ । "      कितना बेतुका सिध्धांत ।
            लेकिन सच यह है कि भारत ���ी सभ्यता सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत की है और यहाँ के लोगो की । जो मानते है कि कहि ओर से आये लोगो ने इसे बनाया तो यह एक जूठा सच है जिसे पश्चिम के विद्वानों का भारत के प्रति पल रहा द्रोह है । इन सबके मुँह पर आज तमाचा पड़ चुका है । क्योंकि विज्ञानं और टेक्नोलॉजी ने यह साबित किया है कि ◆ भारतीय वैदिक सभ्यता यहाँ रहते लोगों ने ही सथापित की और आज के भारतीय उनके ही वंशज है । अन्य सब थियरी झूठी है । अफ़सोस दूसरे मानते है पर हम भारतीय नही । प्रस्तुत है भारत की सभ्यता वैदिक है और यह यहाँ के लोगों ने ही बनाई इसके तथ्य और उनको जवाब है दूसरे सिद्धांतो को प्रतिपादित करने की कोशिश करते है ।
★ क्या यह संभव है कि आर्य लोग जो भूमि ,पर्वत , नदी या वन से इस तरह लगाव रखते थे की अपनी पूर्व की भूमि की यादें सब को भूल जाये और सिर्फ़ और सिर्फ़ भारत की भूमि की याद उन्हें रहती है ? ★ यह बात किस तरह संभव है कि आर्य जहाँ से आये थे वहाँ से अपने साथ उपयोग में आने वाली किसी तरह की कोई भी साधन सामग्री नहीं लाये थे यहाँ तक की बर्तन , औजार , युद्ध और शिकार के सामान ( भाई वे तो आक्रमणकारी थे ) , पूजा , कला आदि कुछ भी नहीं । और चोंका देनेवाली यह बात है कि स्थानिक निवासियों की सामूहिक हत्या करने के बाद उनके व्यापक स्तर पर रहे किलो और निवास स्थानों के एक भी अवशेष नही रहने दिए ? ★ क्या यह बात मानने योग्य है कि हड़प्पा सभ्यता के लोग जिनको लेखन का ज्ञान था , जिन्होंने नगरीय समाज की रचना की थी  और जिनके यह लेखन का ज्ञान था , बिना किसी साहित्य के थे और आक्रमणकारी थे , जो निरक्षर थे वे अपने पीछे इतने विशाल और महान साहित्य तथा वेद उपनिषद कैसे छोड़ गए  है ? अनपढ़ ने साहित्य का शिरमोर साहित्य की रचना की हो ऐसा असम्भव यह कार्य है । ★ यह स्पष्ट है कि सभा , राजन , सम्राट , राजक जैसे शब्द संगठित परिषद और विभिन्न स्तर के साशको को लिये कहे गए थे । यह इस बात का संकेत नही है कि वे सब घुमन्तु आक्रमणकारियों से बिलकुल तालुक्क नही रखते था । बल्कि वैदिक सभ्यता की उन्नत नगर रचना और हड़प्पा सभ्यता के मूल निवासी थे जिनका निवास स्थल भारत ही था । ★ ऋग्वेद में जिन पेड़ पौधे , जीव , जंतु , वनस्पतियों का वर्णन है उनका वैज्ञानिक अध्ययन करके यह पता चला है कि ये सब केवल उत्तर पश्चिम भारत  के समशीतोष्ण जलवायु में ही पाये जा सकते थे , न की मध्य एशिया की ठंडी जलवायु में । ★ रोपड़ , मालवन , कालीबंगा , लोथल आदि में मिली घोड़े की अस्थियां यह साबित नही करती की वह पालतू घोड़े की है । यह सच जीवाश्म के अंतर्राष्ट्रीय विद्वान् सैडॉन बोकोनयी साबित किया है । ★ जो वैदिक सभ्यता का प्रतिक है वह रथ का विकास मध्य एशिया की उबड़ खाबड़ भूमि की तुलना उत्तर भारत के समतल मैदान में हुआ होगा , जबकि राखीगढ़ी और बनवाली से मिली कमानियुक्त  मृदभांड के चक्के और भित्तिचित्र के कई नमूने मिल चुके है ।       