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सनातन धर्म की गृहस्थली है भारत,जिसकी गोद में महापुरूष,अवतार,देवी-देवता और देवजन खेले हैं,यही हमारी पितृभूमि और पुण्यभूमि है,यही हमारी कर्मभूमि है और इससे हमारी वंशगत और सांस्कृतिक आत्मीयता के सम्बन्ध जुड़े हैं...
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जीवन... बाज लगभग 70 वर्ष जीता है,परन्तु अपने जीवन के 40वें वर्ष में आते आते उसे एक महत्वपूर्ण निर्णय लेना पड़ता है। उस अवस्था में उसके शरीर के तीन प्रमुख अंग निष्प्रभावी होने लगते हैं- 1. पंजे लम्बे और लचीले हो जाते है व शिकार पर पकड़ बनाने में अक्षम होने लगते हैं। 2. चोंच आगे की ओर मुड़ जाती है और भोजन निकालने में व्यवधान उत्पन्न करने लगती है। 3. पंख भारी हो जाते हैं, और सीने से चिपकने के कारण पूरे खुल नहीं पाते हैं, उड़ानें सीमित कर देते हैं। भोजन ढूँढ़ना,भोजन पकड़ना और भोजन खाना तीनों प्रक्रियायें अपनी धार खोने लगती हैं। उसके पास तीन ही विकल्प बचते हैं। या तो देह त्याग दे या अपनी प्रवृत्ति छोड़ गिद्ध की तरह त्यक्त भोजन पर निर्वाह करे या फिर स्वयं को पुनर्स्थापित करे,आकाश के निर्द्वन्द्व एका��िपति के रूप में। जहाँ पहले दो विकल्प सरल और त्वरित हैं,वहीं तीसरा अत्यन्त पीड़ादायी और लम्बा। बाज पीड़ा चुनता है और स्वयं को पुनर्स्थापित करता है। वह किसी ऊँचे पहाड़ पर जाता है,एकान्त में अपना घोंसला बनाता है, और तब प्रारम्भ करता है पूरी प्रक्रिया। सबसे पहले वह अपनी चोंच चट्टान पर मार मार कर तोड़ देता है। अपनी चोंच तोड़ने से अधिक पीड़ादायक कुछ भी नहीं पक्षीराज के लिये। तब वह प्रतीक्षा करता है चोंच के पुनः उग आने की। उसके बाद वह अपने पंजे भी उसी प्रकार तोड़ देता है और प्रतीक्षा करता है पंजों के पुनः उग आने की। नये चोंच और पंजे आने के बाद वह अपने भारी पंखों को एक एक कर नोंच कर निकालता है और प्रतीक्षा करता पंखों के पुनः उग आने की। 150 दिन की पीड़ा और प्रतीक्षा...और तब उसे मिलती है वही भव्य और ऊँची उड़ान, पहले जैसी नयी। इस पुनर्स्थापना के बाद वह 30 साल और जीता है,ऊर्जा,सम्मान और गरिमा के साथ। प्रकृति हमें सिखाने बैठी है- पंजे पकड़ के प्रतीक हैं, चोंच सक्रियता की और पंख कल्पना को स्थापित करते हैं। इच्छा परिस्थितियों पर नियन्त्रण बनाये रखने की, सक्रियता स्वयं के अस्तित्व की गरिमा बनाये रखने की,कल्पना जीवन में कुछ नयापन बनाये रखने की। मनुष्य जीवन में भी इच्छा,सक्रियता और कल्पना तीनों के तीनों चालीसा वर्ष होते होते निर्बल पड़ने लगते हैं। हमारा व्यक्तित्व ही ढीला पड़ने लगता है,अर्धजीवन में ही जीवन समाप्तप्राय सा लगने लगता है। उत्साह,आकांक्षा,ऊर्जा अधोगामी हो जाते हैं। हमारे पास भी कई विकल्प होते हैं कुछ सरल और त्वरत कुछ पीड़ादायी। हमें भी अपने जीवन के विवशता भरे अतिलचीलेपन को त्याग कर नियन्त्रण दिखाना होगा...
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आप एक प्रयोग कीजिये, एक भगौने में पानी डालिये और उसमे एक मेढक छोड़ दीजिये। फिर उस भगौने को आग में गर्म कीजिये। जैसे जैसे पानी गर्म होने लगेगा, मेढक पानी की गर्मी के हिसाब से अपने शरीर को तापमान के अनकूल सन्तुलित करने लगेगा��मेढक बढ़ते हुए पानी के तापमान के अनकूल अपने को ढालता चला जाता है और फिर एक स्थिति ऐसी आती है की जब पानी उबलने की कगार पर पहुंच जाता है। इस अवस्था में मेढक के शरीर की सहनशक्ति जवाब देने लगती है और उसका शरीर इस तापमान को अनकूल बनाने में असमर्थ हो जाता है। अब मेढक के पास उछल कर, भगौने से बाहर जाने के अलावा कोई चारा नही बचा होता है और वह उछल कर, खौलते पानी से बाहर निकले का निर्णय करता है। मेढक उछलने की कोशिश करता है लेकिन उछल नही पाता है। उसके शरीर में अब इतनी ऊर्जा नही बची है की वह छलांग लगा सके क्योंकि उसकी सारी ऊर्जा तो पानी के बढ़ते हुए तापमान को अपने अनुकूल बनाने में ही खर्च हो चुकी है। कुछ देर हाथ पाँव चलाने के बाद, मेढक पानी मर पर मरणासन्न पलट जाता है और फिर अंत में मर जाता है। यह मेढक आखिर मरा क्यों? सामान्य जन मानस का वैज्ञानिक उत्तर यही होगा की उबलते पानी ने मेढक की जान ले ली है लेकिन यह उत्तर गलत है। सत्य यह है की मेढक की मृत्यु का कारण, उसके द्वारा उछल कर बाहर निकलने के निर्णय को लेने में हुयी देरी थी। वह अंत तक गर्म होते मौहोल में अपने को ढाल कर सुरक्षित महसूस कर रहा था। उसको यह एहसास ही नही हुआ था की गर्म होते हुए पानी के अनुकूल बनने के प्रयास ने, उसको एक आभासी सुरक्षा प्रदान की हुयी है। अंत में उसके पास कुछ ऐसा नही बचता की वह इस गर्म पानी का प्रतिकार कर सके और उसमे ही खत्म हो जाता है। यह कहानी मेढक की नही है, यह कहानी 'हिन्दू' की है... जय हिंद जय भारत
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आप कह देते हैं कि, ढांचा मात्र एक था वो, वही तो निशानी थी, चोटिल स्वाभिमान की... कण कण में बसे राम, रग रग में बसे राम, जन्म भूमि पीठ है, सनातन प्रतिमान की... शोर्य दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ || संघ शक्ति युगे युगे || आपका अपना श��ंकी सिंह
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जहाँ बहस काम ना आए,वहाँ थप्पड मार दो ||जय हिंद जय भारत ||
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मानव स्वयं पर अनुशासन के कठोरतम बंधन तब बड़े आनन्द से स्वीकार करता है, जब उसे यह अनुभूति होती है कि उसके द्वारा कोई महान कार्य होने जा रहा है...
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