Tumgik
bhatkamusafir · 4 years
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बिछोह
मुझे कहा गया था लिखने को
बिछोह पर
वियोग पर
कैसे लिखता मैं,
मुझे उस एहसास तक पहुँचने से पहले
पाना था तुम्हें
तुम्हे पाने के एहसास को महसूस करना था
तुम्हे ख़ुद में कुछ दिन सींचना था
उपजने देना था तुम्हे कुछ हद तक मुझमें
तब कहीं तुम्हारे जाने पर
मैं ढह जाता किसी नींव सा
तब कहीं मैं महूसस करता तुमसे बिछुड़ना
और तब कहीं मैं लिख पाता
बिछोह पर
वियोग पर।
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bhatkamusafir · 5 years
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मैं हो जाऊँ मीरा सखी
मैं रात तजूं
मैं धीर धरूँ
मैं अँखियाँ बिछाऊँ द्वार पे
मैं रोज़ मरूँ
मैं को से कहूँ
मैं जान लुटाऊँ यार पे
सुन रे सखी
मेरे मन की बीती
पिया बिन दिन सून मेरा
उस बिन मेरी रातें रीती
उँगरी की पोरों पे मेरी
उसके कजरी की यादें
होठों पे मेरे धरी है
उसके अधरों की यादें
सूरज मेरो है गयो बूढ़ो
चाँद मेरो मुर्झाओ सखी
ना आई नींद मोए
ना आयो पिया मेरो सखी
मैं हो जाऊँ मीरा सखी
तू राणा से कह दियो री
कृष्ण मेरे सपने में आये
अब मृत्यु मेरो जीवन है री।
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bhatkamusafir · 5 years
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मैं, मैं नहीं हूँ।
रेशा रेशा
पानी पानी
धुआँ धुआँ
हवा हवा
मैं, मैं नहीं हूँ
ख़्वाब हूँ
जो सबके होते हैं
अधूरे, पूरे, उधारी के
रात के, दिन के, पहरेदारी के
उलझा हुआ कोई तारा हूँ
जिसके चाँद की ख़बर नहीं कोई
वो खो गया है
ज़मीन पर बिखरी हज़ार
चांदी की थालियों के दरमियाँ कहीं
रेत हूँ किसी सूखे समंदर का
जो हवा के साथ कुछ कुछ
हवा सा हो गया है
मेरा कुछ कुछ तुम सा हो गया है
मैं धुंध हूँ सर्द सुबह की
या किसी प्रेमी जोड़े के बीच
सुलगते मद्धम अलाव की
मेरे एक हिस्से में
जहाँ दिल होता है
कुछ जम सा गया है
मैं, मैं नहीं हूँ
पानी हूँ, खारी किसी नदी का
जो अपनी ही प्यास में तड़प रही है
ख़ुद को दोहरा रहा हूँ अब
या पहले से आगे बढ़ गया हूँ
इस सवाल की गहराई में
शायद फंस सा गया हूँ
मुझे रेत से, ज़मीन से, पानी से, हवा से
इश्क़ हो गया है,
मुझे मेरे होने का ज़रा सा इल्म हो गया है
मैं हूँ सब
बस वो नहीं, जिसका तुझे यकीन हो गया है।
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bhatkamusafir · 5 years
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नायिका
मेरी कहानी की नायिका
जब होली दहन होते देखती है
तो भरी आवाज़ में कहती है
इस साल होली ठंडी है
इससे ज़्यादा आग तो यहाँ है
और अपना सीना ठोकती है
नायक बात को अनसुना करते हुए
होली के तेज़ में उसकी
सिलवेट वाली तस्वीर खींचता है
उसे लगता है वो जानता है सब
ये जो हो रहा है वो भी
और जो होने वाला है वो भी
या यूँ भी कह सकते हैं कि सिर्फ उसे ऐसा लगता है
उसे नायिका की भारी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ती
नायक को लगता है वो सूत्रधार है कहानी का
और तभी यकायक नायिका के सीने की आग
उसकी आँखों के ज्वालामुखी से फूटने लगती है
नायक हक्का बक्का रह जाता है
ये उसकी समझ से परे है
नायिका अपने हाथों में चेहरा छुपाये
पूरी आग उड़ेल देती है बाहर
नायक उसे थामने की कोशिश करता है
पर आग को थामना मुमकिन कब है
पीछे होली अब भी जल रही है
यहाँ ज्वालामुखी उफ़ान पर है
अब कहानी का सूत्रधार नायिका है
पर मेरा सवाल है ये कहानी किसकी थी!!
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bhatkamusafir · 5 years
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तस्वीर
मैं किसी रोज़ एक तस्वीर बनाऊँगा,
समुंदर पर थिरकती एक लड़की की तस्वीर
गले पर जिसके गुदा होगा रूमी
और कलाई पर बंधा होगा इश्क़
पैरों से वो अपने चाँद उकेरेगी पानी पर
और तस्वीर के ख़त्म होते तक
वो ओक लगाकर पी जाएगी पूरा समुंदर
मैं ज़ोर से चिल्लाऊंगा अमृता
और वो अनुसना कर देगी
तभी यकायक मेरी नज़र पड़ेगी उसके गले पर
आह रूमी!!
