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तुम्हारे साथ रहकर
तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है कि दिशाएँ पास आ गयी हैं, हर रास्ता छोटा हो गया है, दुनिया सिमटकर एक आँगन-सी बन गयी है जो खचाखच भरा है, कहीं भी एकान्त नहीं न बाहर, न भीतर। हर चीज़ का आकार घट गया है, पेड़ इतने छोटे हो गये हैं कि मैं उनके शीश पर हाथ रख आशीष दे सकता हूँ, आकाश छाती से टकराता है, मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ। तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे महसूस हुआ है कि हर बात का एक मतलब होता है, यहाँ तक कि घास के हिलने का भी, हवा का खिड़की से आने का, और धूप का दीवार पर चढ़कर चले जाने का। तुम्हारे साथ रहकर अक्सर मुझे लगा है कि हम असमर्थताओं से नहीं सम्भावनाओं से घिरे हैं, हर दीवार में द्वार बन सकता है और हर द्वार से पूरा का पूरा पहाड़ गुज़र सकता है। शक्ति अगर सीमित है तो हर चीज़ अशक्त भी है, भुजाएँ अगर छोटी हैं, तो सागर भी सिमटा हुआ है, सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है, जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है वह नियति की नहीं मेरी है। ~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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बहुत हुआ रूहानी इश्क़
बहुत हुआ रूहानी इश्क़ अब के तो मिलना है तुमसे…
ग़ज़लें नही लिखनी है छुना है तुमको… वो हज़ार बार के पढ़े हुए खत एक और बार नही पढ़ने है मुझे, मुझे अपनी उंगलिया तुम्हारी हाथेली पे चाहिए… चूम लेना है माथा तुम्हारा, सीने से लगा लेना है तुमको, बाहो में भर लेना है..बहुत हुआ रूहानी इश्क़ अब के तो मिलना है तुमसे,
बहुत हुआ रूहानी इश्क़ अब के तो मिलना है तुमसे, और फोन पे तो बिल्कुल बात नही करनी है, पर तुम्हारे कानो पर से बाल हटाना है, और एक छोटी सी बाली पहना देना है तुमको…
बिछिया, पायल, बिंदी सब कुछ अपने हाथो से पहनना है, अब खुश्बू महसूस नही करनी है तुम्हारी…
बस पलकों को बंद होते हुए और खुलते देखना है, कुछ काम बताना है तुमको,
फिर तुम्हारे उठकार जाने पर कलाई से पकड़कर बैठा देना है तुमको, बहुत हुआ रूहानी इश्क़ अब के तो मिलना है तुमसे… ~ ज़ाकिर खान
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मेरे कुछ सवाल है जो सिर्फ क़यामत के रोज पूछूँगा
मेरे कुछ सवाल है जो सिर्फ क़यामत के रोज पूछूँगा तुमसे , क्यूकी उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम … मैं जानना चाहता हूँ क्या रक़ीब के साथ भी चलते हुए , शाम को यूँही बेख्याली मैं उसके साथ भी क्या हाथ टकरा जाता है क्या तुम्हारा ?