इन प्रश्न के कोई उत्तर नही । अब बात करते है विज्ञानं की जिसने सारा सच सामने ला खड़ा किया है । ● कलकत्ता के वैज्ञानिकों ने अन्य देश के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर 936 लोग और 77 जातियों के वाय क्रोमोजोम्स का विश्लेषण किया था । इन्होंने अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान दलों के कार्य का संदर्भ दिया जिसमें पाया गया कि ■ प्राचीनतम आधुनिक मानव 60,000 साल पहले हिन्द महासागर के तट से होते हुए आफ्रिका से भारत आये । निष्कर्ष में यह कहा गया कि प्राचीनतम निवासियों और बाद के अप्रवासियों से ज्यादातर आधुनिक भारतीयों से सम्बन्ध है न की मध्य एशिया के लोगो से । जिन्हें आर्य कहा जाता है । ■ किविशिल्ड के अगवाई में प्रसिद्ध वैज्ञानिको ने जीन के आनुवंशिक उत्तराधिकार पहलू का अभ्यास एयर मैक्रोकंट्रीडियाल डी एन ए जांज के बाद यह परिणाम मिला है कि पश्चिमी यूरेशियाई लोगो  में जो विशेष माइटोकांड्रियल पाया जाता है उस से भारतीय लोगो में पाया जाने वाला मैक्रोकॉंड्रियाल अलग है ।    पश्चिमी यरेशियाई लोगो में वह 70% यूर��प के लोगो में मौजूद है । लेकिन वही भारतीय लोगो में यह केवल 5.2 % है । अगर भारत पर आर्यो ने 3 हजार साल पहले आक्रमण किया होता तो पश्चिमी यूरोपीय लोगो में जो जीन का प्रमाण है वही प्रमाण भारत के लोगो में भी होता ।    अब कोई तथ्य शेष नही रहता साबित करने के लिए वैदिक सभ्यता भारत की है और भारत के ही लोगो ने इसे बनाया और मानव विकास के सर्वोच्च शिखर तक पहुचाया ।        आखिर में केम्ब्रिज विद्यालय के प्रोफेसर  एडमंड लीच के कथन को रखना चाहूंगा :     " गंभीर विद्वान् आर्य आक्रमण के सिद्धांत में अभी भी क्यों विश्वास रखते है ? इस तरह की बातों में क्या आकर्षण है ? इससे किसे आकर्षण होता है ? आर्य आक्रमण के साथ संस्कृत के विकास को जोड़कर देखने पर क्यों तवज़्ज़ो दी जाती है ? इस सिद्धांत का विवरण नस्लवादी सोच के अनुकूल है । ब्रितानी उपनिवेशवादी मिथक के इर्जाद ने भारतीय सिविल सेवा के संभारन्त प्रशाश्को के मन में यह बात भर दी है कि 6000 वर्ष पूर्व इस देश में एक अत्यंत सुसंस्कृत सभ्यता लाये है  । मैं यहाँ पर केवल यही बात करूंगा कि ब्रितानी मध्य वर्ग की कल्पना से उपजे इस मिथक का प्रभाव आज भी इतना सशक्त है कि हिटलर की मृत्यु के बाद और भारत पाकिस्तान के स्वतंत्र होने के 70 साल बाद भी ईसापूर्व दो सहत्राब्दि के आर्य आक्रमण को इतिहास के एक स्थापित तथ्य के रूप में माना जा रहा है ।......आर्य आक्रमण के सिद्धांत से कभी भी कुछ नहीं मिला ।"      अफ़सोस आज भी भारत में सच्चे इतिहास को न तो पुस्तक में स्थान है और न पाठ्यक्रम में । बच्चों को आज भी आर्य का इतिहास पढ़ाया जा रहा है । ना जाने कब भारत इस वैचारिक ग़ुलामी से आज़ाद होगा ।      मैंने तो अपना कर्म किया अब आप इस सच को आगे बढाइये ।    जय हिंद । जय भारत।
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857-1947)
