prasannachoudhary
Wandering Mind
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'Naitaavad enaa, paro anyad asti' (There is not merely this, but a transcendent other). Rgveda. X, 31.8.
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prasannachoudhary · 9 months ago
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ARCIMBOLDO WOMEN - THE BOOK (https://online.fliphtml5.com/flyvk/qorp/)
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prasannachoudhary · 9 months ago
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prasannachoudhary · 10 months ago
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Our very life here depends directly on continuous acts of beginning.
The great Irish poet and philosopher John O'Donohue on beginnings – wonderful read.
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prasannachoudhary · 10 months ago
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“Singularity (after Stephen Hawking)” by Marie Howe from Maria Popova on Vimeo.
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prasannachoudhary · 1 year ago
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'Sentiment must be outlawed from the domain of science and things should be judged from an objective standpoint. For myself I shall find as much pleasure in a positive destruction of my own ideology, as in a rational disagreement on a topic, which, notwithstanding many learned disquisitions, is likely to remain controversial forever.' Dr. BR Ambedkar, 'Castes in India: Their Mechanism, Genesis and Development'.
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prasannachoudhary · 1 year ago
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'An ideal society should be mobile, should be full of channels for conveying a change taking place in one part to other parts. In an ideal society, there should be many interests consciously communicated and shared. There should be varied and free points of contact with other modes of association. .. This is fraternity, which is only another name for democracy. Democracy is not merely a form of government. It is primarily a mode of associated living, of conjoint communicated experience. It is essentially an attitude of respect and reverence towards fellowmen.' Dr. B.R. Ambedkar (1891-1956), 'Annihilation of Caste'.
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prasannachoudhary · 1 year ago
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फ़ासीवाद और हिन्दुत्व
फ़ासीवाद और हिन्दुत्व प्रसन्न कुमार चौधरी प्रस्तावना क. बीसवीं सदी का तीसरा और चौथा दशक ।महासमर (1914-1918) बीत चुका था । युरोप की धरती लहूलुहान थी और उसका मानस क्षत-विक्षत । युद्ध में करोड़ों लोग मारे गये थे । उत्पादक शक्तियों का ऐसा विनाश इतिहास ने शायद ही कभी देखा था । युद्ध भूमि से अपने-अपने देश लौटते सैनिकों के साथ फ्लू की वैश्विक महामारी (1918-1920) करोड़ों जानें ले चुकी थी । महाशक्तियों…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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'अमृत' काल में विष
‘अमृत’ काल में विष प्रसन्न कुमार चौधरी 1. हिसाब-किताब की हिंसा सभी समुदाय इतिहास में अपने ऊपर हुए कथित अन्याय-अत्याचार का हिसाब-किताब चुकता करने लगे तो उसका अन्त मानवजाति की सामूहिक तबाही में होगा । इतिहास के विभिन्न कालखण्डों में और अलग-अलग क्षेत्रों में हम इस सामूहिक तबाही का साक्षात् कर चुके हैं, और आज भी कर रहे हैं । हजारो वर्षों के मानवजाति के इतिहास में प्रत्येक मानव-समुदाय के पास अपनी…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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नवज्योति की नव-मीमांसा
नवज्योति की नव-मीमांसा हिन्दुत्व का दार्शनिक विमर्श प्रसन्न कुमार चौधरी 1. परम्परा और आधुनिकता युरोपीय आधुनिकता और गैर-युरोपीय परम्पराओं के बीच सम्बन्ध, उनके बीच टकराव और उनकी अन्तःक्रियाएँ पिछली दो शताब्दियों में बौद्धिक विमर्श का अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय रही हैं । दुनिया भर के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्कों ने इस विषय पर समग्रता में, और अपने-अपने देशों के संदर्भ में, गहन मंथन किया है और इस विषय पर…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य