क्या अपनी छोटी उँगली से उसका भी हाथ थाम लिया करती हो तुम , क्या वैसे है जैसे मेरा थामा करती थी …? क्या बता दी सारी बचपन की कहानियां तुमने उसको जैसे मुझको रात रात भर बैठ कर सुनाई थी तुमने …? क्या तुमने बताया उसको की 30 के आगे की हिन्दी की गिनती आती नहीं तुमको …? वो जो सारी तस्वीरें तुम्हारे पापा के साथ , तुम्हारी बहन ke साथ तुम्हारी थी , जिनमे तुम मुझे बड़ी प्यारी लग रही हो, क्या उसे भी दिखा दी तुमने …? कुछ सवाल है जो सिर्फ क़यामत के रोज पूछूँगा तुमसे , क्यूकी उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम के मैं पूछना चाहता हूँ क्या जब वो भी घर छोड़ने आता है तुमको, तो क्या सीढ़ियों पे आँखें मीच कर मेरी ही तरह उसके सामने भी माथा आगे कर देती हो तुम, वैसे ही जैसे मेरे सामने किया करती थी ? क्या सर्द रातों में बंद कमरों में वो भी मेरी ही तरह , तुम्हारी नंगी पीठ पर अपनी उँगलियों से हर्फ दर हर्फ खुद का नाम गोदता है , और तुम भी अक्षर-बा-अक्षर पहचानने की कोशिश करती हो क्या जैसे मेरे साथ किया करती थी …? कुछ सवाल है जो सिर्फ क़यामत के रोज पूछूँगा तुमसे , क्यूकी उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम … ~ ज़किर खान
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उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना जरूरी है
उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है, जो जिन्दा हों तो फिर जिन्दा नज़र आना जरूरी है,
नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये, कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना जरूरी है,
थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे, सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना जरूरी है,
बहुत बेबाक आँखों में त’अल्लुक़ टिक नहीं पाता, मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना जरूरी है,
सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का, जो कहता है खुदा है तो नज़र आना जरूरी है,
मेरे होंठों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो, कि इस के बाद भी दुनिया में कुछ पाना जरूरी है !!
~ वसीम बरेलवी
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ये खेल क्या है
मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है और अब मेरी चाल के इंतिज़ार में है मगर मैं कब से सफ़ेद-ख़ानों सियाह-ख़ानों में रक्खे काले सफ़ेद मोहरों को देखता हूँ मैं सोचता हूँ ये मोहरे क्या हैं
अगर मैं समझूँ के ये जो मोहरे हैं सिर्फ़ लकड़ी के हैं खिलौने तो जीतना क्या है हारना क्या न ये ज़रूरी न वो अहम है अगर ख़ुशी है न जीतने की न हारने का ही कोई ग़म है तो खेल क्या है मैं सोचता हूँ जो खेलना है तो अपने दिल में यक़ीन कर लूँ ये मोहरे सच-मुच के बादशाह ओ वज़ीर सच-मुच के हैं प्यादे और इन के आगे है दुश्मनों की वो फ़ौज रखती है जो कि मुझ को तबाह करने के सारे मंसूबे सब इरादे मगर ऐसा जो मान भी लूँ तो सोचता हूँ ये खेल कब है ये जंग है जिस को जीतना है ये जंग है जिस में सब है जाएज़ कोई ये कहता है जैसे मुझ से ये जंग भी है ये खेल भी है ये जंग है पर खिलाड़ियों की ये खेल है जंग की तरह का मैं सोचता हूँ जो खेल है इसमें इस तरह का उसूल क्यूँ है कि कोई मोहरा रहे कि जाए मगर जो है बादशाह उस पर कभी कोई आँच भी न आए वज़ीर ही को है बस इजाज़त कि जिस तरफ़ भी वो चाहे जाए
मैं सोचता हूँ जो खेल है इसमें इस तरह उसूल क्यूँ है पियादा जो अपने घर से निकले पलट के वापस न जाने पाए मैं सोचता हूँ अगर यही है उसूल तो फिर उसूल क्या है अगर यही है ये खेल तो फिर ये खेल क्या है
मैं इन सवालों से जाने कब से उलझ रहा हूँ मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है और अब मेरी चाल के इंतिज़ार में है!