पुराने समय में जब पूरी दुनिया के लोग भारत आने के लिए उत्सुक रहा करते थे। यहां आर्य वर्ग के लोग मध्य यूरोप से आए और भारत में ही बस गए। उनके बाद मुगल आए और वे भी भारत में स्थायी रूप से बस गए। चंगेज़खान, एक मंगोलियाई था जिसने भारत पर कई बार आक्रमण किया और लूट पाट की। अलेक्ज़ेडर महान भी भारत पर विजय पाने के लिए आया किन्तु पोरस के साथ युद्ध में पराजित होकर वापस चला गया। हेन सांग नामक एक चीनी नागरिक यहां ज्ञान की तलाश में आया और उसने नालंदा तथा तक्षशिला विश्वविद्यालयों मे�� भ्रमण किया जो प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालय हैं। कोलम्बस भारत आना चाहता था किन्तु उसने अमेरिका के तटों पर उतरना पसंद किया। पुर्तगाल से वास्को डिगामा व्यापार करने अपने देश की वस्तुएं लेकर यहां आया जो भारतीय मसाले ले जाना चाहता था। यहां फ्रांसीसी लोग भी आए और भारत में अपनी कॉलोनियां बनाई।
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mahenthings-blog · 6 years
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कौन है हम ?? भाग -15
सीर नदी की घाटी से शकों को निकालकर युइशि जाति के लोग वहाँ पर आबाद हो गए थे पर वे यहाँ भी अधिक समय तक नहीं टिक सके, हूणों ने यहाँ पर भी उनका पीछा किया जिससे मजबूर होकर उन्होंने शको के पीछे बैक्ट्रिया में प्रवेश किया और बैक्ट्रिया तथा उसके समीपवर्ती प्रदेशों पर क़ब्ज़ा कर पहली सदी में अपने पाँच राज्य क़ायम किए। चीनी ऐतिहासिक के अनुसार ये पांच राज्य हिउ-मी, शुआंग-मी, कुएई-शुआंग, ही-तू और काओ-फ़ू थे पर इन राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था। बैक्ट्रिया के यूनानियों के सम्पर्क में आकर युइशि लोगो ने विकास किया और अंततः तक़लामक़ान की मरुभूमि में अपना स्थायी आवास स्थापित किया | 25 ई. पू. के लगभग कुएई-शुआंग राज्य का शासन 'कुषाण' नाम के राजा के पास आया जिसने धीरे-धीरे अन्य युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया। वह केवल युइशि राज्यों को जीतकर ही संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने समीप के पार्थियन और शक राज्यों पर भी आक्रमण किए। अनेक इतिहासकारों का मत है कि कुषाण किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं था अपितु  यह नाम युइशि जाति की उस शाखा का था, जिसने अन्य चारों युइशि राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। जिस राजा ने पाँचों युइशि राज्यों को मिलाकर अपनी शक्ति का उत्कर्ष किया उसका नाम कुजुल कडफ़ाइसिस था। राजा कुषाण के वंशज होने के कारण या युइशि जाति की कुषाण शाखा में उत्पन्न होने के कारण ये राजा कुषाण कहलाते थे इसे लेकर मतभेद है लेकिन इन्हीं के द्वारा स्थापित साम्राज्य को कुषाण साम्राज्य कहा जाता है। प्राचीन भारत के सभी साम्राज्यों में कुषाण साम्राज्य महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय महत्व रखता था । इसके पूर्व में चीन पश्चिम में पार्थियन साम्राज्य था तथा रोमन साम्राज्य का उदय हो रहा था। रोमन तथा पार्थियन साम्राज्यों में परस्पर शत्रुता थी, रोमन एक ऐसा मार्ग चाहते थे जिससे वे बिना पार्थिया से गुजरे चीन से व्यापार कर सके इसलिए वे कुषाण साम्राज्य से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखने के इच्छुक थे। विख्यात सिल्क मार्ग की तीनों मुख्य