न्याय : परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य प्रसन्न कुमार चौधरी प्रस्तावना मानव समाज के शैशव-काल से न्याय का प्रश्न मानव जाति की आत्म-पहचान और उसके आत्म-संगठन का केन्द्रीय प्रश्न रहा है और बदलते स्वरूप में आज तक बना हुआ है । प्रकृति को जानने और उसे बदलने के जरिये जीवनयापन करने वाले मानव-जनों को न सिर्फ अपने और प्रकृति के बीच के सम्बन्धों को, बल्कि मानव-जनों के बीच के सम्बन्धों को भी परिभाषित करना पड़ा…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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कौतुक के पर्वत का सैलानी
कौतुक के पर्वत का सैलानी लुडविग विट्गेन्स्टाइन की दुनिया प्रसन्न कुमार चौधरी 1. व्यक्ति और कृति संसार और जीवन एक हैं । मैं ही अपना संसार हूँ । लुडविग विट्गेन्स्टाइन (‘ट्रैक्टेटस लॉजिको-फ़िलोसॉफ़िकस’, 5.621, 5.63) । निश्चय ही यह अब तक प्रकाशित दार्शनिक कृतियों में सबसे पहेलीनुमा रचनाओं में से है : तर्कशास्त्रियों के लिए कुछ ज्यादा ही रहस्यात्मक, रहस्यवादियों के लिए कुछ ज्यादा ही तकनीकी,…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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अनन्त का छंद - 9
अनन्त का छंद – 9 प्रसन्न कुमार चौधरी टिप्पणियाँ 1. “दोनों (इतिहास और प्रकृति के अध्ययन के) मामले में आधुनिक भौतिकवाद सारतः द्वन्द्वात्मक है और उसे अन्य तमाम विज्ञानों से ऊपर किसी तत्वशास्त्र की अब ज़रूरत नहीं रह गई है । जैसे ही चीजों, और चीजों कके हमारे ज्ञान की विराट समग्रता में अपनी स्थिति स्पष्ट करना प्रत्येक पृथक के लिए ज़रूरी हो जाएगा, वैसे ही इस समग्रता से जुड़ा एक विशेष विज्ञान भी…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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अनन्त का छंद - 8
अनन्त का छंद – 8 प्रसन्न कुमार चौधरी ङ. कला-साहित्य 103. साहित्य सचेत अस्तित्व के इन चार कारकों की जटिल अन्तःक्रिया का निरूपण है । साहित्य में रचनाकार अपनी तमाम व्यक्तिगत विशिष्टताओं बावज़ूद, और उनके साथ, सचेत अस्तित्व को पुनः सृजित करने की कोशिश करता है और इसी कोशिश के परिणामस्वरूप कालजयी कृतियाँ सामने आती हैं । सृजन की यह बेचैनी हर रचनाकार में मौज़ूद रहती है । ‘क्या मैं सिरज नहीं सकता ?/कर…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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अनन्त का छंद - 7
अनन्त का छंद – 7 प्रसन्न कुमार चौधरी घ. चेतन अस्तित्व सामान्य 96. अपने जीवनयापन के क्रम में मनुष्य निरन्तर अपनी समृति में डूबता-उतराता रहता है, अपने ��ोने के अनेको अर्थ उली��ता जाता है, अपने को परिभाषित और पुनर्परिभाषित करने की ज़द्दोज़हद में उलझा पाता है । मैं नहीं जानता मैं क्या हूँ, मेरा मन भटकता फिरता है । ऋग्वेद के एक श्लोक का कुछ ऐसा ही भावार्थ है । स्मृति ही भौतिक जीवन के परस्पर विरोधी…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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अनन्त का छंद - 6
अनन्त का छंद – 6 प्रसन्न कुमार चौधरी ग. ज्ञान 75. इस पूरे प्रकरण में ‘नॉलेज़’ शब्द के लिए ‘जानकारी’ की जगह आम तौर पर प्रचलित ‘ज्ञान’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है । वैसे भारतीय चिन्तन परम्परा में ज्ञान का प्रयोग सार्विक भाव के उदय के लिए किया जाता रहा है । यह ज्ञान पूंजी कदापि नहीं हो सकती । इसे हासिल करने की कोई वैज्ञानिक-तार्किक विधि नहीं । इसी तरह जानकार और ज्ञानी में भी फ़र्क किया जाता है…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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अनन्त का छंद - 5
अनन्त का छंद – 5 प्रसन्न कुमार चौधरी ख. भौतिक अस्तित्व 60. मनुष्य के अस्तित्व की एक सामान्य चर्चा के बाद हम अब उसके भौतिक और चेतन पक्ष की अलग से थोड़ी चर्चा करेंगे । पहले भौतिक पक्ष । अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य अपने विस्तारित आत्म-पुनरुत्पादन के लिए प्राकृतिक परिवेश का उपयोग मात्र नहीं करता, बल्कि श्रम के औज़ारों के विकास के ज़रिये उत्पादन करता है और इस प्रक्रिया में प्रकृति के साथ तथा आपस…
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prasannachoudhary · 1 year ago
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अनन्त का छंद - 4
अनन्त का छंद – 4 प्रसन्न कुमार चौधरी मनुष्य का अस्तित्व क. सामान्य 45. मनुष्य के अस्तित्व की एक विलक्षणता यह है कि वह अपने विकसित मस्तिष्क के साथ जन्म ही नहीं ले सकता ।22 उसके मस्तिष्क का पूर्ण विकास जन्म के डेढ़-दो साल बाद जाकर सम्पन्न होता है । उसके अस्तित्व की इस विलक्षणता के कारण उसकी प्रोग्रेमिंग में एक फांक उत्पन्न हो जाती है । वह पूरी तरह नियोजित प्राणी नहीं है । नियोजन की यह कमी ही…
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