#शम्मी कपूर गीत
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#29June
#FilmAnniversary
38 Years Of #SoniMahiwal
फिल्म का नाम 👉 सोनी महिवाल
रिलीज़ तिथी 👉 29 जून, 1984
मेन थियटर 👉 मिनर्वा सिनेमा, मुंबई
वर्डिक 👉 हिट
निर्देशक 👉 उमेश मेहरा , लतीफ फैजियेव
पटकथा 👉 शांति प्रकाश बख्शी , जावेद सिद्दीकी
उल्मास उमार्बेकोव
निर्माता 👉 एफ. सी. मेहरा
संवाद 👉 जावेद सिद्दीकी
कहानी 👉 शांति प्रकाश बक्शी, लतीफ फैजीयेव ,
उल्मास उमार्बेकोव
मुख्य कलाकार 👉 सनी देओल
👉 पूनम ढिल्लों
👉 जीनत अमान
सहायक कलाकार 👉 तनुजा ,प्राण , एस पप्पू
शम्मी कपूर , गुलशन ग्रोवर
राकेश बेदी , फ्रुन्ज़िक
संगीतकार 👉 अनु मलिक
गीतकार 👉 आनंद बख्शी
गायक 👉 अनवर, शब्बीर कुमार, आशा भोसले
अनुपमा देशपांडे
गीत 👉
1. "सोहनी मेरी सोहनी और नहीं कोई होनी"
2. "मुझे दूल्हे का सेहरा गाने दो"
3. "बोल दो मीठे बोल सोनिये"
4. "चांद रुका है, रात रुकी है"
5. "सोहनी चिनाब दे किनरे (खुश)"
6. "सोहनी चिनाब दे किनरे (उदास)"
फिल्मफेयर पुरस्कार : - 👇👇👇
जीत हुआ पुरस्कार -
सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका 👉 अनुपमा देशपांडे ("सोहनी चिनाब दी") के लिए
सर्वश्रेष्ठ संपादन 👉 एमएस शिंदे
सर्वश्रेष्ठ ध्व��ि डिजाइन 👉 ब्रह्मानंद शर्मा
नामांकन -
सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक 👉 अनु मलिक
सर्वश्रेष्ठ गीतकार 👉 आनंद बख्शी ("सोहनी चिनाब दी") के लिए
➡️ सोवियत संघ के साथ एफ. सी. मेहरा और उमेश मेहरा सह- निर्मिति अलीबाबा और 40 चोर के बाद, सोहनी महिवाल बनाई गई थी, सोहनी महिवाल में जीनत अमान के लिए एक विशेष भूमिका बनाई गई थी क्योंकि अलीबाबा और 40 चोर में उनके जैसे रूसी थे, इसलिए उन्होंने जोर देकर कहा कि उसे फिल्म में होना चाहिए l
➡️ मजहर खान और जीनत अमान को फिल्म बनाने के दौरान एक-दूसरे से प्यार हो गया था l
➡️ राजेश खन्ना ने बी.आर फिल्म्स की आश्रय वाली फिल्म "सोहनी महिवाल" (1977) में अभिनय किया। राजेश खन्ना, नीतू सिंह अभिनीत। खय्याम का संगीत। बीआर चोपड़ा द्वारा निर्देशित। मुहूर्त का आयोजन चंडीगढ़ में किया गया था। इसे हिंदी और पंजाबी में बनाया जाना था। इसके बंद होने के एक साल बाद एच.एस.आरवेल ने जीतेंद्र और सुलक्षणा पंडित के साथ सोहनी महिवाल को लॉन्च किया। वह फिल्म भी ठंडे बस्ते में चली गई
➡️ इस रोल के लिए कुमार गौरव पहली पसंद थे। लेकिन जब राजेंद्र कुमार ने गौरव की कीमत के लिए 15 लाख की बोली लगाई, तो निर्माता पीछे हट गए।
➡️ उमेश मेहरा ने जब पूनम ढिल्लों को सब्जेक्ट बताया तो उन्होंने पहले मना कर दिया। उसे लगा कि फिल्म पूरी तरह से सनी की है और उसके पास करने के लिए कुछ नहीं होगा। वह काफी समझाने के बाद आखिरकार राजी हो गया।
➡️ निर्माता राजीव कपूर को चाहते थे लेकिन राम तेरे गंगा मालिन के लिए उनकी तारीखें बुक कर ली गईं। परेशान उमेश मेहरा ने धर्मेंद्र को समस्या के बारे में बताया। धर्मेंद्र ने सुझाव दिया कि वे सनी देओल को भूमिका की पेशकश करें। वह फिल्म करना पसंद करेंगे।
➡️ डिंपल कपाड़िया मुख्य भूमिका के लिए पहली पसंद थीं, लेकिन वह सागर के लिए प्रतिबद्ध थीं। #niraj #Tiger3 #director #Pathaan #War #hrithikroshan #SalmanKhan #ShahRukhKhan #amrit #lifestyle
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A Tribute To #Sadhana' On Her Birth Anniversary ! 'जल की मछरिया, जल में है प्यासी' पुराने मैसूर (अब मैसूरु) के नजदीक बहती कावेरी, हेमवती, लोकपावनी नदीयों के संगम और उसके नयनरम्य परिसर में चित्रित किया यह 'कविराज शैलेंद्र' जी का लिखा बहारदार गीत ...शंकर जयकिशन जी की गीत के अनुरूप धुन, उसे कर्णमधुर बनाती हैं ... फ़िल्म - राजकुमार' (१९६४) राजकुमारी संगीता (साधना) अपने सखियों संग जलविहार कर रही हैं ... कुछ महिला रक्षक हाथों में तीर कमान लिए पहरा दे रहीं हैं ... गोलाकार नौकाये फूलों से सजी हैं ... ऐसे ही एक फूलों से सजी नाव में बैठी पुकार रहीं हैं अपने राजकुमार को ... और वोह भानु प्रताप (शम्मी कपूर) तो उसके पास हैं, पानी के नीचे तैर रहा हैं, अपने साथी कपिल (राजेंद्र नाथ) के साथ ३८ सेकंद का प्रील्यूड उसमें कर्ण मधुर अकॉर्डियन फ़िर ग्रुप व्हायलिन्स, सेलो, क्लेरिनेट, पियानो वादन बेहद आकर्षक ... लता मुखडा शुरू करती हैं, परदे पर खूबसूरत साधना चित्ताकर्षक अंदाज में गाती हैं आजा, आई बहार, दिल है बेक़रार ओ मेरे राजकुमार, तेरे बिन रहा न जाए इंटरल्यूड सजा हैं ... अकॉर्डियन, सेलो, क्लेरिनेट के नायाब वादन से, अब पहला अंतरा लता की आवाज़ और साधना का अभिनय झोंकों से जब भी चले पुरवाई तन मेरा टूटे, आए अँगड़ाई देखो बार-बार, तेरा इंतज़ार ओ मेरे राजकुमार, तेरे बिन रहा न जाए अब फ़िर मुखडा आजा, आई बहार … इंटरल्यूड उन्हीं साजों से सजाया हैं, शंकर जयकिशन ने जो इस मामले में सब के गुरु थे ... दूसरा अंतरा शुरू, कैमरा नौकाओं से दूर जाता हुआ विलोभनीय दृश्य साकार कर रहा हैं मन में सुनूँ मैं तेरी मुरलिया नाचूँ मैं छम-छम, बाजे पायलिया ..शम्मी नजदीक हैं, पानी में तैरते, डुबकियां लगाते मज़ा ले रहे दिल का तार-तार, तेरी करे पुकार ओ मेरे राजकुमार, तेरे बिन रहा न जाए आजा, आई बहार … मुखडा समाप्त करके लता रुकती हैं ... फ़िर इंटरल्यूड में चयन उन्हीं साजों का, जो गीत को श्रवणीय बनाते हैं ... तीसरा अंतरा ... पानी के झरने के ऊपरी सतह से नीचे गिरता हुआ, कैमेरामन 'जी.सिंग' की आँख इस जगह की खूबसूरती को देखकर उसे शूट कर रही हैं, उनका कैमरा लाँग शॉट्स, क्लोज अप से साधना की मनमोहक छबि कैद कर रहा हैं, साथ ही खूबसूरत मंजर भी ... साधना गा रहीं हैं जल की मछरिया, जल में है प्यासी ख़ुशियों के दिन हैं, फिर भी उदासी लेकर मेरा प्यार, आजा अब की बार ओ मेरे राजकुमार, तेरे बिन रहा न जाए आजा, आई बहार … मुखडा गाकर लता गीत ख़त्म करती हैं ... फ़िर, पोस्टल्यूड ५.४ पर शुरू और अंत तक बहुत बढ़िया, जिसमें सेलो,अकॉर्डि https://www.instagram.com/p/CTUktpfP32Y/?utm_medium=tumblr