शाखाओं केस्पियन सागर से होकर जाने वाले मार्ग ,मर्व से फ़रात (यूक्रेट्स) नदी होते हुए रूमसागर पर बने बंदरगाह तक जाने वाले मार्ग और भारत से लाल सागर तक जाने वाले मार्ग पर कुषाण साम्राज्य का नियंत्रण था |  प्रथम शताब्दी में भारत और रोम के बीच मधुर सम्बन्ध का उल्लेख 'पेरिप्लस ऑफ़ दी इरीथ्रियन सी' नामक पुस्तक में मिलता है। इस पुस्तक में रोमन साम्राज्य को निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में कालीमिर्च , अदरक, रेशम, मलमल, सूती वस्त्र, रत्न , मोती आदि का तथा आयात की जाने वस्तुओ में मूंगा, लोशन, कांच, चांदी , सोने के बर्तन , रांगा, सीसा, तिप्तीया घास आदि का उल्लेख किया गया है | ये व्यापार मुख्यतः सिंधु नदी के मुहाने पर स्थित बन्दरगाह 'बारवैरिकम' और भड़ोच से होता था।
            प्रसिद्द कुषाण शासक कनिष्क बौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था उसने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए काफ़ी काम किया। कनिष्क के समय में ही कश्मीर के कुण्डल वन में बौद्ध धर्म की चौथी संगीति का आयोजन किया गया इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र एवं उपाध्यक्ष कनिष्क का राजकवि अश्वघोष था इसमें नागार्जुन भी शामिल हुए थे |  इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको 'महाविभाषा' नाम की पुस्तक में संकलित किया गया ,इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का 'विश्वकोष' भी कहा जाता है , संगीति के निर्णयों को ताम्रपत्र पर लिखकर पत्थर की मंजूषाओं में रखकर स्तूप में स्थापित कर दिया गया। कनिष्क बौद्ध धर्म का अनुयायी होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति साहिष्णु था उसके सिक्कों पर पार्थियन, यूनानी एवं भारतीय देवी देवताओ की आकृतियाँ मिली हैं। कनिष्क के सिक्कों पर ग्रीक भाषा में 'हिरैक्लीज', 'सिरापीज', हेलिओस और सेलिनी, मीइरो (सूर्य), अर्थों (अग्नि ), ननाइया, शिव आदि के नाम मिले है । सिक्कों पर बुद्ध तथा भारतीय देवी देवताओं की आकृतियाँ यूनानी शैली में उकेरी गई हैं। कुषाण वंश के शासकों में कडफ़ाइसिस -शैव , कनिष्क- बौद्ध , हुविष्क और वासुदेव वैष्णव धर्म के अनुयायी थे | मथुरा से कनिष्क की एक ऐसी मूर्ति मिली है, जिसमें उसे सैनिक वेषभूषा में दिखाया गया है। कनिष्क के अब तक प्राप्त सिक्के यूनानी एवं ईरानी भाषा में मिले हैं। कनिष्क के ताम्बे के सिक्कों पर उसे 'बलिवेदी' पर बलिदान करते हुए दर्शाया गया है। कनिष्क के सोने के सिक्के रोम के सिक्कों से काफ़ी कुछ मिलते थे। बुद्ध के अवशेषों पर कनिष्क ने पेशावर के निकट एक स्तूप  एवं मठ निर्माण करावाया। कनिष्क कला और विद्वता का आश्रयदाता था उसके दरबार का सबसे महान् साहित्यिक व्यक्ति अश्वघोष था जिसकी रचनाओं की तुलना महान् मिल्टन, गेटे, काण्ट एवं वॉल्टेयर से की गई है। अश्वघोष ने 'बुद्धचरित्र' तथा 'सौन्दरनन्द', शारिपुत्रकरण एवं सूत्रालंकार की रचना की। इसमें बुद्धचरित तथा सौन्दरनन्द को महाकाव्य की संज्ञा प्राप्त है। सौन्दरनन्द में बुद्ध के सौतेले भाई सुन्दरनन्द के सन्न्यास ग्रहण