वो मुड़कर अपने बाल समेटते हुए
देखेगी मेरी तरफ़
और फिर चलने लगेगी शून्य की तरफ़
मेरे कैनवास पर फिर ना सुमंदर होगा न वो लड़की।
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bhatkamusafir · 6 years
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bhatkamusafir · 6 years
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खिड़की
बड़े शहरों की
ऊँची आसमान छूती
इमारतों के ऊपर
जब एक काली छतरी तन जाती है
अंधेरे के बीच,
छुपे हुए सूरज से नज़रें मिलाती
उन्हीं इमारतों से
पीली कृतिम रौशनी वाली
नहाती हुई एक खिड़की झाँकती है
मुझे उसी वक़्त तुम्हारा होना
पतझड़ के बाद की बसंत सा लगता है।
मैं टकटकी लगाए
उस खिड़की को ख़ुद में सींचता हूँ
मेरे अंदर जीने की
एक ललक जन्म लेती है
मेरी सोच और संकोचों से
मेरे हाथ को छुड़ा कर
मैं उस खिड़की की तरफ़ अपना हाथ बढ़ाता हूँ
बारिश की कुछ बूंदे
मेरी हथेली पर उम्मीद बनकर गिरती हैं
मेरी आँखों से एक बारिश शुरू होती है
पीली रौशनी वाली भीगी हुई खिड़की
अचानक धुँधली होने लग जाती है
काली छतरी अब पूरे आसमान पर तन गयी है।
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bhatkamusafir · 6 years
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एक काम करो
एक काम करो, एक तीली लो माचिस से रगड़ कर फेंक दो उसे इस जहान पर और हाँ, तीली फेंकने से पहले फेंकना जहान भर का मिट्टी का तेल जला दो, राख कर दो सब हमारी हवस का और दूसरा कोई उपाय नहीं
ख़त्म कर दो रोज़ रोज़ का यूँ जलना बक्श दो हमें।
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bhatkamusafir · 6 years
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दीवारों की खूँटियों पर टंगे
दीवारों की खूँटियों पर टंगे धुले, अनधुले कपड़े घुसलखाने में बँधी रस्सी पर सूखते आधे छुपे, आधे झाँकते अंतर्वस्त्र ब्रश रखने के डब्बे में उधड़ी हुई ब्रशें, निचुड़े हुए पेस्ट लाख संवारने संभालने के बाद भी बिखरा हुआ बिस्तर, सोफा, पैरदान
कोई नहीं करता ऐसी कल्पना अपना नया घर सोचते वक़्त
फिल्मों में दिखने वाले घर और वो आलीशान होटलों के कमरे लाख चाहने के बाद भी, घर नहीं होते।
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bhatkamusafir · 6 years
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ज़िन्दगी के किस्सों के कुछ हिस्से
और कभी जब दुनिया का शोर करने लगता है कानों को बहरा, सुन्न पड़ते कानों में जब एक तेज सन्न्नन्न की ध्वनि सुनायी देने लगती है तो मन करता है कि खड़ा होकर एक जगह देखकर ऊपर त��रों से झाँकते उस बादल पे इतनी ज़ोर से चिल्लाऊँ कि फट जाये वो और बरसने लगे इस तरह कि मेरी गीली आँखों से झरते झरने को वो समेट ले अपन�� गोद में, और पहुँचा दे उसे एक मुक्म्मल जगह तक।
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रात जब ढल रही होती है और तुम, समेटे ख़ुद को बिस्तर में मना रहे होते हो एक और सुबह उठने के लिये, ये दिलासा देते हुए कि ये दिन बीत गया है कल का दिन ये नहीं होगा, ये जानते हुए भी की हर दिन ख़ुद को दोहरा रहा है आज कल, कल फिर वही सीला सा सूरज होगा और फिर वही धुंधली सी शाम, तो अचानक एक ख़्याल आता है कि क्या होता अगर मुझे झूठ बोलना ना आता, कैसे सँभालता मैं ख़ुद को।
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मैं ढूँढता हूँ बचपन के उस फेरी वाले को, जो आता था हर दोपहर में घर के सामने, और ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता हर माल दो रुपये, और ऐसी ही एक दोपहर जब उस बूढ़े से बाबा, हाँ उसी फेरी वाले से जिसकी दाढ़ी ज़रा सी पक गयी थी पूछ लिया था, बाबा आपकी फेरी पे सपने भी मिलते हैं क्या? क्या वो भी दो रुपये के हैं? पता नहीं क्या सूझा था उस झूठे इंसान को जो उसने कह दिया था हाँ मिलते हैं ना, लेकिन आज ख़तम हो गये हैं, पर हाँ तुम अगर सपनों की नगरी में जाओगे तो मिल जायेंगे तुम्हारे सपने, और मैं उस बचपने को मान हक़ीक़त  दो - दो रुपयों में मिलने वाले हज़ारों सपनों के सपने पाल बैठा इन आँखों में और निकल गया सपनों की नगरी की खोज में, आज भी ढूँढता हूँ उस फेरी वाले को, मिले तो हिसाब माँगू मेरी इन रातों का।
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क्यूँ यूँ टुकड़ों में बंट रही है ऐ ज़िन्दगी लौट आ, आ करीब मेरे ओ ज़िन्दगी
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bhatkamusafir · 6 years
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नालायक लड़की