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सेंसर बोर्ड के इशारों को नजरअंदाज कर रखे फिल्मों के नाम 'पगलैट', 'पागल' [Source: Patrika : India's Leading Hindi News Portal]
सेंसर बोर्ड के इशारों को नजरअंदाज कर रखे फिल्मों के नाम ‘पगलैट’, ‘पागल’ [Source: Patrika : India’s Leading Hindi News Portal]
-दिनेश ठाकुरएक दौर था, जब हिन्दी फिल्मों में ‘पागल’ शब्द आम था। गानों और संवादों में ही नहीं, फिल्मों के नाम में भी इसे धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया। शम्मी कपूर की एक फिल्म का नाम ‘पगला कहीं का’ था। सदाबहार गीत ‘तुम मुझे यूं भुला न पाओगे’ इसी फिल्म का है। सत्तर के दशक में राखी की एक फिल्म का नाम ‘पगली’ था। ‘दिल ��ो पागल है’ के बारे में तो ��ब जानते हैं। दो साल पहले अमरीश पुरी के पोते वर्धान पुरी की…
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सलमा से शादी करने के बाद इस फेमस एक्ट्रेस पर आ गया था सलीम खान का दिल, कर ली थी दूसरी शादी!
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सलमा से शादी करने के बाद इस फेमस एक्ट्रेस पर आ गया था सलीम खान का दिल, कर ली थी दूसरी शादी!
दोस्तों बॉलीवुड के जाने माने अभिनेता सलमान खान के पिता और राइटर सलीम खान इन दिनों कभी-कभी ही चर्चाओं में आते हैं। जब कभी असहिष्णुता का मुद्दा उठता है तो वो मोदी सरकार की तरफदारी करते नजर आते हैं। बेटे सलमान खान की ओर से भी सलीम खान को बोलते खूब देखा जाता है। वे समाजसेवा के कामों में भी आगे रहते हैं। सलीम की जिंदगी के बारे में आप पढ़ेंगे तो सलमान खान का बीज वहीं छुपा पाएंगे। आईये जानते है उनके जन्मदिन पर उनके बारे में कुछ खास बाते!
बता दे की सलीम खान के दादाजी अनवर खान अफगानिस्तान से आकर बसे थे, कादर खान के परिवार की ही तरह। उस वक्त इंदौर होल्कर साम्राज्य की राजधानी थी, जो ब्रिटिश नियंत्रण में आ गई थी। दादा अनवर खान ब्रिटिश कैवलरी फोर्स का हिस्सा थे। उन्हीं दिनों इंदौर रियासत के बालाघाट (एमपी) में सलीम खान का जन्म हुआ था, वो सभी भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता अब्दुल राशिद खान ने इंडियन इम्पीरियल पुलिस ज्वॉइन कर ली और एक वक्त में वो इंदौर के डीआईजी जैसी बड़ी रैंक पर पहुंच गए थे। उस वक्त किसी भी भारतीय के लिए अंग्रेज पुलिस में ये सबसे बड़ी पोस्ट हुआ करती थी। तभी तो लोग आजकल चर्चा करते हैं कि ‘दबंग’ सीरीज का आइडिया, सलमान के डीआईजी दादाजी के पद से ही खान भाइयों के दिमाग में आया होगा। सलीम खान की मां के बाद उनके की मौत भी जल्द ही हो गई थी, लेकिन वो काफी संपत्ति छोड़ गए थे। कहा जाता है कि उस जमाने में इंदौर के कॉलेज में वो कार में जाते थे। उन्होंने पायलट की ट्रेनिंग भी ली थी। उनके गुड लुक्स के चलते लोग उन्हें फिल्मों में एक्टिंग करने की सलाह भी देने लगे थे।
सलीम खान भी लोगों की बातों में आ गए। इधर इंदौर में ही फिल्मकार के अमरनाथ ने अपनी फिल्म ‘बारात’ में उन्हें 1000 की पेशगी और 400 रुपये महीने में काम दे दिया। ऐसे में वे मुंबई चले आए। अपना नाम रख लिया ‘प्रिंस सलीम’, लेकिन प्रिंस की ‘बारात’ चली नहीं और उनका रोल भी छोटा था। फिर उनका स्ट्रगल शुरु हो गया। कई फिल्मों में छोटे मोटे-रोल उनको मिलने लगे। कुल 17 से 25 मूवीज में उन्होंने एक्टिंग की, लेकिन नोटिस नहीं किए गए। उनको जो सबसे बड़ा रोल मिला, वो था फिल्म ‘तीसरी मंजिल’ में हीरो शम्मी कपूर के दोस्त का। उनकी समझ में आ गया था कि एक्टिंग के फील्ड में दाल गलने वाली नहीं हैं। उन्होंने प्रिंस सलीम के नाम से ही स्क्रिप्ट लिखनी शुरू कर दीं…तब तक सम्पर्क भी बन गए थे। अशोक कुमार और जीतेन्द्र के साथ आई ‘दो भाई’ चर्चा में रही। गुरुदत्त के करीबी अबरार अल्वी के वो असिस्टेंट बन गए। इस तरह एक्टिंग के अलावा एक नया रास्ता उनके लिए खुल गया था।
सलीम और जावेद पहली बार उस फिल्म के सैट पर मुलाकात हुई। सलीम उस फिल्म में एक्टिंग कर रहे थे। इस दौरान दोनों की दोस्ती हो गई। फिर बात आगे बढ़ी और दोनों साथ काम करने लगे। सलीम का मूल काम प्लॉट सोचना था। कहानियां और किरदार गढ़ना जावेद का काम था। डायलॉग्स और गीत भी जावेद ही लिखते थे। ऐसे में राजेश खन्ना ने उनकी जोड़ी को पहला काम दिया। एक तमिल फिल्म को हिंदी में लिखना था। फिल्म थी ‘हाथी मेरा साथी’। दोनों की जोड़ी पहली मूवी से ही चर्चा में आ गई। फिर क्या था एक के बाद एक फिल्में मिलने लगीं। अंदाज, सीता गीता, शोले, जंजीर, दीवार, यादों की बारात, हाथ की सफाई, चाचा भतीजा, डॉन, त्रिशूल, दोस्ताना, क्रांति, मिस्टर इंडिया जैसी कुल 24 फिल्मों में दोनों ने काम किया। इसमें जिसमें से 20 सुपरहिट रहीं।