~ जावेद अख़्तर
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वली दकनी
बात इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के शुरूआती दिनों की है जब बर्बरता और पागलपन का एक नया अध्याय शुरू हो रहा था कई रियासतों और कई क़िस्म की सियासतों वाले एक मुल्क में गुजरात नाम का एक सू��ा था जहाँ अपने हिन्दू होने के गर्व और मूर्खता में डूबे हुए क्रूर लोगों ने -- जो सूबे की सरकार और नरेन्द्र मोदी नामक उसके मुख्यमन्त्री के पूरे संरक्षण में हज़ारों लोगों की हत्याएँ कर चुके थे और बलात्कार की संख्याएँ जिनकी याददाश्त की सीमा पार कर चुकी थीं
-- एक शायर जिसका नाम वली दकनी था का मज़ार तोड़ डाला ! वह हिन्दी-उर्दू की साझी विरासत का कवि था जो लगभग चार सदी पहले हुआ था और प्यार से जिसे बाबा आदम भी कहा जाता था। हालाँकि इस कारनामे का एक दिलचस्प परिणाम सामने आया कि वह कवि जो बरसों से चुपचाप अपनी मज़ार में सो रहा था मज़ार से बाहर आ गया और हवा में फ़ैल गया ! इक्कीसवीं सदी के उस शुरूआती साल में एक दूसरे कवि ने जो मज़ार को तोड़ने वालो के सख्त ख़िलाफ़ था किसी तीसरे कवि से कहा कि मैं दंगाइयों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ कि उन्होंने वली की मज़ार की मिट्टी को सारे मुल्क की मिट्टी, हवा और पानी का हिस्सा बना दिया ! अपने हिन्दू होने के गर्व और मूर्खता में डूबे उन लोगों को जब अपने इस कारनामे से भी सुकून नही मिला तो उन्होंने रात-दिन मेहनत-मशक़्क़त करके गेंदालाल पुरबिया या छज्जूलाल अढाऊ जैसे ही किसी नाम का कोई एक कवि और उसकी कविताएँ ढूँढ़ निकलीं और उन्होंने दावा किया कि वह वली दकनी से भी अगले वक़्त का कवि है और छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों के चलते उसकी उपेक्षा की गई वरना वह वली से पहले का और ज़्यादा बड़ा कवि था ! फिर उन लोगों ने जिनका ज़िक्र ऊपर कई बार किया जा चुका है कोर्स की किताबों से वो सारे सबक़ जो वली दकनी के बारे में लिखे गए थे चुन-चुनकर निकाल दिए । यह क़िस्सा क्योंकि इक्कीसवीं सदी की भी पहली दहाई के शुरूआती दिनों का है इसलिए बहुत मुमकिन है कि कुछ बातें सिलसिलेवार न हों फिर आदमी की याददाश्त की भी एक हद होती है ! और कई बातें इतनी तकलीफ़देह होती है कि उन्हें याद रखना और दोहराना भी तकलीफ़देह होता है इसलिए उन्हें यहाँ जान-बूझकर भी कुछ नामालूम-सी बातों को छोड़ दिया गया है लेकिन एक बात जो बहुत अहम है और सौ टके सच है उसका बयान कर देना मुनासिब होगा कि वली की मज़ार को जिन लोगों ने नेस्तनाबूत किया या यह कहना ज्यादा सही होगा कि करवाया वे हमारी आपकी नसल के कोई साधारण लोग नहीं थे वे कमाल के लोग थे उनके सिर्फ़ शरीर ही शरीर थे आत्माएँ उनके पा�� नहीं थीं वे बिना आत्मा के शरीर का इस्तेमाल करना जानते थे उस दौर के क़िस्सों में कहीं-कहीं इसका ��ल्लेख मिलता है कि उनकी आत्माएँ उन लोगों के पास गिरवी रखी थी, जो विचारों में बर्बरों को मात दे चुके थे पर जो मसखरों की तरह दिखते थे और अगर उनका बस चलता तो प्लास्टिक सर्जरी से वे अपनी शक्लें हिटलर और मुसोलिनी की तरह बनवा लेते ! मुझे माफ़ करें मैं बार-बार बहक जाता हूँ असल बात से भटक जाता हूं मैं अच्छा क़िस्सागो नहीं हूं पर अब वापस मुद्दे की बात पर आता हूं कोर्स की किताबों से वली दकनी वाला सबक़ निकाल दिए जाने से भी जब उन्हें सुकून नहीं मिला तो उन्होंने अपने पुरातत्वविदों और इतिहासकारों को तलब किया और कहा कि कुछ करो, कुछ भी करो पर ऐसा करो कि इस वली नाम के शायर को इतिहास से बाहर करो ! यक़ीन करें मुझे आपकी मसरूफ़ियतों का ख़्याल है इसलिए उस तवील वाकिए को मैं नहीं दोहराऊँगा मुख़्तसर यह कि एक दिन....! ओह ! मेरा मतलब यह कि इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के शुरूआती दिनों में एक दिन उन्होंने वली दकनी का हर निशान पूरी तरह मिटा दिया मुहावरे में कहे तो कह सकते हैं नामोनिशान मिटा दिया ! उन्ही दिनों की बात है कि एक दिन जब वली दकनी की हर याद को मिटा दिए जाने का उन्हें पूरा इत्मीनान हो चुका था और वे पूरे सुकून से अपने-अपने बैठकखानों में बैठे थे तभी उनकी छोटी-छोटी बेटियाँ उनके पास से गुज़री गुनगुनाती हुई .......................... वली तू कहे अगर यक वचन रकीबां के दिल में कटारी लगे !