घर की वो नालायक बेटी, जो अपनी ज़िद्द को पूरा करने घर वालों के विरुद्ध जाकर घर छोड़ कर यहाँ माया नगरी भाग आयी थी, हाँ वही नालायक लड़की जिसको कुछ दिनों तक भला भुरा कहने के बाद उसके घर वाले भी भुला चुके थे, वही नालायक लड़की जिसको उसके मोहल्ले वालों ने ना जाने क्या क्या कहा, और कौन कौन सी संज्ञाओं से सुशोभित किया, जिसके छोटे कपडे पहनने की वजह से समाज ने उसे उन उन शब्दों से भी पुकारा जिन्हें सुनकर शब्द खुद भी शर्मा जाएँ,  वही नालायक लड़की आज जब उस केबिन के अंदर अपने होने वाले निर्माता से अपनी फ़िल्म पर बात कर रही थी, कि अचानक दरवाजे पे कान लगाये उनकी बातें सुनने की कोशिश करते वक़्त के कानों में एक थप्पड़ की गूँज सुनायी दी, आज बहुत बढ़ा दिन था, पूरे ढ़ाई साल चक्कर काटने के बाद उस नालायक लड़की को एक फ़िल्म में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का मौका मिला था, आज की मीटिंग के बाद उसके पास कई सालों बाद एक बहाना मिला था घर पर फ़ोन करने का, वो बहुत ख़ुश थी सुबह से दस बार सोच चुकी थी कि माँ को क्या बोलेगी, या पापा को क्या बतायेगी, वो ऐसे दोहरा रही थी बातों को मानो उसका इंटरव्यू हो, फिर अचानक से ये थप्पड़ की गूँज, वक़्त कुछ समझ पाता उससे पहले ही अंदर से कुछ आवाज़ें आने लगी, वो नालायक लड़की रोते हुए कह रही थी, " जो नहीं है उसे पाने के लिये मैं जो है उसे नहीं खो सकती " और फिर अपने आँसुओं को यकायक पोंछते हुए एक लंबी सी साँस लेकर बोली, सर सपनों को पूरा करके घर जाना है, अपने घर जहाँ कोई मेरा इंतज़ार कर रहा है सालों से, उनसे आँखों में आँखें डालकर बात करनी है मैं अपने सपनों के लिये उन्हें नहीं खो सकती, और भागते हुए ऑफिस से निकली, वक़्त खड़ा हुआ अपनी जगह देख रहा था, छोटे कपड़े पहने खुले बालों में सिसकते हुए भागते एक नालायक लड़की को।
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bhatkamusafir · 6 years
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बाज और उसकी चिड़िया
मुझे याद है, जब अम्मा कोई कहानी सुनाती थी। तो पता नहीं क्यों, ऐसा लगता था कि, उस कहानी के किरदार मेरे ही आस पास हैं। कभी कभी तो, मुझे ख़ुद में वो किरदार नज़र आने लगते थे। ऐसी ही एक कहानी थी, एक बाज और एक प्यारी सी चिड़िया की। कहानी का नाम तो याद नहीं लेकिन, वो कहानी अब तक एक एक शब्द याद है, और याद भी क्यों ना हो, वो कहानी उन चुनिंदा कहानियों में से थी, जिसके किरदार मेरी ज़िन्दगी के सबसे अहम् हिस्सा थे। कहानी शुरू होती थी एक बाज से, सफ़ेद रंग का, लंबी कद काठी का एक अपने ही प्रकार का अनूठा बाज, बाहर से जितना मजबूत, जितना कठोर, अंदर से उतना ही अकेला, तन्हा वो बाज। बड़ा खुशमिजाज था वो। अकेले अपने बड़े बड़े पंखों को फैलाये, खुले आसमान को नापना शौक था उसका।  दिखने में एक दम अड़ियल, मानो जैसे बात करने पे अपने नुकीले पंजों से कर देगा घायल वो। मानो जैसे, अकेले रहना उसे पसंद भी था और उसकी किस्मत भी। किसी से ज़्यादा खास लगाव नहीं था उसे, हाँ लेकिन, अपने दोस्तों और साथियों के साथ बहुत मस्ती करता था। तेज आवाज़ में हँसता था, जैसे कोई बादल गरज रहा हो। मानो जैसे, कोई ढोल पर बजा रहा हो हास्य रस का कोई राग। अपनी दुनिया में एक दम मस्त मौला, सब कहते उसे, कि ये दुनिया ऐसे लोगों को बहुत दुःख पहुँचाती है मेरे यार। तो वो हंस के कहता, इतनी ख़ूबसूरत दुनिया कैसे रुला सकती है भला उसे? और वैसे भी, परवाह ही क��ाँ है उसे किसी की। किसी ने कभी उसे उदास नहीं देखा था। कभी उसकी उन पैनी समुन्दर को लाँघने वाली आँखों को, नम नहीं देखा था। हाँ लेकिन नम आँखों को बहुत हँसाता था वो। बहुत अजीब था वो बाज, उसे समझना जैसे पानी की लकीरों पे उकेरना अपना नाम। जैसे रात और सूरज का मिलन, होता है लेकिन सबको पता नहीं होता। लोग अक्सर उसकी पीठ पीछे बातें करते थे। उसे भला बुरा कहते थे। लेकिन वो बेपरवाह बाज, अपनी दुनिया के नशे में चूर, सारी परेशानियों को नीचे ज़मीन पे छोड़, अपने बड़े बड़े पंखों से भरता रहता था आसमान में दम्भ।लेकिन कोई था, कोई था जो उसे जानता था बहुत अच्छे से। कोई था जो समझता था उस बाज को, और उसके इस द्वन्द को। एक छोटी सी चिड़िया, रंग बिरंगे पाँखों वाली, दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत आँखों वाली एक छोटी सी चिड़िया। बाज की सबसे ख़ास दोस्त। या यूँ कह लो, कि उस बाज की जान। ठीक वैसे ही जैसे, वो राजा वाली कहानी और उसका वो तोता। ये बात शायद ही किसी को पता थी, कि बाज के अंदर जो बी थोड़ी बहुत अच्छाई, रिश्तों में भरोसा था, वो सिर्फ़ और सिर्फ़, उस प्यारी सी नन्ही सी चिड़िया की वजह से था। वो चिड़िया सिर्फ एक दोस्त नहीं थी, वजह थी उसके होने की। वजह थी उसकी ख़ूबसूरत अनूठी दुनिया की।  