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पहले आम चुनाव में 8,200 टन स्टील के बैलेट बॉक्स और 3 लाख 89 हज़ार 816 स्याही की शीशियों का हुआ था इस्तेमाल
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक पर्व आम चुनाव, देश की आजादी के पांचवें साल में संपन्न हुआ. भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत आयोजित यह आम चुनाव अधिकतर राज्यों के विधानसभा के साथ हुए. यह चुनाव ��ोकतंत्र के ऊपर विश्वास करनेवाली जनता की पहली अग्निपरीक्षा थी, क्योंकि इसी चुवान के बहाने भारत के लोकतंत्र के भविष्य का भी अंकुरण होना था. पश्चिमी देशों के मतदाताओं के विपरीत भारत पहली बार सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (सभी को वोट देने के अधिकार) का प्रयोग कर रहा था, जिसमें जाति, वर्ग, लिंग और धर्म का कोई भेद नहीं था.
भारत में होने वाले आम चुनाव एक ऐसे महाकुम्भ की तरह है जिसे संपन्न कराने की जिम्मेदारी अपने आप में बहुत कठिन है. मगर चुनाव-दर-चुनाव चुनाव आयोग की जिम्मेदारी काबिल-ए-तारीफ है. हम इस सीरीज में अब तक हुए महत्वपूर्ण आम चुनावों में चुनाव आयोग की निष्ठा और उसकी जिम्मेदारियों का एक खाका तैयार कर रहे हैं. आज ज़िक्र होगा 1952 में हुए पहले आम चुनाव का.
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आजादी के दो साल बाद संविधान के प्रावधान (अनुच्छेद 324) के मुताबिक, 1950 में भारत के निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई. इस आयोग के पहले मुख्य आयुक्त सुकुमार सेन को बनाया गया था. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में जिक्र करते हैं कि 1899 में जन्मे सुकुमार सेन कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज के अलावा लंदन विश्वविद्यालय से स्नातक थे जहां वो गणित में गोल्ड मेडलिस्ट रहे. वे 1921 में भारतीय सिविल सेवा (ICS) में शामिल हुए. सेन पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव नियुक्त होने से पहले कई जिलों में न्यायाधीश (कलेक्टर) के रूप में कार्य किया. अपनी इस करियर के दौरान सुकुमार सेन ने मुख्य चुनाव आयुक्त के पद तक का सफर तय किया.
मैथेमेटिशियन सुकुमार सेन के लिए पहला चुनाव संपन्न कराना कोई ��सान काम नहीं रहा. गोल्ड मेडलिस्ट के लिए यह गणना गणित के किसी मुश्किल सवाल से कम नहीं थी, क्योंकि पहले आम चुनाव के लिए उन्हें 17 करोड़ 60 लाख मतदाताओं को लोकतंत्र के पर्व का हिस्सेदार बनाना था. जिनकी उम्र 21 या उससे अधिक थी. सबसे विकट बात थी कि इन मतदाताओं में करीब 85 प्रतिशत अनपढ़ थे और हर एक की पहचान नाम और रजिस्ट्रेशन से की जानी थी.
1950 के दशक में करीब 17 करोड़ मतदाताओं का रजिस्ट्रेशन इस मुश्किल में पहली कड़ी थी. चुनाव आयोग के लिए इससे भी बड़ी बात मतदाताओं की तरफ से चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के लिए वोट जुटाना था. जिसके लिए चुनाव चिन्ह, बैलेट पेपर और बैलेट बॉक्स डिज़ाइन किए गए. फिर मतदान केंद्रों के लिए स्थलों की पहचान की गई. चुनाव के साथ एक मुश्किल कड़ी और थी कि उसी दौरान राज्य में अलग-अलग विधानसभाओं के लिए चुनाव निर्धारित थे. किसी तरह का घाल-मेल न हो इसके लिए ईमानदार और कुशल मतदान अधिकारियों की भर्ती की गई. इस संबंध में सुकुमार सेन के साथ काम करने के लिए विभिन्न प्रांतों के चुनाव आयुक्तों, आमतौर पर आईसीएस के अधिकारियों की नियुक्ति की गई थी.