सलीम खान ने 5 साल तक सुशीला चरक को डेट करने के बाद 1964 में उनसे शादी कर ली थी। शादी के बाद सुशीला चरक ने अपना नाम बदलकर सलमा खान रख लिया। सलीम और सलमा खान के तीन बेटे – सलमान, अरबाज और सोहेल और एक बेटी अलविरा हुई, लेकिन हेलन के प्यार में सलीम ऐसा गिरफ्तार हुए कि दोनों ने 1980 में शादी कर ली, शादी के बाद खान परिवार में खूब मनमुटाव हुए। सलमान सहित तीनों भाई हेलन के बिल्कुल विरुद्ध थे। खुद सलमा खान भी इस शादी से दुखी थीं। इसका खुलासा एक इंटरव्यू में करते हुए सलमा ने कहा भी था कि इस शादी की वजह से बहुत ही डिप्रेस और डिस्टर्ब हुईं। सलमान, अरबाज और सोहेल तो हेलन से बात तक नहीं करते थे। वो कहावत है न कि समय से बड़ा मरहम कोई नहीं। धीरे-धीरे तीनों भाईयों और सलमा खान को महसूस हुआ कि हेलन वैसी बिल्कुल भी नहीं जैसा उन्होंने समझा था। बाद में समय के साथ हेलन के रिश्ते सभी के साथ अच्छे हो गए।
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55 साल बाद भी इस गीत के लिए हर किसी में क्रेज़ दिखता है. आज जन्माष्टमी के मौके पर जानिए इस आइकॉनिक गीत से जुड़ी कुछ अनसुनी बातें. from Latest News मनोरंजन News18 हिंदी https://ift.tt/2wByYGf
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सायरा बानो को पहली नजर में हो गया था दिलीप कुमार से प्यार, आज तक नहीं बन पाईं मां
बॉलीवुड में सायरा बानो को एक ऐसी अभिनेत्री के तौर पर शुमार किया जाता है जिन्होंने साठ और सत्तर के दशक में अपनी दिलकश अदाओं और दमदार अभिनय से दर्शकों को दीवाना बनाया। सायरा बानो का जन्म 23 अगस्त 1944 को हुआ था। उनकी मां नसीम बानो तीस और चालीस के दशक की नामचीन अभिनेत्री थीं और उन्हें ब्यूटी क्वीन कहा जाता था। सायरा बानो अपने बाल्यकाल में लंदन में रहती थीं और वहां से शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह वर्ष 1960 में मुंबई लौट आईं।
ऐसे मिली पहली फिल्म: मुंबई लौटने के बाद उनकी मुलाकात निर्माता-निर्देशक शशधर मुखर्जी से हुई, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचान उन्हें अपने भाई सुबोध मुखर्जी से मिलने की सलाह दी। सुबोध मुखर्जी उन दिनों अपनी नई फिल्म ‘जंगली’ के निर्माण के लिये नयी अभिनेत्री की तलाश कर रहे थे। उन्होंने सायरा बानो को अपनी फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया जिसे सायरा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। वर्ष 1961 में प्रदर्शित फिल्म’जंगली’में उनके अपोजिट अभिनेता शम्मी कपूर लीड रोल में थे। इस फिल्म में सायरा बानो ने कश्मीर में रहने वाली युवा लड़की की भूमिका निभाई। बेहतरीन गीत, संगीत और अभिनय से सजी इस फिल्म की जबरदस्त कामयाबी ने ना सिर्फ उन्हें बल्कि अभिनेता शम्मी कपूर को भी’स्टार’ के रूप में साबित कर दिया।
22 की उम्र में 44 के दिलीप कुमार से की शादी: वर्ष 1964 उनके कॅरियर का अहम वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष उनकी ‘आई मिलन की बेला’ जैसी सुपरहिट फिल्में प्रदर्शित हुई। इन फिल्मों की सफलता के बाद सायरा बानो फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गईं। वर्ष 1966 में सायरा बानो ने अपनी उम्र से काफी बड़े अभिनेता दिलीप कुमार के साथ शादी कर ली। उस वक्त सायरा बानो की उम्र 22 साल थी और दिलीप कुमार की उम्र 44 साल थी।
पहली नजर में हो गया था दिलीप कुमार से प्यार: कहते हैं ना कि प्यार अंधा होता है। सायरा और दिलीप कुमार के केस में भी यही था। सायरा बानो ने दिलीप कुमार को देखते ही तय कर लिया था कि वो शादी करेंगी तो सिर्फ दिलीप कुमार से। दिलीप कुमार ने उन्हें उम्र के इस फासले के बारे में बहुत समझाने की कोशिश की थी लेकिन सायरा उनसे शादी करने पर अड़ी रहीं।
इस वजह से नहीं बन पाईं मां: सायरा कभी मां क्यों नहीं बन पाई इसके पीछे की वजह ज्यादातर लोग नहीं जानते। दिलीप कुमार ने अपनी एक ऑटोबायोग्राफी में इसकी वजह बताई थी। उन्होंने कहा कि 1972 में सायरा पहली बार गर्भवती हुईं लेकिन 8 वें महीने उन्हें ब्लड प्रैशर की समस्या हो गई। इस दौरान भ्रूण को बचाने के लिए सर्जरी करना संभव नहीं था और दम घुटने से बच्चे की मौत हो गई। बाद में पता चला कि यह बेटा था। इस घटना के बाद सायरा कभी प्रेग्नेंट नहीं हो सकीं।
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The Hindi News सायरा बानो को पहली नजर में हो गया था दिलीप कुमार से प्यार, आज तक नहीं बन पाईं मां appeared first on Hindi News.
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फिल्म इंडस्ट्री में मनजी के नाम से मशहूर मनमोहन देसाई (26/02/1937-01/03/1994) के पिता किक्कू देसाई ने फिल्म 'सिंहल द्वीप की की सुंदरी' (1937), 'तारणहार'(1937),'शेखचिल्ली' (1941) का निर्देशन किया था।वह पैरामाउंट स्टूडियो (जो बाद में फिल्मालय के नाम से परिवर्तित किया गया) के मालिक भी थे।उनके पिता की मृत्यु तब हुई जब वे करीब चार वर्ष के थे.जब उनके पिता का मौत हुई तब वे दो फिल्मों का निर्माण कर रहे थे.उनके अचानक निधन से उन फिल्मों का काम अटक गया और मां के सारे जेवर के साथ घर भी बेचना पड़ा था.घर में उनसे आठ साल बड़े भाई सुभाष देसाई थे.मनमोहन देसाई की बड़े भाई, सुभाष देसाई 1950 के दशक में एक निर्माता बने.मनमोहन देसाई ने जीवनप्रभा से लव मैरिज की थी और उनका एक बेटा केतन देसाई है. केतन देसाई का विवाह कंचन कपूर से हुआ है जो शम्मी कपूर और गीता बाली की बेटी है.