बाज जब उड़ता आसमान में, तो भी उसकी नज़र सिर्फ उस छोटी सी चिड़िया पर लगी रहती। फिर चाहे वो आँखों के सामने हो, या ना हो वो उसकी आँखों में ज़रूर होती थी। अपनी ज़िन्दगी की द्वंदों में, उलझा बाज जब बहुत परेशां हो जाता, या टूट कर बिखरने का मन करता, उसे उस चिड़िया का एक ख़्याल भर जीने की नयी उम्मीद फूँक देता था। उसे हँसने की ताकत दे देता अपने हाल पे। मैंने जब पहले पहले सुनी थी ये कहानी, बहुत छोटा था मैं, तो लगा कि ये तो बस एक कहानी ही है। भला ऐसा भी कहाँ होता होगा? कहाँ एक बाज ,और कैसे उसकी जान एक नन्ही सी प्यारी सी चिड़िया? भला ऐसा भी होता है कहीं? ये जिस प्यार की बात, इस कहानी में हो री थी वो बस कहानियों में ही होती है। लेकिन अम्मा बड़े चाव से, कहानी के मानियों को बड़े ही रचनात्मक ढंग से, डोरी में पिरोते हुए आगे बढ़ती, बताती कि कैसे उस चिड़िया के दूर चले जाने भर के ख़्याल से, रातों में उठ उठकर सहम जाता था वो बाज। उसे कुछ चाहिये नहीं था उस चिड़िया से, कभी ना उसने उस पर अपना कोई हक़ जमाया, लेकिन हाँ चाहता यही था वो। चिड़िया भी समझती थी बखूबी उस बाज को, उन दरिया सी गहरी भूरी आँखों को, पढ़ना जानती थी वो मासूम सी नन्ही सी जान। वो भी कुछ कहती नहीं, लेकिन किसी ना किसी बहाने से रहती थी उसके पास, ये जानते हुए कि बाज को हर वक़्त रहती है उसकी ज़रूरत। और ये भी कि बाज के लिए वो ही है सबकुछ। बचपन में, ये अनकहा प्यार, समझ नहीं आता था मुझे। लेकिन जब बड़ा हुआ, तो वो ख़ूबसूरत आँखों वाली चिड़िया, मिल गयी थी मुझे भी। और मैं भी सीख गया था, पढ़ना उस चेहरे को, जो कभी नहीं करता था कोई शिकायत। मुझे नहीं लगा था कि, कहानियाँ ऐसे बदलती होंगी हक़ीक़त में। लेकिन ये तो हूबहूँ वैसे ही था। मैं बचपन से सुनता आ रहा था उस कहानी को, फिर भी क्यों, उस कहानी का हर अगला पहलू नया सा लगता था हर दफ़ा। जैसे मानों, कभी सुना ही ना हो। मैं अम्मा की कोहनी की, बूढ़ी लटकी खाल से, खेलता रहता और उनकी गोद में लेटा सुनता रहता, मेरी सबसे पसंदीदा कहानी। वो बाज, कभी किसी से कोई द्वेष नहीं रखता था। ना ही ज़्यादा इज़हार करता था ख़ुद को किसी से। लेकिन ना जाने क्यों, उस चिड़िया के सामने, ऐसे हर बात कह देता, जैसे किसी ने बोलने वाले तोते के खिलौने में, चाभी लगा के छोड़ दिया हो, और जो जो उसके अंदर हो वो सब बोल दे। कभी जब उस बाज को, किसी पर आता बहुत गुस्सा, या जब उसके मन का सागर भर जाता, और वो छलकने लगता तो वो उस चिड़िया के सामने ऐसे पिघल जाता, जैसे मानो वो कोई बर्फ़ का कतरा हो, और वो चिड़िया, कोई प्यार से पूर्ण, सकारात्मक ऊर्जा, बड़ा ही अनोखा था रिश्ता। प्यार जलन से भरा हुआ, दौनों को ही एक दूसरे को खो देने का डर, ये जानते हुए भी कि वो तो अलग हो ही नहीं सकते। लेकिन किसी को, एक को भी दूसरे के साथ, साझा करना पसंद नहीं था उन्हें, और जैसे हर कहानी का अंजाम होता है। वो नन्ही सी परी, वो प्यारी सी चिड़िया बड़ी हो रही थी। और इसकी ख़ुशी में छुपी एक चिंता ये भी थी उस बाज को, अब किसी रोज आएगा, उस चिड़िया का कोई राजकुमार और ले जायेगा उसे उससे दूर। बंट जाएगा उसका संसार, बढ़ जाएँगी उसकी ज़िम्मेदारियाँ, और कम हो जाएँगी उनकी नज़दीकियाँ, इस डर में, अकेला ही घुटता रहता वो बाज, मुझे पता नहीं क्यों, अक्सर इसी बात के बाद अचानक से कुछ गीला सा, महसूस होता था मेरे गालों पे, ऐसा लगता जैसे उस बाज का डर, उतर आया हो मेरी आँखों में। और मैं लिपट जाता अपनी अम्मा से, सिमट जाता उनकी गोद में, लेकिन आँखों में मेरे भी वो मेरी प्यारी सी चिड़िया ही होती थी। और ये डर भी, कि वो भी तो हो रही है बड़ी। मैं सोचता, क्यों ना थम जाए वक़्त, क्यों ना, मैं चुरा लूँ घडी की सुइयाँ, और कर दूँ बंद, इस वक़्त की घड़ी को। आज भी, जब ये कहानी वक़्त की दीवारों को लाँघ कर आ जाती है मुझे मिलने, तो यकायक आँखों में बैठ जाती है, उस चिड़िया की वो छोटी छोटी, दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत आँखें। हाँ मैं अब ये तसल्ली दे देता हूँ मन को, कि वो कहीं भी जाये, रहेगी तो मेरे साथ ही। मैं बड़ा तो हो गया लेकिन, उस कहानी के अंत पर नहीं पहुँचा कभी। शायद इसलिए, कि वो कहानी ख़त्म हुई ही ना हो कभी। क्या पता, अम्मा को भी नहीं पता होगा, कि क्या होगा अगला मोड़ उस कहानी का। लेकिन उस कहानी को, याद करते मेरी रूह में उठती कंपकंपी, और खड़े होते रोंगटे ये एहसास ज़रूर दिलाते हैं, कि अगर अम्मा ना होती तो, कैसे रूबरू होता मैं उस सबसे ख़ूबसूरत चिड़िया से। 
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bhatkamusafir · 6 years
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एक कहानी
- तुम बस एक बार हाँ कर दो प्रिया। चलो मेरे साथ। देखना तुम, मैं सब ठीक कर दूँगा। तुम्हारे घर वाले भी मान जायेंगे।
