#आधुनिक युग में शिक्षा का महत्व
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agriculture2024 · 11 months ago
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कृषि में आधुनिक तकनीक को अपनाना | khetivypar
कृषि, जो हमारी रोजमर्रा की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है, वर्तमान में आधुनिक तकनीक के साथ मिलकर नए दौर की शुरुआत कर रही है। खेतिव्यापर के क्षेत्र में आधुनिक तकनीक का उपयोग कृषि को सुगम और उत्तम बनाने के लिए किया जा रहा है, जिससे उत्पादकता में वृद्धि हो रही है और किसानों को नई संभावनाएं मिल रही हैं।
1. स्वतंत्र ऊर्जा स्रोतों का उपयोग
आधुनिक तकनीक के साथ, खेतिव्यापर में स्वतंत्र ऊर्जा स्रोतों का उपयोग हो रहा है। सौर ऊर्जा और बिजली सहित नई ऊर्जा स्रोतों का अधिक से अधिक उपयोग करके किसान स्वतंत्रता बढ़ा रहे हैं और अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं।
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2. स्वच्छ और सुरक्षित खेती के लिए रोबोटिक्स
रोबोटिक्स का प्रयोग खेतिव्यापर में सुरक्षित और स्वच्छ खेती के लिए हो रहा है। खेतों में बोना जा रहा बीज, पौधों की देखभाल, और फसलों को प्रबंधन के लिए रोबोटिक तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है, जिससे किसानों को समय और मेहनत बचा रहा है।
3. स्वतंत्र सिंचाई प्रणाली
आधुनिक सिंचाई प्रणालियों का उपयोग करके किसान सुनिश्चित कर रहे हैं कि पानी का सही ढंग से उपयोग हो रहा है। स्वतंत्र सिंचाई प्रणालियां सेंसर्स और तकनीकी उपकरणों का उपयोग करके मौसम और भूमि की स्थिति का मॉनिटरिंग करती हैं, जिससे पूरे खेती क्षेत्र को सही से पानी पहुंचता है और साथ ही पानी की बचत होती है।
4. डिजिटल बाजार और मार्गदर्शन
डिजिटल प्लेटफॉर्मों का उपयोग करके किसान बाजार में सीधे पहुंच रहे हैं और अच्छे मूल्य पर अपने उत्पादों को बेच रहे हैं। डिजिटल मार्गदर्शन की सुविधा से किसान बेहतरीन उत्पाद और बाजार की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
5. खेतिव्यापर में तकनीकी शिक्षा का महत्व
आधुनिक तकनीक के साथ, कृषि में आधुनिक तकनीक को अपनाना, किसानों को तकनीकी शिक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया जा रहा है। इससे उन्हें नई तकनीकों का सीधा लाभ हो रहा है और उन्हें अपनी खेती में सुधार करने का एक नया पहलुवा मिल रहा है।
आखिरकार, खेतिव्यापर में आधुनिक तकनीक का उपयोग किसानों को सुगम और सुरक्षित खेती के लिए एक नए युग की शुरुआत कर रहा है। यह न केवल उत्पादकता में वृद्धि कर रहा है, बल्कि भविष्य में खाद्य सुरक्षा और विकास के साथ समृद्धि की ओर एक कदम बढ़ा रहा है। खेतिव्यापर में नई तकनीक के साथ, हम भारतीय कृषि को एक नई दिशा में बदल रहे हैं।
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sharpbharat · 2 years ago
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west-singhbhum-Chakradharpur-रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ मधुसूदन पब्लिक स्कूल आसनतलिया का वार्षिकोत्सव सह पुरस्कार वितरण समारोह संपन्न, टॉपरों को किया गया सम्मानित,मुख्य अतिथि ने कहा- आधुनिक युग में शिक्षा का महत्व और बढ़ जाता है
west-singhbhum-Chakradharpur-रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ मधुसूदन पब्लिक स्कूल आसनतलिया का वार्षिकोत्सव सह पुरस्कार वितरण समारोह संपन्न, टॉपरों को किया गया सम्मानित,मुख्य अतिथि ने कहा- आधुनिक युग में शिक्षा का महत्व और बढ़ जाता है
रामगोपाल जेना/चक्रधरपुर:शनिवार को मधुसूदन पब्लिक स्कूल आसनतलिया चक्रधरपुर का वार्षिकोत्सव सह पुरस्कार वितरण समारोह रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ संपन्न हुआ. समारोह के मुख्य अतिथि डीसीएलआर एजाज अनवर तथा विशिष्ट अतिथि पूर्व जिला परिषद अध्यक्ष सह स्कूल के चेयरमैन श्याम सुंदर महतो, जेएलएन कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल डॉ प्रो नागेश्वर प्रधान मौजूद थे. समारोह का उदघाटन मधुसूदन महतो तथा सरस्वती महतो…
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educationupdates · 4 years ago
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जीवन में औपचारिक शिक्षा का महत्व
औपचारिक शिक्षा की अनिवार्यता लंबे समय तक चर्चा व विवाद का विषय रहा है। जो लोग इसके पक्षधर हैं वो इसे अनावश्यक मानते हैं जबकि विपक्ष के लोगों का मानना है कि भारत में पढ़ाई के लिए घर सबसे श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है।
यहां हम औपचारिक शिक्षा के कुछ सकारात्मक विशेषताओं के बारे में जानकारी दे रहे हैं क्योंकि हम यह मानते हैं कि औपचारिक शिक्षा जीवन का एक आवश्यक हिस्सा है।
जब कोई औपचारिक शिक्षा लेता है, तो उसको एक विशेषज्ञ से सीखने का मौका मिलता है। वह शिक्षक या प्रोफेसर अपने विषय का विशेषज्ञ होता है।
एक शिक्षक या प्रोफेसर बताता है कि क्या और क्यों महत्वपूर्ण है। एक योग्य शिक्षक को बहुत सारी जानकारी होती है और उसे पता होता है कि छात्रों को क्या व कैसे सिखाया या पढ़ाया जाना चाहिए।
प्रशिक्षक अपने विषय को अच्छी तरह से जानता है इसलिए वो छात्रों का सही दिशा में मार्गदर्शन कर करता है। एक शिक्षक या प्रशिक्षक अपने छात्रों का समय-समय पर मूल्यांकन भी करता रहता है और उन्हें उचित सुझाव भी देता है।
शिक्षक या प्रशिक्षक न केवल छात्र के काम का मूल्यांकन कर सकता है, बल्कि वह आवश्यक सुधार के लिए सुझाव भी दे सकता है।
औपचारिक शिक्षा पूरी करने के बाद छात्रों को प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय की डिग्री मिलती है। यह उनकी योग्यता को प्रमाणित करती है, इससे उनको नौकरी मिलने में आसानी होती है।
एक व्यवस्थित औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति को आसानी से नौकरी मिल जाती है। जिससे उनका करियर सुरक्षित और भविष्य उज्ज्वल होता है।
निष्कर्ष यह है कि एक औपचारिक शिक्षा के कई सकारात्मक पहलू हैं। एक प्रभावशाली सुव्यवस्थित पाठ्यक्रम की पढ़ाई करके छात्र अपनी योग्यता को और बढ़ाया जा सकते हैं। औपचारिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को नियुक्त करने वाला भी यह जानता है कि उक्त प्रतिभागी अपने विषय को अच्छी तरह से जानता है इसलिए उसे नियोजित किया जा सकता है। औपचारिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति के पास एक विशेष कार्य करने के लिए आवश्यक योग्यता होती है। जिससे उसको एक अच्छी नौकरी, वित्तीय सुरक्षा और उज्ज्वल भविष्य मिलता है।
यदि आप को गुड़गांव में  शीर्ष निजी विश्वविद्यालयों की तलाश कर रहे हैं, तो एसजीटी विश्वविद्यालय पर विचार कर सकते हैं। जो दिल्ली एनसीआर में स्थित सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक है।
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rajneesh-soni-blog · 6 years ago
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हिमाचल में आवारा पशुओं की बढती हुई अति गम्भीर समस्या ,जयराम सरकार नाकाम साबित -Rajneesh Soni
क्या आगामी लोकसभा चुनावों में हिमाचल में आवारा पशु ,गौ सेवा,गौ रक्षा का मुद्दा चुनावी-मुद्दा बन पायेगा या इस पर केवल राजनीती ही होती रहेगी ?
वर्तमान में उपरोक्त आवारा पशुओं का विषय बहुत गम्भीर विषय है और इसको नलवाड़ मेले के साथ इसीलिए जोड़ रहां हूँ क्यूंकि हिमाचल प्रदेश कृषि प्रधान राज्य है और कृषि उत्पादन , बागवानी ही पहाड़ी प्रदेश के लोगों का मुख्य कार्यक्षेत्र रहा है और एक तरफ नलवाड़ मेले में पशुओं का पूजन ,मान-सम्मान दिया जाता है और दूसरी तरफ इन्ही मेला ग्राउंड के बाहर आवारा पशुओं का जमावड़ा सडकों पर लगा होता है और वही अधिकारी सड़कों के  जाम में फसते हैं जो मेले में बैलों का पुजन कर के आते है|  प्रदेश  के कई क्षेत्रों में लम्बे समय से नलवाड़ मेले बड़ी धूम-धाम से  मनाये जाते रहें है और जिसके लिए लाखो रूपये जनता ��े एकत्रित करके आयोजन होता रहा है , जिससे जनता का मनोरंजन , स्टार नाईट , मुख्य अथिति की जी हजुरी ,शाल टोपी, आदि पर और बड़ी राशि  बाहरी राज्यों के गायकों , कलाकारों पर स्थानीय प्रशासन  खर्च  करता रहा है क्यूंकि इस तरह के मेलों के आयोजन के लिए सरकार के पास ज्यादा बजट नहीं होता है|
बात हिमाचल प्रदेश में संचालित हो रहे इन मेलों के  इतिहास की भी होनी चाहिए क्यूंकि हिमाचल  जैसे पाहड़ी राज्य में मार्च , अप्रैल महीने में जब ग्रीष्म-ऋतु का आगमन होने पर राज्य स्तरीय और जिला स्तरीय नलवाड़ मेले का आयोजन पिछले कई दशकों से प्रदेश सरकार द्वारा किया जाता रहा है जिसमे मेले के स्तर को देखते हुए आयोजन समिति में प्रशासन की भूमिका बदलती रहती है | यह नलवाड़ मेले हिमाचल के अस्तित्व में आने से पहले से ही तत्कालीन रियासतें , उनके राजा-महाराजा, अंग्रेजों के समय से इनको मनाया जाता रहा है,  जिसका मूल उद्देश्य यही था कि हिमाचल राज्य एक कृषि प्रधान राज्य है जहाँ उस समय भी और आज भी 90% आबादी गावं में निवास करती है और कृषि एवं बागवानी राज्य होने के वजह से पशुओं की आवश्यकता किसानों को होती रहती थी , जिसके लिए इस तरह के नलवाड़ मेले आयोजित होते गये और पशुओं की खरीद फरोक्त के लिए किसान, आदि मेले में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते थे | समय के साथ ऐसे मेलों का स्तर भी बदलता गया और राजनितिक नेताओं ने जनता के अनुरोध और अपने वोट बैंक को लुभाने के लिए मेले का स्तर जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय में तब्दील होता गया | आधुनिक युग में कृषि उपकरणों के आ जाने से पशुओं की आवाजाही कम होती गई और कई मेले देवता मेला में तब्दील होने लग गये और कई जगह केवल नाम की ही नलवाड़ रह गयी है, आजकल राज्य स्तरीय , जिला स्तरीय नलवाड़ मेले बिलासपुर, सुन्दर-नगर, भंगरोटू(बल्ह), धर्मपुर, जोगिन्द्रनगर, मंडी, आदि स्थानों में मनाते हैं एवं वर्ष 2000 के बाद एक नया चलन शुरू हुआ कि लोग पशुओं को मेले में लेकर तो आते थे परन्तु उन्ही स्थानों में पशुओं को खुले में छोड़ कर चले जाने लगे और ऐसे में आवारा पशुओं की संख्या बल बढ़ने लग गया तथा आजकल ऐसे नलवाड़ मेले केवल मात्र मनोरंजन मात्र रह गये है, जिसमे रस्म अदा करने के लिए मेले के प्रथम दिन बैल पूजन करने के लिए जोड़ी को लाया जाता है और बाकी दिन जनता के मनोरंजन के लिए तरह तरह की दुकाने, झोले, आदि खरीददारी के लिए जनता इन मेलों में शिरकित करती है परन्तु एक तरफ बैलों का पूजन और हिन्दू धर्म संस्कृति में गौ का बहुत ज्यादा महत्व रहा है और गाय को माता का दर्जा दिया गया है और खुले में आवारा पशुओं की संख्या दिन प्रतिदिन बढती जा रही है और इस बात का प्र��ाण हिमाचल प्रदेश के किसी भी शहर, कस्बे के चौराहे में देखने मात्र से मिल जायेगा | कई क्षेत्रों का भ्रमण करने के बाद स्थिति का आंकलन किया जा सकता है क्यूंकि प्रदेश के हर जिला की अधिकतर तहसीलों, कस्बों में रोजाना आवारा  पशुओं का आंकड़ा बढ़ रहा है , जिसकी वजह से कई बार गम्भीर दुर्घटना हो चुकी है और आम जनता को जान गवानी तक पड़ चुकी है | जनता में यह मुद्दा कोई नेता उठाना तक नहीं चाहता और न्यूज़, मीडिया भी इस तेरह के गौ रक्षा के मुद्दे को ज्यादा जगह नहीं मिल पाती है और नामी हिन्दू धर्म संगठन जैसे विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल , आदि भी केवल मात्र सोशल मीडिया में दिखावे की गौ सेवा कर रहे है और फोटो शूट कर के कार्यक्रम दिखाने की कोशिश करते रहते हैं , यदि इनमे से किसी ने सत्य में रातल पर कुछ किया होता तो गली मुहल्ले में सडकों , रास्तों पर गाय , बैलों की संख्या दिन प्रतिदिन न बढती |  
रजनीश सोनी ने प्रश्न किया कि क्या प्रदेश सरकार सच में गौ रक्षा और आवारा पशुओं के लिए गम्भीर है ??
प्रदेश की जय राम सरकार का 15 महीनों का कार्यकाल हो चूका है, आवारा पशुओं के मामलों में ज्यादा रोक नहीं लग पायी है  बाद उन्होंने  हाल ही में गौ सेवा आयोग का गठन किया तो है  जिसमे उन्होंने गौ सेवा , गौ रक्षा के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाने  के दावे तो किये गये हैं परन्तु मात्र कागजों में क्यूंकि यदि सरकार ने धरातल में कोई प्रयास किये होते तो आज खुले में इतनी ज्यादा संख्या में पशु नहीं दिखाई पड़ते ,  वैसे तो वर्तमान में तकनीक और विज्ञान की मदद से सरकार और प्रशासन बहुत दावे करते हैं , पर जिस प्रकार से मुख्यमंत्री के अपने जिला में इर्द गिर्द झांके तो सरकार और विभागों के सभी दावे खोंखले नजर आते हैं चलो बात हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला के बल्ह क्षेत्र की करते है कि हकीकत में यहाँ आवारा पशुओं पर लगाम लगी है या हाल बेहाल है, उभरता हुआ क्षेत्र बल्ह क्षेत्र, जो तेजी से विकसित हो रहा है जिसमे शिक्षा, स्वास्थ्य, ऑटोमोबाइल, होल-सेलर , कृषि उपकरणों, मेडिकल हेल्थ का बड़ा हब बनने जा रहा है और ग्राहकों की शॉपिंग के लिए पहली पसंद नेर चौक है परंतु यह क्षेत्र एक ऐसी समस्या से ग्रसित है जिसका पूर्ण निवारण कोई भी सरकार, अधिकारी ,नेता ,मंत्री गण आज तक नहीं कर पाएं हैं, हम बात कर रहे हैं दिन प्रतिदिन बढ़ते आवारा पशुओं की समस्या की, जिससे सभी वर्ग के लोग परेशान है। आखिर कौन लोग है जो अपना पशु धन सड़कों पर छोड़ कर भाग जाते है , क्या यह स्थानीय लोग करते है या अन्य राज्यों से आए करते हैं। इसका ��त्तर अभी तक कोई नहीं ढूंग पाया है।
आवारा पशुओं के द्वारा आए दिन किसानों की फसल को बर्बाद होते देखा जाता है, जिसमे किसान को भारी नुकसान झेलना पड़ता रहा है।शहरों में बीच सड़कों पर शान से यह पशु अपनी महफ़िल सजाए रहते है, जितना मर्जी हार्न बजाओ , हिलने का नाम तक नहीं लेते, जिससे दुर्घटना का खतरा भी बढ़ता है और जाम लगने पर  ट्रैफिक पुलिस के कर्मचारियों को सड़कों पर मुशकत करते सभी ने देखा होगा।  घरों और दुकानों की छतों पर आए दिन बन्दर नजर आते हैं । छोटे बच्चे अपने घरों में खेल भी नहीं सकते। आवारा कुत्तों की समस्या से बीमारियों के संक्रमण का खतरा बढ़ता है ।
आए दिन किसी ना किसी को कुत्ते के काटने के मामले हस्पतालों में देखने को मिलते है।
क्या बताए.... कई बार जान तक गई है लोगों की || आखिर इतने कम अंतराल में आवारा पशु क्यूं बढ़ रहे हैं। इसका कोई ठोस जवाब किसी भी  प्रशासनिक अधिकारी द्वारा नहीं मिला ।
आवारा पशु की समस्या एवं उनके निदान वर्तमान मे आवारा पशु  शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रो मे गंभीर समस्या बन गई है । गाय , बैल , बन्दर, कुत्ते , आदि आवारा पशु रहवासी इलाको मे बहुतायत से घूमते मिल जाते है। यदि इस समस्या का निदान नहीं किया गया तो इसके कई दुष्प्रभाव हो सकते है। आवारा पशु यातायात को बाधित करते है जिससे सड़क दुर्घटनाएँ होती है और यातायात जाम भी हो जाता  है। आवारा पशु अपने मल-मूत्र से गाँव और शहर को अस्वच्छ करते है । इस से कई बीमारियाँ फेलने का खतरा होता है ।
आवारा पशु-पक्षी  की समस्या से निदान के लिए शासन को सख्ती के साथ इन पशुओं को कहीं पर स्थान चिन्हित कर के पंचायत स्तर पर गऊ शाला निर्मित करनी ही पड़ेगी  । इसके साथ  ही इनके मालिकों पर भी सख्त कारवाई करनी चाहिए ताकि वे अपने पालतू पशुओ को आवारा न छोड़े । साथ साथ घनी आवादी वाले क्षेत्रो मे पालतू पशुओ की संख्या पर भी सीमा होना चाहिए। टोकन या कोई पंजीकरण प्रक्रिया और रेडियम कोल्ल्रर ,  आई-रेटीना या अन्य पंजीकरण प्रक्रिया आरंभ करने पड़ेगी।
रेडियो , टेलिविजन , समाचार पत्र आदि संचार  के साधनो के माध्यम से लोगो मे इस समस्या के प्रति जागरूकता फेलाना चाहिए। कैसे पशुओं के कारण दुर्घटनाये कम हो, इसके लिए प्रशाशन , ग्राम पंचायत एवं नगर निकाय के जन प्रतिनिधि मिलकर समय समय पर बैठके कर के ठोस रणनीति तैयार कर सकते हैं |