शुरुआत में फिल्मकार होमी वाडिया ने मनमोहन देसाई को अपने प्रोडक्शन हाऊस में नौकरी दी.वे वहां पर कुछ समय बाद प्रोडक्शन मैनेजर हो गए.मनमोहन देसाई पचास के दशक में बाबुभाई मिस्त्री के सहायक बन गये.इस दौरान उन्होंने फिल्म निर्माण की बारीकियाँ सीखी.मनमोहन देसाई बाबू भाई मिस्त्री के साथ तीन फिल्मों में सहायक रहे. इसमें से एक सम्राट चंद्रगुप्त जिसका निर्माण उनके बड़े भाई सुभाष देसाई ने किया, वो तब तक स्टंट फिल्मों के निर्माता बन गए थे.सम्राट चंद्रगुप्त में मनमोहन ने मुख्य सहायक निर्देशक की हैसियत से काम किया था और इसी फिल्म से कल्याणजी भी स्वतंत्र संगीतकार बने.वर्ष 1960 में जब मनमोहन देसाई जब महज 24 वर्ष के थे तो उन्हें अपने भाई सुभाष देसाई द्वारा निर्मित फिल्म 'छलिया' को निर्देशित करने का मौका मिला। फिल्म में राजकूपर और नूतन जैसे दिग्गज कलाकारों के होने के बावजूद भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से नकार दी गयी।हांलाकि संगीतकार कल्याणजी-आंनद जी के संगीतबद्ध गीत 'छलिया मेरा नाम' और 'डम डम डिगा डिगा' अभी भी काफी लोकप्रिय हैं।उन्होंने ��म्मी कपूर को लेकर एक फिल्म ब्लफ मास्टर’ बनाई.1963 में प्रदर्शित फिल्म ब्लफ मास्टर का स्क्रीनप्ले भी उन्होंने हीं लिखा था.इस फिल्म का एक गाना ‘गोविंदा आला रे’, पहला गाना था जिसे रियल लोकेशन पर शूट किया गया था. फिल्म फ्लॉप हुई पर गाना बहुत बड़ा हिट हुआ.1964 में मनमोहन देसाई को फिल्म 'राजकुमार' को निर्देशित करने का मौका मिला। इस बार भी फिल्म में उनके चहेते अभिनेता और मित्र शम्मी कपूर थे। इस बार उनकी मेहनत रंग लाई और फिल्म के सफल होने के साथ ही वह फिल्म इंडस्ट्री में बतौर निर्देशक अपनी पहचान बनानें में सफल हो गए।वर्ष 1970 में प्रदर्शित 'सच्चा झूठा' मनमोहन देसाई के सिने करियर की अहम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में उन्हें उस जमाने के सुपर स्टार राजेश खन्ना को निर्देशित करने का मौका मिला। फिल्म में राजेश खन्ना दोहरी भूमिका में थे। खोया और पाया फॉर्मूले पर आधारित इस फिल्म में उन्होंने अपनी निर्देशन प्रतिभा का लोहा मनवा लिया। फिल्म 'सच्चा झूठा' बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई। इस बीच मनमोहन देसाई ने 'भाई हो तो ऐसा', 'रामपुर का लक्ष्मण', 'आ गले लग जा', 'रोटी' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया जो दर्शकों को काफी पसंद आयी। वर्ष 1977 मनमोहन देसाई के सिने करियर का अहम वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष उनकी 'परवरिश', 'धरमवीर', 'चाचा भतीजा', 'अमर अकबर एंथनी' जैसी सुपरहिट फिल्में प्रदर्शित हुई। इन सभी फिल्मों में मनमोहन देसाई ने अपने खोया-पाया फॉर्मूले का सफल प्रयोग किया। वह अकसर यह सपना देखा करते थे कि दर्शकों के लिए भव्य पैमाने पर मनोरंजक फिल्म का निर्माण करेंगे। अपने इसी ख्वाब को पूरा करने के लिए उन्होंने फिल्म 'अमर अकबर एथनी' के जरिये फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रख दिया और 'एमकेडी' बैनर की स्थापना की। मनमोहन देसाई ने 'भाई हो तो ऐसा', 'रामपुर का लक्ष्मण', 'आ गले लग जा', 'रोटी' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया जो दर्शकों को काफी पसंद आयी। वर्ष 1977 मनमोहन देसाई के सिने करियर का अहम वर्ष साबित हुआ। इस वर्ष उनकी 'परवरिश', 'धरमवीर', 'चाचा भतीजा', 'अमर अकबर एंथनी' जैसी सुपरहिट फिल्में प्रदर्शित हुई।इन सभी फिल्मों में मनमोहन देसाई ने अपने खोया-पाया फॉर्मूले का सफल प्रयोग किया। वह अकसर यह सपना देखा करते थे कि दर्शकों के लिए भव्य पैमाने पर मनोरंजक फिल्म का निर्माण करेंगे। अपने इसी ख्वाब को पूरा करने के लिए उन्होंने फिल्म 'अमर अकबर एथनी' के जरिये फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रख दिया और 'एमकेडी' बैनर की स्थापना की। 'अमर अकबर एंथनी' मनमोहन देसाई के सिने करियर की सबसे सफल फिल्म साबित हुई। 'अमर अकबर एंथनी' में यूं तो सभी गाने सुपरहिट हुए लेकिन फिल्म का 'हमको तुमसे हो गया है प्यार' गीत संगीत जगत की अमूल्य धरोहर के रूप में आज भी याद किया जाता है। इस गीत में पहली और अंतिम बार लता मंगेशकर, मुकेश, मोहम्मद रफी और किशोर कुमार जैसे नामचीन पाश्र्वगायकों ने अपनी आवाज दी थी। अमर-अकबर एंथनी की सफलता के बाद मनमोहन देसाई ने निश्चय किया कि आगे जब कभी वह फिल्म का निर्देशन करेगें तो उसमें अमिताभ बच्चन को काम करने का मौका अवश्य देंगे। हमेशा अपने दर्शकों को कुछ नया देने वाले मनमोहन देसाई ने वर्ष 1981 में फिल्म 'नसीब' का निर्माण किया। इस फिल्म के एक गाने 'जॉन जॉनी जर्नादन' में उन्होंने सितारों की पूरी फौज ही खड़ी कर दी।
यह फिल्म इंडस्ट्री के इतिहास में पहला मौका था जब एक गाने में फिल्म इंडस्ट्री के कई दिग्गज कलाकारों की उपस्थिति था। इसी गाने से प्रेरित होकर शाहरुख खान अभिनीत फिल्म 'ओम शांति ओम' के एक गाने में कई सितारों को दिखाया गया।
वर्ष 1983 में मनमोहन देसाई की एक और फिल्म 'कुली' प्रदर्शित हुई जो हिंदी सिनेमा जगत के इतिहास में अपना नाम दर्ज करा गयी। इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को पेट में गंभीर चोट लग गयी और वह लगभग मौत के मुंह में चले गए थे।फिल्म 'कुली' बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट साबित हुई। इस फिल्म से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी है कि फिल्म के निर्माण के पहले फिल्म के अंत में अमिताभ बच्चन को के किरदार को मरना था लेकिन बाद में फिल्म का अंत बदला गया।1985 में मनमोहन देसाई की फिल्म 'मर्द' प्रदर्शित हुई जो उनके सिने करियर की अंतिम हिट फिल्म थी। वर्ष 1988 में मनमोहन देसाई ने फिल्म 'गंगा जमुना सरस्वती' का निर्देशन किया लेकिन कमजोर पटकथा के कारण फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से पिट गयी।इसके बाद मनमोहन देसाई ने अपने चहेते अभिनेता अमिताभ बच्चन को लेकर फिल्म 'तूफान' का निर्माण किया लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कोई तूफान नहीं ला सकी। इसके बाद उन्होंने भविष्य में किसी भी फिल्म का निर्माण और निर्देशन नहीं करने का निर्णय लिया। मनमोहन देसाई ने अपने तीन दशक से भी ज्यादा लंबे सिने करियर में लगभग बीस फिल्मों का निर्देशन किया जिसमें से ज्यादातर फिल्में हिट हुई। बॉलीवुड की सफल केमिस्ट्री का जब भी विश्लेषण किया जाता है तो मनमोहन देसाई के महान पारिवारिक मनोरंजक मसाला की चर्चा अवश्य की जाती है | उनकी एक भी फिल्म में व्यावसायिक घाटा नही हुआ.खोया-पाया” की जिस आवधारणा का बीज एस.मुखर्जी ने 1943 में “किस्मत” फिल्म से किया था उसे व्यावसायिक तौर पर पल्लवित मनमोहन देसाई ने सत्तर और अस्सी के दशक में किया.| 01 मार्च 1994 को गिरगांव में मनमोहन देसाई बालकनी झुकते समय नीचे गिर गये , जिसकी वजह से उनका देहांत हो गया.