- ठीक? क्या ठीक करोगे और कैसे? हक़ीक़त ये है सचिन, कि इस दुनिया में प्यार करने के लिए, सबसे ज़्यादा लड़ना पड़ता है। हक़ीक़त ये है, कि जिस समाज के स्कूलों में बचपन में प्यार करने के पाठ पढ़ाये जाते हैं, उसी समाज में प्यार करने पर मार दिया जाता है। यहाँ प्यार करने के बाद लड़ना पड़ता है। समाज से, घरवालों से, रिश्तेदारों से, आस पड़ौस वालों से, और सबसे ज़्यादा ख़ुद से........... और ख़ुद से लड़ा नहीं जाता मुझसे अब। अब नहीं सह सकती। वो कहते हैं, कि अपने पापा की इज्जत की ख़ातिर तुम ये सब मत करो, लेकिन कोई ये नहीं कहता, कि तू अपनी ख़ुशी देख, कोई नहीँ पूछता कि तुम ख़ुश हो कि नहीं।
- तो फिर, तुम क्यों कर रही हो उनकी परावह, चलो भाग चलते हैं इस समाज, इस शहर से दूर। मैं थोडा बहुत कमाता हूँ, और मेहनत करूँगा लेकिन तुम्हें ख़ुश रखूँगा।
- कहाँ जायेंगे? और कितना दूर?- इतना दूर, जहाँ तुम्हे कोई याद ना आये। कोई तुम्हें परेशां ना कर सके।
- सचिन, मेरे पापा से दूर? और वो भी उन्हें दुःखी करके? कैसे ?"
और एक कहानी, बन कर रह गयी महज़ एक किस्सा"
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bhatkamusafir · 6 years
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कत्थई रंग की आँखों वाली
कहानी लिखने के लिए, पहले उन कहनियों को जीना पड़ता है। उन कहानियों की पोरों पर, टिका कर अपनी ठुड्डी, घंटो तक उन्हें ताकना पड़ता है। कुछ ऐसी ही एक कहानी थी वो, वो कत्थई रंग की आँखों वाली लड़की। वो जो मेरे लम्हों में, ऐसे रुक गयी थी, जैसे जाड़े में रजाई बिस्तर पर रुक जाती है। उसके बिना निभती कहाँ है फिर। वो मन को ऐसे भाती थी, जैसे गर्मी के बाद की पहली बारिश। हाँ, वो कत्थई रंग की आँखों वाली लड़की कुछ ऐसी ही थी। मुझे याद है एक दफ़ा, जब मेरी बाइक के पीछे, वो मेरे कंधे पर अपनी ठुड्डी गढ़ाए बैठी थी, और अचानक जब मेरी नज़र, बाइक के आईने में झलक रही उसकी आँखों पर पड़ी, तो एक पल को बाकी सब भूल गया था मैं। और एक्सीडेंट होते होते, बच गया था वो दिन। और भी ऐसे ना जाने कितने लम्हे, वो अपने दुपट्टे के छोर में गाँठ मार कर ले गयी थी। वही दुपट्टा, जो अब उसने पहनना छोड़ दिया है। क्योंकि शादी के बाद, अक्सर लडकियाँ साड़ी पहनना शुरू कर देती हैं। और अब शायद वो अपने साड़ी के पल्लू में, फिर से कुछ नए लम्हे, बाँध कर रख रही होगी। ख़ैर मैंने भी, मेरे जीन्स के पॉकेट में, कुछ लम्हे उसके चुरा कर रख लिए थे। वो जींस, उस दिन के बाद कभी धुली नहीं। और ना उन लम्हों को कभी धुंधलाने दिया मैंने। हर रोज़, एक छोटा सा कतरा उन लम्हों से, निकाल कर रख लेता हूँ अपने तकिये के ऊपर। लगता है जैसे अभी भी, मैं, वो सिकन्दरा महल में बेंच पर, उसकी गोद में सिर रख कर लेटा हूँ। ना जाने क्यों, इस छलावे से नींद ज़रा अच्छी सी आती है। या यूँ कहूँ, कि बड़ी मीठी सी आती है। वो, जो मुझसे ये नहीं पूछती थी कि क्या खाया, क्या किया, कहाँ गए थे? वो जिसकी बातों में होते थे सपने, भविष्य, प्यार और कुछ सवाल, सवाल हमारे साथ होने के। और एक चुप्पी, जो होती थी मेरे होठों पर। चुप्पी जो घुल जाती थी उसके आँखों से टपकते नमकीन पानी में। एक ठंडी आह, जो उसके सीने में महसूस होती थी मुझे, उससे अलविदा कहते वक़्त गले लगते हुए हर रोज़। उस रोज़ तक, जब वो मुझे बिना अलविदा कहे चली गयी थी। हाँ, सब कुछ अच्छा होते हुए भी, ऐसा हो जाता है। या यूँ कह लो, कुछ कहानियों में ऐसा होना ही होता है। कहनियाँ, जो आपको आपसे भी ज्यादा प्यारी होती है। कहानियाँ, जो आपका हिस्सा होती हैं। अक्सर आपको अकेला छोड़ जाती हैं। कभी कभी बिना बताये, बस उन दिनों को हर रोज़ जीते रहने के लिए। और इन्ही कहानियों के बीच, वो कत्थई रंग की आँखें भी, सुबह आईने में दिख जाती हैं, ब्रश करती हुऐ मेरी आँखों में। वही आँखें जिनकी तारीफ़ों के कसीदे, अब कोई और पढ़ता है। और वो, उसे सुनने के बाद, हलके से मुस्करा देती होगी। पता नहीं, वो अब भी उसके सीने में, सिर रख के शर्माती होगी पहले सी या नहीं। वो अभी भी हँसते हुए, उसे अपने हाथ से उसकी पीठ पर मारती होगी या नहीं। उसकी ठंडी आहों को, शायद अब जागने की ज़रूरत नहीं पड़ती होगी। क्योंकि शायद ढलता हुआ सूरज, अब जाने का इशारा नहीं करता होगा। अब उसे हर रात अगले दिन मिलने का इंतज़ार नहीं होता होगा। प्यार का पता नहीं, पर अब वो अकेली तो नहीं पड़ती होगी। मेरी तरह, और ना ही अब उसे फ़ुर्सत ही होगी, उस पुराने दुपट्टे को ढूँढकर उसकी गिरहें खोलने की|अजीब है ना, कितनी ही दफ़ा हम, अपनी ही कहानियों के कोई किरदार बनकर रह जाते हैं। और उन्हें पढने वाले, कुछ चंद लोग, अपनी ठंडी आहों में, हमें जिंदा रखते हैं कुछ देर और फिर अगली कहानी पर बढ़ जाते हैं। और हम उन्हीं कहानियों में सिमटे, अपने उस छोटे से हिस्से को, अपनी पेंट की जेबों, संदूको, दराज़ों यहाँ तक की पर्स की उन छुपी हुई जेबों में रखे घूमते रहते हैं। और सर्द रातों की, उस ठंडी सी हवा की तरह, अपने दर्द पर करहाते रहते हैं... कुछ कहानियों के अंत में पूर्णविराम जचता नहीं है...