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इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी किताब में बताते हैं कि पहले आम चुनाव के लिए 2 लाख 24 हज़ार पोलिंग बूथ स्थापित किए गए, जिनमें 20 लाख स्टील के बैलेट बॉक्स बनाए गए. इन बैलेट बॉक्स के निर्माण में 8,200 टन स्टील की खपत हुई थी. 16,500 क्लर्कों को छह महीने क�� कॉन्ट्रैक्ट पर निर्वाचन क्षेत्र द्वारा निर्वाचक नामावली में मतदाताओं के नाम जोड़ने के लिए नियुक्त किया गया. नाम के छापने के लिए रोल में 3 लाख 80 हज़ार टन पेपर का उपयोग किया गया था. 56,000 पीठासीन अधिकारियों को मतदान की निगरानी के लिए नियुक्त किया गया था, जिन्हें 2 लाख 80 हज़ार सहायकों की तरफ से मदद मिली. हिंसा से बचने और कानून व्यवस्था को कायम रखने के लिए 2 लाख 24 हज़ार पुलिसकर्मियों को ड्यूटी पर लगाया गया.
निर्वाचन क्षेत्र और मतदाता एक लाख वर्ग मील से अधिक क्षेत्र में फैले थे. इन इलाकों में भारी विविध��ा थी. दूरदराज के पहाड़ी गांवों से लेकर भारत के सुदूर द्वीपों तक निर्वाचन क्षेत्र में मतदान का आयोजन किया गया. हिंद महासागर में छोटे द्वीपों के बूथ तक पहुंचने में नौसैनिक जहाजों का इस्तेमाल किया गया था. इन भौगोलिक समस्या से भी बड़ी समस्या सामाजिक समस्या थी, क्योंकि उत्तर भारत में कई महिलाओं को अपना नाम देने में झिझक होती थी. वे महिलाएं अपना नाम देने के बजाए, वे खुद को 'उनकी' मां या 'इनकी' पत्नी के रूप में रजिस्टर करना चाहती थीं.
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मतदाता किस प्रकार अपनी मनपसंद पार्टी को वोट दे पाएं यह एक बड़ा सिरदर्द था. उस दौरान ज्यादातर पश्चिमी देशों में मतदान, पार्टी के नाम पर ही अपना वोट डालते थे. मगर भारत के लिए यह समस्या विकट थी. रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब में इस बात का जिक्र किया है कि इस काम को चुनाव आयोग ने चिह्नों के माध्यम से निपटाने का काम किया. ये चुनाव निशान भारतीय मतदाता की रोजमर्रा में इस्तेमाल किए जाने वाले रूपक थे जिनके साथ वे सहज थे जैसे- दो बैलों की जोड़ी, झोपड़ी, हाथी और दीपक और बाती.
दूसरा इनोवेशन भारतीय वैज्ञानिकों की तरफ विकसित की गई वो स्याही थी जिसे मतदाताओं की उंगली पर लगा दी जाए तो वह एक सप्ताह तक वैसी ही रहती थी. चुनाव में इस स्याही के कुल 3 लाख 89 हज़ार 816 शीशियों का इस्तेमाल किया गया था.
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1951 के पूरे साल चुनाव आयोग ने लोकतंत्र के इस महा मेला के ��ारे में जनता को जागरूक करने के लिए फिल्म और रेडियो के साथ-साथ समाचार पत्रों का इस्तेमाल किया. मताधिकार करने वाले मतदाता किस तरह से अपना मत डाले, इसके लिए 3,000 से अधिक सिनेमाघरों में इस युक्ति को सुझाने के लिए विजुअल्स का इस्तेमाल किया गया था. ऑल-इंडिया रेडियो के माध्यम से भारत के नागरिकों तक पहुंच बनाई गई. जिनमें- संविधान पर कई कार्यक्रम प्रसारित किए, वयस्क मताधिकार के उद्देश्य के बारे में बताया गया, मतदाता सूची तैयार करने और मतदान की प्रक्रिया के बारे में प्रोग्राम प्रसारित किए गए.