क्यूंकि बल्ह क्षेत्र में केवल मात्र दो गौशाला एक घौड (रिवल्सर) में तथा दूसरी नगर परिषद  नेर चौक के वार्ड 2 ढ��ंगु में  , जो निजी संस्था के रूप में संचालित हो रही है और पशुओं कि संख्या कुछ अंक तक सीमित है। मात्र गौ शाला निर्मित करना ही लक्ष्य नहीं होना चाहए , गौ शाला का रख रखाव , आदि वित्त साधनों पर कैसे प्राप्त कर सके , सरकार को सोचना होगा | स्थानीय विधायक और प्रसाशन से निवेदन रहेगा कि बल्ह के आवारा पशुओं के लिए कोई ठोस नीति बनाई जाना आवश्यक है तथा प्रदेश स्तर पर प्रदेश सरकार के पंचायती राज मंत्री ने आवारा गाय के सरक्षण के लिए कड़े कदम उठाने के प्रयास शुरू किए और कुछ दिन पूर्व कहा था कि हर पंचायत में गऊ शाला बनेगी  और उनकी माने तो हिन्दू संस्कृति में गौ, गायत्री, गंगा, गीता इनका महत्व हर सनातन धर्म और हर भारतीय  क�� समझना चाहिए और इनका संरक्षण करना ही हर सनातन धर्म और हिन्दू का कर्तव्य होना चाहिए। अन्यथा जिस प्रकार गौ मांस के मामले दिन प्रतिदिन बढ़ रहें हैं तो उसमे भी हमारी माता गाय सुरक्षित नहीं है। गौ का संरक्षण अत्यंत अत्यंत आवश्यक होना चाहिए। क्यूंकि गाय के कारण दूध, घी, दही, आदि उत्पन होता है। हिन्दू धर्म में मानव जीवन के जन्म और मृत्यु के वक़्त गौ मूत्र ही दिया जाता है । माननीय मुख्य मंत्री हिमाचल प्रदेश से निवेदन रहेगा कि प्रदेश को आपके युवा नेतृत्व से बहुत उम्मीदें है और उस पर खरा उतरना ही आपकी सबसे कसौटी रहेगी। कृपया आवारा पशुओं के लिए कोई ठोस और सख्त नीति बनाई जाए , जिससे पंचायत स्तर पर गऊ शाला का निर्माण हो सके और स्थानीय लोगों को रोजगार और स्व रोजगार के अवसर भी मिल सके और गाय के गोबर, मल मूत्र से जैविक खेती के लिए जैविक खाद और स्प्रे का निर्माण कर सके ताकि किसानों और कृषि से कार्य करने वालों इसका फायदा हो सके ताकि जो स्वप्न माननीय महामहिम हि०प्र आचार्य देवरत जी ने प्रदेश को जैविक राज्य बनाने का देखा है उसमे हम सभी अपनी ओर से कुछ प्रयास कर सके । पशु का सरक्षण होंगे तो राज्य जैविक बनेगा और अनेकोनेक अवसर ग्रामीणों को मिलेंगे।          लेखक, रजनीश सोनी; मोबाइल- 8679300086
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jeetendraks · 6 years ago
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आस्था के नाम पर मानवता का विनाश (Destruction of humanity in the name of faith)
नमस्कार,
आज हम २१ सदी में जी रहे है, और हम आधुनिक युग में प्रवेश कर रहे है, लेकिन हमे अभी तक अपने आसपास हो रही अनेक घटनाओं व क्रियाओ को देखकर कई बार शंका होने लगती है कि क्या हम आधुनिक बन पा रहे है? आधुनिकता का प्रमुख लक्ष्ण है वैज्ञानिक तथा तार्किक दृष्टिकोण, परन्तु तथाकथित शिक्षित और जागरूक लोग भी जब ऐसे काम करते दिखाई देते है, जो वैज्ञानिकता से कोसो दूर हो तो शंका होने स्वाभाविक है। कुछ वर्ष पहले की बात है, मेरठ जिले की घटना जो हमने समाचार पत्र में पढ़ा था, की तांत्रिक के कहने पर सात वर्ष के बालक की हत्या करके उसे काली देवी की मूर्ति पर अर्पित कर दिया गया। यह काम किसी गैर ने नही, बल्कि बालक के माँ-बाप ने ही किया। अपने ही संतान को अपने हाथो मारकर इसलिए बलि चढ़ाए कि उन्हें विश्वास दिलाया गया था कि पुत्र की बलि पाकर काली माँ प्रसन्न होंगी और उनकी गरीबी तथा दुसरे कष्ट दूर हो जायेगा। कयोकि तांत्रिक ने उसे बताया था कि अपने पुत्र की बलि चढाने से आप के सारे कष्ट दूर हो जायेंगे।
       यदि इस प्रकार की घटने व्यक्तिगत विश्वास या आस्था तक सिमित होती तो बात दूसरी होती, किन्तु स्थिति दु:खद इसलिए है कि ये अमानवीय अपराध धर्म के नाम पर होते है। आमतौर पर इन धटनाओ को धार्मिक समर्थन मिलने के कारण इनका जोरदार विरोध नही हो पाटा तथा इनके विरुद्ध बोलने वालो को नास्तिक और अधार्मिक घोषित करके उनकी बात के महत्व को समाप्त कर दिया जाता है। झूठे धर्म का यह जोश और नशा कुछ लोगो के अपनी जान लेने को भी  दुष्प्रेरित करता है। किसी अज्ञात, अस्पष्ट और सूक्ष्म कामना की पूर्ति के लिए   दुसरो की बली और तथाकथित मोक्ष की चाह में आत्मदाह की धटनाये यही बताती है कि धर्म के चमत्कारों से मनोकामनाए पूरी हो सकती है। ये अन्धविश्वास अब भी  हमारे समाज में कई लोगो के मन में गहराई से जेड जमाए हुए है।
       चमत्कारों के प्रति आकर्षण और आस्था कुछ तो हमारी मनोवैज्ञानिक दुर्बलता का परिणाम है और कुछ हमारे परम्परागत संस्कारों का। शिक्षा, विज्ञान, और तर्कशील व्यक्तियों के प्रयासों से इन अन्धविश्वासो की धुल कुछ झडती है, परन्तु चमत्कारों के बल पर धर्म की दूकान चलाने वालो तथा धर्म के प्रचारको द्वारा अन्धविश्वासो को गरिमामंडित करने के सतत प्रयासों की कृपा से धुल की परत और मोती होने लगती है। नए-नए योगी, तथाकथित गॉडमैंन व अवतारी पुरुर्ष आये दिन प्रकट होकर अध्यात्म और धर्म की आड़ में लोगो को निष्क्रिय आस्था की अफीम खिलते रहते है।
       इन धर्म के ठेकेदारों ने परम्परागत विधियों से उपर उठकर प्रचार व प्रवचन की हाईटेक विधिय विकसित कर ली है। इनकी सभा अब विशाल पैमाने पर आयोजित होती है और टी वी, वीडियो, कम्पूटर आदि का सहारा लेकर अपनी बात नई पीढ़ी के लिए विश्वस्तरीय बनाने का प्रयास किया जाता है। यह पूरा आयोजन व्यावसायिक स्तर पर होता है। प्रवचन के आयोजन का प्रबंध बड़े-बड़े ठेकेदारों को सौपा जाता है तथा प्रचार के लिए विज्ञापन कंपनियों की मदद ली जाती है। इन उपायों से अंधविश्वास और निष्क्रिय आस्था का जहर लोहो को अधिक प्रभावी ढंग से दिया जाने लगा है। सोशल मिडिया और विज्ञापनों के माध्यम से तंत्र विद्या तथा ज्योतिष जैसी अनुमानजनित विद्याओं की आड़ में लोगो को भाग्यवादी बनाकर अनेक तथाकथित ज्योतिष एवं तांत्रिक अपना उल्लू सीधा कर रहे है।
       अब तो धर्म और नैतिकता के नाम पर स्वतंत्र ��ी वी चैनल भी  अन्धविश्वास की इन गलियों में घुस आये है। इससे धर्म-प्रचार ने एक सुव्यवस्थित व्यावसायिक रूप ले लिया ���ै। दुर्भाग्य से कुछ राजनितिक,सामाजिक और सांस्कृतिक स्नाग्थान अपनी इस सोच था सत्ता-सुख के लोभ से प्रेरित होकर इस तरह के आयोजन का न केवल समर्थन कर रहे है, बल्कि उनमे सक्रीय योगदान करके उन्हें विस्वसनीयता तथा सामाजिक मान्यता प्रदान करके अन्धविश्वासो के अन्धकार को और घर बना रहे है। बड़ा विचित्र लगता है कि भौतिकता की दौड़ में जो वर्ग आधुनिक से अति आधुनिक बन्ने को उत्सुक है, वही विचार और आस्था के स्तर पर सदियों पीछे जाने पर तुले है।
       धर्म के नाम पर दूकान चलाने में इन लोगो के सफल होने का मुख्य कारण संभवतः यह है कि ईश्वर अथवा धर्म के संबंध में चर्चा करते हुए यही खा जाता है कि धर्म को समझने के लिए बुध्धि या दिमाग की नही, बल्कि श्रध्दा और भावना की आवश्यकता है। अन्धश्रध्दा के इस चश्मे का ही प्रताप है कि धार्मिक रुझान वाले अनेक लोगो को अवतारों का चोंगा पहनकर स्वार्थसिद्ध करने वालो का असली रूप दिखाई नही देता। वातानुकूलित कक्षों में निवास करने वाले ये आचार्य, भगवान और स्वामी दुसरो को त्याग और वैराग्य का उपदेश देते नही थकते। ये ईश्वरीय लोग अशिक्षित समुदाय को ही नही, शिक्षित वर्ग को भी गुमराह कर रहे है। आप आये दिन इन ढोंगियों को जेल में जाते देख सकते है।
       अगर मान भी लिया जाय कि ये लोग असंभव कार्य करने की शक्ति रखते है तो इसके लिए उनकी पूजा क्यों की जाय? यदि चमत्कार ही पूजा अथवा आस्था की कसौटी है तो उन वैज्ञानिको की पूजा क्यों नही की जाति जिन्होंने हमारे लिए चमत्कारपूर्ण अविष्कार किये है, और मनुष्य को चाँद तक पहुचा दिया है। उन वैज्ञानिको और चिकित्सको की आरती क्यों नहीं उतारी जाति जिन्होने औषधियों की खोज की जो मनुष्य का सर्वनाश करने वाले रोगों को नियंत्रित करने का चमत्कार कर दिखाया है।
       अगर आप में वास्तव में आस्था है तो आप के अंदर से क्रोध, घृणा, लोभ और अहंकार का कोई जगह आप के हृदय में रहता ही नही है। अगर आप अपने अंदर इन सब चीजो की मौजूदगी पाते है कही न कही एक भ्रम की चादर आप के मन के उपर चढ़ा हुआ है। इसे दूर करने के लिए आप को तर्कशील होना भी  जरुरी हो जाता है, और आप अपने भीतर उठ रहे प्रश्नों का उत्तर पाने का प्रायस करते है तो निश्चित रूप से इस प्रकार के भ्रम से बाहर आने का एक सशक्त मार्ग मिल जाता है। आप ने अपने आस-पास बहुत सारे ऐसे बाबाओं का नाम और चमत्कारों के बारे में आवश्य सुना ��ोगा जो आप हर समस्या का समाधान करने का दवा करते है, और जन-सधारण इनके चंगुल में फास भी जाते है। आज-कल के पढ़े लिखे युवा भी इस कुरीति का शिकार होते जा रहे है, वह अपने जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए अन्धविश्वास और चमत्कारों में पड़ जाते है, और अपना जीवन में मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर लेते है।
       ईश्वर अथवा किसी परमसत्ता में विश्वास, पूजा-अर्चना तथा अध्यात्म ये सभी मनुष्य की सहज प्रवृत्तिय है जो हमे शक्ति देती है। परन्तु अन्धविश्वासो और छोटे-मोटे चमत्कारों से प्रभावित होकर कर्म करने की बजाय तंत्र-मन्त्र में माध्यम से सफलता पाने की कामना करना नकारात्मक धारणा है जो हमे पतन की ओर ले जाति है। आस्था और अन्धविश्वास में सुक्ष किन्तु अति महत्वपूर्ण अंतर है। जन-समान्य में तर्क और विवेक का सनचार करके इस अंतर के बारे में समझ को विकसित करके ही हम उन्हें अंधविश्वासो तथा चमत्कारों की अंधी गलियों की बढने से रोक सकते है।
 धन्यबाद,
जितेन्द्र कुशवाहा
https://hindi.speakingtree.in/aaaa-bbbb-1587
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theeduhub · 3 years ago
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छात्र जीवन में बोर्डिंग स्कूल की महत्वता
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भारत देश में प्राचीन काल में गुरुकुल की परंपरा प्रचलित थी, जहां पर बच्चे हर प्रकार की शिक्षा प्राप्त करते थे| उन गुरुकुल में आत्मिक,बौद्धिक ,शारीरिक विकास किया जाता था साथ ही मनुष्य जीवन के मूल सिद्धांतों को सिखाया जाता था, जो जीवन भर उनके काम आते थे| वे घर से दूर रहकर उस अनुशासित जीवन का आभास करते थे जिससे वह इस भौतिक जगत से कदम से कदम मिलाकर चल सके और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें| 
आज के आधुनिक युग में इन्ही गुरुकुलों का एक रूप है बोर्डिंग स्कूल| शिक्षा प्राणाली में जिस तरह से समय के साथ परिवर्तन हुआ है उसी को ध्यान में रखते हुए बच्चों के  लिए आज के दौर में विभिन्न बोर्डिंग स्कूल्स कि शुरुआत हुई है| इस सदी की भाग-दौड़ में माता-पिता अपने बच्चों पर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं दे पाते जिसके चलते बच्चों में अनुशासन का अभाव देखा गया है| शारीरिक और बौद्धिक रूप से बच्चों में कमज़ोरी और विभिन्न प्रकार कि बीमारियां उत्पन्न हो रही है| घर का माहौल उन्हें अनुशासित नहीं होने देता एवं घर के सदस्��ों का अपने कार्यों में व्यस्त रहना बच्चों को एक सही मार्गदर्शन नहीं दे पाता, साथ ही देखा गया है कि उनकी दिनचर्या आज के दौर में बहुत ही  निराशाजनक है| आउटडोर खेल-कूद की  जगह आजकल के आधुनिक मोबाईल गेम्स और कम्प्यूटर ने लेली है, जो कि ज़रुरत से ज़्यादा होने के कारण उनके मानिसक , ���ारीरिक विकास में बाधा बन रही है| बच्चों को  बाहर के खान-पान में इतनी रूचि है कि चाहे अनचाहे में वे अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे है| 
बोर्डिंग स्कूल की कुछ खास बातें जिन्हें आत्मसात करने से जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आता है.
अनुशासन 
समय पाबंदी 
आत्मविश्वास 
आत्मनिर्भरता 
हमें एक बेहतर भारत की निर्माण करना है तो हमें इन्ही आवश्यक मुद्दों पर चर्चा ही नहीं इनके समाधान के बारे में भी सोचना चाहिए| आज हमें ऐसे ही अनुशासन पूर्ण और कुशल युवाओं कि आवश्यकता है जो कि परिवार और अपने देश के प्रती अपनी ज़िम्मेदारी को समझे तथा अपने मनुष्य जीवन को ऐसी दिशा में लेकर जाएँ जहां उनका भविष्य स्वर्णिंम हो और समाज के लिए प्रेरणा का कार्य करे| 
एक ऐसा ही बोर्डिंग स्कूल है AWS ‘ACADEMIC WORLD SCHOOL’ इस बोर्डिंग स्कूल में छात्रों की एक ऐसे जीवन शैली से मुलाक़ात होती है जहां वे आत्मविश्वासी,आत्मनिर्भर, अनुशासित बनते हैं| आत्मविश्वासी,आत्मनिर्भर, अनुशासित होना यह वो मुख्य बिंदु हैं जिनके किसी के जीवन में आने से बहुत विशाल परिवर्तन आता है| घर से दूर रहना और कभी- कभी छुट्टियों में घर जाना परिवार जनों से मिलना उन्हें रिश्तो और परिवार के सदस्यों का महत्व समझाता है| बोर्डिंग स्कूल कि दिनचर्या में वो समय से सोना, उठना, पढ़ना , खेलना इन सभी चीज़ों को अपने जीवन का हिस्सा समझ लेते हैं और सदैव के लिए अपना लेते हैं| 
खुद के काम स्वयं करना खुद का ख्याल स्वयं रखना उन्हें आत्मनिर्भर बनाता है, विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्वों से मिलना-जुलना उनसे बातें करना उन्हें  आत्मविश्वासी बनाता है| यही सारे गुण और सिद्धांत उसे बोर्डिंग स्कूल से निकलने के बाद जगह जगह काम आते है|
 “ACADEMIC WORLD SCHOOL” की सुविधाएं 
शैक्षणिक सुविधाएं  
AWS बोर्डिंग स्कूल में बहुत ही सकारत्मक माहौल एवं खुले वातावरण के साथ पढ़ाई के लिए पर्याप्त स्थान है | इन सभी सुविधाओं का अच्छा प्रभाव बच्चों के मानसिक, शारीरिक, सामाजिक, भावनात्मक जीवन पर पड़ता है| 
कैम्पस 
स्कूल का विशाल एवं अच्छे वातावरण का कैम्पस 25 एकड़ में फैला हुआ है, जो कि अंतरराष्ट्रीय सुविधाओं से युक्त है|
भोजन कक्ष 
भोजन कक्ष में अनुशासित समय पर पूर्ण रूप से पोषित आहार का ध्यान रखा जाता है | यह पोषित आहार बच्चों को उनके शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान करता है| 
स्वास्थ्य सुविधाएं 
स्कूल कैम्पस में उच्च स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए अत्यधिक प्रशिक्षित डॉक्टर 
एवं छात्राओं के लिए उच्च  संस्थानों से प्रशिक्षित नर्सों की व्यवस्था है| 
परिवहन सुविधा
परिवहन सुविधा के लिए स्कूल में 42 ऐ.सी लग्जरी बसें हैं| इन बसों को चलाने वाले चालक पूर्ण रूप से प्रशिक्षित हैं| 
खेल सुविधाएं 
बच्चों के आत्मविश्वास एवं शारीरिक विकास के लिए विभिन्न  प्रकार के खेल कूद की व्यवस्था है| 
व्यक्तित्व विकास
बोर्डिंग स्कूल से  इंसान एक ऐसे व्यक्तित्व के साथ बाहरी दुनिया से मिलता    है, जहां उसेक गुणों का सम्मान ह��ता है और उसकी सराहना कि जाती है चाहे वह किसी भी क्षेत्र में कार्य करे| यहाँ सीखी हुई हर चीज़ उसके काम आती है जिससे वह लक्ष्य प्राप्ती कि ओर अडिग तथा अटल रहता है| 
हालांकि अपने बच्चों को दिए हुए मूल संस्कारों पर भी यह निर्भर करता है कि वह बोर्डिंग स्कूल में जाकर किन नीति नियमों से मिलेगा और किस दिशा में अपनी सद्बुद्धि का उपयोग करेगा।
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shadyearthquakecollector · 3 years ago
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सट्टा किंग 786 भारत में प्राचीन समय से खेल खेला जा रहा है पहले यह खेल का नाम सट्टा मटका था लेकिन आज के युग में इस खेल का नाम सट्टा किंग 786 हो गया है भारत में बहुत प्राचीन समय से इस खेल को खेलते थे यह खेल एक चकरी के द्वारा खेला जाता था एक गोल चकरी थी जिसको चारों में फिर आया करते थे जब वह चकरी जिस नंबर पर आकर रुक जाती थी वही नंबर खुल जाता था लेकिन आज इस खेल में बहुत परिवर्तन हो गया है क्योंकि आज यह खेल चकरी द्वारा नहीं खेला जाता है वर्तमान में यह खेल ऑनलाइन खेला जा रहा है और इसका रिजल्ट भी ऑनलाइन ही आता है अब इस खेल को एक कंपनी का नाम पड़ गया है यह खेल हर क्षेत्र में अलग-अलग कंपनी प्रसिद्ध हो गई हैं उनके नाम से खेला जाता है हर व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार सट्टा किंग 786 की कंपनी में सट्टा खेलता है भारत देश में ज्यादातर प्रसिद्ध कं���नी दिसावर है और गली और गाजियाबाद और फरीदाबाद इत्यादि कंपनी के नाम से सट्टा खेला जाता है हर कंपनी का रिजल्ट अलग समय पर आता है कंपनी वालों ने ��्रतिदिन रिजल्ट देने का एक समय निर्धारित कर रखा है सट्टा किंग 786 खेल प्राचीन समय से ही भारत में प्रतिबंध बैन लगाया गया था लेकिन यह खेल फिर भी खेला जा रहा है इस खेल की शुरुआत विदेशों से हुई थी उसके बाद यह खेल भारत देश में भी एक प्रसिद्ध खेल बन गया इस खेल से हर व्यक्ति एक कम समय में लखपति बनने के लिए इस खेल को खेल रहा है लेकिन इस खेल से खेल कर व्यक्ति बर्बाद भी हो जाता है प्राचीन समय में भारत में यह खेल बहुत कम खेला जाता था लेकिन जैसे-जैसे आधुनिक तकनीकी का बढ़ावा मिलता है आदेश को तो यह खेल प्रसिद्ध होता गया जैसे-जैसे शिक्षा का विस्तार हुआ भारत देश में वैसे वैसे ही यह खेल बहुत ज्यादा प्रसिद्ध होता गया हर व्यक्ति अपनी किस्मत आजमाने के लिए इस खेल को खेलते हैं लेकिन दोस्तों लास्ट में जाकर इस खेल की बहुत बुरी लत लग जाती है फिर यह खेल छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है आदत ऐसी पड़ जाती है की इस खेल को कैसे छोड़े दोस्तों भारत सरकार ने इस खेल पर प्राचीन समय से ही बैन लगा दिया गया था जैसे इस खेल पर बैन लगा तो यह खेल ऑनलाइन की दुनिया में बहुत तेजी गति से प्रसिद्ध हो गया आज के वर्तमान युग में यह खेल ऑनलाइन बी खेला जा रहा है और अब इस खेल के नाम काफी अलग-अलग आ गए हैं क्योंकि हर राज्य में अलग-अलग सट्टा किंग 786 की कंपनी बनाकर प्रसिद्ध कर ली हर कोई व्यक्ति उसी कंपनी में खेलना चाहता है जो आपकी राज्य में ज्यादा प्रसिद्ध हो और उसकी लॉटरी लेने वाले ज्यादा हो इसकी वजह से वर्तमान युग में हजारों कंपनियां बन गई हैं सट्टा किंग 786 की और यह कंपनी धीरे धीरे बहुत प्रसिद्ध होने लगी है जैसे-जैसे भारत में शिक्षा का विस्तार हुआ वैसे वैसे ही सट्टा किंग 786 ऑनलाइन की दुनिया में बहुत तेजी गति से फैल गया क्योंकि हर व्यक्ति अब इसका परिणाम ऑनलाइन ही देख पाता है और ऑनलाइन ही खेलता है प्राचीन समय में इस खेल को सट्टा मटका खेल के नाम से जाना जाता था लेकिन आज के वर्तमान युग में इस खेल को सट्टा किंग 786 के नाम से जाना जाता है कौन है पहले इस खेल को एक ही खेल के नाम से जानते थे सट्टा मटका खेल आज के युग में यह खेल सट्टा किंग 786 के नाम से फिर से 2 गया है और इस खेल को खिलाने वाले को खाईवाल कहते हैं जो कमीशन के तौर पर सट्टे के नंबर की पर्ची लेता है और आगे भेजता है और जो विजेता होता है उसको इनाम घोषित करता है उसे खाईवाल कहते हैं खाईवाल एक तरह से सट्टा पर कमीशन का काम करता है उसका काम होता है कि आगे कंपनी में पर्ची भेजना और जनता के बीच से लेना और जनता तक उसका सट्टा गेम निकलने के बाद उसको उनका इनाम देना यह काम खाईवाल करता है भारत देश में आज के दिन सट्टा किंग 786 बहुत प्रसिद्ध खेल बन गया है सट्टा किंग 786 का भारत देश में बहुत बड़ा महत्व बन गया है इसको जनता गूगल पर सर्च करती है सट्टा किंग 786 के नाम से और सट्टा खेलती है और सट्टा का रिजल्ट बी देखती है और सट्टा किंग 786 कैसे खेला जाता है इसके बारे में बी सीखते हैं यह खेल कैसे खेला जाए और उसके बाद इस खेल को खेलते हैं