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यहाँ हंसने के लिए बस अपना चेहरा था और सबके माथे पर चिपका था आईना, वही आईना जो रहता है तैयार सदैव मेरा चेहरा दिखाने के लिए, रात जब भी खांसते हुए, छाती पे जाते है हाथ हथेलियां महसूस करती है पुराने जख्मो के निशान गहराइयों में डूबा मन, डायरी में लिख देता है की पिछली जन्म में मैंने किया था प्यार या फिर मेरी यादाश्त बहुत कमजोर है याद नहीं हो पाते कुछ फोन नंबर की हर नंबर डायल करने के बाद प्यार में पागल किसी लड़की का प्रेत मेरे भीतर कहता है, "डायल किया गया नंबर मौजूद नहीं" तकिये के नीचे शायद अब उतनी जगह बची नहीं की दो लोग कर ले आराम बाहों में बाहें डाल कर रो सके, हंस सके या गा सकें कोई फ़िल्मी गीत देव आनंद या शम्मी कपूर साहब के ब्रेक डांस वाले, इसलिए पहले जहाँ होते थे, पागल लड़कियों के गुलाबी ख़त अब वहा नींद की गोलियां बना चुकी है अपनी सरकार एक दिन गूंगा रह��े में क्या जाता है की जो ल���़कियां रुमाल पर कढ़ाई कर के लिखती थी मेरा नाम अब वो खरगोशों की मौत पर आंसू नहीं बहाती अब वो नोच लेती है उन खरगोशो के चमड़े से रुई और कानों में खोसकर बहरी हो जाती हैं, रात चाँद आसमान में उल्टा टंगा दिखाई देता है मेरी खिड़की से वो पागल लड़की फिर से पहने घूम रही है झुमके उलटे कर के अब उस पागल लड़की को रोना चाहिए की अब इस से ज्यादा बंजर नही होना चाहिए किसी लड़के का दिल अब इस तरह सूखने नहीं चाहिए फसले मोहब्बत की अब इतनी बारिश तो होनी चाहिए की लबालब भरा रहे किसी के लिये प्यार का ग्लास और वो यूँ ही नशे में पागल होके लिखता रहे कवितायेँ लेकिन वो खुद मोहब्बत नहीं करेगा कभी, क्योंकि उसे खशियाँ लुटानी है अब, प्रेम बांटना है, नही चाहिए उस खुदगर्ज को खुद के लिए कुछ भी, कुछ भी नहीं, और इसी के साथ ये रहा घड़ी की सुई पर हमारा फ़ेवरेट समय रात के 03:55, साथ देने के लिए हमारी प्यारी चाय, इस समय आप स्टेशन के अनोउंसमेन्ट के साथ झींगुर की आवाज़ें भी सुन सकते हैं, खैर आप भी आइये चाय पीजिए साथ में, ( Palak और Yamini दी, Nishant, Jha, Harshit, शिवा जी, Tiwari और Prabhu जी दद्दा रात्रि की तीसरे पहर में लिखी इस पोस्ट के बाद कौन कौन हमें पागल घोषित करने वाला है, बताइये जरूर और पहले चाय पीजिए आप सब ठंडी हो रही और हां शक्कर जरा ज्यादा हो गई, क्या पता जीवन में ही मिठास घोल जाये) आप सब की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में, माँ से पांचवी बार डाँट सुनने के बाद, लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हुए, प्यार भरी शुभ रात्रि/ब्रह्म मुहूर्त का शुभ प्रभात, राधे राधे जय श्री राम ©Er Ravisutanjani (at Wellesley Ganj)
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सिनेमा में दिवाली
बहुत ही सुन्दर और सारगर्भित लेख वर्ड फॉर्मेट में लेख इस फोटो के नीचे
हिंदी सिनेमा में तीज-त्योहारों को रोचक, मर्मस्पर्शी और नाटकीय अंदाज में प्रस्तुत करने की सुदीर्घ परंपरा रही है। लेकिन रूपहले परदे पर जितनी तवज्जो होली, गणेश उत्सव, नवरात्रि और स्वतंत्रता दिवस जैसे पर्व-त्योहारों को मिलती रही है, दीपावली को उसकी चौथाई भी नहीं मिल पाई है। गीत मिले भी, तो अधिकांश दर्द-भरे, जिनमें या तो विगत दिवाली की खुशियों से मौजूदा गमगीन दिवाली की तुलना की गई है (जैसे ‘नज़राना’ फिल्म का राजेन्द्र कृष्ण का लिखा गीत ‘एक वो भी दिवाली थी, एक यह भी दिवाली है, उजड़ा हुआ गुलशन है, रोता हुआ माली है’) या दूसरों के घर की रोशनी को देख अपने घर का रोना रोया गया है (जैसे ‘किस्मत’ फिल्म का कवि प्रदीप का लिखा गीत ‘घर घर में दिवाली है मेरे घर में अंधेरा’)। कभी ‘रतन’ की नायिका ‘आई दिवाली, आई दिवाली, दीप संग नाचे पतंग, मैं किसके संग मनाऊँ दिवाली’ के माध्यम से अपनी विरह वेदना प्रस्तुत करती है, तो कभी ‘पैगाम’ में जॉनी वाकर ‘कैसे दिवाली मनाएं हम लाला, अपना तो बारह महीने दिवाला’ गाते हुए अपनी गरीबी पर मीठा तंज करते हैं। श्वेत श्याम फिल्मों के उस दौर में ‘दीप जलेंगे दीप दिवाली आई हो’ (फिल्म: ‘पैसा’) जैसे खुशियों व उमंगों का आह्वान करने वाले गीत कम ही मिलेंगे। कुछ गीतों में दिवाली शाब्दिक रूप से तो नहीं, लेकिन दृश्य रूप में जरूर उपस्थित हुई है, जैसे ‘कभी खुशी कभी ग़म’ (2001) का शीर्षक गीत और ‘मोहब्बतें’ (2000) के ‘पैरों में बंधन है पायल ने मचाया शोर’। दूसरी ओर ‘जुगनू’ (1973) के ‘छोटे छोटे नन्हे मुन्ने प्यारे प्यारे रे’ में बच्चों को उजियारा बताते हुए ‘दीप दिवाली के झूठे’ कहा गया है। दीपावली पर सबसे सकारात्मक गीत ‘शिर्डी के साईं बाबा’ (1977) फिल्म में था: ‘दीपावली मनाई सुहानी मेरे साईं के हाथों में जादू का पानी’। इसी प्रकार ‘सच्चाई’ (1969) में दीपावली शब्द का उपयोग किए बिना दीपावली के रंग-बिरंगे दृश्यों से परिपूर्ण अद्भुत गीत ‘सौ बरस की ज़िंदगी से अच्छे हैं, प्यार के दो चार दिन’ था। शम्मी कपूर और साधना की खूबसूरत जोड़ी का दिवाली की आतिशबाजियों का आनंद लेते हुए मैसूर के महल के सामने जगमग रोशनी का आनंद लेना दर्शकों को चमत्कृत कर देता है। दीपावली