~ राजेश जोशी
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भूल पाने की लड़ाई
उसे भूलने की लड़ाई लड़ता रहता हूँ यह लड़ाई भी दूसरी कठिन लड़ाइयों जैसी है दुर्गम पथ जाते हैं उस ओर उसके साथ गुजारे दिनों के भीतर से उठती आती है जो प्रतिध्वनि साथ-साथ जाएगी आजीवन
इस रास्ते पर कोई बाहरी मदद पहुँच नहीं सकती उसकी आकस्मिक वापसी की छायाएँ लम्बी होती जाती हैं चाँद-तारों के नीचे अभिशप्त और निर्जन हों जैसे एक भुलाई जा रही स्त्री के प्यार के सारे प्रसंग उसके वे सभी रंग जिनमें वह बेसुध होती थी मेरे साथ लगातार बिखरते रहते हैं जैसे पहली बार आज भी उसी तरह मैं नहीं उन लोगों में जो भुला पाते हैं प्यार की गई स्त्री को और चैन से रहते हैं उन दिनों मैं एक अख़बार में कॉलम लिखता था देर रा�� गए लिखता रहता था मेज़ पर वह कब की सो चुकी होती अगर वह कभी अचानक जग जाती मुझे लिखने नहीं देती सेहत की बात करते हुए मुझे खींच लेती बिस्तर में रोशनी गुल करते हुए आधी नींद में वह बोलती रहती कुछ कोई आधा वाक्य कोई आधा शब्द उसकी आवाज़ धीमी होती जाती और हम सो जाते सुबह जब मैं जगता तो पाता कि वह मुझे निहार रही है मैं कहता तुम मुझे इस तरह क्या देखती हो इतनी सुबह देखा तो है रोज़ वह कहती तुम मुझसे ज़्यादा सुन्दर हो मैं कहता यह भी कोई बात हुई भोर से नम मेरे छोटे घर में वह काम करती हुई किसी ओट में जाती कभी सामने पड़ जाती वह जितने दिन मेरे साथ रही उससे ज़्यादा दिन हो गए उसे गए !