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sablogpatrika · 4 years ago
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मानवता के जाज्वल्यमान नक्षत्र: गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर
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  निर्विवाद रूप से यह यह स्वीकार्य है कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर एक विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे एक ही साथ साहित्यकार, संगीतज्ञ, समाज सुधारक, अध्यापक, कलाकार एवं संस्थाओं के निर्माता थे। वे एक स्वप्नदृष्टा थे, जिन्होंने अपने सपनों को साकार करने के लिए अनवरत् कर्मयोगी की तरह काम किया। उनका जन्म कोलकाता के जोड़ासाँको, ठाकुरबाड़ी में 7 मई 1861 को एक साहित्यिक माहौल वाले कुलीन समृद्‍ध परिवार में हुआ था।  बचपन से ही रवीन्द्रनाथ की रुचि गायन, कविता और चित्रकारी में देखी जा सकती थी। महज 8 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी और 16 साल की उम्र से कहानियां और नाटक लिखना प्रारम्भ कर दिया था। समृद्ध परिवार में जन्म लेने के कारण रवीन्द्रनाथ का बचपन बड़े आराम से बीता। कुछ माह तक वे कलकत्ता में ओरिएण्टल सेमेनरी में पढ़े पर उन्हें यहाँ का वातावरण बिल्कुल पसंद नहीं आया। इसके उपरांत उनका प्रवेश नार्मन स्कूल में कराया गया। यहाँ का उनका अनुभव और कटु रहा। विद्यालयीन जीवन के इन कटु अनुभवों को याद करते हुए उन्होंने बाद में लिखा जब मैं स्कूल भेजा गया तो, मैने महसूस किया कि मेरी अपनी दुनिया मेरे सामने से हटा दी गयी है। उसकी जगह लकड़ी की बेंच तथा सीधी दीवारें मुझे अपनी अंधी आखों से घूर रही हैं इसीलिए जीवन पर्यन्त गुरुदेव विद्यालय को बच्चों की प्रकृति, रूचि एवं आवश्यकता के अनुरूप बनाने के प्र��ास में लगे रहे। रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रारंभिक शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल में हुई थी जिसके बाद 1878 में उन्हें बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन विश्वविद्यालय में दाखिला दिलाया गया लेकिन वहाँ के शिक्षा के तौर तरीके रविन्द्रनाथ को पसंद न आए और 1880 में बिना डिग्री लिए ही वे भारत लौट आए। गुरुदेव 1901 में सियालदह छोड़कर शांतिनिकेतन आ गये। प्रकृति की गोद में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शांतिनिकेतन की स्थापना की। शांतिनिकेतन में एक खुले वातावरण प्राकृतिक जगह में एक लाइब्रेरी के साथ 5 विद्यार्थियों को लेकर शांतिनिकेतन स्कूल की स्थापना की थी, जो आगे चलकर 1921 में विश्वभारती नाम से एक स��ृद्ध विश्वविद्यालय बना। शांतिनिकेतन में टैगोर ने अपनी कई साहित्यिक कृतियां लिखीं थीं और यहाँ मौजूद उनका घर ऐतिहासिक महत्व का है। रवींद्रनाथ टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की। रविंद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी ज़्यादातर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के कई रंग पेश करते हैं। अलग-अलग रागों में गुरुदेव के गीत यह आभास कराते हैं मानो उनकी रचना उस राग विशेष के लिए ही की गयी थी। रवींदनाथ टैगोर का अधिकतर साहित्य काव्यमय रहा, उनकी बहुत सी रचनाएं उनके गीतों के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने तकरीबन ढाई हजार गीतों की रचना की। रविन्द्रनाथ की रचनाएं यह अहसास कराने वाली होती थीं जैसे उन्हें रागों के आधार पर रचा गया हो।  टैगोर की महान रचना ‘गीतांजली’ 1910 में प्रकाशित हुई जो उनकी कुल 157 कविताओं का संग्रह है। मूल गीतांजलि वस्तुतः बाङ्ला भाषा में पद्यात्मक कृति थी। इसमें कोई गद्यात्मक रचना नहीं थी, बल्कि सभी गीत अथवा गान थे। इसमें 125 अप्रकाशित तथा 32 पूर्व के संकलनों में प्रकाशित गीत संकलित थे। पूर्व प्रकाशित गीतों में नैवेद्य से 15, खेया से 11, शिशु से 3 तथा चैताली, कल्पना और स्मरण से एक-एक गीत लिये गये थे। इस प्रकार कुल 157 गीतों का यह संकलन गीतांजलि के नाम से सितम्बर 1910 ई॰ (1317 बंगाब्द) में इंडियन पब्लिकेशन हाउस, कोलकाता द्वारा प्रकाशित हुआ था। इसके प्राक्कथन में इसमें संकलित गीतों के संबंध में स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा था - "इस ग्रंथ में संकलित आरंभिक कुछेक गीत (गान) दो-एक अन्य कृतियों में प्रकाशित हो चुके हैं। लेकिन थोड़े समय के अंतराल के बाद जो गान रचित हुए, उनमें परस्पर भाव-ऐक्य को ध्यान में रखकर, उन सबको इस पुस्तक में एक साथ प्रकाशित किया जा रहा है।" यह बात अनिवार्य रूप से ध्यान रखने योग्य है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मूल बाङ्ला गीतों के संकलन इस 'गीतांजलि' के लिए नहीं दिया गया था बल्कि इस गीतांजलि के साथ अन्य संग्रहों से भी चयनित गानों के एक अन्य संग्रह के अंग्रेजी गद्यानुवाद के लिए दिया गया था। यह गद्यानुवाद स्वयं कवि ने किया था और इस संग्रह का नाम 'गीतांजलि : सॉन्ग ऑफ़रिंग्स ' रखा था। 'गीतांजलि : सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' नाम में 'सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' का अर्थ भी वही है जो मूलतः 'गीतांजलि' का है अर्थात् 'गीतों के उपहार'। वस्तुतः किसी शब्द के साथ जब 'अंजलि' शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वहाँ 'अंजलि' का अर्थ केवल दोनों हथे���ी जोड़कर बनाया गया गड्ढा नहीं होता, बल्कि उसमें अभिवादन के संकेतपूर्वक किसी को उपहार देने का भाव सन्निहित होता है। पाश्चात्य पाठकों के लिए यही भाव स्पष्ट रखने हेतु कवि ने अलग से पुस्तक के नाम में 'सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' शब्द जोड़ दिया। यह भी पढ़ें - आज होते तो क्या चाहते गुरु रवीन्द्र? 'गीतांजलि : सॉन्ग ऑफ़रिंग्स' में मूल बाङ्ला गीतांजलि से 53 गीत लिये गये थे तथा 50 गीत/गान कवि ने अपने अन्य काव्य-संकलनों से चुनकर इसमें संकलित किये थे, जिनके भाव-बोध गीतांजलि के गीतों से मिलते-जुलते थे। अंग्रेजी अनुवाद में बाङ्ला गीतांजलि के बाद सन् 1912 में रचित 'गीतिमाल्य' (1914 में प्रकाशित) से सर्��ाधिक 16 गीत लिए गये थे तथा 15 गीत नैवेद्य से संकलित थे। इसके अतिरिक्त चैताली, कल्पना, खेया, शिशु, स्मरण, उत्सर्ग, गीत-वितान तथा चयनिका से भी कुछ कविताओं को चुनकर अनूदित रूप में इसमें स्थान दिया गया था। अंग्रेजी गद्यानुवाद वाला यह संस्करण 1 नवम्बर 1912 को इंडियन सोसायटी ऑफ़ लंदन द्वारा प्रकाशित हुआ था। यह संस्करण कवि रवीन्द्रनाथ के पूर्वपरिचित मित्र और सुप्रसिद्ध चित्रकार विलियम रोथेन्स्टाइन के रेखाचित्रों से सुसज्जित था तथा अंग्रेजी कवि वाई॰वी॰ येट्स ने इसकी भूमिका लिखी थी। मार्च 1913 में मैकमिलन पब्लिकेशन ने इसका नया संस्करण प्रकाशित किया। कविताओं और गीतों के अतिरिक्त उन्होंने अनगितन निबंध लिखे, जिनकी मदद से आधुनिक बंगाली भाषा अभिव्यक्ति के एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरी। टैगोर की विलक्षण प्रतिभा से नाटक और नृत्य नाटिकाएं भी अछूती नहीं रहीं। वह बंगला में वास्तविक लघुकथाएं लिखने वाले पहले व्यक्ति थे। अपनी इन लघुकथाओं में उन्होंने पहली बार रोजमर्रा की भाषा का इस्तेमाल किया और इस तरह साहित्य की इस विधा में औपचारिक साधु भाषा का प्रभाव कम हुआ। अपने जीवन में रवींद्रनाथ ने अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन सहित कई देशों की यात्राएं कीं। 51 वर्ष की उम्र में जब वे अपने बेटे के साथ समुद्री मार्ग से भारत से इंग्लैंड जा रहे तब उन्होंने अपने कविता संग्रह गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद किया।
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गुरुदेव के सामाजिक जीवन की बात करें तो उनका जीवन मानवता से प्रेरित था, मानवता को वे देश और राष्ट्रवाद से ऊपर देखते थे। रवीन्द्रनाथ गांधीजी का बहुत सम्मान करते थे। महात्मा की उपाधि गांधीजी को रवीन्द्रनाथ ने ही दी थी, वहीं रवीन्द्रनाथ को ‘गुरूदेव’ की उपाधि महात्मा गांधी ने दी। 12 अप्रैल 1919 को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने गांधी जी को ‘महात्मा’ का संबोधन किया था, जिसके बाद से ही गांधी जी को महात्मा कहा जाने लगा। बेमिसाल बहुमुखी व्यक्तित्व वाले टैगोर ने दुनिया को शांति का संदेश दिया, लेकिन दुर्भाग्य से 1920 के बाद विश्व युद्ध से प्रभावित यूरोप में शांति और रोमांटिक आदर्शवाद के उनके संदेश एक प्रकार से अपनी आभा खो बैठे। एशिया में परिदृश्य एकदम अलग था. 1913 में जब वह नोबेल पुरस्कार (प्रसिद्ध रचना गीतांजलि के लिए) जीतने वाले पहले एशियाई बने तो यह एशियाई संस्कृति के लिए गौरव का न भुलाया जा सकने वाला क्षण था। वह पहले गैर यूरोपीय थे जिनको साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार गुरुदेव ने सीधे स्वीकार नहीं किया। उनकी ओर से ब्रिटेन के एक राजदूत ने पुरस्कार लिया था और फिर उनको दिया था। उनको ब्रिटिश सरकार ने 'सर' की उपाधि से भी नवाजा था जिसे उन्होंने 1919 में ��ुए जलियांवाला बाग कांड के बाद लौटा दिया था। हालांकि ब्रिटिश सरकार ने उनको 'सर' की उपाधि वापस लेने के लिए मनाया था, मगर वह राजी नहीं हुए। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बाँग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। स्वामी विवेकानंद के बाद वह दूसरे व्यक्ति थे जिन्होंने विश्व धर्म संसद को दो बार संबोधित किया। रवीन्द्रनाथ टैगोर की बड़ी भूमिका स्वतंत्रता पूर्व आन्दोलनों में भी रही है। 16 अक्टूबर 1905 को बंग-भंग आन्दोलन का आरम्भ टैगोर के नेतृत्व में ही हुआ था। इस आन्दोलन के चलते देश में स्वदेशी आन्दोलन को बल मिला। जलियांवाला बाग में सैकड़ों निर्दोष लोगों के नरसंहार की घटना से रविन्द्रनाथ को गहरा आघात पहुंचा था, जिससे क्षुब्ध होकर उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दी गयी ‘नाईट हुड’ की उपाधि को वापस लौटा दिया था। गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। जीवन के अन्तिम समय से कुछ पहले इलाज के लिए जब उन्हें शान्तिनिकेतन से कोलकाता ले जाया जा रहा था तो उनकी नातिन ने कहा कि आपको मालूम है हमारे यहाँ नया पावर हाउस बन रहा है। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि हाँ पुराना आलोक चला जाएगा और नये का आगमन होगा। प्रोस्टेट कैंसर के कारण 07अगस्त 1941 को गुरुदेव इस दुनिया से सदैव के लिए प्रयाण कर गये। लोगों के बीच उनका इतना ज्यादा सम्मान था कि उनकी मृत्यु के बारे में कोई भी व्यक्ति यकीन नहीं करना चाहता था। . Read the full article
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its-axplore · 5 years ago
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आज के आधुनिक युग में कम्प्यूटर्स एवं तकनीक का विशेष महत्व है, बगैर कम्प्यूटर शिक्षा के शिक्षा अधूरी है। उक्त बातें लोहिया नगर स्थित बाइट कंप्यूटर ट्रेनिंग सेंटर में शनिवार को कम्प्यूटर शिक्षा आज की जरूरत विषय पर आयोजित सेमिनार में बतौर अतिथि अवकाश प्राप्त शिक्षक रजनीकांत ने कहीं। साथ ही कहा कि कंप्यूटर शिक्षा प्राप्त करने के बाद ही आप साक्षर कहला सकते हैं। क्योंकि उम्र के इस दौर में जमाने के साथ अपडेट रहने के लिए मुझे भी कंप्यूटर सीखना पड़ रहा है और अच्छा लग रहा है। 10वीं व 12वीं की परीक्षा के बाद छात्रों को बचे हुए समय कम्प्यूटर शिक्षा लेना चाहिए। सेमिनार में संस्थान के निदेशक संजय कुमार सिंह ने कहा कि कम्प्यूटर प्रशिक्षित होने से कई फायदे हैं, अगर नौकरी नहीं भी मिली तो स्वरोजगार शुरू कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि 10वीं व 12वीं की परीक्षा के बाद बच्चे छुट्टियों में कहीं घूमने चले जाते हैं। जबकि इस बचे हुए समय का सदुपयोग कर छात्रों को कम्प्यूटर का शिक्षा अवश्य रुप से लेना चाहिए। उन्होंने छात्रों को बताया कि इस वर्ष संस्थान में कुछ नए सॉफ्टवेयर नए वर्जन के साथ कोर्स में शामिल किए गए हैं साथ ही बताया कि छात्र बाइट कम्प्यूटर में रेगुलर कोर्स में दाखिला लेंगे, उन्हें कम्प्यूटर टाइपिंग निशुल्क करवाया जाएगा। वहीं वर्ष में दो बार प्राइवेट कंपनियां द्वारा कैंपस सलेक्शन का आयोजन कर संस्थान के छात्रा का चयन किया जाता है जो ��स बार मार्च महीने में प्रस्तावित है। लोकस एकेडमी के निदेशक रौनक कुमार ने कहा कि कंप्यूटर नॉलेज की वजह से ही मैं पैसे का लेनदेन डिजिटल रूप में कर रहा हूं। सर्वप्रथम कार्यक्रम का विधिवत उद्घाटन अवकाश प्राप्त शिक्षक रजनीकांत, संस्थान के निदेशक संजय कुमार सिंह व आदि ने संयुक्त रूप से दीप प्रज्वलित कर किया। धन्यवाद ज्ञापन बच्चों की पाठशाला के संचालक रोशन कुमार ने किया। इस मौके पर दर्जनों छात्र एवं छात्राएं उपस्थित थे। बाइट कम्प्यूटर में कम्प्यूटर शिक्षा विषय पर सेमिनार में बोले वक्ता बाइट कंप्यूटर में सेमिनार को संबोधित करते अतिथि।
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fulltimereviewer · 5 years ago
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Essay On Corruption In Hindi भ्रष्टाचार निबंध 2020
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Essay On Corruption In Hindi For Students
Hello, There we are here again with yet another essay, this time its essay on corruption in Hindi for the students who are searching for such essays, hope you guys like it. What is Corruption? भ्रष्टाचार एक प्रकार की आपराधिक गतिविधि या बेईमानी को संदर्भित करता है। यह एक व्यक्ति या एक समूह द्वारा एक दुष्ट कार्य को संदर्भित करता है। सबसे उल्लेखनीय, यह अधिनियम दूसरों के अधिकारों और विशेषाधिकारों से समझौता करता है। इसके अलावा, भ्रष्टाचार में मुख्य रूप से रिश्वतखोरी या गबन जैसी गतिविधियाँ शामिल हैं। हालाँकि, भ्रष्टाचार कई तरीकों से हो सकता है। सबसे शायद, प्राधिकरण के पदों पर बैठे लोग भ्रष्टाचार के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं। भ्रष्टाचार निश्चित रूप से लालची और स्वार्थी व्यवहार को दर्शाता है। भ्रष्टाचार शब्द लैटिन शब्द "भ्रष्ट" से लिया गया है, जिसका अर्थ है "भ्रष्ट" और कानूनी रूप से, सत्ता की शाखाओं में से एक में एक विश्वसनीय स्थिति का दुरुपयोग (कार्यकारी, विधायी और न्यायिक) या राजनीतिक या अन्य संगठनों में भौतिक लाभ प्राप्त करने के इरादे से जो स्वयं या दूसरों के लिए कानूनी रूप से उचित नहीं है।