चुनाव आयोग की तरफ से जारी 1952 के आम चुनाव की स्टेटिकल रिपोर्ट के अनुसार, 21 फरवरी 1952 को संपन्न लोकतंत्र के इस महाकुंभ का समापन हुआ. लोकसभा की 489 सीटों के लिए 1849 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा. 17 करोड़ 60 लाख मतदाताओं में 45.7 फीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. पहले आम चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) ने शानदार जीत हासिल की. 489 सीटों में कांग्रेस को 364 सीटें मिलीं और कुल मतों का 44.99 प्रतिशत हिस्सा हासिल हुआ. वोटों का यह आंकड़ा दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप हासिल किए जाने वाले वोटों से चार गुना अधिक था. इस तरह जवाहरलाल नेहरू भारत में पहली बार लोकतांत्रिक रूप से चुने गए प्रधानमंत्री बने.
स्रोत: हमारा संविधान (सुभाष कश्यप), भारत की राज्य व्यवस्था, पांचवां संस्करण (एम लक्ष्मीकांत), भारत गांधी के बाद (रामचंद्र गुहा), चुनाव आयोग की वेबसाइट, अन्य समाचार पत्र
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बेगूसराय में हुई थी देश की पहली बूथ कैप्चरिंग, चुनावी साल था 1957
‘बूथ कैप्चरिंग’, 1970 और 1980 के दशक के दौरान ��ह शब्द अखबारों की सुर्खियों में हुआ करते थे, क्योंकि इस दौरान चुनाव में भाग लेने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ और इसके साथ ही धन और बल के माध्यम से चुनाव जीतने के लिए बूथ कैप्चर का नया हथकंडा अपनाया गया.
आजादी के एक दशक बाद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक बार फिर अपने सबसे बड़े लोकतांत्रिक पर्व यानी आम चुनाव के लिए तैयार था. इस आम चुनाव ने न केवल भारत बल्कि विश्व के अन्य हिस्सों में रहने वालों के अंदर भी रुचि पैदा कर दी थी. इसका कारण यह था कि पिछले आम चुनाव की सफलता के बाद चुनाव आयोग ने न सिर्फ अपनी मौजूदगी को महसूस कराया, बल्कि दूसरे आम चुनाव में दोबारा पूरी मजबूती के साथ अपनी साख को बचाने और अपनी जिम्मेदारी निभाने के साथ मैदान में आया. भारत का दूसरा लोकसभा चुनाव साल 1957 में 24 फरवरी से 9 जून के बीच संपन्न हुआ.
भारत में होने वाले आम चुनाव एक ऐसे महाकुम्भ की तरह है जिसे संपन्न कराने की जिम्मेदारी अपने आप में बहुत कठिन है. अगर चुनाव-दर-चुनाव चुनाव आयोग की जिम्मेदारी काबिल-ए-तारीफ है. हम इस सीरीज में अब तक हुए महत्वपूर्ण आम चुनावों में चुनाव आयोग की निष्ठा और उसकी जिम्मेदारियों का एक खाका तैयार कर रहे हैं. आज ज़िक्र होगा 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव का.
चुनाव आयोग की तरफ से देश में पहली बार संपन्न हुए आम चुनावों के लिए अपनाई गई अधिकतर प्रक्रियाओं को 1957 के आम चुनावों के लिए भी वापस से लागू किया गया. सुकुमार सेन 1952 की पहली लोकसभा चुनाव की सफलता के बाद तारीफ के हकदार थे, इस चुनाव में छोटी से छोटी चीज़ों के लिए सुकुमार सेन की दूरदर्शिता की तारीफ करनी चाहिए. इनमें कम लागत वाली किफायती बैलेट बॉक्स का निर्माण, मतदाताओं की पहचान के लिए इस्तेमाल की गई इनोवेटिव स्याही शामिल है. मशहूर स्तंभकार रामचंद्र गुहा ‘दी टेलीग्राफ’ अखबार छपी एक लेख में जिक्र करते हैं कि 1951/52 चुनावों की सफलता ने चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन के नाम को इतना बड़ा कर दिया, जिसकी वजह से उन्हें न सिर्फ अन्य देशों में बल्कि दूसरे महाद्वीप से भी उन्हें आमंत्रण मिलने लगे. सूडान ने अपने पहले चुनाव के सफल संचालन के लिए सुकुमार सेन को आमंत्रित किया गया था.