~ आलोक धन्वा
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अचानक तुम आ जाओ
इतनी रेलें चलती हैं भारत में कभी कहीं से भी आ सकती हो मेरे पास कुछ दिन रहना इस घर में जो उतना ही तुम्हारा भी है तुम्हें देखने की प्यास है गहरी तुम्हें सुनने की
कुछ दिन रहना जैसे तुम गई नहीं कहीं मेरे पास समय कम होता जा रहा है मेरी प्यारी दोस्त घनी आबादी का देश मेरा कितनी औरतें लौटती हैं शाम होते ही अपने-अपने घर कई बार सचमुच लगता है तुम उनमें ही कहीं आ रही हो वही दुबली देह बारीक चारख़ाने की सूती साड़ी कन्धे से झूलता झालर वाला झोला और पैरों में चप्पलें मैं कहता जूते पहनो खिलाड़ियों वाले भाग-दौड़ में भरोसे के लायक तुम्हें भी अपने काम में ज़्यादा मन लगेगा मुझसे फिर एक बार मिलकर लौटने पर दुख-सुख तो आते जाते रहेंगे सब कुछ पार्थिव है यहाँ लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं पार्थिव इनकी ताज़गी रहेगी यहीं हवा में ! इनसे बनती हैं नई जगहें एक बार और मिलने के बाद भी एक बार और मिलने की इच्छा पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी
~ आलोक धन्वा
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भूख
भूख सबसे पहले ��िमाग़ खाती है उसके बाद आँखें फिर जिस्म में बाक़ी बची चीज़ों को छोड़ती कुछ भी नहीं है भूख वह रिश्तों को खाती है माँ का हो बहन या बच्चों का बच्चे तो उसे बेहद पसन्द हैं जिन्हें वह सबसे पहले और बड़ी तेज़ी से खाती है बच्चों के बाद फिर बचता ही क्या है।
~ नरेश सक्सेना
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हमारी भाषा
भाषा में पुकारे जाने से पहले वह एक चिडि़या थी बस और चिडि़या भी उसे हमारी भाषा ने ही कहा भाषा ही ने दिया उस पेड़ को एक नाम पेड़ हमारी भाषा से परे सिर्फ एक पेड़ था और पेड़ भी हमारी भाषा ने ही कहा उसे इसी तरह वे असंख्य नदियॉं झरने और पहाड़ कोई भी नहीं जानता था शायद कि हमारी भाषा उन्हें किस नाम से पुकारती है
उन्हें हमारी भाषा से कोई मतलब न था भाषा हमारी सुविधा थी हम हर चीज को भाषा में बदल डालने को उतावले थे जल्दी से जल्दी हर चीज़ को भाषा में पुकारे जाने की ज़िद हमें उन चीज़ों से कुछ दूर ले जाती थी कई बार हम जिन चीज़ों के नाम जानते थे उनके आकार हमें पता नहीं थे हम सोचते थे कि भाषा हर चीज़ को जान लेने का दरवाज़ा है इसी तर्क से कभी कभी कुछ भाषाऍं अपनी सत्ता कायम कर लेती थीं कमजोरों की भाषा कमजोर मानी जाती थी और वह हार जाती थी भाषाओं के अपने अपने अहँकार थे पता नहीं पेड़ों, पत्थरों, पक्षियों, नदियों, झरनों, हवाओं और जानवरों के पास अपनी कोई भाषा थी कि नहीं हम लेकिन लगातार एक भाषा उनमें पढ़ने की कोशिश करते थे इस तरह हमारे अनुमान उनकी भाषा गढ़ते थे हम सोचते थे कि हमारा अनुमान ही सृष्टि की भाषा है हम सोचते थे कि इस भाषा से हम पूरे ब्रह्मांड को पढ़ लेंगे
~ राजेश जोशी
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डायरी लिखना
डायरी लिखना एक कवि के लिए सबसे मुश्किल काम है । कवि जब भी अपने समय के बारे में डायरी लिखना शुरू करता है अरबी कवि समीह-अल-कासिम की तरह लिखने लगता है कि मेरा सारा शहर नेस्तनाबूत हो गया लेकिन घड़ी अब भी दीवाल पर मौजूद है ।
सारी सच्चाई किसी न किसी रूपक में बदल जाती है कहना मुश्किल है कि यह कवि की दिक़्क़त है या उसके समय की जो इतना उलझा हु���, अबूझ और अँधेरा समय है कि एक सीधा-सादा वाक्य भी साँप की तरह बल खाने लगता है । वह अर्धविराम और पूर्णविराम के साथ एक पूरा वाक्य लिखना चाहता है वह हर बार अहद करता है कि किसी रूपक या बिम्ब का सहारा नहीं लेगा संकेतों की भाषा के क़रीब भी नहीं फटकेगा । लेकिन वह जब जब कोशिश करता है उसकी क़लम सफ़े पर इतने धब्बे छोड़ जाती है कि सारी इबारत दागदार हो जाती है । हालाँकि वह जानता है कि डायरी को डायरी की तरह लिखते हुए भी हर व्यक्ति कुछ न कुछ छिपा ही जाता है इतनी चतुराई से वह कुछ बातों को छिपाता है कि पता