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बाइबल में पहले से ही एक महान पाप के रूप में भ्रष्टाचार को संदर्भित किया गया था: "रिश्वत स्वीकार न करें, क्योंकि रिश्वत उन लोगों को अंधा कर देती है जो निर्दोष के शब्दों को देखते और मरोड़ते हैं।" हालांकि, भ्रष्टाचार का इतिहास वास्तव में शुरुआत से संबंधित है। कानून और राज्य का निर्माण और पहले से ही पुरातनता में एक बुराई माना जाता था, जो सार्वजनिक प्रशासन और राजनीतिक प्रणाली के कामकाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। भ्रष्टाचार के शुरुआती रिकॉर्ड ईसा पूर्व तेरहवीं शताब्दी तक, असीरियन सभ्यता के समय के हैं। पाया प्लेटों से, क्यूनिफॉर्म में लिखा गया, पुरातत्वविदों ने यह समझने में कामयाब रहे कि रिश्वत कैसे और किसने स्वीकार की। रोमन कानून के तहत, भ्रष्टाचार के आपराधिक अपराध को अपने काम के सिलसिले में एक अधिकारी को प्रभावित करने के लिए लाभ देने, प्राप्त करने या दावा करने के रूप में परिभाषित किया गया था।
Corruption Essay in Hindi
देश में भ्रष्टाचार की व्यापकता के कारण, इस कानून को एक नए कानून द्वारा पूरक किया गया था, जिसने क्षति के दोहरे मूल्य में क्षति के मुआवजे और भ्रष्ट अधिनियम के अपराधी के लिए राजनीतिक अधिकारों के नुकसान की भविष्यवाणी की थी। हालांकि, इससे भ्रष्टाचार को कम करने में मदद नहीं मिली, विशेष रूप से इस तथ्य के कारण कि भ्रष्टाचार को सीनेट के सदस्यों और राज्य के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा सबसे अधिक अभ्यास किया गया था, दोनों रोम में और दूरस्थ रोमन प्रांतों में। प्रारंभिक ईसाई धर्म ने भ्रष्टाचार की निंदा की, फिर भी भ्रष्टाचार बाद में सनकी संरचनाओं में बहुत विकसित हुआ, और मध्य युग में भोगों की बिक्री के साथ अपना चरम हासिल किया, सभी बाद की निंदा तक (और साथ ही पादरी के अन्य अनैतिक कार्यों के लिए) मार्टिन लूथर द्वारा पोप के साथ)। भ्रष्टाचार की निंदा के अलावा, सुधार भी तब तक के लिए विराम हो गया जब तक कि प्रमुख कैथोलिक संस्कृति और प्रोटेस्टेंट नैतिकता का उदय नहीं हुआ। Corruption in India  भारतीय समाज में भ्रष्टाचार अनादिकाल से एक रूप या दूसरे में व्याप्त है। भ्रष्टाचार की मूल स��थापना हमारे अवसरवादी नेताओं के साथ शुरू हुई जिन्होंने पहले से ही हमारे राष्ट्र को अधिक नुकसान पहुंचाया है। जो लोग सही सिद्धांतों पर काम करते हैं, वे गैर-मान्यता प्राप्त हैं और उन्हें आधुनिक समाज में मूर्ख माना जाता है। भारत में भ्रष्टाचार नौकरशाहों, राजनेताओं और अपराधियों के बीच संबंध का एक परिणाम है। पहले रिश्वत का भुगतान गलत चीजों को करने के लिए किया जाता था, लेकिन अब रिश्वत का भुगतान सही समय पर सही काम करने के लिए किया जाता है। इसके अलावा, भारत में भ्रष्टाचार कुछ सम्मानजनक हो गया है, क्योंकि सम्मानित लोग इसमें शामिल हैं। उत्पादों की कम तौल, खाद्य पदार्थों में मिलावट और विभिन्न प्रकार के रिश्वत जैसे सामाजिक भ्रष्टाचार ने लगातार समाज में व्याप्त है। आज के परिदृश्य में, यदि कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी चाहता है, तो उसे सभी पात्रता मानदंडों को पूरा करने के बावजूद उच्च अधिकारियों को लाखों रुपये का भुगतान करना होगा। हर कार्यालय में या तो संबंधित कर्मचारी को पैसे देने होते हैं या काम करने के लिए कुछ स्रोतों की व्यवस्था करनी होती है। बेईमान श्रमिकों द्वारा खाद्य और नागरिक आपूर्ति विभाग में उत्पादों की मिलावट और डुप्लिकेट तौल है, जो लोगों के स्वास्थ्य और जीवन के साथ खिलवाड़ करके उपभोक्ताओं को धोखा देते हैं। संपत्ति कर के मूल्यांकन में अधिकारी सरकारी धन और विनियमों के अनुसार घर का निर्माण ठीक ढंग से करने पर भी पैसा वसूलते हैं। Essay in Hindi On Corruption भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार सबसे खराब है। चिंता का प्रमुख कारण यह है कि भ्रष्टाचार राजनीतिक संस्था को कमजोर कर रहा है और समाज को नियंत्रित करने वाले कानून के सर्वोच्च महत्व को नुकसान पहुंचा रहा है। आजकल राजनीति केवल अपराधियों के लिए होती है और अपराधी राजनीति में होते हैं। देश के कई हिस्सों में चुनाव एक आपराधिक गतिविधियों की मेजबानी से जुड़े हुए हैं। मतदाताओं को किसी विशेष उम्मीदवार को वोट देने या शारीरिक रूप से मतदाताओं को मतदान केंद्र पर जाने से रोकने के लिए - विशेष रूप से आदिवासी, दलित और ग्रामीण महिला जैसे समाज के कमजोर वर्ग देश के कई हिस्सों में होते हैं। हाल ही में, सरकार ने M.P. के वेतन को १,६०,००० रुपये से बढ़ाकर ५०,००० रुपये कर दिया, जो कि मौजूदा वेतन में ३००% वृद्धि है। लेकिन उनमें से कई लोग वृद्धि से नाखुश हैं और चाहते हैं कि सरकार वेतन को बहुत अधिक बढ़ा दे। यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि राजनेता मौद्रिक लाभ के लिए निरंतर प्यास में हैं और लोगों के कल्याण की परवाह नहीं करते हैं। कर चोरी भ्रष्टाचार के सबसे लोकप्रिय रूपों में से एक ��ै। यह ज्यादातर सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं द्वारा अभ्यास किया जाता है जो काले धन के संचय की ओर ले जाते हैं जो बदले में लोगों के नैतिक को खराब करता है। Methods of Corruption? सबसे पहले, रिश्वत भ्रष्टाचार का सबसे आम तरीका है। रिश्वत में व्यक्तिगत लाभ के बदले एहसान और उपहारों का अनुचित उपयोग शामिल है। इसके अलावा, एहसान के प्रकार विविध हैं। इन सबसे ऊपर, एहसानों में पैसा, उपहार, कंपनी के शेयर, यौन एहसान, रोजगार, मनोरंजन और राजनीतिक लाभ शामिल हैं। इसके अलावा, व्यक्तिगत लाभ हो सकता है - अधिमान्य उपचार देना और अपराध को नजरअंदाज करना। गबन चोरी के उद्देश्य के लिए परिसंपत्तियों को वापस लेने के अधिनियम को संदर्भित करता है। इसके अलावा, यह एक या एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा होता है जिन्हें इन परिसंपत्तियों को सौंपा गया था। इन सबसे ऊपर, गबन वित्तीय धोखाधड़ी का एक प्रकार है। essay on corruption in hindi in 500 words भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार का एक वैश्विक रूप है। सबसे उल्लेखनीय, यह व्यक्तिगत लाभ के लिए एक राजनेता के अधिकार के अवैध उपयोग को संदर्भित करता है। इसके अलावा, भ्रष्टाचार के लिए एक लोकप्रिय तरीका राजनेताओं के लाभ के लिए सार्वजनिक धन का गलत तरीके से उपयोग करना है। जबरन वसूली भ्रष्टाचार का एक और प्रमुख तरीका है। इसका मतलब अवैध रूप से संपत्ति, धन या सेवाएं प्राप्त करना है। इन सबसे ऊपर, यह उपलब्धि व्यक्तियों या संगठनों के साथ मिलकर होती है। इसलिए, एक्सटॉर्शन ब्लैकमेल के समान है। अनुकूलता और भाई-भतीजावाद अभी भी उपयोग में है भ्रष्टाचार का एक पुराना रूप है। यह एक व्यक्ति के अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को नौकरी देने के पक्ष में है। यह निश्चित रूप से एक बहुत ही अनुचित प्रथा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कई योग्य उम्मीदवार नौकरी पाने में असफल होते हैं। विवेक का दुरुपयोग भ्रष्टाचार का एक और तरीका है। यहाँ, एक व्यक्ति एक शक्ति और अधिकार का दुरुपयोग करता है। एक उदाहरण एक न्यायाधीश द्वारा किसी आपराधिक मामले को अन्यायपूर्ण तरीके से खारिज करने का हो सकता है। अंत में, पेडलिंग को प्रभावित करना यहां अंतिम विधि है। यह अवैध रूप से सरकार या अन्य अधिकृत व्यक्तियों के साथ किसी के प्रभाव का उपयोग करने के लिए संदर्भित करता है। इसके अलावा, यह अधिमान्य उपचार या पक्ष प्राप्त करने के लिए जगह लेता है। How To Stop Corruption? भ्रष्टाचार रोकने का एक महत्वपूर्ण तरीका सरकारी नौकरी में बेहतर वेतन देना है। कई सरकारी कर्मचारियों को बहुत कम वेतन मिलता है। इसलिए, वे अपने खर्चों को पूरा करने के लिए रिश्वतखोरी का सहारा लेते हैं। तो, सरकारी कर्मचारियों को उच्च वेतन मिलना चाहिए। नतीजतन, उच्च वेतन उनकी प्रेरणा को कम कर देगा और रिश्वतखोरी में संलग्न होने का संकल्प करेगा। श्रमिकों की संख्या बढ़ाना भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का एक और उपयुक्त तरीका हो सकता है। कई सरकारी कार्यालयों में, कार्यभार बहुत अधिक है। यह सरकारी कर्मचारियों द्वारा काम को धीमा करने का अवसर प्रदान करता है। नतीजतन, ��े कर्मचारी काम के तेजी से वितरण के बदले में रिश्वत लेते हैं। इसलिए, सरकारी कार्यालयों में अधिक कर्मचारियों को लाकर रिश्वत देने के इस अवसर को हटाया जा सकता है। essay on corruption in hindi in 1000 words भ्रष्टाचार को रोकने के लिए कठिन कानून बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन सबसे ऊपर, दोषी व्यक्तियों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए। इसके अलावा, सख्त कानूनों का एक कुशल और त्वरित कार्यान्वयन होना चाहिए। कार्यस्थलों में कैमरे लगाना भ्रष्टाचार को रोकने का एक शानदार तरीका है। इन सबसे ऊपर, कई व्यक्ति पकड़े जाने के डर से भ्रष्टाचार में लिप्त होने से बचेंगे। इसके अलावा, ये व्यक्ति अन्यथा भ्रष्टाचार में लिप्त रहे होंगे। सरकार को मुद्रास्फीति को कम रखना सुनिश्चित करना चाहिए। कीमतों में वृद्धि के कारण, कई लोगों को लगता है कि उनकी आय बहुत कम है। नतीजतन, यह जनता के बीच भ्रष्टाचार को बढ़ाता है। व्यवसायी अपने माल के स्टॉक को उच्च कीमतों पर बेचने के लिए कीमतें बढ़ाते हैं। इसके अलावा, राजनेता उन्हें मिलने वाले लाभों के कारण उनका समर्थन करते हैं। इसे योग करने के लिए, भ्रष्टाचार समाज की एक बड़ी बुराई है। इस बुराई को समाज से जल्दी खत्म किया जाना चाहिए। भ्रष्टाचार वह जहर है जिसने इन दिनों कई व्यक्तियों के दिमाग में प्रवेश कर लिया है। उम्मीद है, लगातार राजनीतिक और सामाजिक प्रयासों के साथ, हम भ्रष्टाचार से छुटकारा पा सकते हैं। दुर्लभ अपवादों के साथ, कम आय वाले देश, अधिकांश देशों में एक बंद अर्थव्यवस्था है, धर्म का प्रभाव दिखाई देता है (प्रोटेस्टेंट देशों में भ्रष्टाचार का स्तर सबसे कम है), कम मीडिया स्वतंत्रता और शिक्षा का अपेक्षाकृत निम्न स्तर। सबसे महत्वपूर्ण कारक इंसान का स्वभाव है। सामान्य तौर पर, लोगों को विलासिता और आराम की बहुत अधिक प्यास होती है और जिसके परिणामस्वरूप वे खुद को उन सभी बेईमान गतिविधियों में शामिल कर लेते हैं जिसके परिणामस्वरूप मौद्रिक या भौतिक लाभ होता है। नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को शैक्षिक प्रणाली में अत्यधिक महत्व नहीं दिया जाता है, जो समाज की गिरावट के लिए अत्यधिक जिम्मेदार है। कर्मचारियों को दिया जाने वाला वेतन बहुत कम है और इसके परिणामस्वरूप वे अवैध तरीकों से पैसा कमाने के लिए मजबूर हैं। अपराधियों पर लगाए गए दंड अपर्याप्त हैं। राजनीतिक नेताओं ने समाज को पूरी तरह से बिगाड़ दिया है। वे एक शानदार जीवन जीते हैं और समाज की परवाह भी नहीं करते हैं। भारत के लोग जागृत और प्रबुद्ध नहीं हैं। वे समाज में व्याप्त असामाजिक तत्वों के खिलाफ आवाज उठाने से डरते हैं| Measures To Control Corruption? सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) सरकार के बारे में सभी आवश्यक जानकारी देता है, जैसे कि सरकार हमारे कर भुगतान के साथ क्या कर रही है। इस अधिनियम के तहत, किसी को भी किसी भी समस्या पर सरकार से पूछने का अधिकार है। प्रत्य���क सरकारी विभाग में एक लोक सूचना अधिकारी (पीआईओ) नियुक्त किया जाता है, जो नागरिकों द्वारा वांछित जानकारी एकत्र करने और उन्हें पीआईओ को एक मामूली शुल्क के भुगतान पर संबंधित जानकारी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है। यदि पीआईओ आवेदन को स्वीकार करने से इनकार करता है या यदि आवेदक को समय पर आवश्यक जानकारी प्राप्त नहीं होती है, तो आवेदक संबंधित सूचना आयोग को शिकायत कर सकत��� है, जिसमें 25, 000 तक का जुर्माना लगाने की शक्ति है गलत PIO। essay on corruption in hindi language भ्रष्टाचार पर एक और शक्तिशाली जाँच केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) है। यह सरकार द्वारा सतर्कता के क्षेत्रों में केंद्र सरकार की एजेंसियों को सलाह देने और मार्गदर्शन करने के लिए सेटअप किया गया था। अगर भ्रष्टाचार या उसके बाद कोई शिकायत आती है, तो CVC को सूचित किया जा सकता है। सीवीसी को रिश्वत देने और भ्रष्टाचार करने के परिणामों के बारे में लोगों में अधिक जागरूकता पैदा करने की जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए। शीघ्र न्याय के लिए विशेष अदालतों की स्थापना एक बहुत बड़ा सकारात्मक पहलू हो सकता है। बहुत समय एक मामले के पंजीकरण और फैसले की डिलीवरी के बीच नहीं होना चाहिए। मजबूत और कड़े कानूनों को लागू करने की आवश्यकता है जो दोषी को बचने के लिए कोई जगह नहीं देता है। कई मामलों में, कर्मचारी भ्रष्ट साधनों का चयन मजबूरी से करते हैं, न कि चुनाव से। कुछ लोगों की राय है कि मजदूरी का भुगतान उनके परिवारों को खिलाने के लिए अपर्याप्त है। यदि उन्हें बेहतर भुगतान किया जाता है, तो उन्हें रिश्वत लेने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा। Conclusion भ्रष्टाचार, वास्तव में, एक बहुआयामी प्रक्रिया है। एक तरफ, प्रदाता को लाभ होता है, दूसरी तरफ प्राप्तकर्ता को, और दोनों उस काम के बारे में जानते हैं जो छिपा रहता है। श्रृंखला में तीसरी कड़ी हर कोई है, पीड़ित। यद्यपि भ्रष्टाचार का प्रत्येक कार्य अभी तक एक आपराधिक अपराध नहीं है, फिर भी, यह समाज के आर्थिक और राजनीतिक विकास के लिए अनैतिक और हानिकारक है। आमतौर पर, राजनीतिक, आर्थिक और निर्णय लेने की शक्ति से जुड़े लोग होते हैं, और जैसा कि दार्शनिक कार्ल पॉपर ने अपनी पुस्तक, द ओपन सोसाइटी और इसके दुश्मनों में लिखा है कि सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है कि आदेश किसे देना चाहिए, लेकिन कैसे जो उन्हें देता है उसे नियंत्रित करना। कमजोर और अक्षम शासकों को बहुत अधिक नुकसान करने से रोकने के लिए राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं को कैसे व्यवस्थित किया जाए? हालांकि, चूंकि हैवीवेट के अत्याचार या भ्रष्टाचार को रोकने का कोई सामान्य और अचूक तरीका नहीं है, स्वतंत्रता की कीमत शाश्वत सतर्कता है। लालच, महत्वाकांक्षा, बलात्कार और अनैतिकता सभ्यता के उद्भव क��� बाद से मानव समाज के लिए जाना जाता है और उन्हें उपलब्ध हर उपकरण का उपयोग करते हैं: रिश्तेदारी, आम अतीत, स्कूल संपर्क, आम हितों, दोस्ती और निश्चित रूप से, राजनीतिक और साथ ही धार्मिक संबंधों। एक चीज जो सुनिश्चित करने की जरूरत है, वह है, अपराधियों के खिलाफ, उनके राजनीतिक प्रभावों या धन की शक्ति के बावजूद, मजबूत, निवारक और समय पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए विभिन्न असामाजिक नियमों का उचित, निष्पक्ष और निष्पक्ष उपयोग। खतरे को रोकने के लिए दृढ़ और मजबूत कदमों की आवश्यकता है और ��क ऐसा वातावरण तैयार करना है जहां भारत के लोगों के कल्याण के लिए अच्छे, देशभक्त, बुद्धिजीवी देश की सेवा के लिए आगे आएं। We hope You Guys Liked This Essay on Corruption in Hindi, Please share this to the students who are in search of such essay's. 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god-entire-disposition · 5 years ago
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परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
आगे, आओ निम्नलिखित अंशों को पढ़ें।
6. यीशु का पहाड़ी उपदेश
धन्य वचन (मत्ती 5:3-12)
नमक और ज्योति (मत्ती 5:13-16)
व्यवस्था की शिक्षा (मत्ती 5:17-20)
क्रोध और हत्या (मत्ती 5:21-26)
व्यभिचार (मत्ती 5:27-30)
तलाक (मत्ती 5:31-32)
शपथ (मत्ती 5:33-37)
प्रतिशोध (मत्ती 5:38-42)
शत्रुओं से प्रेम (मत्ती 5:43-48)
दान (मत्ती 6:1-4)
प्रार्थना (मत्ती 6:5-8)
7. प्रभु यीशु के दृष्टान्त
बीज बोने वाले का दृष्टान्त (मत्ती 13:1-9)
जंगली बीज का दृष्टान्त (मत्ती 13:24-30)
राई के बीज का दृष्टान्त (मत्ती 13:31-32)
खमीर का दृष्टान्त (मत्ती 13:33)
जंगली बीज के दृष्टान्त की व्याख्या (मत्ती 13:36-43)
छिपे हुए खजाने का दृष्टान्त (मत्ती 13:44)
अनमोल मोती का दृष्टान्त (मत्ती 13:45-46)
जाल का दृष्टान्त (मत्ती 13:47-50)
8. आज्ञाएँ