दूसरे लोकसभा चुनाव में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत में एक फिल्म ‘इट इज योर वोट’ बनाई गई. जिसे 13 भारतीय भाषाओं में डब कर भारत के 74,000 स्क्रीन पर फिल्माया गया. मुख्य चुनाव आयुक्त के मुताबिक, 94 प्रतिशत वयस्क महिलाओं का नाम मतदाता सूची में इस आम चुनाव के दौरान दर्ज किया गया. इस तरह लगभग 19 करोड़ 30 लाख मतदाताओं के नाम इस आम चुनाव में मतदाता सूची में दर्ज किए गए. इस बार मतपत्रों के निर्माण में 197 टन कागज का खपत हुआ. कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए 2,73,762 पुलिसकर्मी और 1,68,281 ग्रामीण चौकीदार को तैनात किया गया था.
चुनाव आयोग की तरफ से जारी की गई आम चुनाव की स्टेटिकल रिपोर्ट के मुताबिक, 1957 के चुनाव की वोटिंग में मामूली उछाल देखा गया – 1951/52 में 44.87 प्रतिशत के मुकाबले 1957 के लोकसभा चुनाव में 45.44 फीसदी मतदान हुआ. इस आम चुनाव में किए गए मतदान में एक दिलचस्प बात यह थी कि 42 सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों को हासिल हुई, जिन्हें 19.3 प्रतिशत मत मिले. 45 महिला उम्मीदवारों ने इस आम चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई जिनमें लगभग आधी महिला उम्मीदवारों यानी 22 उम्मीदवारों ने सफलता का स्वाद चखा.
पहली बूथ कैप्चरिंग बेगूसराय में हुई
इस आम चुनाव में भारतीय लोकतंत्र का ‘बूथ कैप्चरिंग’ जैसी समस्या से पहली बार सामना हुआ. टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, यह घटना को बेगूसराय जिले की मटिहानी विधानसभा सीट के रचियाही इलाके में अंजाम दिया गया. ‘बूथ कैप्चरिंग’, 1970 और 1980 के दशक के दौरान यह शब्द अखबारों की सुर्खियों में हुआ करते थे, क्योंकि इस दौरान चुनाव में भाग लेने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ और इसके साथ ही धन और बल के माध्यम से चुनाव जीतने के लिए बूथ कैप्चर का नया हथकंडा अपनाया गया.
इन सब के बावजूद दूसरा आम चुनाव संपन्न हुआ. इस चुनाव में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) का एक और प्रभावी प्रदर्शन रहा, क्योंकि कांग्रेस पिछले चुनावों से सात ज्यादा सीटें हासिल करने में सफल रही, हालांकि ऐसा इसलिए था क्योंकि लोकसभा सीटों की संख्या में पांच सीटों की वृद्धि की गई थी. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वोट शेयर में भी 44.99% से 47.80% की उछाल देखा गई. कांग्रेस अपनी दूसरी सबसे बड़ी प्रतिद्वंदी कम्युनिस्ट पार्टी से पांच गुना अधिक मतों से जीतने में सफल रही. कम्युनिस्ट पार्टी पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में 11 अधिक सीटें हासिल करने में सफल रही थी.
यह पहले चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन के मार्गदर्शन में भारत में किया गया दूसरा और अंतिम चुनाव था. 1958 के 19 दिसंबर को सेन का निधन हो गया था, लेकिन वह अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ गए जो भारतीयों की तरफ से मतदान करने में हर बार अपनाई जाने लगी.