लगाना मुश्किल है कि वह क्या छिपा रहा है कवि फ़क़त दूसरों से ही नहीं , अपने आप से भी कुछ न कुछ छिपा रहा होता है जैसे वह अपनी ही परछाई में छिप रहा हो। एक कवि के लिए डायरी लिखना सबसे मुश्किल काम है । भाषा को बरतने की उसकी आदतें उसका पीछा कभी नहीं छोड़तीं वह खीज कर क़लम रख देता है और डायरी को बंद कर के एक तरफ़ सरका देता है । एक दिन लेकिन जब वह अपनी पुरानी डायरी को खोलता है तो पाता है कि समय की दीमक ने डायरी के पन्नों पर ना समझमें आने वाली ऐसी कुछ इबारत लिख डाली है जैसे वही कवि के समय के बारे में लिखा गया सबसे मुकम्मिल वाक्य हो ।
~ राजेश जोशी
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संग्रहालय
वहाँ बहुत सारी चीज़ें थी करीने से सजी हुई जिन्हे गुज़रे वक़्त के लोगों ने कभी इस्तेमाल किया था । दीवारों पर सुनहरी फ़्रेम में मढ़े हुए उन शासकों के विशाल चित्र थे जिनके नीचे उनका नाम और समय भी लिखा था जिन्होंने उन चीज़ों का उपयोग किया था लेकिन उन चीज़ों को बनाने वालों का कोई चित्र वहाँ नहीं था न कहीं उनका कोई नाम था ।
अचकनें थीं, पगड़ियाँ थीं, तरह-तरह के जूते और हुक्के थे । लेकिन उन दरज़ियों ,रंगरेज़ों , मोचियों और हुक्का भरने वालों का कोई ज़िक्र नहीं था । खाना खाने की नक़्क़ाशीदार रकाबियाँ थीं, कटोरियाँ और कटोरदान थे, गिलास और उगालदान थे । खाना पकाने के बड़े बड़े देग और खाना परोसने के करछुल थे पर खाना पकाने वाले बावरचियों के नामों का उल्लेख कहीं नहीं था । खाना पकाने की भट्टियाँ और बड़ी बड़ी सिगड़ियाँ थीं पर उन सिगड़ियों में आग नहीं थी । आग की सिर्फ़फ कहानियाँ थीं लेकिन आग नहीं थी । आग का संग्रह करना संभव नहीं था । सिर्फ आग थी जो आज को बीते हुए समय से अलग करती थी ।
~ राजेश जोशी
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अँधेरे के बारे में कुछ वाक्य
अन्धेरे में सबसे बड़ी दिक़्क़त यह थी कि वह क़िताब पढ़ना नामुमकिन बना देता था । पता नहीं शरारतन ऐसा करता था या क़िताब से डरता था उसके मन में शायद यह संशय होगा कि क़िताब के भीतर कोई रोशनी कहीं न कहीं छिपी हो सकती है । हालाँकि सारी क़िताबों के बारे में ऐसा सोचना एक क़िस्म का बेहूदा सरलीकरण था । ऐसी क़िताबों की संख्या भी दुनिया में कम नहीं , जो अन्धेरा पैदा करती थीं और उसे रोशनी कहती थीं ।
रोशनी के पास कई विकल्प थे ज़रूरत पड़ने पर जिनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता था ज़रूरत के हिसाब से कभी भी उसको कम या ज़्यादा किया जा सकता था ज़रूरत के मुताबिक परदों को खींच कर या एक छोटा-सा बटन दबा कर उसे अन्धेरे में भी बदला जा सकता था एक रोशनी कभी कभी बहुत दूर से चली आती थी हमारे पास एक रोशनी कहीं भीतर से, कहीं बहुत भीतर से आती थी और दिमाग को एकाएक रोशन कर जाती थी । एक शायर दोस्त रोशनी पर भी शक करता था कहता था, उसे रेशा-रेशा उधेड़ कर देखो रोशनी किस जगह से काली है । अधिक रोशनी का भी चकाचैंध करता अन्धेरा था । अन्धेरे से सिर्फ़ अन्धेरा पैदा होता है यह सोचना ग़लत था लेकिन अन्धेरे के अनेक चेहरे थे पाँवर-हाउस की किसी ग्रिड के अचानक बिगड़ जाने पर कई दिनों तक अंधकार में डूबा रहा देश का एक बड़ा हिस्सा । लेकिन इससे भी बड़ा अन्धेरा था जो सत्ता की राजनीतिक ज़िद से पैदा होता था या किसी विश्वशक्ति के आगे घुटने टेक देने वाले ग़ुलाम दिमाग़ों से ! एक बौद्धिक अँधकार मौका लगते ही सारे देश को हिंसक उन्माद में झोंक देता था । अन्धेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे और उसे अपनी नियति मान लेते थे कुछ ज़िद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में जो कहते थे कि अन्धेरे समय में अन्धेरे के बारे में गाना ही रोशनी के बारे में गाना है । वो अन्धेरे समय में अन्धेरे के गीत गाते थे । अन्धेरे के लिए यही सबसे बड़ा ख़तरा था ।
~ राजेश जोशी
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सबसे ख़तरनाक