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bhatkamusafir · 6 years
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तुम्हारी आदत
आदतें अजीब होती हैं, कब कैसे किस की लग जाये, पता नहीं चलता। कभी किसी का साथ ढूँढते, उसके ख़ालीपन की आदत लग जाती है। तो कभी, किसी के आभास की, किसी की आवाज़ की आदत हो जाना भी एक अजीब सी बात है। लेकिन अक्सर ऐसा हो जाता है, मुझे भी एक आदत लग गयी है, तुम्हारी आदत। तुम्हारे, मेरे आस पास होने की आदत, भले तुम मुझसे बात ना कर रही हो, भले तुम अपने किसी निजी काम में व्यस्त हो, या किसी और से मुख़ातिब हो, लेकिन तुम्हारे बस आस पास होने भर का आभास एक सुकून सा देता है। तुम्हारी आवाज़, जब तक कानों तक ना पहुँचे, लगता ही नहीं कि सब ठीक है। अपने ख़राब से ख़राब मूड का ठीकरा, मैं महज़ इस बात के सर फोड़ सकता हूँ, कि आज इन कानों ने तुम्हारी आवाज़ नहीं सुनी, इसीलिए सब ख़राब हो रहा है। ना जाने क्यों, मुझे ये बात याद करते हुआ अच्छा सा लग रहा है, कि मैंने लोगों की उस कहावत को झुठला दिया है, जिसमें वक़्त के साथ साथ, रिश्ते फीके से पढ़ने लगते हैं। तुम्हें जानते हुए, अब एक अच्छा ख़ासा वक़्त हो गया है, और इन सालों में, अगर कुछ बदला है, तो वो ये कि तुम्हारे लिए मेरा ये प्यार हर दिन और बढ़ गया है। या यूँ कह लो, कि हर दिन ना जाने क्यों लगता है, कि बस ये ही एक दिन है, कल पता नहीं तुम कहाँ होगी, और आज के इस दिन को मैं, सिर्फ़ तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ। और इस कश्मकश में, काग़ज़ों पर चौबीस घंटो का वो दिन, कब मिनटों में, गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता। सच कहूँ, तो बिना किसी जायज़ बहाने के, यूँ ही बस तुम्हारे बगल में या आस पास आकर बैठ जाना, बस एक छोटी सी कोशिश होती है तुम्हारे कुछ लम्हे चुराने की। तुम्हारे चेहरे को, कुछ और देर ताकते रहने की, तुम्हारी आवाज़ को कुछ और देर सुनते रहने की, ये जो बेफिज़ूल, बिना सर पैर की बातें करता हूँ ना मैं तुमसे कभी कभी, ये बस उसी आदत का नतीजा है, कि तुमसे बात करने के बहाने ढूँढता हूँ। फिर चाहे वो बहाने, ख़ुद को बेवकूफ़ करार देकर ही क्यों ना मिलें, क्या फ़र्क पड़ता है। ये जो आदत शब्द है, लोगों को थोड़ा नकारात्मक सा लगता है। लेकिन मेरे हिसाब से, आदतें अच्छी होती हैं। ये अक्सर हमें हमारी हदें दिखाती हैं। हमें बताती हैं, किसी ख़ास चीज़ या शक्श की ज़रुरत, एहसास कराती हैं उनका। जैसे मुझे शायद, इस बात का कभी एहसास होता ही नहीं, कि तुम्हारे क्या मायने हैं मेरे लिए, अगर मुझे तुम्हारी आदत का एहसास नहीं होता। तुमसे दूर जाने पर, तुम्हारी इतनी ज़्यादा कमी नहीं खलती, यहाँ तक कि एक दिन, बस एक दिन भी तुम्हारे बिना, अजीब सा लगता है तो वो इसलिए कि, तुम उस दिन में मेरा हिस्सा नहीं थी। और फिर जो आदत, दिल को सुकून देती है, लबों को ख़ुशी देती है, वो भला बुरी कैसे हो सकती है? 