पर ��ाद रखे जाने वाले इन मुट्ठी भर गीतों से इतर कोई अलौकिक श्रेणी का गीत है, तो वह है ‘हरियाली और रास्ता’ (1962) का यह गीत: लाखों तारे, आसमान में, एक मगर ढूंढे ना मिला देख के दुनिया की दिवाली, दिल मेरा चुपचाप जला मुकेश और लता मंगेशकर भारतीय सिने-संगीत इतिहास के सबसे मार्मिक और संवेदनशील गायक-गायिका रहे हैं। इस गीत में वे नायक-नायिका की वेदना को अपने गले से साकार कर देते हैं: क़िस्मत का है, नाम मगर है, काम है ये दुनिया वालों का फूंक दिया है चमन हमारे ख्वाबों और खयालों का जी करता है खुद ही घोंट दे, अपने अरमानों का गला देख के दुनिया की दिवाली, दिल मेरा चुपचाप जला अपनी कलम के माध्यम से जीवन दर्शन को चित्रित कर देने वाले शैलेंद्र यहाँ भी नायिका के पीड़ाजनक समय की तुलना सौ-सौ सदियों से करते हैं: सौ-सौ सदियों से लम्बी ये, गम की रात नहीं ढलती इस अंधियारे के आगे अब, ऐ दिल एक नहीं चलती हँसते ही लूट गयी चांदनी, और उठते ही चाँद ढला देख के दुनिया की दिवाली, दिल मेरा चुपचाप जला फिल्म संगीत में हमेशा आह्लाद भरे गीतों की धुन मस्ती में और दुःखी गीतों की धुन रोकल-धोकल अंदाज में बनाने की परंपरा रही है। जैसे ‘घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं’ (फिल्म: चोर मचाए शोर; संगीतकार: रवींद्र जैन), ‘मैं शायर बदनाम हो मैं चला’ (फिल्म: नमक हराम; संगीतकार: आर डी बर्मन) और ‘टूटे हुए ख्वाबों ने हमको ये सिखाया है’ (फिल्म: मधुमती; संगीतकार: सलिल चौधरी)। लेकिन शंकर-जयकिशन ऐसे संगीतकार रहे हैं, जो दुःखी और मनहूस गीतों की धुन भी इतनी तेज, आत्मीय और आह्लादकारी रचते थे कि गमगीन गीत सुनकर भी सूमड़ा नहीं हो पाता था। ‘हो आ, आ भी जा, रात ढलने लगी चाँद छुपने चला’ (तीसरी कसम) और ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (शीर्षक गीत) उसी श्रेणी के गीत हैं। आइए इस दीपावली पर चार मिनट का समय निकाल कर हम भी ‘लाखों तारे आसमान में’ सुनें और शब्दों की परवाह किए बिना महज धुन और प्रस्तुति से अपना मन-आंगन प्रसन्नचित्त कर लें। शशांक दुबे (भाई देवेन्द्र जोशी के कुशल संपादन में उज्जैन से प्रकाशित महत्वपूर्ण समाचार पत्र "साहित्य सांदीपनि" में प्रकाशित लेख की वर्ड प्रति)
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महान संगीत तपस्वी और जिंदादिल इंसान ... 'शंकरसिंह रामसिंह रघुवंशी' !!!
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Sudhakar Shahane
A Tribute To Shankar Ji of Shankar Jaikishan On His Birth Anniversary ...!
महान संगीत तपस्वी और जिंदादिल इंसान ... 'शंकरसिंह रामसिंह रघुवंशी' !!! १५ अक्टूबर १९२२ को 'शंकरसिंह रामसिंह रघुवंशी' का जन्म हुआ था ... बचपन से ही संगीत का बहुत शौक था, लगाव था ... तबला बजाने में वें माहिर थे,नृत्य भी सीखे थे ... युवावस्था में वें' १९४५ में हैदराबाद से बंबई आये थे, कृष्णनकुट्टी और हेमावती के बैले ट्रूप के साथ, जिसमें वें तबला बजाया करते थे ... तब उन्हें भी पता नहीं था क़ि, वें टिपिकल हिंदी फ़िल्म संगीत को नयी दिशा की ओर ले जानेवाले है ... कुछ दिनों बाद यह बैले ग्रुप 'पृथ्वी थिएटर' में शामिल हो गया ... स्वतंत्र रूप से संगीतकार बनने की चाहत, हसरत उनके मन में थी ही, इसी वजह से काम की तलाश करते हुए जयकिशन जी से मुलाक़ात हो गयी ...शंकर जी ने जयकिशन जी को पृथ्वी थिएटर में हारमोनियम बजाने के लिये कहा और १९ वर्षीय जय फ़ौरन मान गये ...पृथ्वी थिएटर में जय के साथ काम करते हुए उन्हें राज कपूर साहब की 'बरसात' में स्वतंत्र संगीत निर्देशन का मौका मिला और सबसे युवा संगीतकार 'SJ' की जोड़ी ने फिर कभी मुड़कर नहीं देखा ... अपनी अफ़लातून संगीतकला, प्रतिभा, साधना से शंकर जी ने २२ साल तक जय के साथ (१९४९ से १९७१) और फिर १९८७ तक अकेले ही संगीत क्षेत्र में अपनी बादशाहत बनाये रखी ... इस महान, शिस्तप्रिय, जिंदादिल शख़्स ने अपने जीवन में हर किसी की दिल से मदत की, नए गायक गायिकाओं को मौका दिया ... तबला और कुश्ती का शौक़ था, नृत्यकला में ��ी पारंगत थे ... 'फ़िल्म पटरानी' में नायिका 'वैजयंतीमाला' को नृत्य की बारीकियां, कुछ स्टेप्सभी उन्होंने समझाई थी, दर्जन भर साज भी बजाना सीखे थे ... इस हरहुन्नरी संगीतकार ने जयकिशन जी के साथ शास्त्रीय संगीत,अरेबिक संगीत और पाश्चात्य संगीत में नए नए सफल प्रयोग किये ... पारंपारिक वाद्यों के साथ नए साजों को प्रचलित किया और अभूतपूर्व सफलता हासिल की ! 'शंकर जी - जयकिशन जी - कविराज जी - हसरत साहब' संगीतक्षेत्र के चार आधारस्तम्भ थे ... SJ का संगीत मतलब फ़िल्म जबरदस्त हिट रहेगी यह समीकरण बन गया था उस दौर में ...SJ के संपूर्ण संगीत सफ़र में उनका मुक़ाबला खुद से ही था ... 'राज साहब', उनके छोटे भाई 'शम्मी कपूर', ज्युबिली कुमार 'राजेंद्र कुमार' इन नायकों का करिअर बनानेवाले SJ ही थे, 'दिलीप कुमार', 'देवआनंद' इन अग्रणी नायकों की फिल्में भी उनकी मधुर धुनों से सजे गीत संगीत से बेहद कामयाब रही ... राज साहब की फ़िल्म 'आवारा' के गीतों ने देश के साथ विदेशो में भी धूम मचा दी थी ... गीतों के Preludes और Interludes यह SJ की ख़ासियत थी, उनके संगीत में नज़ाकत थी जो सुनते ही मन को जकड लेती थी ...