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती बैठे-बिठाए ��कड़े जाना बुरा तो है सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है जुगनुओं की लौ में पढ़ना मुट्ठियां भींचकर बस वक़्त निकाल लेना बुरा तो है सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना तड़प का न होना सब कुछ सहन कर जाना घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो आपकी नज़र में रुकी होती है सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्बत से चूमना भूल जाती है और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर गुंडों की तरह अकड़ता है सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है जो हर हत्याकांड के बाद वीरान हुए आंगन में चढ़ता है लेकिन आपकी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं पड़ता सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।
~ पाश
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उतनी दूर मत ब्याहना बाबा
बाबा! मुझे उतनी दूर मत ब्याहना जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हें मत ब्याहना उस देश में जहाँ आदमी से ज़्यादा ईश्वर बसते हों
जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ वहाँ मत कर आना मेरा लगन वहाँ तो कतई नहीं जहाँ की सड़कों पर मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ ऊँचे-ऊँचे मकान और दुकानें हों बड़ी-बड़ी उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह और शाम पिछवाडे़ से जहाँ पहाडी़ पर डूबता सूरज ना दिखे । मत चुनना ऐसा वर जो पोचाई[1] और हंडिया में डूबा रहता हो अक्सर काहिल निकम्मा हो माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर कोई थारी लोटा तो नहीं कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी अच्छा-ख़राब होने पर जो बात-बात में बात करे लाठी-डंडे की निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी़ जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ किसी का बोझ नहीं उठाया और तो और जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ ब्याहना तो वहाँ ब्याहना जहाँ सुबह जाकर शाम को लौट सको पैदल मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप..... महुआ का लट और खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश तुम्हारी ख़ातिर उधर से आते-जाते किसी के हाथ भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी, समय-समय पर गोगो के लिए भी मेला हाट जाते-जाते मिल सके कोई अपना जो बता सके घर-गाँव का हाल-चाल चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर दे सके जो कोई उधर से गुजरते ऐसी जगह में ब्याहना मुझे उस देश ब्याहना जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों बकरी और शेर एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ वहीं ब्याहना मुझे! उसी के संग ब्याहना जो कबूतर के जोड़ और पंडुक पक��षी की तरह रहे हरदम साथ घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर रात सुख-दुःख बाँटने तक चुनना वर ऐसा जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़ मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल जिससे खाया नहीं जाए मेरे भूखे रहने पर उसी से ब्याहना मुझे।
~ निर्मला पुतुल
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क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए...? एक तकिया कि कहीं से थका-मांदा आया और सिर टिका दिया कोई खूँटी कि ऊब, उदासी थकान से भरी कमीज़ उतारकर टाँग दी या आँगन में तनी अरगनी कि कपड़े लाद दिए घर कि सुबह निकला और शाम लौट आया कोई डायरी कि जब चाहा कुछ न कुछ लिख दिया या ख़ामोशी-भरी दीवार कि जब चाहा वहाँ कील ठोक दी कोई गेंद कि जब तब जैसे चाहा उछाल दी या कोई चादर कि जब जहाँ जैसे तैसे ओ��-बिछा ली क्यूँ ? कहो, क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए ?