मत्ती 22:37-39 उसने उससे कहा, "तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।"
आओ सबसे पहले "यीशु का पहाड़ी उपदेश" के प्रत्येक भाग को देखें। ये सब किससे सम्बन्धित हैं? ऐसा निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि ये सभी व्यवस्था के युग के विधि-विधानों की तुलना में अधिक उन्नत, अधिक ठोस, और लोगों के जीवन के अधिक निकट हैं। आधुनिक शब्दावलियों में कहा जाए, तो यह लोगों के वास्तविक अभ्यास के अधिक प्रासंगिक है।
आओ हम निम्नलिखित के विशिष्ट सन्दर्भ को पढ़ें: तुम्हें धन्य वचनों को किस प्रकार समझना चाहिए? तुम्हें व्यवस्था के बारे में क्या जानना चाहिए? क्रोध को किस प्रकार परिभाषित किया जाना चाहिए? व्याभिचारियों से कैसे निपटा जाना चाहिए? तलाक के बारे में क्या कहा गया है, और उसके बारे में किस प्रकार के नियम हैं, और कौन तलाक ले सकता है और कौन तलाक नहीं ले सकता है? शपथ, प्रतिशोध, शत्रुओं से प्रेम, दान, इत्यादि के बारे में क्या कहेंगे। ये सब बातें मनुष्यजाति के द्वारा परमेश्वर पर विश्वास करने और परमेश्वर का अनुसरण करने के अभ्यास के प्रत्येक पहलू से सम्बन्धित है। इनमें से कुछ अभ्यास आज भी लागू हैं, परन्तु वे लोगों की वर्तमान आवश्यकताओं की अपेक्षा अल्पविकसित अधिक हैं। वे काफी हद तक अल्पविकसित सच्चाईयाँ हैं जिनका सामना लोग परमेश्वर पर विश्वास करने पर करते हैं। जिस समय स��� प्रभु यीशु ने काम करना आरम्भ किया तब से, वह पहले से ही मनुष्यों के जीवन स्वभाव पर काम शुरू कर रहा था, परन्तु वह व्यवस्था की नींव पर आधारित था। क्या इन विषयों पर आधारित नियमों और कथनों का सत्य के साथ कोई सम्बन्ध था? निस्संदेह था! अनुग्रह के युग के पिछले सभी विधि-विधान, सिद्धांत, और उपदेश परमेश्वर के स्वभाव और स्वरूप से, और निस्संदेह सत्य से सम्बन्धित थे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर क्या प्रकट करता है, वह किस तरह से प्रकट करता है, या किस प्रकार की भाषा का उपयोग करता है, उसकी नींव, उसका उद्गम, और उसका आरम्भिक बिन्दु सभी उसके स्वभाव के सिद्धांतों और उसके स्वरूप पर आधारित हैं। यह बिना किसी त्रुटि के है। इसलिए यद्यपि जिन चीज़ों को उसने कहा था अब वे थोड़ी उथली दिखाई देती हैं, फिर भी तुम नहीं कह सकते कि वे सत्य नहीं हैं, क्योंकि वे ऐसी चीज़ें थी जो परमेश्वर की इच्छा को सन्तुष्ट करने और उनके जीवन स्वभाव में एक परिवर्तन लाने के लिए अनुग्रह के युग के लोगों के लिए अति महत्वपूर्ण थीं। क्या तुम ऐसा कह सकते हो कि उपदेश की बातें सत्य के अनुरूप नहीं है? तुम नहीं कह सकते हो! इनमें से प्रत्येक सत्‍य है क्योंकि वे सभी मनुष्यजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं; वे सभी किसी व्‍यक्ति को किस प्रकार आचारण करना चाहिए, इस बारे में परमेश्वर के द्वारा दिए गए सिद्धांत और एक अवसर हैं, और वे परमेश्वर के स्वभाव को दर्शाते हैं। हालाँकि, उस समय के उनके जीवन के विकास के स्तर के आधार पर, वे केवल इन चीज़ों को ही स्वीकार करने और समझने में समर्थ थे। क्योंकि अभी तक मनुष्यजाति के पापों का समाधान नहीं हुआ था, इसलिए प्रभु यीशु केवल इन वचनों को ही जारी कर सकता था, और वह इस प्रकार के दायरे के भीतर ही केवल ऐसी साधारण शिक्षाओं का उपयोग कर सकता था जिससे उस समय के लोगों को बताए कि उन्हें किस प्रकार कार्य करना चाहिए, उन्हें क्या करना चाहिए, उन्हें किन सिद्धांतों और दायरे के भीतर चीज़ों को करना चाहिए, और उन्हें किस प्रकार परमेश्वर पर विश्वास करना है और उसकी अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए। इन सब को उस समय की मनुष्यजाति की कद-काठी के आधार पर निर्धारित किया गया था। व्यवस्था के अधीन जीवन जीने वाले लोगों के लिए इन शिक्षाओं को ग्रहण करना आसान नहीं था, इसलिए जो प्रभु यीशु ने शिक्षा दी थी उसे इसी क्षेत्र के भीतर बने रहना था।
इसके बाद, आओ हम "प्रभु यीशु के दृष्टान्तों" पर एक नज़र डालें।
पहला बीज बोने वाले का दृष्टान्त है। यह वास्तव में एक रूचिकर दृष्टान्त हैः बीज बोना लोगों के जीवन में एक सामान्य घटना है। दूसरा जंगली बीज का दृष्टान्त है। जहाँ तक जंगली बीज की बात है कि वे क्या होते हैं, जिन्होंने भी फसलें लगाई हैं और वयस्क हैं वे जान जाएँगे। तीसरा राई के बीज का दृष्टान्त है। तुम सभी लोग जानते हो कि राई क्या होती है, ठीक है न? यदि तुम लोग नहीं जानते हो, तो तुम लोग बाइबल में एक दृष्टि डाल सकते हो। चौथा, ख़मीर के दृष्टान्त के लिए, अधिकतर लोग जानते हैं कि खमीर को किण्वन के लिए उपयोग किया जाता है; यह कुछ ऐसा है जिसे लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग करते हैं। नीचे दिए गए सभी दृष्टान्त, जिसमें छठा छिपे हुए खजाने का दृष्टान्त, सातवाँ अनमोल मोती का दृष्टान्त, और आठवाँ जाल का दृष्टान्त भी शामिल है, उन सभी को लोगों के जीवन से लिया गया है; वे सभी लोगों के वास्तविक जीवन से आते हैं। ये दृष्टान्त किस प्रकार की तस्वीर चित्रित करते हैं? यह परमेश्वर के एक सामान्य व्यक्ति बनने और मनुष्यों के साथ-साथ रहने, सामान्य जीवन की भाषा का उपयोग करने, मनुष्यों से बात करने के लिए मानवीय भाषा का उपयोग करने और उन्हें वह प्रदान करने की एक तस्वीर है जिसकी उन्हें आवश्यकता है। जब परमेश्वर देहधारी हुआ और लम्बे समय तक मनुष्यों के बीच रहा, तो लोगों की विभिन्न जीवन-शैलियों का अनुभव करने और उन्हें देखने के बाद, ये अनुभव उसकी दिव्य भाषा को मानवीय भाषा में रूपान्तरित करने के लिए उसकी पाठ्यपुस्तकें बन गए। निस्संदेह, ये चीज़ें जो उसने जीवन में देखी और सुनी उन्होंने भी मनुष्य के पुत्र के मानवीय अनुभव को समृद्ध किया। जब वह लोगों को कुछ सत्‍यों को समझाना, परमेश्वर की कुछ इच्छाओं को समझाना चाहता था, तो वह परमेश्वर की इच्छा और मनुष्यजाति के प्रति उस की अपेक्षाओं को बताने के लिए वह उपरोक्त के समान दृष्टान्तों का उपयोग कर सकता था। ये दृष्टान्त लोगों के जीवन से सम्बन्धित थे; और ऐसा एक भी दृष्टान्त नहीं था जो मनुष्य के जीवन से अछूता था। जब प्रभु यीशु मनुष्यजाति के साथ रहता था, वह किसानों को अपने खेतों में देखभाल करते हुए देखता था, वह जानता था कि जंगली बीज क्या है और खमीर उठना क्या है; वह समझता था कि मनुष्य छिपे हुए खजाने को पसंद करते हैं, इसलिए उसने छिपे हुए खजाने और अनमोल मोती दोनों उपमाओं का उपयोग किया; और उसने मछुआरों को बार-बार जाल फैलाते हुए देखा था; इत्यादि। प्रभु यीशु ने मनुष्यजाति के जीवन में इन गतिविधियों को देखा था; और उसने भी उस प्रकार के जीवन का अनुभव किया। वह किसी अन्य मनुष्य के समान एक साधारण व्यक्ति था, जो मनुष्यों के तीन वक्त के भोजन और दिनचर्या का अनुभव कर रहा था। उसने व्यक्तिगत रूप से एक औसत इंसान के जीवन का अनुभव किया, और उसने दूसरों की ज़िन्दगियों को भी देखा। जब उसने यह सब कुछ देखा और व्यक्तिगत रूप से इनका अनुभव किया, तो उसने जो सोचा वह इस बारे में नहीं था कि किस प्रकार एक अच्छा जीवन पाया जाए या वह किस प्रकार और अधिक स्वतन्त्रता से, अधिक आराम से जीवन बिता सकता है। जब वह प्रामाणिक मानवीय जीवन का अनुभव ले रहा था, तो प्रभु यीशु ने लोगों के जीवन की कठिनाई को देखा, उसने ��ैतान की भ्रष्टता के अधीन लोगों की कठिनाई, संताप, और उदासी को देखा, उसने देखा कि वे शैतान के अधिकार क्षेत्र में जी रहे हैं, और पाप में जी रहे हैं। जब वह व्यक्तिगत रूप से मानवीय जीवन का अनुभव ले रहा था, तब उसने यह भी अनुभव किया कि जो लोग भ्रष्टता के बीच जीवन बिता रहे थे वे कितने असहाय हैं, उसने उन लोगों की दुर्दशा को देखा और अनुभव किया जो पाप में जीवन बिताते थे, जो शैतान के द्वारा, दुष्टता के द्वारा लाए गए अत्याचार में खो गए थे। जब प्रभु यीशु ने इन चीज़ों को देखा, तो क्या उसने उन्हें अपनी दिव्यता में देखा या अपनी मानवता में? उसकी मानवता सचमुच में अस्तित्व में थी—वह बिल्कुल जीवन्त थी—वह इस सब का अनुभव कर सकता था और देख सकता था, और निस्संदेह वह इसे अपने सार में, उसने अपनी दिव्यता में इसे देखा। अर्थात्, स्वयं मसीह, उस मनुष्य प्रभु यीशु ने इसे देखा, और जो कुछ उसने देखा उससे उसने उस कार्य के महत्व और आवश्यकता को महसूस किया जिसे उसने इस बार अपनी देह में सँभाला था। यद्यपि वह स्वयं जानता था कि वह उत्तरदायित्व जिसे उसे देह में लेने की आवश्यकता थी बहुत बड़ा है, और वह पीड़ा जिसका वह सामना करेगा कितनी बेरहम होगी, फिर भी जब उसने पाप में जी रही मनुष्यजाति को असहाय देखा, जब उसने उनकी ज़िन्दगियों में संताप को और व्यवस्था के अधीन उनके कमज़ोर संघर्ष को देखा, तो उसने और अधिक पीड़ा का अनुभव किया, और मनुष्यजाति को पाप से बचाने के लिए अधिकाधिक चिन्तित हो गया। चाहे उसने किसी भी प्रकार की कठिनाइयों का सामना किया हो या किसी भी प्रकार की पीड़ा को सहा हो, वह पाप में जी रही मनुष्यजाति को बचाने के लिए और अधिक कृतसंकल्प हो गया। इस प्रक्रिया के दौरान, तुम कह सकते हो कि प्रभु यीशु ने उस कार्य को और अधिक स्पष्टता से समझना आरम्भ कर दिया था जो उसे करने की आवश्यकता थी और जो ��से सौंपा गया था। और वह उस कार्य को पूर्ण करने के लिए और भी अधिक उत्सुक हो गया जो उसे लेना था—मनुष्यजाति के सभी पापों को लेने के लिए, मनुष्यजाति के लिए प्रायश्चित करने के लिए ताकि वे पाप में और अधिक न जीएँ और परमेश्वर पापबलि की वजह से मनुष्य के पापों को भुलाने में समर्थ हो, और इससे उसे मनुष्यजाति को बचाने के अपने कार्य को आगे बढ़ाने कि अनुमति मिले। ऐसा कहा जा सकता है कि प्रभु यीशु अपने हृदय में, अपने आप को मनुष्यजाति के प्रति अर्पित करने, अपना स्‍वयं का बलिदान करने का इच्छुक था। वह एक पापबलि के रूप में कार्य करने, सूली पर चढ़ाए जाने का भी इच्छुक था, और वह इस कार्य को पूर्ण करने का उत्सुक था। जब उसने मनुष्यों के जीवन की दयनीय दशा को देखा, तो वह, बिना एक मिनट या क्षण की देरी के, जितना जल्दी हो सके अपने लक्ष्य को और भी अधिक पूरा करना चाहता था। जब उसे ऐसी अत्यावश्यकता महसूस हुई, तो वह यह नहीं सोच रहा था कि उसका दर्द कितना भयानक होगा, और न ही उसने अब और यह सोचा कि उसे कितना अपमान सहना होगा—उसने बस अपने हृदय में एक दृढ़-विश्वास रखाः जब तक वह अपने को अर्पित किए रहेगा, जब तक उसे पापबलि के रूप में सूली पर चढ़ा कर रखा जाएगा, परमेश्वर की इच्छा को कार्यान्वित किया जाएगा और वह अपने नए कार्य को शुरू कर पाएगा। पाप में मनुष्यजाति की ज़िन्दगियाँ, और पाप में अस्तित्व में ��हने की उसकी अवस्था पूर्णत: बदल जाएगी। उसका दृढ़-विश्वास और जो उसने करने का निर्णय लिया था वे मनुष्यजाति को बचाने से सम्बन्धित थे, और जो करने के लिए वह दृढ़-संकल्पी था वह मनुष्य को बचाने से संबंधित था, और उसके पास केवल एक उद्देश्य थाः परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना, ताकि वह अपने कार्य के अगले चरण की सफलतापूर्वक शुरूआत कर सके। यह वह था जो उस समय प्रभु यीशु के मन में था।
देह में जीवन बिताते हुए, देहधारी परमेश्वर ने सामान्य मानवता को धारण किया; उसके अंदर एक सामान्य व्यक्ति की भावनाएँ और तर्कशक्ति थी। वह जानता था कि खुशी क्या होती है, पीड़ा क्या होती है, और जब वह मनुष्यजाति को इस प्रकार के जीवन में देखता, तो वह गहराई से महसूस करता था कि लोगों को मात्र कुछ शिक्षाएँ देने से, और उन्हें कुछ प्रदान करने या उन्हें कुछ सिखाने से उन्हें पाप से बाहर नही निकाला जा सकता है। ना ही उनसे कुछ आज्ञाओं का पालन करवाने से उन्हें पापों से छुटकारा दिया जा सकता था—जब उसने मानवजाति के पापों को ग्रहण कर लिया और पापमय देह की सदृशता में आ गया केवल तभी वह इसे मानवता की स्वतन्त्रता से अदला-बदली कर सकता था, और इसे मनुष्यजाति के लिए परमेश्वर की क्षमा से अदला-बदली कर सकता था। इसलिए जब प्रभु यीशु ने मनुष्यों की पापमय ज़िन्दगियों अनुभव कर लिया और उसे देख लिया, तो उसके हृदय में एक प्रबल इच्छा अभिव्यक्‍त हुई—मनुष्यों को उनकी ज़िन्दगियों में पाप में संघर्ष से छुटकारा देने की। इस इच्छा ने उसे अधिकाधिक यह महसूस करवाया कि उसे अवश्य सूली पर जाना और यथाशीघ्र मनुष्यजाति के पापों को अपने ऊपर लेना चाहिए। लोगों के साथ रहने और उनके पापमय जीवन की दुर्गति को देखने, सुनने और महसूस करने के बाद, उस समय ये प्रभु यीशु के विचार थे। यह कि देहधारी परमेश्वर की मनुष्यजाति के प्रति इस प्रकार की इच्छा हो सकती थी, कि वह इस प्रकार के स्वभाव को प्रकट और प्रदर्शित कर सकता था—क्या यह कुछ ऐसा है जो एक औसत इंसान के पास हो सकता है? इस प्रकार के परिवेश में रहते हुए एक औसत इंसान क्या देखेगा? वे क्या सोचेंगे? यदि किसी औसत इंसान ने इन सबका सामना किया होता, तो क्या वह समस्याओं को उच्च परिप्रेक्ष्य से देख पाता? निश्चित रूप से नहीं! यद्यपि देहधारी परमेश्वर का रूप-रंग ठीक मनुष्य के समान है, फिर भी वह मानवीय ज्ञान को सीखता है और मानवीय भाषा बोलता है और कभी-कभी अपने मतों को मनुष्यजाति के उपायों या अभिव्यक्तियों के माध्यम से भी व्यक्त करता है, जिस तरह से वह मनुष्यों, और चीज़ों के सार को देखता है, और जिस तरह से भ्रष्ट लोग मनुष्यजाति और चीज़ों के सार को देखते हैं वे बिल्कुल एक-से नहीं हैं। उसका परिप्रेक्ष्य और वह ऊँचाई जिस पर वह खड़ा होता है वह कुछ ऐसा है जो किसी भ्रष्ट व्यक्ति के द्वारा अप्राप्य है। ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर सत्य है, और जिस देह को वह पहनता है वह भी परमेश्वर के सार को धारण करता है, और उसके विचार तथा जो उसकी मानवता के द्वारा प्रकट किया जाता है वे भी सत्य हैं। भ्रष्ट लोगों के लिए, जो कुछ वे द��ह में व्यक्त करते हैं वे सत्य के, और जीवन के प्रावधान हैं। ये प्रावधान केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं हैं, बल्कि पूरी मनुष्यजाति के लिए हैं। किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति के लिए, उसके हृदय में केवल थोड़े से ही वे लोग ही होते हैं जो उससे सम्बद्ध होते हैं। केवल कुछ ही ऐसे लोग होते हैं जिनके बारे में वह चिन्ता करता है, या जिनकी वह परवाह करता है। जब आपदा आने ही वाली होती है, तो वह सबसे पहले अपने बच्चों, जीवन साथी, या माता-पिता के बारे में सोचता है, और एक अधिक लोकहितैषी व्यक्ति अधिक से अधिक कुछ रिश्तेदारों या किसी अच्छे मित्र के बारे में सोचता है; क्या वह अधिक सोचता है? कभी भी नहीं! क्योंकि मनुष्य अंततः मनुष्य ही हैं, और वे सब कुछ एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से और ऊँचाई से ही देख सकते हैं। हालाँकि, देहधारी परमेश्वर भ्रष्ट व्यक्ति से पूर्णत: अलग है। देहधारी परमेश्वर का देह कितना ही सामान्य, कितना ही साधारण, कितना ही अधम क्यों न हो, या यहाँ तक कि लोग उसे कितनी ही नीची दृष्टि से क्यों न देखते हों, मनुष्यजाति के प्रति उसके विचार और उसका रवैया ऐसी चीज़ें है जिन्हें कोई भी मनुष्य धारण नहीं कर सकता है, और कोई मनुष्य उसका अनुकरण नहीं कर सकता है। वह हमेशा दिव्यता के परिप्रेक्ष्य से, और सृजनकर्ता के रूप में अपने पद की ऊँचाई से मनुष्यजाति का अवलोकन करेगा। वह हमेशा परमेश्वर के सार और परमेश्वर की मानसिकता से मनुष्यजाति को देखेगा। वह एक औसत व्यक्ति की ऊँचाई से, और एक भ्रष्ट व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से मनुष्यजाति को बिल्कुल नहीं देख सकता है। जब लोग मनुष्यजाति को देखते हैं, तो वे मानवीय दृष्टि से देखते हैं, और वे मानवीय ज्ञान और मानवीय नियमों और सिद्धांतों जैसी चीज़ों को एक पैमाने के रूप में उपयोग करते हैं। यह उस दायरे के भीतर है जिसे लोग अपनी आँखों से देख सकते हैं; यह उस दायरे के भीतर है जिसे भ्रष्ट लोग प्राप्त कर सकते हैं। जब परमेश्वर मनुष्यजाति को देखता है, तो वह दिव्य दर्शन के साथ देखता है, और अपने सार और अपने स्वरूप को एक माप के रूप में लेता है। इस दायरे में वे चीज़ें शामिल हैं जिन्हें लोग नहीं देख सकते हैं, और यहीं पर देहधारी परमेश्वर और भ्रष्ट मनुष्य पूरी तरह से भिन्न हैं। यह अन्तर मनुष्यों और परमेश्वर के भिन्न-भिन्न सार के द्वारा निर्धारित होता है, और ये भिन्न-भिन्न सार ही हैं जो उनकी पहचानों और स्थितियों को और साथ ही उस परिप्रेक्ष्य और ऊँचाई को निर्धारित करते हैं जिससे वे चीज़ों को देखते हैं। क्या तुम लोग प्रभु यीशु में स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति और प्रकाशन को देखते हो? तुम लोग कह सकते हो कि जो प्रभु यीशु ने किया और कहा वह उसकी सेवकाई से और परमेश्वर के स्वयं के प्रबन्धन कार्य से संबंधित था, कि यह सब परमेश्वर के सार की अभिव्यक्ति और प्रकाशन था। यद्यपि उसकी मानवीय अभिव्यक्ति थी, किन्तु उसके दिव्य सार और उसकी दिव्यता के प्रकाशन को नकारा नहीं जा सकता है। क्या यह मानवीय अभिव्यक्ति वास्तव में मानवता की अभिव्यक्ति थी? उसकी मानवीय अभिव्यक्ति अपने मूल सार में, भ्रष��ट लोगों की मानवीय अभिव्यक्ति से बिल्कुल भिन्न थी। प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था, यदि वह सचमुच में एक सामान्य, भ्रष्ट मनुष्य रहा होता, तो क्या वह दिव्य परिप्रेक्ष्य से पापमय मनुष्यजाति के जीवन को देख सकता था? बिल्कुल नहीं! मनुष्य के पुत्र और एक सामान्य मनुष्य के बीच यही अन्तर है। सभी भ्रष्ट लोग पाप में जीते हैं, और जब कोई पाप को देखता है, तो उन्हें उसके बारे में कोई विशेष भावना नहीं होती है; वे सभी एक समान होते हैं, कीचड़ में रहने वाले एक सूअर के समान जिसे बिल्कुल भी किसी असुविधा या गन्दगी का एहसास नहीं होता है—वह अच्छी तरह से खाता है, और गहरी नींद में सोता है। यदि कोई सूअरों के बाड़े को साफ करता है, तो सूअर को वास्तव में सहज महसूस नहीं होगा, और वह साफ सुथरा नहीं रहेगा। जल्दी ही, वह एक बार फिर से, पूरी तरह आराम से, कीचड़ में लोट-पोट कर रहा होगा, क्योंकि वह एक गन्दा जीव है। जब मनुष्य सूअर को देखते हैं, तो वे महसूस करते हैं कि वह गन्दा है, और यदि तुम उसे साफ करते हो, तो सूअर को अच्छा महसूस नहीं होता है—इसीलिए कोई भी सूअर को अपने घर में नहीं रखता है। जिस तरह से मनुष्य सूअरों को देखते हैं वह हमेशा उससे भिन्न होगा जैसा सूअर अपने आप के लिए महसूस करते हैं, क्योंकि मनुष्य और सूअर एक ही किस्म के नहीं हैं। और क्योंकि देहधारी मनुष्य का पुत्र उसी किस्म का नहीं है जैसे मनुष्य हैं, इसलिए केवल देहधारी परमेश्वर ही दिव्य परिप्रेक्ष्य से खड़ा हो सकता है, और मनुष्यजाति को देखने के लिए, सब कुछ देखने के लिए परमेश्वर की ऊँचाई से खड़ा हो सकता है।
