Tumgik
imshivanimathur · 5 years
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गज़ल
अरमानों को भर हाथ की मुट्ठी मैं चले हैं ज़रा सम्भलना कि ज़मीन पर पाँव जले हैं
छोड़ चले हम दोस्तो को जिन रास्तो के लिये वहाँ राख हुआ दरिया, पहाड़ टूटे पडे हैं
अपनो मे बेगाने रहे, अनजानो को पहचान गए शहरों की दास्तां लिये जगलों मे खडे हैं
जन्नत की है खवाहिश और छत नही सर पे पतझड़ है ,अभी तो पीले पत्ते ही झडे है
वक्त की तलवार, शब्दों के तीर, बोझ दिल मे लिए ऐसा लगता है आज़ादी की लडाई लडे़  हैं।
                                    शिवानी माथुर                                       26.7.99
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imshivanimathur · 6 years
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नज़्म
कहीं खामोशियाँ बोलती हैं
ख्वाबों की सरगोशियों में 
मेरी तन्हाईयाँ नाच उठती हैं
रंगों की जु़बाँ से,
हर नफस उड़ेल देती है
मन की सब गहराइयाँ,
चल पडी है रूकी हुई कोई दास्तां
इक पेन्सिल के सहारे,
तसव्वुरों मैं डूबे जज़्बातों को जैसे
मिल गए है खूबसूरत किनारे,
अक्सर निकल आते है नये पैमाने ज़िन्दगी के
पुराने लफ़्ज़ों के मायने समझ आने लगे,
सतरंगी बूँदों मैं बरसकर,
छलककर कहता है हर बादल घिर आए हैं हम,
जब से हुई है बरसात रंगों की मेरे जीवन के कैनवस पर,
सो रही थी जो ज़िन्दगी चिलमनों से लिपटकर,
मेरे अल्फ़ाज़ों को इक नये पंख मिल गए।
न कोई डर….न शुबा… न ऐतराज,
बेधड़क गिर पडती हैं रंगों में बदलकर मेरी हर मौज तूफां बनकर,
मिट जायेगा हर दर्द बनकर नयी इक तस्वीर
खत्म हो जायेंगे सारे लम्हात मेरे मन की रचनाओं में ढलकर,
बस…..अब इक और……..नया जज़्बा आग़ोश मैं है,
रंग…….. उलझनौ से भरे और…….मेरी  
                                                थिरकती उगंलियाँ ।                                                                                                                                 – शिवानी माथुर                                                               (02.04.18)
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