स्रोत: भारत गांधी के बाद (रामचंद्र गुहा), चुनाव आयोग की वेबसाइट, बियॉन्ड द लाइन्स (कुलदीप नैयर), अन्य समाचार पत्र
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ये बारिश की बूंदे, किसी को दर्द भरी याद ताज़ा करा देती है किसी को ख़ुशी भरे लम्हे कुछ पलों के लिए लौटा देती है । किसी को तन्हाई देती है, किसी को साथ । किसी को किसी का साथ ना होने की कसक । किसी को होंठो के किनारे झांकते एक शोख़ मुस्कराहट दे देती है । किसी को गालों के बिच बरसते थोड़े से आँसू । कभी सोचता हूँ, आँसू भी कभी ब���रिश की बूँद बनना चाहता होगा । अपना सारा तक़लीफ़ भरा जीवन हवाओं में यूँ विसर्जित कर देना चाहता होगा । आँखों के क़ैदखाने से दूर, आज़ाद हवाओं में उड़ना चाहता होगा । आँसू अपने आँखों के कोने की छुपने की जगह से निकल कर कहीं दूर देस के किसी घाँस के मैदान में बैठना चाहता होगा । शायद आँसू भी कभी बारिश की बेनाम बूँद बनना चाहता होगा ।
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आधुनिक प्रेम का सेल्फ़ीकरण
मैं हिमांशु, बस हिमांशु ही, क्योंकि आगे या पीछे लगने वाले जाति था उपाधि सूचक शब्दों पर मैं विश्वास नहीं करता जो शैक्षिक संस्थान द्वारा स्नातक तथा परास्नातक में दी गई उपाधियां, जो किसी व्यक्ति को किसी एक ही पेशे में महारथता का सर्टिफिकेट देते हों. या किसी व्यक्ति को फलाँ धर्म के फलाँ जाति का आदमी बताये. इस कल्चर के रस्ते चल कर देखें तो शायद कभी एक चिकित्सक को राजनीति का ज्ञान या किसी अभियंता को पत्रकारिता का ज्ञान होने की सम्भावना ना के बराबर लगने लगती है, ठीक वैसे ही जैसे किसी विशिष्ट धर्म के विशिष्ट जाति का पेशा ही उसे धारना चाहिए जिस धर्म या जाति में वो व्यक्ति जन्म लिया है, जो मुझे बिलकुल ही पसंद नहीं है.
अब अपनी कहता हूँ. बहुत दिनों बाद ब्लॉग लिखने के लिए कीबोर्ड के बटन को दबा रहा हूँ. जंग खाई थोड़ी-बहुत अपनी लेखनी को वापस से ट्रैक पे लाने के लिए. इसे सीरियसली मत लीजियेगा.
ख़ैर, इस तकनीकी आधुनिकता वाले दिनों में स्मार्ट तथा कॉन्फिडेंट बनने की होड़ उम्र के हर पड़ाव में देखी जा रही है. इस ब्लॉग को पढ़ने के बाद आप अपनी धारणा बनाये इससे पहले मैं आपको बताना चाहूँगा कि मैं 23 वर्ष का हूँ, आधिकारिक तौर पे ! जिस उम्र के इस तरह का कम्पटीशन बहुत ज़्यादा है. ख़ैर इस बात से आप सभी अवगत होंगे ही और अपने-अपने प्रतिद्वंदी ढूंढ लिए होंगे. मैंने यहाँ अपनी उम्र इसलिए बताया कि लोग मुझ से हमेशा धोखा खा जाते हैं. कभी-कभी मेरी बातों से मेरी त्वचा ��ा तालमेल नहीं कर पाते. जी, सच कहूँ तो मैं कोई लिक्खाड़, भाषाविद् या किसी भी तरह का इंटलेस्कचुवल नहीं हूँ. भावुकता की प्रताड़ना ऐसी है मेरे जीवन में कि कई बार खुद धोखा खा चूका हूँ. मेरा विवेक हमेशा से इस बात को जानता होगा कि मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं. लेकिन मैंने हमेशा कम समय की ख़ुशी को चुना. जिससे ऐसे हश्र का भागी बना जो मेरे लिए असहनीय था, मगर जिसे मैंने डट के सहा. ये तो मैं बहुत बोरिंग बाते करना लगा! नहीं? क्योंकि इस अत्यंत व्यस्त दिनचर्या में आप विशेष कर मेरे बारे में क्यों जानना चाहेंगे. तो दरसल मैं ये बता दूँ कि मैं इस ब्लॉग के लिए कम और अपने जीवन के एक पड़ाव के लिए ज़्यादा लिख रहा हूँ. आज का घटा कल का इतिहास हो जाता है. साक्षी रह जाते हैं तो इतिहास बयां करने वाले पन्ने. दरसल बात उम्र के साथ-साथ ज़हीन होने की भी है. उम्र बढ़ने का सीधा समंध समझ के साथ-साथ तथाकथित मेच्यूरिटी से भी है. लेकिन मैं उम्र के बढ़ने के साथ उस अपवाद को भी जन्म देता हूँ जो कहीं मुझ से ताल्लुक रखते हैं. ख़ैर छोड़िये इन बातों को. आप कहेंगे ही कि लोग अपने समझ के अनुसार ही सोचते हैं और मैं उस लोगों में से अलग थोड़ी न हूँ. मैं ये सारी बाते इसलिए यहाँ लिख रहा था क्योंकी कई दफा ऐसा होता है कि किसी के लिए लिखे गए शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा से आगे बढ़ कर किसी जातिवाचक संज्ञा या समूहवाचक संज्ञा का भी रूप ले लेते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे कुंदन और ज़ोया (फ़िल्म: रांझणा) की कहानी किसी को अपनी लगने लगी हो. हो सकता है ! या नहीं भी हो सकता. अमूमन अल्पज्ञानी जो मेरी तरह वाले होते हैं वही इस तरह की सेटिंग ईजाद कर लेते हैं बिना कुछ सोचे समझे. खैर वो बात अलग है कि “अक्सर मोहल्लों के लौंडों का प्यार हमेशा डॉक्टर और इंजीनियर उठा के ले जाते हैं.” ठीक है, ले जाते ही होंगे.