जब परमेश्वर देह बनता है और मनुष्यजाति के बीच रहता है, तो वह देह में किस प्रकार की पीड़ा का अनुभव करता है? क्या कोई सचमुच में समझता है? कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर बड़ी पीड़ा सहता है, और यद्यपि वह स्वयं परमेश्वर है, फिर भी लोग उसके सार को नहीं समझते हैं और हमेशा उसके साथ एक मनुष्य के समान व्यवहार करते हैं, जो उन्हें वह दुःखित और ग़लत महसूस कराता है—वे कहते हैं कि परमेश्वर की पीड़ा सचमुच बहुत बड़ी है। अन्य लोग कहते हैं कि परमेश्वर निर्दोष और निष्पाप है, परन्तु वह मनुष्य के समान पीड़ा भुगतता है और मनुष्यजाति के साथ-साथ उत्पीड़न, बदनामी, और अपमान भुगतता है; वे कहते हैं कि वह अपने अनुयायियों की ग़लतफहमियों और अवज्ञा को भी सहता है—परमेश्वर की पीड़ा को सचमुच में मापा नहीं जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम लोग सचमुच में परमेश्वर को नहीं समझते हो। वास्तव में, वह दुःख जिसके बारे में तुम लोग बात करते हो उसे परमेश्वर के लिए सच्चे दुःख के रूप में नहीं गिना जाता है, क्योंकि इससे कहीं बढ़कर पीड़ा है। तो स्वयं परमेश्वर के लिए सच्ची पीड़ा क्या है? देहधारी परमेश्वर की देह के लिए सच्ची पीड़ा क्या है? परमेश्वर के लिए, मनुष्यजाति का उसे नहीं समझना पीड़ा के रूप में नहीं लिया जाता है, और लोगों की परमेश्वर के बारे में कुछ ग़लतफहमियाँ होना और उसे परमेश्वर के रूप में नहीं देखना पीड़ा के रूप में नहीं लिया जाता है। हालाँकि, लोग प्रायः महसूस करते हैं कि परमेश्वर ने अवश्य कोई बहुत बड़ा अन्याय सहा होगा, यह कि जितने समय तक परमेश्वर देह में रहता है वह अपने व्यक्तित्व को मनुष्यजाति को नहीं दिखा सकता है और उन्हें अपनी महानता को नहीं देखने दे सकता है, और परमेश्वर विनम्रता से एक मामूली देह में छिपा रहता है, इसलिए यह उसके लिए अवश्य यंत्रणादायी रहा होगा। लोग परमेश्वर की पीड़ा के बारे में जो कुछ समझ सकते हैं और जो कुछ देख सकते हैं उसे हृदय से लगा लेते हैं, और परमेश्वर पर हर प्रकार की सहानुभूति थोप देते हैं और प्रायः यहाँ तक कि उसके लिए एक छोटी सी स्तुति भी प्रस्तुत कर देते हैं। वास्तविकता में, लोग परमेश्वर की पीड़ा के बारे में जो कुछ समझते हैं और वह सचमुच में जो महसूस करता है उसके बीच एक अन्तर है, एक अंतराल है। मैं तुम लोगों को सच बता रहा हूँ—परमेश्वर के लिए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह परमेश्वर का आत्मा है या देहधारी परमेश्वर की देह, वह पीड़ा सच्ची पीड़ा नहीं है। तो यह क्या है जो परमेश्वर सचमुच में भुगतता है? आओ हम केवल देहधारी परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर की पीड़ा के बारे में बात करें।
जब परमेश्वर देहधारी बनता है, तो एक औसत, सामान्य व्यक्ति बन कर, मनुष्यजाति के बीच, लोगों के आसपास रह कर, क्या वह लोगों के जीने के तरीकों, व्यवस्थाओं, और फ़लसफ़ों को देख नहीं सकता है और महसूस नहीं कर सकता है? जीने के ये तरीके और व्यवस्थाएँ उसे कैसा महसूस कराते हैं? क्या वह अपने हृदय में घृणा महसूस करता है? क्यों वह घृणा का एहसास करता है? मनुष्यजाति के जीने के लिए क्या पद्धतियाँ और व्यवस्थाएँ हैं? वे किन सिद्धांतों में जड़ पकड़े हुए थे? वे किस पर आधारित थे? जीने के लिए मनुष्यजाति की पद्धतियों, नियमों इत्यादि के लिए—यह सब कुछ शैतान की तर्क, ज्ञान, और फ़लसफ़े पर सृजित है। इस प्रकार की व्यवस्थाओं के अधीन जीने वाले मनुष्यों में कोई मानवता, कोई सच्चाई नहीं होती है—वे सभी सत्य की उपेक्षा करते हैं, और परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण हैं। यदि हम परमेश्वर के सार पर एक नज़र डालें, तो हम देखते हैं कि उसका सार शैतान के तर्क, ज्ञान, और फ़लसफ़े के ठीक विपरीत है। उसका सार धार्मिकता, सत्य, और पवित्रता, और सभी सकारात्मक चीज़ों की अन्य वास्तविकताओं से भरा हुआ है। परमेश्वर, जो इस सार को धारण किए हुए है और ऐसी मनुष्यजाति के बीच रहता है—वह अपने हृदय में क्या सोचता है? क्या वह दर्द से भरा हुआ नहीं है? उसके हृदय में दर्द है, और यह दर्द कुछ ऐसा है जिसे कोई इंसान समझ नहीं सकता है या अनुभव नहीं कर सकता है। क्योंकि सब कुछ जिसका वह सामना करता है, मुक़ाबला करता है, जिसे सुनता, देखता, और अनुभव करता है वह सब मनुष्यजाति की भ्रष्टता, दुष्टता, और सत्य के विरुद्ध उनका विद्रोह और सत्य के प्रति प्रतिरोध है। जो कुछ मनुष्यों से आता है वह उसकी पीड़ा का स्रोत है। अर्थात्, क्योंकि उसका सार भ्रष्ट मनुष्यों के समान नहीं है, इसलिए मनुष्यों की भ्रष्टता उसकी सबसे बड़ी पीड़ा का स्रोत बन जाती है। जब परमेश्वर देह बनता है, तो क्या वह ऐसे किसी को ढूँढ़ पाता है जो उसके साथ एक सामान्य भाषा साझा करता है? ऐसा मनुष्यजाति में नहीं पाया जा सकता है। ऐसे किसी को भी नहीं पाया जा सकता है जो परमेश्वर के साथ संवाद कर सकता हो, इस प्रकार आदान प्रदान कर सकता हो—तो तुम क्या कहोगे कि परमेश्वर को कैसा महसूस होता है? जिन चीज़ों के बारे में लोग चर्चा करते हैं, जिनसे वे प्रेम करते हैं, जिनके पीछे वे भागते हैं और जिनकी वे लालसा करते हैं वे सभी पाप से, और दुष्ट प्रवृतियों से जुड़ी हुई हैं। परमेश्वर इन सबका सामना करता है, तो क्या यह उसके हृदय में एक कटार के समान नहीं है? इन चीज़ों का सामना करके, क्या उसे अपने हृदय में आनन्द मिल सकता है? क्या वह सान्त्वना पा सकता है? जो उसके साथ रह रहें हैं वे विद्रोहशीलता और दुष्टता से भरे हुए मनुष्य हैं—तो उसका हृदय पीड़ित कैसे नहीं हो सकता है? यह पीड़ा वास्तव में कितनी बड़ी है, और कौन इसकी परवाह करता है? कौन ध्यान देता है? और कौन इस की सराहना कर सकता है? लोगों के पास परमेश्वर के हृदय को समझने का कोई तरीका नहीं है। उसकी पीड़ा कुछ ऐसी है जिसकी सराहना करने में लोग विशेष रूप से असमर्थ हैं, और मानवता की उदासीनता और संवेदनशून्यता परमेश्वर की पीड़ा को और अधिक गहरा करती है।
कुछ ऐसे भी लोग हैं जो मसीह की दुर्दशा पर अक्सर सहानुभूति दिखाते हैं क्योंकि बाइबल में एक छंद है जो कहता हैः "लोमड़ियों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं; परन���तु मनुष्य के पुत्र के लिये सिर धरने की भी जगह नहीं है।" जब लोग इसे सुनते हैं, तो वे इसे हृदय में ले लेते हैं और विश्वास करते हैं कि यही सबसे बड़ी पीड़ा है जिसे परमेश्वर सहता है, और सबसे बड़ी पीड़ा है जिसे मसीह सहता है। अब, तथ्यों के परिप्रेक्ष्य से इसे देखते हुए, क्या मामला ऐसा ही है? परमेश्वर यह नहीं मानता है कि ये कठिनाईयाँ पीड़ा हैं। उसने कभी देह की पीड़ाओं के लिए अन्याय के विरूद्ध चीख पुकार नहीं की है, और उसने कभी भी अपने लिए मनुष्यों से किसी चीज़ का प्रतिफल या पुरस्कार नहीं लिया है। हालाँकि, जब वह मनुष्यजाति की हर चीज़, मनुष्यों के भ्रष्ट जीवन और दुष्टता को देखता है, और जब वह देखता है कि मनुष्यजाति शैतान के चंगुल में है और शैतान की क़ैद में है और बचकर नहीं निकल सकती है, कि पाप में रहने वाले लोग नहीं जानते हैं कि सत्य क्या है—तो वह इन सब पापों को सहन नहीं कर सकता है। मनुष्यजाति के बारे में उसकी घृणा हर दिन बढ़ती जाती है, किन्तु उसे इस सब को सहना पड़ता है। यह परमेश्वर की सबसे बड़ी पीड़ा है। परमेश्वर अपने अनुयायियों के बीच खुलकर अपने हृदय की आवाज़ या अपनी भावनाओं को भी व्यक्त नहीं कर सकता है, और उसके अनुयायियों में से कोई भी उसकी पीड़ा को वास्तव में समझ नहीं सकता है। कोई भी उसके हृदय को समझने या दिलासा देने की कोशिश भी नहीं करता है—उसका हृदय दिन प्रतिदिन, लगातार कई वर्षों से, बार-बार इस पीड़ा को सहता है। तुम लोग इन सब में क्या देखते हो? परमेश्वर ने जो कुछ दिया है उसके बदले में वह मनुष्यों से किसी चीज़ की अपेक्षा नहीं करता है, किन्तु परमेश्वर के सार की वजह से, वह मनुष्यजाति की दुष्टता, भ्रष्टता, और पाप को बिल्कुल भी सहन नहीं कर सकता है, बल्कि अत्यधिक नफ़रत और अरुचि महसूस करता है, जो परमेश्वर के हृदय और उसकी देह को अनन्त पीड़ा की ओर ले जाती है। क्या तुम लोग यह सब देख सकते हो? ज़्यादा संभावना है, कि तुम लोगों में से कोई भी इसे देख नहीं सकता है, क्योंकि तुम लोगों में से कोई भी वास्तव में परमेश्वर को नहीं समझता है। समय के साथ तुम लोग धीर-धीरे इसे अपने आप समझ सकते हो।
आगे, आओ हम पवित्रशास्त्र के निम्नलिखित अंशों को देखें।
9. यीशु अद्भुत काम करता है
1) यीशु पाँच हज़ार पुरुषों को खिलाता है
यूहन्ना 6:8-13 उसके चेलों में से शमौन पतरस के भाई अन्द्रियास ने उससे कहा, "यहाँ एक लड़का है जिसके पास जौ की पाँच रोटी और दो मछलियाँ हैं; परन्तु इतने लोगों के लिये वे क्या हैं?" यीशु ने कहा, "लोगों को बैठा दो।" उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए। तब यीशु ने रोटियाँ लीं, और धन्यवाद करके बैठनेवालों को बाँट दीं; और वैसे ही मछलियों में से जितनी वे चाहते थे बाँट दिया। जब वे खाकर तृप्‍त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, "बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।" अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।
2) लाज़र का पुनरूत्थान परमेश्वर की महिमा करता है
यूहन्ना 11:43-44 यह कहकर उसने बड़े शब्द से पुकारा, "हे लाज़र, निकल आ!" जो मर गया था वह कफन से हाथ पाँव बँधे हुए निकल आया, और उसका मुँह अँगोछे से लिपटा हुआ था। यीशु ने उनसे कहा, "उसे खोल दो और जाने दो।"
प्रभु यीशु के द्वारा किए गए चमत्कारों में से, हमने सिर्फ इन दो को ही चुना है क्योंकि ये उस बात को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त हैं जिसके बारे में मैं यहाँ बात करना चाहता हूँ। ये दोनों चमत्कार वास्तव में बहुत ही आश्चर्यजनक हैं, और अनुग्रह के युग में वे प्रभु यीशु के चमत्कार के सच्चे प्रतिनिधि हैं।
पहले, आओ प्रथम अंश पर एक नज़र डालें: यीशु पाँच हज़ार पुरुषों को खिलाता है।
"पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ" किस प्रकार की धारणा है? पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ आमतौर पर कितने लोगों के लिए पर्याप्त होंगी। यदि तुम लोग एक औसत इंसान की भूख के आधार पर माप करो, तो यह केवल दो व्यक्तियों के लिए ही पर्याप्त होंगी। यही पाँच रोटियों और दो मछलियों की मुख्य धारणा है। हालाँकि, यह इस अंश में लिखा है कि पाँच रोटियों और दो मछलियों ने कितने लोगों को खिलाया? यह पवित्रशास्त्र में इस प्रकार दर्ज हैः "उस जगह बहुत घास थी: तब लोग जिनमें पुरुषों की संख्या लगभग पाँच हज़ार की थी, बैठ गए।" पाँच रोटियों और दो मछलियों की तुलना में, क्या पाँच हज़ार एक बड़ी संख्या है? इसका क्या मतलब है कि यह संख्या इतनी बड़ी थी? मानवीय परिप्रेक्ष्य से, पाँच हज़ार लोगों के बीच पाँच रोटियों और दो मछलियों को बाँटना असंभव होगा, क्योंकि उनके बीच का अंतर बहुत बड़ा है। यहाँ तक कि यदि प्रत्येक व्यक्ति को बस एक छोटा सा टुकड़ा ही मिलता, तब भी यह पाँच हज़ार लोगों के लिए काफी नहीं होता। परन्तु यहाँ, प्रभु यीशु ने एक चमत्कार किया—उसने न केवल पाँच हज़ार लोगों को भरपेट खाने दिया, बल्कि कुछ अतिरिक्त भी था। पवित्रशास्त्र कहता हैः "जब वे खाकर तृप्‍त हो गए तो उसने अपने चेलों से कहा, 'बचे हुए टुकड़े बटोर लो कि कुछ फेंका न जाए।' अत: उन्होंने बटोरा, और जौ की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खानेवालों से बच रहे थे, बारह टोकरियाँ भरीं।" इस चमत्कार ने लोगों को प्रभु यीशु की पहचान और स्थिति को देखने दिया, और इसने उन्हें यह देखने दिया कि परमेश्वर के लिए कुछ भी असंभव नहीं है—उन्होंने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता की सच्चाई को देखा। पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ पाँच हज़ार को खिलाने के लिए पर्याप्त थी, परन्तु वहाँ यदि कोई भोजन ही नहीं होता तो क्या परमेश्वर पाँच हज़ार लोगों को खिला सकता था? निस्संदेह वह खिला सकता था! यह एक चमत्कार था, इसलिए लोगों ने आवश्यक रूप से महसूस किया कि यह समझ से बाहर है और महसूस किया कि यह अविश्वसनीय और रहस्यमय है, परन्तु परमेश्वर के लिए, ऐसी चीज़ करना कोई बड़ी बात नहीं थी। चूँकि परमेश्वर के लिए एक सामान्य चीज़ थी, तो व्याख्या करने के लिए इसे क्यों चुना गया होगा? क्योंकि इस चमत्कार के पीछे जो निहित है वह प्रभु यीशु की इच्छा से युक्त है, जिसे मनुष्यजाति के द्वारा कभी नहीं खोजा गया है।
पहले, आओ यह समझने का प्रयास करें कि ये पाँच हज़ार लोग किस प्रकार के लोग थे। क्या वे प्रभु यीशु के अनुयायी थे? पवित्रशास्त्र से, हम जानते हैं कि वे उसके अनुयायी नहीं थे। क्या वे जानते थे कि प्रभु यीशु कौन है? निश्चित रूप से नहीं! कम से कम, वे यह तो नहीं जानते थे कि जो व्यक्ति उनके सामने खड़ा है वह प्रभु यीशु है, या हो सकता है कि कुछ लोग केवल इतना ही जानते हों कि उसका नाम क्या है, और उन चीज़ों के बारे जो उसने की थीं कुछ जानते हों या उन्होंने कुछ सुना हो। वे मात्र कहानियों से प्रभु यीशु के बारे में उत्सुक थे, परन्तु तुम लोग निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते हो कि वे उसका अनुसरण करते थे, और उसे समझते तो बिल्कुल भी नहीं थे। जब प्रभु यीशु ने इन पाँच हज़ार लोगों को देखा, तो वे भूखे थे और केवल भरपेट भोजन करने के बारे में ही सोच सकते थे, इसलिए यह इस सन्दर्भ में था कि प्रभु यीशु ने उनकी इच्छाओं को तृप्त किया। जब उसने उनकी इच्छाओं को तृप्त कर दिया, तो उसके हृदय में क्या था? इन लोगों के प्रति उसका रवैया क्या था जो केवल भरपेट भोजन करना चाहते थे? इस समय, प्रभु यीशु के विचार और उसके रवैये का परमेश्वर के स्वभाव और सार के साथ संबंध था। इन खाली पेट वाले पाँच हज़ार लोगों का सामना करते हुए जो केवल एक बार भर-पेट भोजन खाना चाहते थे, उसके बारे में उत्सुकता और आशाओं से भरे इन लोगों का सामना करते हुए, प्रभु यीशु ने केवल उन पर अनुग्रह प्रदान करने के लिए इस चमत्कार का उपयोग करने के बारे में सोचा था। हालाँकि, उसने अपनी आशाएँ नहीं बढ़ाई कि वे उसके अनुयायी बन जाएँगे, क्योंकि वह जानता था कि वे मौज-मस्ती करना और पेट भरकर खाना चाहते थे, इसलिए वहाँ जो कुछ उसके पास था उसने उसे बेहतरीन बनाया, और पाँच हज़ार को खिलाने के लिए पाँच रोटियों और दो मछलियों का उपयोग किया। उसने उन लोगों की आँखें खोल दीं जो मनोरंजन का आनंद लेते थे, जो चमत्कार देखना चाहते थे, और उन्होंने अपनी आँखों से उन चीज़ों को देखा जिन्हें देहधारी परमेश्वर पूर्ण कर सकता था। यद्यपि प्रभु यीशु ने उनकी उत्सुकता को सन्तुष्ट करने के लिए कुछ मूर्त चीज़ों का उपयोग किया था, क्योंकि वह पहले से ही अपने हृदय में जानता था कि ये पाँच हज़ार लोग बस एक बढ़िया भोजन करना चाहते थे, इसलिए उसने उन्हें कुछ भी नहीं कहा या उन्हें बिल्कुल भी उपदेश नहीं दिया—उसने बस उन्हें उस चमत्कार को घटित होते हुए देखने दिया। वह इन लोगों से वैसा बर्ताव बिल्कुल नहीं कर सका जैसा वह अपने चेलों के साथ करता था जो सचमुच में उसका अनुसरण करते थे, परन्तु परमेश्वर के हृदय में, सभी प्राणी उसके शासन के अधीन थे, और वह अपनी दृष्टि में सभी जीवधारियों को जब आवश्यक हो परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने की अनुमति देगा। भले ही ये लोग नहीं जानते थे कि वह कौन है या वे उसे समझते नहीं थे, या रोटियों और मछलियों को खाने के बाद भी उनके ऊपर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था या उसके प्रति उनकी कोई कृतज्ञता नहीं थी, फिर भी यह कुछ ऐसा नहीं था जो परमेश्वर के लिए मुद्दा हो—उसने उन्हें परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के लिए एक अद्भुत अवसर दिया था। कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें उसके सिद्धान्त होते हैं, और वह अविश्वासियों की निगरानी या उनकी सुरक्षा नहीं करता है, और वह विशेष रूप से उन्हें अपने अनुग्रह का आनंद उठाने नहीं देता है। क्या मामला वास्तव में ऐसा ही है? परमेश्वर की नज़रों में, जब तक वे ऐसे जीवित प्राणी हैं जिन्हें उसने स्वयं बनाया है, वह उनका प्रबन्धन और उनकी परवाह करेगा; वह भिन्न तरीके से उनके साथ व्यवहार करेगा, उनके लिए योजना बनाएगा, और उन पर शासन करेगा। इन सभी चीज़ों के प्रति परमेश्वर के विचार और उसका रवैया हैं।