फ़िल्म 'बसंत बहार' में शास्त्रीय संगीत पर आधारित लाजवाब रचनाएँ बनाकर उन्होंने 'रागदारी पर भी हमारी हुक़ूमत है' इसकी बेहतरीन मिसाल पेश कर के, टीकाकारों को करारा जवाब दिया था ... 'बिनाका गीतमाला' (१९५२ से १९८७ ) इस लोकप्रिय हिंदी गीतों के रेडियो प्रोग्राम में SJ के १३८ 'सरताज़ गीत' थे ..इसी से उनकी लोकप्रियता का पता चलता है ... नौ बार फ़िल्म फेयर पुरस्कार जीतनेवाले 'SJ' भारत सरकार द्वारा 'पद्मश्री' पुरस्कार से सन्मानित होनेवाले पहले संगीतकार थे ! अपने जीवनकाल में शंकर जी संगीत से जुडे उस हर व्यक्ती से मिल कर कुछ न कुछ सीखते रहे ... सब से बड़ा साजों का और साजिंदों का ताफा उनके पास था ... सामाजिक कार्यों में हमेशा आगे रहते थे ...स्टेज प्रोग्राम कर के, उन्होंने देश की ख़ातिर फंड्स इकठ्ठा किये थे और अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाई थी ... जयकिशन जी के मृत्यु के पश्चात् शंकर जी ने जितनी भी फिल्मों में संगीत दिया और जो पारिश्रमिक मिला, उसमें से आधा हिस्सा जय जी की पत्नी 'पल्लवी' जी को पहुंचाया ... कविराज १९६६ में चले गये तो जयकिशन जी १९७१ में ...तनहा हो गये थे शंकरजी, लेकिन ��सरत साहब के साथ अन्य गीतकारों को लेकर उन का शानदार संगीत सफ़र चलता रहा उनके अंतिम वर्षों में कई दोस्तों ने उनका साथ छोड़ दिया था ... राज कपूर 'मेरा नाम जोकर' के बाद दूर हो गये थे, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार ने जब अपनी ख़ुद की फिल्मों का निर्माण किया तब अन्य संगीतकारों को मौका दिया ...उस वक़्त शायद यही ख़याल होगा उनके दिल में ... 'ना कोई इस पार हमारा ना कोई उस पार सजनवा बैरी हो गये हमार' शंकर जी के 'जन्म दिन' पर उन्हें सलाम ... विनम्र अभिवादन ! और भावपूर्ण श्रद्धांजलि !!!
Photo of Shankar
Photo of music director Shankar from his younger days
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आजकल शंकरजयकिशन के चर्चे हर जुबान पर 🎷🎷🎷
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आजकल सोशल मीडिया हो अथवा प्रिंट मीडिया सभी मे शंकरजयकिशन के चर्चे हो रहे है,एक भूचाल सा आ गया है,उनके कार्यक्रमो को आयोजित करवाने की होड़ लगी हुई है।गुजरे जमाने के प्रसिद्ध संगीतकार अथवा नए संगीतकार उनका यशोगान कर रहे है!क्योकि " हमने तो प्यार में ऐसा काम कर दिया,संगीत की राह में अपना नाम कर दिया" भूतकाल चला जरूर जाता है कभी लौटता भी नही?किन्तु उनकी स्मृतियों को वर्तमान जी भरकर जीता है।शंकरजयकिशन जो संगीत रच गए वर्तमान उसका आनंद भरपूर ले भी रहा है और आने वाले कल के लिए कई संदेश भी दे रहा है कि संगीत की वर्णमाला को समझना हो तो शंकरजयकिशन के संगीत को आत्मसात कर लेना।वर्तमान का मतलब अब से है आज से है?'अब'का परिचय वर्तमान की गहनता में है,वर्तमान का क्षण अब को परिभाषित करता है।इसमे संभावनाओं का अनूठापन है जैसा कि शंकरजयकिशन के संगीत में था,यही अनूठापन शंकरजयकिशन को समस्त संगीतकारो से अलग करता है। फ़िल्म ब्रह्मचारी शंकरजयकिशन की महत्वपूर्ण फिल्मो में शुमार की जाती है क्योकि इस फ़िल्म में उनके संगीत के विभिन्न रूप थे जो अत्यन्त आकर्षक व युगकालीन थे।इस फ़िल्म के एक गीत जिसे जनाब हसरत जयपुरी साहिब ने लिखा था तथा स्वर रफी व सुमन कल्याणपुर के थे को शम्मी कपूर तथा मुमताज पर फिल्माया गया था।इस गीत की खूबसूरती का यह आलम है कि इसका थिरकता संगीत आमजन को थिरकाने की क्षमता रखता है।यह गीत आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना तब था।तब और अब में भी जो जिंदा रहे वही महानता है।हज़ारों रचनाएं लिखी गई,काव्य लिखे गए और उनको लिखने वाले भी नही रहे किंतु वो लोग आज मरकर भी जिंदा है जिनके कार्यो में विशिष्ठता थी। शरद चंद्र जी का देवदास,बंकिमचंद्र जी का आनंद मठ, मुंशी प्रेमचंद का कफन,अमृता प्रीतम की वापसी आदि को आज भी याद किया जा रहा है किन्तु गुलशन नंदा को लोग भूल गए?यही बात शंकरजयकिशन के संगीत पर लागू होती है क्योकि उनके संगीत में अनूठापन था जो उन्हें कभी विस्मृत होने ही नही देता! 300,400,500,600 अथवा 700 फिल्मो में संगीत देने वाले न जाने कहाँ खो गए जबकि अपने काल मे यह सभी गुलशन नंदा थे?किन्तु कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम की भांति शंकरजयकिशन अंगद के पैर की भाँती जमे हुए है,क्योकि संख्या बल से अधिक महत्व कार्य की विशिष्ठता का होता है!आज चीन व भारत के पास विशाल जनसंख्या है किंतु पूरे विश्व मे इजराइल जैसे छोटे देश को इसलिए जाना जाता है कि वहाँ के प्रत्येक नागरिक में देशभक्ति का जो भाव है वह अन्य कही नही!सम्पूर्ण विश्व इजरायल का लोहा मानता है ठीक उसी प्रकार शंकरजयकिशन के संगीत का लोहा समस्त संगीतकार मानते है भले ही उन्होंने मात्र 187 फिल्मो में संगीत दिया हो। हमने तो प्यार में ऐसा काम कर दिया प्यार की राह में अपना नाम कर दिया।। दो छोटी छोटी पंक्तियॉ के मध्य संगीत के जो मोती शंकरजयकिशन ने लगाए है वह अदभूद है,हमने तो..