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bhatkamusafir · 6 years
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अनाया
चाँद की रौशनी में, छत के एक किनारे पर ढाई फुट ऊँची मुँडेर पर अनाया, नीचे की ओर पैर लटकाये हुए बैठी थी। वो अपने उस चार मंजिला घर की मुँडेर पर नहीं, बस ढाई फुट ऊँची मुँडेर पर बैठी हुई थी। सत्रह साल की अनाया, जिसका सिर्फ़ एक कान छिदा हुआ था, जिसमें उसने एक पतले, महीन से चाँदी के लटकन को लटकाया हुआ था। लाल रंग के, अपने साइज़ से बड़े हुड को पहने हुए अनाया, आसमान में खोयी हुई थी। एक हाथ उसके बगल में मुँडेर पर था और दूसरे हाथ की दो उँगलियाँ, जिनपर काले रंग का नेल पेंट लगा हुआ था। उन दो उँगलियों के दरमियां, कुछ आधे इंच का फाँसला रखा हुआ था उसने। जैसे मानों उसने उन उँगलियों के बीच कोई सिगरेट फँसा रखी हो। और वो ऊपर आसमान में ही देखते हुए, अपनी उँगलियों को, अपने होंठों के पास ले जाती और अपने ख़्यालों का एक लंबा सा कश लेते हुए, अंदर से अपनी हरकतों के धुएं को ऊपर आसमान में छोड़ रही थी। उसकी आँखों को देखते हुए इस वक़्त, कोई भी ये बात बड़े दावे के साथ कह सकता था, कि वो अपने ख़्वाबों के नशे में डूबी हुई थी। और सर्द रात में अलाव जैसे उसके होंठ, उसके ख़्वाबों को सेंक सेंक कर चाँद तक भेज रहे थे। वो कुछ देर के लिए भूल चुकी थी, कि वो अपने चार मंज़िला घर की मुँडेर पर पैर लटकाये हुए बैठी है। लेकिन वो बैठी भी तो इस उल्फ़त में थी, कि वो और कितना जोख़िम ले सकती है अपने ख़्वाबों की ख़ातिर? उसके एक कान में जिसमें चाँदी की लटकन लटकी हुई थी, उस कान में गूँज रही थी उसके पापा की ख़्वाहिशें, उसकी माँ की उम्मीदें, उसके भाई का मोह और इस समाज का उससे भी ज़्यादा भारी बोझ। और दूसरे कान में गूँज रही थी माया नगरी की आवाज़। एक आवाज़ उस जगह की जहाँ से शायद उसे चाँद भी ऐसे न दिखेगा, जैसे आज दिख रहा है। लेकिन क्या वो अपने सुख दुःख के साथी, इस चाँद और इस मुँडेर को छोड़कर, अपने उस बायें कान जो छिदा नहीं था, उसमें गूँजती उन आवाज़ों के पीछे चल सकती थी? और अगर हाँ तो जिस कान को उसकी माँ के ज़िद्द करने पर उसने छिदवाया था, उस कान की आवाज़ों का क्या? इसी कश्मकश में वो आज अपनी उँगलियों के पूरे चार पैकेट धुंए में उड़ा चुकी थी,।उसमें अभी भी इतना बचपना रह गया था, कि वो उँगलियों की सिगरेट के धुएं को हवा में उड़ा कर, अपनी मुश्किलें उसी धुंए में हवा कर सकती थी। लेकिन क्या आज वो अपने उस ख़्वाब को भी इस धुंए में हवा कर देगी? पिछले डेढ़ घंटे से अपने ख़्वाबों में उड़ने को बेताब अनाया, अपने पँख फ़ैलाने को ही थी, कि नीचे से उसकी माँ की एक आवाज़ आयी, " अनाया, बेटा नीचे आ जाओ, देखो पापा तुम्हारी पसंदीदा मिठाई लेकर आये हैं" और अनाया ने आज फिर अपनी माँ की बात सुन ली थी।
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bhatkamusafir · 6 years
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ज़िन्दगी की चाल
ज़िन्दगी की अपनी एक रफ़्तार होती है, एक संतुलित चाल। शायद कुछ लोग संतुलित शब्द से ताल्लुख़ ना रख पायें, लेकिन जिस तरह शेर की द��� क़दम की छलाँग लगाने से पहले दो कदम पीछे की शैली होती है, वैसे ही ज़िन्दगी की भी अपनी एक शैली होती है। और मैं इसमें पूरी तरह भरोसा करता हूँ। हम अक्सर ज़िन्दगी के प्रति एक नकारात्मक रवैया अपना कर रखते हैं, यहाँ तक कि सब कुछ अच्छा होते हुए भी उसे स्वीकारते नहीं हैं, इस डर से कि हमें किसी की या कभी कभी ख़ुद की ही नज़र ना लग जाये। और हम इस चाल को नकार देते हैं। ऐसा नहीं है कि हमें हमारे आगे बढ़ने का एहसास नहीं होता, या हमें इस बात का भान नहीं होता कि हम कल की स्तिथि से दो चार क़दम आगे बढ़ गए हैं, लेकिन हम इसे झुठला देते हैं अपने दिमाग़ में बैठी हुई नकारत्मकता की वजह से। ऐसे कितने ही उदहारण हैं जो इस चाल की गवाही होते हैं, ज़िन्दगी की चाल की... जैसे एक व्यक्ति जो अपने जीवन का सफ़र शुरू करता है एक कमरे को दो या चार लोगों के साथ साझा करके, और धीरे धीरे अपनी मेहनत के दम पर, वो उस चार लोगों के साथ वाले कमरे से अकेले एक कमरे तक पहुँचता है, फिर दो कमरे और आँगन वाले घर तक, फिर और तरक़्क़ी करते हुए, दो मंज़िला घर और उससे भी आगे तक। या एक दूसरा व्यक्ति