करने का वर्णन है। अश्वघोष का ग्रंथ 'सरिपुत्रप्रकरण' नौ अंको का एक नाटक ग्रंथ है, जिसमें बुद्ध के शिष्य 'शरिपुत्र' के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का नाटकीय उल्लेख है इस ग्रंथ की तुलना वाल्मीकि की रामायण से की जाती है। कनिष्क के दरबार की ही एक अन्य विभूति नागार्जुन दार्शनिक ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक भी था। इसे भारत का 'आईन्सटाइन' कहा गया है  नागार्जुन ने अपनी पुस्तक 'माध्यमिक सूत्र' में सापेक्षता के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। वसुमित्र ने चौथी बौद्ध संगीति में 'बौद्ध धर्म के विश्वकोष' 'महाविभाष्ज्ञसूत्र' की रचना की। इस ग्रंथ को 'बौद्ध धर्म का विश्वकोष'कहा जाता है। कनिष्क के राजवैद्य और रत्न चिकित्सक चरक ने औषधि पर 'चरकसंहिता' की रचना की |  अन्य विद्धानों में पार्श्व, वसुमित्र, मतृवेट, संघरक्षक आदि के नाम उल्लेखनीय है इसके संघरस कनिष्क के पुरोहित थे , वसुमित्र ने विभाषा शास्त्र की रचना की थी। कुषाणों ने भारत में बसकर यहाँ की संस्कृति को आत्मसात् किया इनकी संस्कृति यूनानी संस्कृति से प्रभावित थी। कुषाण शासकों ने 'देवपुत्र' उपाधि धारण की। कनिष्क के समय में ही 'वात्सायन का कामसूत्र', भारवि की स्वप्नवासवदत्ता की रचना हुई। 'स्वप्नवासवदत्ता' को संभवतः भारत का प्रथम सम्पूर्ण नाटक माना गया है।
                    चौथी सदी से सातवीं सदी के मध्य उड़ीसा ,मध्यप्रदेश ,पूर्वी तथा दक्षिण पूर्वी बंगाल तथा असम में उन्नत कृषि व्यवस्था का प्रसार हुआ | उत्पादन बढ़ने के साथ इन क्षेत्रो में व्यापार ,शिल्प और विभिन्न कलाओ का विकास हुआ जिनके चलते नए राज्य तंत्रो का विकास संभव हुआ | इस समय उड़ीसा में कई राज्य स्थापित होते है जिनमे पांच की पहचान स्पष्ट रूप से होती है और इनमे माठर वंश का राज्य प्रमुख है ये पितृभक्त वंश भी कहलाता था जिसका साम्राज्य महानदी और कृष्णा नदी के बीच फैला था | माठरों ने महेंद्र पर्वत क्षेत्र में महेन्द्रभोग नाम का नया जिला बनाया साथ ही अग्रहार नाम के न्यास बनाये जिन्हे कुछ भूमि दी गयी जिसकी आय से पठन पाठन और धार्मिक कार्यो में लगे ब्राह्मण वर्ग का भरण पोषण होता था | ये लोग मौसम की अच्छी जानकारी रखते थे और उसका उपयोग कृषि में करते थे ,इन लोगो ने वर्ष को 4 -4 महीनो के तीन भागों में बांटा और काल की गणना तीन ऋतुओ के आधार पर करना शुरू किया |  माठरों के अमल में पांचवी सदी के मध्य में वर्ष को बारह चंद्र मॉस में विभाजित करने की परंपरा चली |  ईसा की चौथी सदी तक इस क्षेत्र में प्राकृत भाषा के अभिलेख मिलते है लेकिन इसी के साथ 350 ईस्वी के आसपास संस्कृत के प्रयोग के भी प्रमाण मिलते है |  इस काल के अभिलेखों में उत्कृष्ट संस्कृत के श्लोक मिलते है जो शासन पत्रों और सामाजिक नियमो को दर्शाने वाले अभिलेखों में वर्णित है , शासनपत्रो में राजा द्वारा स्वयं को वर्ण व्यवस्था का रक्षक तथा प्रयाग स्थित गंगा यमुना संगम में स्नान को पवित्र कहा गया था | दक्षिण कलिंग में आंध्र की सीमाओं पर वशिष्ठ वंश ,महाकांतर के वन्यप्रदेश में नलवंश ,महानदी