मैं पहले ही इस तकनिकी आधुनिकता वाले दिनों का बखान कर चुका हूँ जो आजकल के दिनों में व्यतिगत स्पेस को विशिष्ट वर्तनी नहीं देते हैं जो यहाँ किसी के सतरंगी व्यक्तित्व के अन्वेषण पर रिसर्च स्कोलर बनाये. माफ़ करियेगा अचानक से भर-भरा कर क्लिष्ट हिंदी निकलने लगती है कभी-कभी. ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप्प जैसे जगहों पर लोग हमेशा उपलब्ध पाये जाते हैं. किसी सेवा की प्रतिबद्धता की तरह जैसे आप ने उसकी कंपनी का प्रोडक्ट ख़रीदा हो और उसमे कोई गड़बड़ी आ गई है. और शायद ये शिकायतों का भी युग चल रहा है. किसी को अपने बॉस से शिकायत किसी को अपने ��ीचर से किसी को अपने प्रेमी से किसी को खुद से. आगे नहीं लिखूंगा क्योंकि शिकायतों की लिस्ट आप अपने हिसाब से लंबी कर सकते हैं यदि मेरे लिखने में कोई छूट गया तो आप मुझ से भी ये शिकायत करने लगेंगे कि मैंने उसका नाम नहीं लिया. जो भी हो. प्रकटित आज के समाज के निजता बढ़ने के सिवाय कम हो गई है. लोग अपना महिमामंडन करने पे तुले हुए हैं. खुद को दूसरों के सामने ग्लैमराइज़ करने के लिए. यदि फलतः इस चकाचौंध के बखान का किसी के ऊपर असर पड़ता है तो उसके लिए मैं यही कहना चाहूँगा कि जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता वो हर आकर्षण पे गिरते हैं और बदनसीबी के सिवा कुछ हाँथ नहीं लगता. ये बात मुझे बस चंद दिनों पहले समझ में आई थी. और लोग इस चकाचौंध को पहले प्रेम से जोड़ते हैं फिर अपनी आधिकारिकता से जोड़ते है और नहीं जुड़ पाया तो ख़ुद के पागलपन से.
प्रेम दरसल वो शाश्वत दर्शन है जिसे आधुनिकता के सेल्फ़ीकरण ने प्रदर्शन में बदल दिया है. अतीत के बिखरे राज़ को राज़ रख कर भूलना वरना एक विलेन फ़िल्म का वो गाना– गलियां, गलियां तेरी गलियां मुझको भाये गलियां तेरी गलियां. लोग इस साक्ष्य को भूल गएँ तो आप भी भूल जाइए संभव हो तो ट्रैक चेंज कर दीजिये, म्यूजिक प्लेयर का और साथ-साथ ज़िन्दगी का भी. दरसल आर्थिक विषमता प्रेम के मायने बदल देते हैं. आज कल के प्रेमी भी इस भ्रान्ति को समझ रहे हैं. मेरी तरह. गर प्रेम करना है तो खुद से करियेगा. मार्क्सवादियों की तरह. माचिस फ़िल्म का वो गाना – जहाँ तेरे पैरों के कमल खिला करते थे. छोड़ आये हम वो गलियां.
अब रोक लेता हूँ खुद को वरना क्या-क्या लिख दूंगा मुझे ही खुद मालुम नहीं. आज के प्रैक्टिस के लिए शायद इतना काफी था.
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