जो अपना सफ़र किसी रेलगाड़ी की साधारण बोगी से शुरू करता है, और स्लीपर, थर्ड एसी, सेकंड एसी से होता हुआ विमान तक पहुँच जाता है, और उसके आगे भी वो रुकता नहीं, इकॉनमी से बिज़नेस, और फिर प्राइवेट प्लेन तक। तरक्की का यूँ तो कोई मापदंड नहीं होता, वो घर और रहन सहन से भी आँकी जा सकती है, और आपकी मनस्तिथि, आपकी ख़ुशी से भी, लेकिन हाँ उसकी एक चाल ज़रूर होती है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। और यूँ भी, ज़िन्दगी एक समुन्दर सी है, जिसकी गहराई की कोई थाह नहीं, आप बस उतना अंदर जा पाते हैं, जितने तक आपकी साँस आपका साथ देती है, लेकिन समुन्दर वहाँ ख़त्म नहीं हो जाता। वो उससे भी गहरा है, बहुत गहरा, और ज़िन्दगी भी। और हमें उस गहराई को स्वीकारते हुए, जहाँ तक भी आप जा पायें, उस दूरी को सराहना चाहिए, ख़ुद को एक थपकी, एक शाबाशी दे देनी चाहिए। इससे आपका मनोबल और बढ़ जाता है, आप में दो चार और नयी साँस आ जाती हैं। लेकिन उस थपकी का मतलब ये नहीं होता, कि आपके रुकने का वक़्त आ गया, या आप अपने मुक़ाम पर पहुँच गए, वो बस शेर की उसी दो क़दम पीछे वाले ठहराव की तरह होती है, जिसके बाद वो दस कदम की छलाँग मारता है। कभी कभी अपने हिस्से में आ गईं उन छोटी छोटी खुशियों, कामयाबियों को गिनने से आप में एक नयी ऊर्जा का स्रोत पैदा करने जैसा होता है। आज ये लिखते हुए, जब मैं मेरे दायीं तरफ़ की खिड़की से बाहर झाँकता हूँ, तो मुझे बादलों के ऊपर उड़ते हुए मेरे इस प्लेन का राइट विंग दिखाई पड़ता है। नीचे बहुत छोटे छोटे कस्बे- शहर दिखाई पड़ रहे हैं, जो हर दो चार मिनट में बदल जा रहे हैं। मैं ज़िन्दगी की घड़ी को थोड़ा सा पीछे करता हूँ, और आगरा से दिल्ली की इंटरसिटी ट्रैन के साधारण बोगी के उस हिस्से को देखता हूँ, जहाँ गेट के सामने वाले छोटे से हिस्से में मुझे कुछ बीसों आदमियों के मुर्झायें, पसीने में तर बतर चेहरे दिखाई पड़ते हैं। भीड़ से इस खचाखच भरे हिस्से में, मैं सत्रह साल के ख़ुद को देखता हूँ। पीठ पर एक बैग टँगा हुआ, एक हाथ में दूसरे बैग का कुछ हिस्सा दिखाई पड़ता है, पूरा बैग शायद बगल में खड़े आदमी के उस तरफ़ कहीं फँसा हुआ है, दोनों पैरों के बीच के गैप में ज़मीन पर किसी और व्यक्ति का सामान है, और पैरों को ज़रा सी भी हिलाने की जगह नहीं है। पीछे के बाथरूम से बहुत ही गंदी बदबू आ रही है, और मैं मन ही मन ख़ुद के दिल्ली जाने के इस सफ़र को कोस रहा हूँ। मैं अचानक आज में लौटता हूँ, और इकॉनमी क्लास की इस फ्लाइट में बैठे हुए, अपने एक पैर पर दूसरे पैर को चढ़ाए हुए, ख़ुद को इस आरामदायक जगह पर खिड़की से बाहर झाँकता हुआ पाता हूँ। और फिर अचानक, आगरा से मुम्बई की पहली रेल यात्रा की याद ताजा हो जाती है, स्लीपर क्लास में, मई के महीने में बैठे हुए अठारह साल के अमित को देखता हूँ, जो बेहद गर्मी की वजह से झुँझला रहा है, और मुझे याद है मुम्बई पहुँचने तक मेरी पीठ पर गर्मी की वजह से लाल लाल निशान पड़ गए थे। मुझे याद आता है वो आखिरी सफ़र जब मैंने परेशान होकर कहा था, कि अब या तो थर्ड एसी से जाऊँगा नहीं तो मुझे नहीं जाना मुम्बई, शायद तेईस साल का था तब मैं। फ़िल्म स्कूल से निकल कर, दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर मुम्बई की सड़कें छाननी थीं। और अब पच्चीस की उम्र में, आज में बैठा हुआ मैं, सीट से ज़रा सा उचक कर सामने की तरफ़ देखता हूँ, मुझे बिज़नेस क्लास को अलग करने वाला एयर इंडिया का पर्दा दिखाई पड़ता है, और मन में एक और कदम आगे बढ़ाने का ख़्याल आता है। मैं कुछ देर उसे देखता हूँ, एक लंबी सी साँस भरता हूँ, खिड़की से बाहर देखते हुए, मुम्बई के समुन्दर को देख कर हल्का सा मुस्करा देता हूँ। मन ही मन ऊपर वाले को और घरवालों को शुक्रिया कहता हूँ और ख़ुद को धीमे से एक शाबाशी देता हूँ। मुम्बई आने को है, फ्लाइट में, नीचे उतरने की घोषणा हो चुकी है, कुछ ही देर में हम ज़मीन पर होंगे और तभी मेरा ध्यान कान में बज रहे, हाईवे फ़िल्म के गाने 'कहाँ हूँ मैं' पर जाता है। मैं फिर एक बार मुस्कराता हूँ, आगे की तरफ़ देखते हुए, पिछले कुछ दिनों, सालों को फ़्लैश फॉरवर्ड में देखता हूँ और एक ख़्याल आता है... ज़िन्दगी की अपनी एक रफ़्तार होती है, एक संतुलित चाल।
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