यद्यपि पाँच हज़ार लोग जिन्होंने रोटियों और मछलियों को खाया उनकी प्रभु यीशु का अनुसरण करने की योजना नहीं थी, फिर भी वह उनके प्रति कठोर नहीं था; एक बार जब उन्होंने भर पेट खा लिया, तो क्या तुम लोग जानते हो कि प्रभु यीशु ने क्या किया? क्या उसने उन्हें कि��ी चीज़ का उपदेश दिया? इसे करने के बाद वह कहाँ चला गया? पवित्रशास्त्र मे दर्ज नहीं है कि प्रभु यीशु ने उनसे कुछ कहा था; जब उसने अपना चमत्कार पूर्ण कर लिया तो वह चुपके से चला गया। तो क्या उसने इन लोगों से कुछ अपेक्षाएँ कीं? क्या कोई नफ़रत थी? इनमें से कुछ भी नहीं था—वह बस इन लोगों पर अब और कोई ध्यान देना नहीं चाहता था जो उसका अनुसरण नहीं कर सकते थे, और इस समय उसका हृदय दर्द में था। क्योंकि उसने मनुष्यजाति की चरित्रहीनता को देखा था और उसने मनुष्यजाति के द्वारा ठुकराया जाना महसूस किया था, और जब उसने इन लोगों को देखा या जब वह उनके साथ था, तो मनुष्य की मूढ़ता और अज्ञानता ने उसे बहुत ही दुःखी कर दिया और उसके हृदय को पीड़ित कर दिया, इसलिए वह इन लोगों को जितना जल्दी हो सके छोड़कर चला जाना चाहता था। प्रभु को अपने हृदय में इनसे कोई अपेक्षाएँ नहीं थीं, वह उन पर कोई ध्यान देना नहीं चाहता था, विशेषकर वह अपनी ऊर्जा को उन पर व्यय नहीं करना चाहता था, और वह जानता था कि वे उसका अनुसरण नहीं करेंगे—इस सब के बावजूद, उनके प्रति उसका रवैया अभी भी बिल्कुल स्पष्ट था। वह बस उनके साथ दयालु बर्ताव करना चाहता था, उन्हें अनुग्रह प्रदान करना चाहता था—अपने शासन के अधीन प्रत्येक प्राणी के प्रति यह परमेश्वर का रवैया था: प्रत्येक प्राणी के लिए, उनके साथ अच्छा बर्ताव करना, उनका भरण पोषण करना, उनका पालन-पोषण करना। जिस मुख्य कारण के लिए प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर था उसके लिए, उसने बहुत ही प्राकृतिक ढंग से स्वयं परमेश्वर के सार को प्रकट किया और इन लोगों के साथ दयालु बर्ताव किया। उसने उनके साथ करुणा और सहिष्णुता वाले हृदय से दयालु व्यवहार किया था। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि इन लोगों ने प्रभु यीशु को किस प्रकार देखा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि किस प्रकार का परिणाम होता, उसने बस हर प्राणी के साथ समस्त सृष्टि के प्रभु के रूप में अपने पद के आधार पर व्यवहार किया। उसने जो प्रकट किया वह था, बिना किसी अपवाद के, परमेश्वर का स्वभाव, और परमेश्वर का स्वरूप। इसलिए प्रभु यीशु ने खामोशी से कुछ किया था, फिर वह खामोशी से चला गया—यह परमेश्वर के स्वभाव का कौन सा पहलू है? क्या तुम लोग कह सकते हो कि यह परमेश्वर के प्रेम के कारण दयालु चीज़ों को करना है? क्या तुम लोग कह सकते हो कि परमेश्वर निःस्वार्थ है? क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है? निश्चित रूप से नहीं! सार रूप में, ये पाँच हज़ार लोग कौन थे जिन्हें प्रभु यीशु ने पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ खिलायी थीं? क्या तुम लोग कह सकते हो कि वे ऐसे लोग थे जो उसके अनुकूल थे? क्या तुम लोग कह सकते हो कि वे सभी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण थे? ऐसा निश्चितता के साथ कहा जा सकता है कि वे प्रभु यीशु के बिल्कुल अनुरूप नहीं थे, और उनका सार बिल्कुल परमेश्वर के विरूद्ध था। परन्तु परमेश्वर ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया? उसने परमेश्वर के प्रति लोगों के विरोध को शांत करने के लिए एक तरीके का उपयोग किया था—इस तरीके को "दयालुता" कहते हैं। अर्थात्, यद्यपि प्रभु यीशु ने उन्हें पापियों के रूप में देखा, फिर भी परमेश्वर की नज़रों में वे तब भी उसकी रचना थे, इसलिए उसने इन पापियों के साथ तब भी दयालु व्यवहार किया। यह परमेश्वर की सहिष्णुता है, और यह सहिष्णुता स्वयं परमेश्वर की पहचान और सार से निर्धारित होती है। इसलिए, यह कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर के द्वारा सृजित कोई भी मनुष्य नहीं कर सकता है—केवल परमेश्वर ही इसे कर सकता है।
जब तुम परमेश्वर के विचारों और मनुष्यजाति के प्रति उसके रवैये को सचमुच में समझने में समर्थ होते हो, और जब तुम सचमुच में प्रत्येक प्राणी के प्रति परमेश्वर की भावनाओं और चिंता को समझ सकते हो, तो तुम सृजनकर्ता के द्वारा सृजित हर एक मनुष्य के ऊपर व्यय की गई लगन और प्रेम को समझने में भी समर्थ हो जाओगे। जब ऐसा होगा, तो तुम परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए दो शब्दों का उपयोग करोगे—वे दो शब्द क्या हैं? कुछ लोग कहते हैं "निःस्वार्थ," और कुछ लोग कहते हैं "लोकहितैषी।" इन दोनों में "लोकहितैषी" वह शब्द है जो परमेश्वर के प्रेम की व्याख्या करने के लिए सबसे कम उपयुक्त है। यह ऐसा शब्द है जिसे लोग किसी व्यक्ति के उदार विचारों और भावनाओं का वर्णन करने के लिए उपयोग करते हैं। मैं वास्तव में इस शब्द से घृणा करता हूँ, क्योंकि यह यूँ ही, विवेकहीनता से, और सिद्धांतों की परवाह किए बिना उदारता बाँटने की ओर संकेत करता है। यह मूर्ख और भ्रमित लोगों की अति भावनात्मक अभिव्यक्ति है। जब इस शब्द का उपयोग परमेश्वर के प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए किया जाता है, तो इसमें अपरिहार्य रूप से एक ईशनिंदा का इरादा होता है। मेरे पास दो शब्द हैं जो अधिक उचित रूप से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करते हैं—वे दो शब्द क्या हैं? पहला है "विशाल" क्या यह शब्द बहुत उद्बोधक नहीं है? दूसरा है "असीम।" इन दोनों शब्दों के पीछे वास्तविक अर्थ है जिन्हें मैं परमेश्वर के प्रेम को दर्शाने के लिए उपयोग करता हू���। शब्दशः लेने पर, "विशाल" किसी चीज़ के आयतन और क्षमता का वर्णन करता है, पर वह चीज़ कितनी ही बड़ी क्यों न हो—यह कुछ ऐसी है जिसे लोग छू और देख सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह अस्तित्व में है, यह कोई अमूर्त पदार्थ नहीं है, और यह लोगों को वह आभास देती है जो अपेक्षाकृत परिशुद्ध और व्यावहारिक होता है। इससे फर्क नहीं पड़ता है कि तुम इसे किसी समतल से देखो या त्रिआयामी कोण से; तुम्हें इसके अस्तित्व की कल्पना करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह ऐसी चीज़ है जो वास्तव में अस्तित्व में है। यद्यपि परमेश्वर के प्रेम की व्याख्या करने के लिए "विशाल" शब्द का उपयोग करने से ऐसा महसूस होता है कि उसके प्रेम का परिमाण करना है, हालाँकि, यह इस बात का एहसास भी देता है कि परिमाणनीय नहीं है। मैं कहता हूँ कि परमेश्वर के प्रेम का परिमाण किया जा सकता है क्योंकि उसका प्रेम एक प्रकार से अनस्तित्व नहीं है, और न ही वह किसी पौराणिक कथा से निकलता है। बल्कि, यह कुछ ऐसा है जिसे परमेश्वर की अधीनता में सभी प्राणियों के द्वारा साझा किया जाता है, और यह कुछ ऐसा है जिसका आनंद सभी प्राणियों के द्वारा विभिन्न अंशों में और विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से लिया जाता है। यद्यपि लोग इसे देख या छू नहीं सकते हैं, फिर भी यह प्रेम सभी चीज़ों के लिए जीवनाधार और जीवन लाता है क्यों कि यह थोड़ा-थोड़ा करके उनकी जिन्दगियों में प्रकट होता है, और वे परमेश्वर के उस प्रेम को गिनते हैं और उसकी गवाही देते हैं जिसका वे हर क्षण आनंद लेते हैं। मैं कहता हूँ कि परमेश्वर का प्रेम अपरिमाणनीय है क्योंकि परमेश्वर का सभी चीज़ों का भरण-पोषण और पालन-पोषण करने का रहस्य कुछ ऐसा है जिसकी थाह पाना मनुष्यजाति के लिए उतना ही कठिन है, जितना कि सभी चीज़ों के लिए परमेश्वर के विचारों की, और विशेष रूप से उन विचारों की जो मनुष्यजाति के लिए हैं। अर्थात्, उस लहू और आसूँओं को कोई नहीं जानता है जो परमेश्वर ने मनुष्यजाति के लिए बहाये हैं। उस मनुष्यजाति के लिए सृजनकर्ता के प्रेम की गहराई और महत्व को कोई नहीं बूझ सकता है, कोई नहीं समझ सकता है, जिसे उसने अपने हाथों से बनाया। परमेश्वर के प्रेम को अपार के रूप में वर्णन करना इसके अस्तित्व के विस्तार और इसकी सच्चाई की सराहना करने और समझने में लोगों की सहायता करना है। यह इसलिए भी है ताकि लोग "सृजनकर्ता" शब्द के वास्तविक अर्थ को अधिक गहराई से समझ सकें, और ताकि लोग संज्ञा "सृष्टि" के सच्चे अर्थ की एक गहरी समझ प्राप्त कर सकें। "असीम" शब्द सामान्यतः किस चीज़ का वर्णन करता है? यह साधारणतः महासागरों या ब्रह्माण्ड के लिए प्रयुक्त होता है, जैसे असीम ब्रह्माण्ड, या असीम महासागर। ब्रह्माण्ड की व्यापकता और शांत गहराई मनुष्य की समझ से परे है, और यह कुछ ऐसा है जो मनुष्य की कल्पनाओं को ऐसा आकर्षित करता है, कि वे उसके प्रति प्रशंसा से भर जाते हैं। उसका रहस्य और उसकी गहराई दृष्टि के तो भीतर हैं किन्तु पहुँच से बाहर हैं। जब तुम महासागर के बारे में सोचते हो, तुम उसके विस्तार के बारे में सोचते हो—तो वह असीम दिखाई देता है, और तुम उसकी रहस्यमयता और उसकी समग्रता को महसूस कर सकते हो। इसीलिए मैंने परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए "असीम" शब्द का उपयोग किया है। यह लोगों को इस बात को महसूस करने में कि वह कितना बहुमूल्य है, और उसके प्रेम की अगाध सुंदरता को महसूस करने में सहायता करने के लिए है, और यह कि परमेश्वर के प्रेम की ताक़त अनन्त और विस्तृत है। यह उसके प्रेम की पवित्रता, और परमेश्वर की प्रतिष्ठा और उसका अपमान नहीं किए जाने की योग्यता को महसूस करने में उनकी सहायता करता है जो उसके प्रेम के माध्यम से प्रकट होता है। अब क्या तुम लोग सोचते हो कि परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के लिए "असीम" एक उपयुक्त शब्द है? क्या परमेश्वर का प्रेम इन दो शब्दों "विशाल" और "असीम" के अनुसार खरा उतरता है? बिल्कुल! मानवीय भाषा में, केवल ये दो शब्द ही अपेक्षाकृत उचित हैं, परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करने के अपेक्षाकृत करीब हैं। क्या तुम लोग ऐसा नहीं सोचते हो? यदि मैं तुम लोगों से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करवाता, तो क्या तुम लोग इन दो शब्दों का उपयोग करते? बहुत संभव है कि तुम लोग नहीं कर सकते थे, क्योंकि परमेश्वर के प्रेम की तुम लोगों की समझ और सराहना एक समतल परिप्रेक्ष्य तक सीमित है, और त्रि-आयामी स्तर की ऊँचाई तक नहीं पहुँची है। इसलिए यदि मैं तुम लोगों से परमेश्वर के प्रेम का वर्णन करवाता, तो तुम लोग महसूस करते कि तुम लोगों के पास शब्दों का अभाव है; और यहाँ तक कि तुम लोग अवाक् भी हो जाते। हो सकता है कि आज जिन दो शब्दों के बारे में मैंने बात की है वे तुम लोगों के लिए समझने में कठिन हों, या हो सकता है कि तुम लोग ऐसे ही उससे सहमत न हों। यह बस उस सच्चाई को बता सकता है कि परमेश्वर के प्रेम के बारे में तुम लोगों की सराहना और समझ सतही और एक संकीर्ण दायरे के भीतर है। मैं पहले कह चुका हूँ कि परमेश्वर निःस्वार्थ है—तुम लोगों को निःस्वार्थ शब्द याद है। क्या ऐसा कहा जा सकता है कि परमेश्वर के प्रेम का केवल निःस्वार्थ के रूप में वर्णन किया जा सकता है? क्या यह एक बहुत संकीर्ण दायरा नहीं है? इससे कुछ प्राप्त करने के लिए तुम लोगों को इस मामले पर अधिक मनन करना चाहिए।
ऊपर वह है जो प्रथम चमत्कार से हम परमेश्वर के स्वभाव और उसके सार को देखते हैं। भले ही यह एक कहानी है जिसे लोगों ने कई हज़ार वर्षों से पढ़ा है, इसका एक सामान्य सा कथानक है, और यह लोगों को एक सामान्य घटना को देखने देती है, फिर भी इस सामान्य कथानक में हम कुछ ऐसा देख सकते हैं जो अधिक बहुमूल्य है, जो कि परमेश्वर का स्वभाव और उसका स्वरूप है। ये चीज़ें जो उसका स्वरूप हैं स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती हैं, और स्वयं परमेश्वर के विचारों की एक अभिव्यक्ति हैं। जब परमेश्वर अपने विचारों को व्यक्त करता है, तो यह उसके हृदय की आवाज़ की अभिव्यक्ति है। वह आशा करता है कि ऐसे लोग होंगे जो उसे समझ सकते हैं, उसे जान सकते हैं, और उसकी इच्छा को बूझ सकते हैं, और वह आशा करता है कि ऐसे लोग होंगे जो उसके हृदय की आवाज़ को सुन सकते हैं और उसकी इच्छा को संतुष्ट करने के लिए सक्रियता से सहयोग कर सकेंगे। और ये चीज़ें जिन्हें प्रभु यीशु ने किया वे परमेश्वर की मूक अभिव्यक्ति थीं।
इसके बाद, आओ हम इस अंश पर नज़र डालें: लाज़र का पुनरूत्थान परमेश्वर की महिमा करता है।
इस अंश को पढ़ने के बाद इसका तुम लोगों के ऊपर क्या प्रभाव पड़ा? प्रभु यीशु के द्वारा किए गए इस चमत्कार का महत्व पहले वाले से बहुत अधिक था क्योंकि कोई भी चमत्कार किसी मरे हुए इंसान को क़ब्र से बाहर लाने से बढ़कर विस्मयकारक नहीं हो सकता है। प्रभु यीशु का ऐसा कुछ करना उस युग में बहुत ही ज़्यादा महत्वपूर्ण था। क्योंकि परमेश्वर देहधारी हो गया था, इसलिए लोग केवल उसके शारीरिक रूप-रंग, उसके व्यावहारिक पक्ष, और उसके महत्वहीन पक्ष को ही देख सकते थे। भले ही कुछ लोगों ने उसके कुछ गुणों या कुछ ताक़तों को देखा और समझा जो उसमें दिखाई देते थे, फिर भी कोई नहीं जानता था कि प्रभु यीशु कहाँ से आया, उसका सार वास्तव में कौन है, और वह वास्तव में और अधिक क्या कर सकता है। यह सब कुछ मनुष्यजाति के लिए अज्ञात था। बहुत से लोग इस चीज़ का प्रमाण चाहते थे, और सत्य को जानना चाहते थे। क्या अपनी पहचान को साबित करने के लिए परमेश्वर कुछ कर सकता था? परमेश्वर के लिए, यह आसान बात थी—बच्चों का खेल था। वह अपनी पहचान और सार को साबित करने के लिए कहीं पर भी, किसी भी समय कुछ भी कर सकता था, परन्तु परमेश्वर ने चीज़ों को एक योजना के साथ, और चरणों में किया था। उसने चीज़ों को विवेकहीनता से नहीं किया; उसने ऐसा कुछ करने के लिए जो मनुष्यजाति के देखने के लिए अर्थपूर्ण हो सही समय, और सही अवसर का इंतज़ार किया। इसने उसके अधिकार और उसकी पहचान को साबित किया। इसलिए तब, क्या लाज़र का पुनरूत्थान प्रभु यीशु की पहचान को प्रमाणित कर सका था? आओ हम पवित्रशास्त्र के इस अंश को देखें: "और यह कहकर, उसने बड़े शब्द से पुकारा, हे लाज़र, निकल आ! जो मर गया था निकल आया...।" जब प्रभु यीशु ने ऐसा किया, उसने बस एक बात कहीः "हे लाज़र, निकल आ!" तब लाजर अपनी क़ब्र से बाहर निकल आया—यह प्रभु के द्वारा बोली गयी एक पंक्ति के कारण पूरा हुआ था। इस अवधि के दौरान, प्रभु यीशु ने कोई वेदी स्थापित नहीं की, और उसने कोई अन्य गतिविधि नहीं की। उसने बस एक बात कही। क्या इसे एक चमत्कार कहा जाएगा या एक आज्ञा? या यह किसी प्रकार की जादूगरी थी? सतही तौर पर, ऐसा प्रतीत होता है कि इसे एक चमत्कार कहा जा सकता है, और यदि तुम लोग इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य से देखो तो, निस्संदेह तुम लोग इसे तब भी एक चमत्कार ही कह सकते हो। हालाँकि, इसे किसी आत्मा को मृत से वापस बुलाने का जादू निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है, और कोई जादू-टोना तो बिल्कुल भी नहीं। यह कहना सही है कि यह चमत्कार सृजनकर्ता के अधिकार का अत्यधिक सामान्य, एक छोटा सा प्रदर्शन था। यह परमेश्वर का अधिकार, और उसकी क्षमता है। परमेश्वर के पास किसी व्यक्ति के मरने का अधिकार है, और उसकी आत्मा का उसके शरीर को छोड़ने और अधोलोक में, या जहाँ कहीं भी उसे जाना चाहिए, भेजने का अधिकार है। कोई कब मरता है, और मृत्यु के बाद वह कहाँ जाता है—यह सब परमेश्वर के द्वारा निर्धारित किया जाता है। वह इसे किसी भी समय और कहीं भी कर सकता है। वह मनुष्यों, घटनाओं, पदार्थों, अंतरिक्ष, या स्थान के द्वारा विवश नहीं होता है। यदि वह इसे करना चाहता है तो वह इसे कर सकता है, क्योंकि सभी चीज़ें और जीवित प्राणी उसके शासन के अधीन हैं, और सभी चीज़ें उसके वचन, और उसके अधिकार के द्वारा जीवित रहते हैं और मरते हैं। वह एक मृत व्यक्ति का पुनरुत्थान कर सकता है—यह भी कुछ ऐसा है जिसे वह किसी भी समय, कहीं भी कर सकता है। यह वह अधिकार है जो केवल सृजनकर्ता के पास है।