के पार उत्तर और समुद्रवर्ती क्षेत्र में मानवंश के शासको के राज्य थे , ये सभी राज्य वैदिक और आर्य संस्कृति के पोषक थे और अपने शासन की वैधता को स्थापित करने के लिए वैदिक यज्ञ किया करते थे | नल वंश की स्थापना 290 ईस्वी में वराहराज (शिशुक ) ने की ,ये वंश वाकाटक राज्य का समकालीन था और वाकाटकों से संघर्ष करता रहा था | नलवंश के शासको ने पुष्करी ,कोरापुट और बस्तर में अपनी राजधानी बनायीं , बस्तर के जनजातीय क्षेत्रो एड़ेंगा और कुलिया से मिली नलवंश की स्वर्ण मुद्राओं से एक विकसित अर्थव्यवस्था की जानकारी मिलती है| इस वंश के शासक भवदत्त वर्मा का अमरावती से ताम्रपत्र तथा पोड़ागढ़ से शिलालेख ,अर्थपति का केशरीबेड़ से ताम्रपत्र तथा पंडियापाथर से लेख और विलासतुंग का राजिम से शिलालेख प्राप्त हुआ है | इसी तरह मानवंश द्वारा जारी किये गए ताम्बे के सिक्के बताते है कि किसान और शिल्पियों के बीच इन सिक्को का प्रचलन था |                       
उत्तरी बंगाल के कई हिस्सों जहाँ वर्तमान बोगरा जिला स्थित है में अशोक के काल से ही लेखन प्रचलित होने के प्रमाण मिलते है , इस क्षेत्र के लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और प्राकृत जानते थे ,बौद्ध भिक्षुओ के भरण पोषण के लिए सिक्को और अनाज के भंडार थे  |  दक्षिण पूर्व बंगाल के समुद्रवर्ती नोआखली जिले में मिले अभिलेख से पुष्टि होती है कि ये लोग ईसा पूर्व दूसरी सदी में प्राकृत और ब्राह्मी लिपि जानते थे , दक्षिण पूर्व बंगाल में खरोष्ठी लिपि के प्रचलित होने का भी आभास मिलता है |  बंगाल के बारे में स्पष्ट जानकारी ईसा के बाद की चौथी सदी में जाकर मिलती है , सदी के मध्य में महाराज उपाधिधारक एक राजा का जिक्र बांकुरा जिले के दामोदर तटवर्ती पोखरणा के शासक बतौर मिलता है जो संस्कृत जानता था और विष्णु का उपासक था | गंगा और ब्रह्मपुत्र के बीच का प्रदेश जो अब बांग्लादेश का भाग है पांचवी सदी में भरा पूरा था और यहाँ संस्कृत शिक्षा प्रचलित थी |  550 ईस्वी के बाद गुप्त शासन के स्वतंत्र हुए गवर्नरों द्वारा उत्तरी बंगाल पर कब्ज़ा करने के संकेत मिलते है , इसके कुछ भाग को कामरूप के राजाओ ने भी हथियाया | 432 -33 ईस्वी से अगले 100 वर्षो तक पुण्ड्रवर्धनभुक्ति (समूचा उत्तरी बंगाल और बांग्लादेश का भाग ) में भूमि व्यवहारों के बड़ी संख्या में ताम्रपत्र मिलते है जिसमे भूमि के मूल्य के रूप में दीनार नामक स्वर्णमुद्रा का जिक्र है |  गुप्त साम्राज्य के दौरान नियुक्त गवर्नरों द्वारा स्थापित व्यवस्था के तहत इन ताम्रपत्रों पर लिपिकारों ,वणिको ,शिल्पियों और भू स्वामियों के नाम मिलते है | 600 ईस्वी में आकर यह गौड़ प्रदेश कहलाया ,इसे गोड़ नाम मिलने के पीछे दो धारणाये प्रचलित है | प्रथम के अनुसार यहाँ से गुड़ का व्यापार होने के कारण तथा दूसरे गोड़ शासको के कारण | गोड़ वंश को क्षत्रिय राजवंश कहा जाता है और पौराणिक सूत्रों के अनुसार ये भरत के वंशज थे | कहा जाता है कि जब राम अयोध्या के राजा बने तब भरत को गांधार का राजा बनाया गया था | भरत के पुत्र तक्ष द्वारा तक्षशिला तथा पुष्कल द्वारा पुष्कलावती (पेशावर ) नगर बसाये गए थे , बाद में इनके वंशजो ने बंगाल तक साम्राज्य विस्तार किया | 553 ईस्वी के हराहा अभिलेख में ईश्वरवर्मन मौखरि की गोड़ प्रदेश पर विजय का उल्लेख मिलता है |  बाणभट्ट ने गोड़ नरेश शशांक का वर्णन किया है जिसकी राजधानी कर्णसुवर्ण (वर्तमान मुर्शिदाबाद जिले का रांगामाटी क़स्बा ) थी | शशांक का राज्य पश्चिम में मगध तथा दक्षिण में उड़ीसा की चिल्का झील तक था | शशांक ने ही थानेश्वर के शासक और हर्षवर्धन के भाई राज्य वर्धन की हत्या की थी जो दोनों के बीच शत्रुता का कारण  था | दक्षिण पूर्व बंगाल का ब्रह्मपुत्र द्वारा गठित त्रिभुजाकार क्षेत्र समतट कहलाता था जिसे चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने जीता था , लेकिन यहाँ न तो वर्णव्यवस्था का प्रचलन मिलता है और न ही उत्तरी बंगाल की तरह संस्कृत का प्रयोग ,जिससे पता चलता है कि यहाँ के शासक बाह्मण धर्मावलम्बी नहीं थे | लगभग 525 ईस्वी में यहाँ एक सुसंगठित राज्य रहा जिसमे समतट के साथ इसकी पश्चिमी सीमा से सटा वंग का भाग भी शामिल था ,ये समतट या वंग राज्य कहलाया ,इसके शासक सम हरदेव का वर्णन मिलता है जिसने छठी सदी के उत्तरार्ध में स्वर्ण मुद्राये जारी की थी |  इसके अतिरिक्त सातवीं सदी में ढाका क्षेत्र में खड्ग वंश का साम्राज्य मिलता है , यहाँ दो राज्य थे ,लोकनाथ नामक ब्राह्मण सामंत का राज्य और राट वंश का राज्य ,ये दोनों कुमिल्ला क्षेत्र में पड़ते थे |  इस अवधि में जो भी राज्य स्थापित हुए उन्होंने उड़ीसा की तरह अग्रहारों की स्थापना की और बड़ी संख्या में अनुदानपत्र जारी किये ये सस्कृत भाषा में थे | बंगाल और उड़ीसा के बीच के क्षेत्र में राजस्व और प्रशासनिक इकाई दंडभुक्ति बनाई गयी , वर्धमानभुक्ति (बर्दवान ) में भी यही व्यवस्था थी |  राजकाज की भाषा संस्कृत रही, इस काल में ब्राह्मणवाद फैला साथ ही बौद्ध धर्म भी बंगाल के नए क्षेत्रो में पहुंचा |                      
  गुवाहाटी के पास अम्बारी में हुए उत्खननों से  यहाँ चौथी सदी में ही बस्तियां होने के प्रमाण मिलते है जो छठी सातवीं सदी तक विकसित रूप ले चुकी थी | कामरूप के राजाओ ने वर्मन की उपाधि धारण की थी जिसका अर्थ होता है क��च या जिरह -बख्तर ये योद्धा होने का प्रतीक है |  इसे मनु ने क्षत्रियों के लिए निर्धारित किया था , सातवीं सदी में भास्करवर्मन ऐसे राज्य के ��्रधान के रूप में सामने आया जिसका नियंत्रण ब्रह्मपुत्र मैदान के बड़े भाग के साथ उसके आगे के क्षेत्रो पर भी था , यहाँ बौद्ध धर्म के पैर जमे थे और चीनी यात्री हुआन सांग भी इस क्षेत्र में घूमा था|  कुल मिलाकर देखे तो चौथी से सातवीं सदी के बीच इस क्षेत्र में संस्कृत ,वैदिक कर्मकांड ,वर्णव्यवस्था और राज्यतंत्रो का विकास हुआ |  गुप्त साम्राज्य से सांस्कृतिक सम्बन्धो के चलते पूर्वांचल में सभ्यता विकसित हुई वही  बौद्ध धर्म के साथ वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के रूप में ब्राह्मण धर्म की भी प्रगति हुई | 
 जारी है अतीत का ये सफर ---महेंद्र जैन 10 फरवरी 2019  
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