~ निर्मला पुतुल
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हमने इश्क़ किया
हमने इश्क़ किया बंद कमरों में फ़िजिक्स पढ़ते हुए ऊंची छतों पर बैठकर तारे देखते हुए, रोटियां सेक रही मां के सामने बैठकर चपर-चपर खाते हुए.
हमने नहीं रखी बटुए में तस्वीरें, किताबों में गुलाब, अलमारियों में चिट्ठियां
हमारे कस्बे में नहीं थे सिनेमा हॉल, पार्क और पब्लिक लाइब्रेरी हम तय करके नहीं मिले, हमने इश्क़ किया जिसमें सब कुछ अनिश्चित था, कहीं अचानक टकरा जाना सड़क पर और हफ़्तों तक न दिखना भी.
और उन लड़कियों से किया इश्क़ हमने जिन्हें तमीज़ नहीं थी प्यार की. जिनके सुसंस्कृत घरों की चहारदीवारी में नहीं सिखाई जाती थी प्यार की तहज़ीब. हमने उनसे किया इश्क़ जिन्हें हमेशा जल्दी रहती थी किताबें बदलकर लौट जाने की, मुस्कुराकर चेहरा छिपाने की, मंदिर के कोनों में अपने हिस्से का चुंबन लेकर वापस दौड़ जाने की.
उनकी भाभियां उकसाती, समझाती रहती थीं उन्हें मगर वे साथ लाती थीं सदा गैस पर रखे हुए दूध का, छोटे भाई के साथ का या घर आई मौसी का ताज़ा बहाना जल्दी लौट जाने का.
हमने डरपोक, समझदार, सुशील, आज्ञाकारी लड़कियों से इश्क़ किया जो ट्रेन की आवाज़ सुनकर भी काट देती थीं फ़ोन, छूने पर कांप जाया करती थीं, देखने वालों के आने पर सजकर बैठ जाती थी छुइमुइयां बनकर. कपड़ों के न उघड़ने का ख़्याल रखते हुए सारी रात सोने वाली,
महीने के कुछ दिनों में अकारण चिड़चिड़ी हो जाने वाली अंगूठी, कंगन, बालियों और गुस्सैल पिताओं से बहुत प्यार करने वाली सच्चरित्र लड़कियों से किया हमने प्यार
जो किसी सोमवार, मंगलवार या शुक्रवार की सुबह अचानक विदा हो गईं सजी हुई कारों में बैठकर, उसी रात उन्होंने फूंका बहुत समर्पण, बेसब्री और उन्माद से अपना सहेजकर रखा हुआ कुंवारापन.
चुटकी भर लाल पाउडर और भरे हुए बटुए में अपनी तस्वीर लगवाने के लिए बिकीं करवाचौथ वाली सादी लड़कियों से ऐसा किया हमने ��श्क़
कि चांद, तारों, आसमान को बकते रहे रातभर गालियां. खोए सब उन घरों के संस्कार, गुलाबों में घोलकर पी शराब, मांओं से की बदतमीज़ी, होते रहे बर्बाद बेहिसाब.
~ गौरव सोलंकी
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