फिर संगीत, प्यार में..फिर संगीत, ऐसा काम कर दिया..फिर संगीत, एक पंक्ति को सजाने में किंतना अनूठा प्रयोग जो शेष अंतरों में भी समान रूप से विद्यमान है।प्रिलुड का स्वरूप अलग,इंटरलुड का अलग,पोस्ट ल्यूड का अलग स्वरूप एक ही गीत में करना बहुत बड़ी बात है और गायक गायिका को उसी स्वरूप में गवाना कोई साधारण कार्य नहीं है,इस गीत का संगीत एक नज़ीर है। क्यो भला हम डरे दिल के मालिक है हम हर जनम में तुझे अपना माना सनम... सच मे ही शंकरजयकिशन दिलो के मालिक थे,उनकी नज़र सदा श्रेष्ठता पर ही रहती थी,इसीलये उनके चाहने वाले भी हर जनम में उनका ही संगीत सुनना पसंद करते है। * दो बदन एक जिस्म एक जान हो गए,मंज़िल एक हुई हमसफर बन गए * हसरत जयपुरी के इस गीत की उक्त पंक्तियॉ शंकरजयकिशन को सम्पूर्ण रूप से पारिभाषित कर देती है जिनके चर्चे आजकल हर जुबान पर है!एक ऐसा गीत जो आरम्भ से अंत तक मस्ती ही मस्ती देता है जिसमे युवाओं के दिल की धड़कनें है,जिन्हाने प्यार की राह में कदम रखे है,जो दिलो के मालिक है,डरने वाले नही है।इस गीत को सुनना अपने आप मे एक नशा है, एक ऐसा नशा जिसकी खुमारी उतरना असंभव है,यह बात सभी को मालूम है और सभी को खबर हो गई है। Shyam Shanker Sharma Jaipur,Rajasthan♥♥♥♥♥🎻
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82 वर्षीय परियों की रानी बॉलीवुड अभिनेत्री शकीला का बुधवार शाम(20/09/2017) को निधन हो गया. शकीला को दिल का दौरा पड़ा जिसके कारण उनकी मृत्यु हुई.उनकी अंतिम क्रिया गुरुवार की सुबह मुंबई के माहिम कब्रिस्तान में हुई. उनको गुरुदत्त की फिल्म 'आर पार' (1954) और 'सी.आई.डी.' के लिए याद किया जाता है। शकीला ने शक्ति सामंत की फिल्म 'चाईना टाउन' (1963) में अपने समय के प्रसिद्ध अभिनेता शम्मी कपूर के साथ अभिनय किया था। इस फिल्म का गीत 'बार बार देखो, हज़ार बार देखो...' आज तक लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है।फिल्म ‘आर पार’ से उनका गाना ‘बाबू धीरे चलना’ सबसे ज्यादा लोकप्रिय रहा है.अभिनेत्री शकीला का जन्म 1 जनवरी सन 1936 को हुआ था। उनका वास्तविक नाम 'बादशाहजहाँ' था। शकीला की छोटी बहन नूर भी अभिनेत्री थीं।उनकी बहन नूर ने जॉनी वॉकर से शादी की थी.उनकी सबसे छोटी बहन ग़ज़ाला (नसरीन) साधारण गृहणी थीं। शकीला जी के पिता का जल्द ही निधन हो गया था, उनकी बुआ फ़िरोज़ा बेगम ने उनका तथा बहनों का पालन-पोषण किया था।शकीला ने दास्तान(1950), ‘गुमास्ता’ (1951), ‘खूबसूरत’, ‘राजरानी दमयंती’, ‘सलोनी’, सिंदबाद द सेलर’ (सभी 1952) और ‘आगोश’, ‘अरमान’, ‘झांसी की रानी’ (सभी 1953) में बतौर बाल कलाकार अभिनय किया। सोहराब मोदी की फिल्म ‘झांसी की रानी’ में शकीला जी ने रानी लक्ष्मीबाई (अभिनेत्री मेहताब) के बचपन की भूमिका की थी। साल 1953 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘मदमस्त’ में वह पहली बार नायिका बनीं। इस फिल्म में उनके नायक एन.ए. अंसारी थे। फिल्म ‘मदमस्त’ को पार्श्वगायक महेंद्र कपूर की पहली फिल्म के तौर पर भी जाना जाता है। उन्होंने अपने कॅरियर का पहला गीत ‘किसी के ज़ुल्म की तस्वीर है मज़दूर की बस्ती’ इसी फिल्म में, गायिका धन इन्दौरवाला के साथ गाया था। साल 1953 में शकीला जी की बतौर नायिका दो और फिल्में ‘राजमहल’ और ‘शहंशाह’ प्रदर्शित हुईं।शकीला जी को असली पहचान साल 1954 में प्रदर्शित हुई सुपरहिट फिल्म ‘आरपार’ से मिली। इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक और नायक गुरु दत्त थे। ‘आरपार’ गुरु दत्त की बतौर निर्माता पहली फ़िल्म थी।फ़िल्म ‘आरपार’ में शकीला के अलावा एक और नायिका श्यामा भी थीं।शकीला जी ने ‘गुलबहार’, ‘लालपरी’, ‘लैला’, ‘नूरमहल’, ‘रत्नमंजरी’, ‘शाही चोर’, ‘हातिमताई’, ‘खुल जा सिमसिम’, ‘अलादीन लैला’, ‘माया नगरी’, ‘नागपद्मिनी’, ‘परिस्तान’, ‘सिमसिम मरजीना’, ‘डॉक्टर ज़ेड’, ‘अब्दुल्ला’ और ‘बगदाद की रातें’ जैसी कई फ़िल्मों में महिपाल, जयराज, दलजीत और अजीत जैसे नायकों के साथ काम किया।महिपाल के साथ उनकी जोड़ी को दर्शकों ने खूब पसंद किया। इस दौरान उन्होंने देव आनंद के साथ ‘सी.आई.डी.’ (1956), सुनील दत्त के साथ ‘पोस्ट बाक्स 999’ (1958), राज कपूर के साथ ‘श्रीमान सत्यवादी’ (1960), मनोज कुमार के साथ ‘रेशमी रूमाल’ (1961) और शम्मी कपूर के साथ ‘चायना टाऊन’ (1962) जैसी फ़िल्में भी कीं, लेकिन उनकी पहचान फैंटेसी फिल्मों की नायिका की ही बनी रही। शकीला जी ने 14 साल के अपने कॅरियर में कुल 72 फिल्मों में अभिनय किया। उनकी आख़िर�� फिल्म ‘उस्तादों के उस्ताद’ थी, जो साल 1963 में प्रदर्शित हुई थी।
शकीला जी के अनुसार- "साल 1966 में मेरी शादी हुई। मेरे शौहर अफ़ग़ानिस्तान के रहने वाले थे और भारत में अफ़ग़ानिस्तान के ‘कांसुलेट जनरल’ थे। शादी के बाद मैं शौहर के साथ जर्मनी चली गयी। क़रीब 25 साल मैंने जर्मनी और अमेरिका में बिताए। बीचबीच में मैं भारत आती-जाती रहती थी, जहां मेरा घर था, मेरी बहनें रहती थीं। फिर निजी वजहों से एक रोज़ मैं हमेशा के लिए भारत वापस लौट आयी।"
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