जब प्रभु यीशु ने लाज़र को मृतक में से वापस लाने जैसा कुछ किया, तो उसका उद्देश्य मनुष्यों और शैतान को दिखाने के लिए, तथा मनुष्य और शैतान को जानने देने के लिए प्रमाण देना था कि मनुष्यजाति की सभी चीज़ें, और मनुष्यजाति का जीवन और उसकी मृत्यु परमेश्वर के द्वारा निर्धारित होते हैं, और यह कि भले ही वह देहधारी हो गया था, फिर भी हमेशा की तरह, उसने इस भौतिक संसार को जिसे देखा जा सकता है और साथ ही आध्यात्मिक संसार को जिसे मनुष्य देख नहीं सकते हैं, अपने नियंत्रण में बनाए रखा था। यह इसलिए था कि मनुष्य और शैतान जान लें कि मनुष्यजाति का सब कुछ शैतान के नियंत्रण में नहीं है। यह परमेश्वर के अधिकार का प्रकाशन और प्रदर्शन था, और यह सभी चीज़ों को संदेश देने का परमेश्वर का एक तरीका भी था कि मनुष्यजाति का जीवन और उनकी मृत्यु परमेश्वर के हाथों में है। प्रभु यीशु के द्वारा लाज़र का पुनरूत्थान—इस प्रकार का दृष्टिकोण मनुष्यजाति को शिक्षा और निर्देश देने के लिए सृजनकर्ता का एक तरीका था। यह एक ठोस कार्य था जिसमें उसने मनुष्यजाति को निर्देश देने, और मनुष्यों के भरण पोषण के लिए अपनी क्षमता और अधिकार का उपयोग किया था। सभी चीज़ों के उसके नियंत्रण में होने के सत्य को मनुष्यजाति को देखने देने का यह सृजनकर्ता का एक वचनों से रहित तरीका था। यह व्यावहारिक कार्यों के माध्यम से मनुष्यजाति को यह बताने का उसका एक तरीका था कि उसके माध्यम के अलावा कोई उद्धार नहीं है। मनुष्यजाति को इस प्रकार का मूक निर्देश देने का उसका उपाय सर्वदा बने रहता है—यह अमिट है, और इसने मनुष्य के हृदय को एक आघात और प्रबुद्धता दी है जो कभी धूमिल नहीं हो सकती है। लाज़र के पुनरूत्थान ने परमेश्वर की महिमा की—इसका परमेश्वर के हर एक अनुयायी पर एक गहरा प्रभाव पड़ा है। यह ऐसे प्रत्येक व्यक्ति में जो गहराई से इस घटना को समझता है, इस समझ को, दर्शन को मज़बूती से जड़ देता है कि केवल परमेश्वर ही मनुष्यजाति के जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण कर सकता है। यद्यपि परमेश्वर के पास इस प्रकार का अधिकार है, और यद्यपि उसने मनुष्यजाति के जीवन और मृत्यु के ऊपर अपनी सर्वोच्चता के बारे में लाज़र के पुनरूत्थान के जरिए एक सन्देश भेजा था, फिर भी यह उसका प्राथमिक कार्य नहीं था। परमेश्वर कोई कार्य बिना किसी आशय के कभी नहीं करता है। हर एक चीज़ जो वह करता है उसका बड़ा महत्व है; यह सब एक अति उत्कृष्ट निधि है। वह किसी व्यक्ति के क़ब्र से बाहर आने को अपने कार्य का प्राथमिक या एकमात्र उद्देश्य या चीज़ बिल्कुल भी नहीं बनाएगा। परमेश्वर ऐसा कुछ भी नहीं करता है जिसका कोई आशय ना हो। लाज़र का एक पुनरूत्थान परमेश्वर के अधिकार को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त था। यह प्रभु यीशु की पहचान को साबित करने के लिए पर्याप्त था। इसीलिए प्रभु यीशु ने इस प्रकार के चमत्कार को फिर से नहीं दोहराया था। परमेश्वर अपने स्वयं के सिद्धांतों के अनुसार चीज़ों को करता है। मानवीय भाषा में, ऐसा होगा कि परमेश्वर गंभीर कार्य के बारे में सचेत है। अर्थात्, जब परमेश्वर चीज़ों को करता है तब वह अपने कार्य के उद्देश्य से भटकता नहीं है। वह जानता है कि इस चरण में वह कौन सा कार्य करना चाहता है, वह क्या पूरा करना चाहता है, और वह कड़ाई से अपनी योजना के अनुसार कार्य करेगा। यदि किसी भ्रष्ट व्यक्ति के पास इस प्रकार की क्षमता होती, तो वह बस अपनी योग्यता को प्रदर्शित करने के तरीकों के बारे में ही सोच रहा होता ताकि अन्य लोगों को पता चल जाए कि वह कितना भयंकर है, जिससे वे उसके सामने झुक जाएँ, ताकि वह उन्हें नियन्त्रित कर सके और उन्हें निगल सके। यही वह बुराई है जो शैतान से आती है—इसे भ्रष्टता कहते हैं। परमेश्वर का इस प्रकार का स्वभाव नहीं है, और उसका इस प्रकार का सार नहीं है। चीज़ों को करने में उसका उद्देश्य अपना दिखावा करना नहीं है, बल्कि मनुष्यजाति को और अधिक प्रकाशन और मार्गदर्शन प्रदान करना है, इसलिए लोग बाइबल में इस तरह की चीज़ों के बहुत कम ही उदाहरणों को देखते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रभु यीशु की क्षमताएँ सीमित थीं, या वह इस प्रकार की चीज़ को नहीं कर सकता था। केवल इतना ही है कि परमेश्वर ऐसा नहीं करना चाहता था, क्योंकि प्रभु यीशु का लाज़र का पुनरूत्थान करने का बहुत ही व्यावहारिक महत्व था, और साथ ही क्योंकि परमेश्वर के देहधारी होने का प्राथमिक कार्य चमत्कार करना नहीं था, यह मुर्दों को जीवित करना नहीं था, बल्कि यह मनुष्यजाति के छुटकारे के कार्य को करना था। इसलिए, प्रभु यीशु के द्वारा पूर्ण किए गए कार्य में से अधिकांश लोगों को शिक्षा देना, उनका भरण पोषण करना, और उनकी सहायता करना, और ऐसी चीज़ें जैसे लाज़र का पुनरूत्थान करना उस सेवकाई का मात्र एक छोटा सा अंश था जिसे प्रभु यीशु ने कार्यान्वित किया था। उससे भी अधिक, तुम लोग कह सकते हो कि "दिखावा करना" परमेश्वर के सार का एक भाग नहीं है, इसलिए अधिक चमत्कारों को नहीं दिखाना जानबूझकर किया गया संयम नहीं था, न ही यह पर्यावरणीय सीमाओं के का��ण था, और यह क्षमता की कमी तो बिल्कुल भी नहीं था।
जब प्रभु यीशु ने लाज़र को मृत से वापस जीवित किया, तो उसने एक पंक्ति का उपयोग किया: "हे लाज़र, निकल आ!" उसने इसके अलावा कुछ नहीं कहा—ये शब्द क्या दर्शाते हैं? ये दर्शाते हैं कि परमेश्वर बोलने के द्वारा कुछ भी पूरा कर सकता है, जिसमें एक मरे हुए इंसान को जीवित करना भी शामिल है। जब परमेश्वर ने सभी चीज़ों का सृजन कर लिया, जब उसने जगत को बना लिया, तो उसने ऐसा अपने वचनों—मौखिक आज्ञाओं, अधिकार युक्त वचनों का उपयोग करके किया था, और ठीक उसी तरह सभी चीज़ों का सृजन हुआ था। यह उसी तरह से पूरा हुआ था। प्रभु यीशु के द्वारा कही गयी यह एक मात्र पंक्ति परमेश्वर के द्वारा उस समय कहे गए वचनों के समान थी जब उसने आकाश और पृथ्वी और सभी चीज़ों का सृजन किया था; उसमें परमेश्वर के समान अधिकार, और सृजनकर्ता के समान क्षमता थी। परमेश्वर के मुँह के वचनों की वजह से सभी चीज़ें बनी और डटी थी, और बिल्कुल वैसे ही, जैसे प्रभु यीशु के मुँह के वचनों की वजह से लाज़र अपनी क़ब्र से बाहर आया। यह परमेश्वर का अधिकार था, जो उसके देहधारी देह में प्रदर्शित और साकार हुआ था। इस प्रकार का अधिकार और क्षमता सृजनकर्ता, और मनुष्य के पुत्र से संबंधित थी जिसमें सृजनकर्ता साकार हुआ था। यही वह समझ है जो परमेश्वर के द्वारा लाज़र को मृत से वापस लाकर मनुष्यजाति को सिखायी गयी है। इस विषय पर बस इतना ही। इसके बाद, आओ हम पवित्रशास्त्र को पढ़ें।
                                                                    स्रोत: सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया
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cnnworldnewsindia · 7 years ago
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बच्चों का भविष्य संवारने की चुनौती: बच्चे हकीकत के सामूहिक-सामाजिक जीवन से हो रहे हैं अलग-थलग
बच्चों का भविष्य संवारने की चुनौती: बच्चे हकीकत के सामूहिक-सामाजिक जीवन से हो रहे हैं अलग-थलग
पिछले कुछ वर्षो में बाल और किशोर अपराधों के साथ-साथ बच्चों में विकृत-असामान्य व्यवहार के मामलों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। बच्चों की ओर से आक्रामक मनोवृत्ति का प्रदर्शन करने और यहां तक कि हिंसा, हत्या, दुष्कर्म की घटनाओं में शामिल होने की खबरें अब आए दिन दिखाई पड़ रही हैं। समस्या गांव से लेकर शहर और गरीब से लेकर अमीर, सभी तबकों में जिस तरह से फैल रही है वह एक महामारी का रूप धारण कर सकती है। इस खतरनाक हालत की वजहें जानने की कोशिश करने के साथ उनके समाधान में शिक्षा व्यवस्था की भूमिका पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। इस क्रम में यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या सिर्फ बच्चों का ही शिक्षण पर्याप्त है? पिछले कुछ सालों में भारतीय समाज काफी बदल गया है। नगरीकरण, शिक्षा, रोजगार इत्यादि के लिए नई जगहों में प्रवास, टूटते संयुक्त परिवार और बढ़ते हुए एकल परिवार के साथ आधुनिक जीवनशैली ने नए दवाबों को जन्म दिया है। अब वह सामूहिक टोला-मोहल्ला संस्कृति नहीं रही जिसमें समाज के बड़े-बुजुर्ग का दबाव बच्चों पर होता था। इस संस्कृति में हर बड़ा व्यक्ति चाचा या दादा हुआ करता था, जो गलत काम के लिए बच्चों-किशोरों को डांट भी सकता था। इसके अतिरिक्त बढ़ती हुई भौतिकता, आगे बढ़ने की अंधी होड़, पति-पत्नी, दोनों का कामकाजी होना, घर में दादा-दादी आदि के न होने से बच्चों को सही-गलत बताने वाला कोई नहीं रहा। ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह टेलीविजन, इंटरनेट, सोशल मीडिया के उफान ने बच्चों को एक अंधी सुरंग में धकेल दिया है। 1टेलीविजन में पश्चिमी समाज-संस्कृति से प्रभावित ऐसे ऊटपटांग किस्म के सीरियल दिखाए जा रहे हैं जहां हर कोई हर किसी का प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन है। बच्चों में लोकप्रिय काटरून चैनलों की हालत भी बुरी है। उनमें हर चरित्र यहां तक कि पौराणिक धार्मिक-ऐतिहासिक बाल नायक भी उग्र रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। उनकी आंखों में बालसुलभ सौम्यता की जगह आक्रामकता झलकती है। हिंदी काटरूनों की बात करें तो मोटू-पतलू, तेनालीरामा, गली गली सिमसिम, अकबर-बीरबल जैसे इने-गिने सीरियल हैं जो बाल मन पर वैसा कुप्रभाव नहीं छोड़ते। विदेशी काटरूनों की डबिंग करके हिंदी भाषा में पेश कर बच्चों के सामने एक ऐसी संस्कृति परोसी जा रही जहां बड़े-छोटे का लिहाज, समरसता, नम्रता और करुणा आदि भावों के लिए कोई जगह ही नहीं। ऊपर से इंटरनेट, वीडियो गेम्स और सोशल मीडिया ने बच्चों को ऐसी आभासी दुनिया में ला पटका है जहां हिंसा, अपराध और विकृत व्यवहार भी सहज खेल ही बन गए हैं। इन चीजों ने बच्चों को हकीकत के सामूहिक-सामाजिक जीवन से और भी अलग-थलग कर दिया है। आज पांचवीं- छठीं कक्षा के बच्चों के भी फेसबुक, वाट्सएप आदि के अकाउंट हैं। परंपरागत वैकल्पिक साधनों की अनुपस्थिति के कारण बच्चे सोशल मीडिया की लत का शिकार हो रहे हैं। आठवीं कक्षा के विद्यार्थी द्वारा ई-मेल पर अपनी शिक्षिका के साथ कैंडिल लाइट डिनर और फिर शारीरिक संबंध के प्रस्ताव की एक ताजा खबर भयावह स्थितियों का संकेत मात्र है। 1समाधान के विविध आयाम हो सकते हैं। एक शिक्षार्थी होने के नाते मेरा दृष्टिकोण शिक्षापरक है। इस संदर्भ में पहला सुझाव है कि स्कूली शिक्षा में प्राचीन भारतीय संस्कृति के तत्वों का समावेश अर्थात नैतिक और मूल्यपरक शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। हाल में सीबीएसई बोर्ड ने अपने से जुड़े स्कूलों में कक्षा छह से आठ के विद्यार्थियों के लिए एक तीन वर्षीय मूल्यपरक कोर्स का प्रस्ताव रखा है। इसके तहत विद्यार्थियों को भाईचारा, विनय और करुणा से संबद्ध मानवीय गुणों की शिक्षा दी जाएगी, लेकिन इस स्वागतयोग्य प्रस्ताव की कुछ सीमाएं हैं। एक तो यह स्कूलों के लिए स्व���च्छिक होगा यानी वे इसे अपनाएं या �� अपनाएं जबकि इसे अनिवार्य किया जाना चाहिए। दूसरे, यह पाठ्यक्रम साल भर में 16 पीरियड का प्रस्तावित है, जबकि इसे कम से कम प्रति सप्ताह एक यानी 32 पीरियड का होना चाहिए। इसे सिर्फ सीबीएसई बोर्ड तक ही न होकर पूरे देश में लागू किया जाना चाहिए और, अंतत: इसमें उत्तीर्ण होना अनिवार्य किया जाना चाहिए। दूसरा सुझाव है कि नौवीं से 10वीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए श्रम संबंधित पाठ्यक्रम की अनिवार्यता हो। हमारे गुरुकुलों में राजपुत्र से लेकर सामान्य बालक को भी लकड़ी चुनने से लेकर आश्रम व्यवस्था में हाथ बंटाने के विभिन्न श्रम-संबंधित कार्य करने पड़ते थे। आधुनिक युग में विवेकानंद से लेकर गांधीजी ने भी श्रम के महत्व पर जोर दिया है। यह ठीक है कि आधुनिक युग में लकड़ी चुनने जैसे कार्य संभव नहीं, लेकिन श्रम संबंधित शिक्षा में बागवानी या विभिन्न हस्तकलाओं जैसी चीजों का ज्ञान कराने से एक तरफ भविष्य में रोजगार की संभावना रहेगी तो दूसरी तरफ श्रम की महत्ता और उसके प्रति सम्मान का भाव भी बच्चों में पनपेगा। इस सबसे उनकी विपुल ऊर्जा कुप्रभावों की ओर न जाकर एक सकारात्मक दिशा में अग्रसर होगी। विद्यार्थियों के अलावा माता-पिता को जागरूक करना भी आज बहुत जरूरी हो गया है। 1भौतिकता की अंधी दौड़ में शामिल माता-पिता के पास आज बच्चों के लिए समय नहीं है और न ही उन्हें यह पता है कि आज की परिस्थितियों यथा इंटरनेट-सोशल मीडिया की आंधी में बच्चों का कैसे मार्गदर्शन करें? यूरोपीय देशों ने इस समस्या के लिए सामुदायिक बाल केंद्रों की स्थापना की है। इनमें स्कूल उपरांत बच्चों को व्यस्त रखने से लेकर माता-पिता को भी प्रशिक्षित किया जाता है। अपने देश में संसाधनों केअभाव में ऐसी व्यवस्था निकट भविष्य में संभव तो नहीं है, लेकिन अभिभावकों के लिए ग्राम पंचायतों, सार्वजनिक भवनों या सामुदायिक केंद्रों में पाक्षिक या मासिक वर्कशॉप-व्याख्यान होने चाहिए। इसके लिए गैर सरकारी संगठनों की मदद ली जा सकती है। वहीं कोष कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी यानी सीएसआर के तहत जुटाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मीडिया के भी शिक्षण की जरूरत है। जिस तरह की चीजें विभिन्न मीडिया माध्यम परोस रहे हैं उसके प्रति उन्हें आगाह करने का वक्त आ गया है। इसके लिए मीडिया संगठनों को चार-छह माह में नियमित तौर पर रिव्यू या वर्कशॉप जैसा कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए। इस तरह का आदेश सूचना-प्रसारण मंत्रलय या अन्य मीडिया संगठन दे सकते हैं। इसी क्रम में मीडिया नीति शास्त्र का पेपर मीडिया कोर्स का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए। भारत में छह से 15 वर्ष आयु समूह में करीब 28 करोड़ बच्चे हैं। उनका मानसिक विकास सही तरह से हो और वे देश की आवश्यकतानुरूप विकसित हों, यह चिंता सभी को करनी चाहिए। 1(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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Read full post at: http://www.cnnworldnews.info/2018/02/blog-post_28.html
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hellocrookedfartstudent · 6 years ago
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Slogan On Nari Shakti In Hindi | नारी शक्ति पर सुप्रसिद्ध नारे स्लोगन
Slogan On Nari Shakti In Hindi | नारी शक्ति पर सुप्रसिद्ध नारे स्लोगन
Slogan On Nari Shakti In Hindi में आज हम आपके साथ नारी शिक्षा & नारी शक्ति पर सुप्रसिद्ध नारे स्लोगन यहाँ साझा कर रहे हैं. यह सच हैं कि आज के आधुनिक युग में भी महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले कमतर आंका जाता हैं. Slogan On Nari Shakti In Hindi के जरिये हमारे द्वारा Nari Shiksha के महत्व को बताने का प्रयास हमारा प्रयास हैं.
Slogan On Nari Shakti In Hindi | नारी शक्ति पर सुप्रसिद्ध नारे स्लोगन
Gets…
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