#रहीम दास का जन्म कब हुआ था?
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श्री साईं चालीसा SAI CHALISA LYRICS
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Sai Chalisa Lyrics in Hindi and english from the album Shri Sai Chalisa, sung by Raja Pandit, Harish Gwala, lyrics written by Dasganu and music created by Raja Pandit.
Sai Bhajan: Shri Sai Chalisa Lyrics Album: Shri Sai Chalisa Singers: Raja Pandit, Harish Gwala Lyrics: Dasganu Music: Raja Pandit Music Label: T-Series
Sai Chalisa Lyrics in Hindi
पहले साई के चरणों में,अपना शीश नमाऊं मैं | कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं || कौन है माता, पिता कौन है, यह ना किसी ने भी जाना | कहाँ जन्म साई ने धारा, प्रश्र्न पहेली रहा बना || कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं | कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं || कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई | कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई || शंकर समझे भकत कई तो, बाबा को भजते रहते | कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते || कोई भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान | बड़े दयालु दीनबंधु, कितनों को दिया जीवन दान || कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊँगा मैं बात | किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात || आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर | आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर || कई दिनों तक भटकता, भिक्षा मांग उसने दर-दर | और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर || जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान | घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान || दिग दिगंत में लगा गूँजने, फिर तो साई जी का नाम | दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम || बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूँ निर्धन | दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुख के बंधन || कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान | एवमस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान || स्वयं दुखी बाबा हो जाते, दीन-दुखीजन का लख हाल | अंत:करण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल || भकत एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान | माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान || लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो | झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो || कुलदीपक के बिना अँधेरा छाया हुआ घर में मेरे | इसलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणागत तेरे || कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया | आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया || दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूँगा जीवन भर | और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर || अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश | तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भकत को यह आशीष || 'अल्ला भला करेगा तेरा' पुत्र जन्म हो तेरे घर | कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर || अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार | पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार || तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार | सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार || मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास | साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस || मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी | तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी || सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था | दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था || धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलंब न था | बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था || ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भकत साई का था | जंजालों से मुकत मगर, जगत में वह भी मुझसा था || बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार | साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार || पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूर्ति | धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति || जब से किए हैं दर्शन हमने, दुख सारा काफूर हो गया | संकट सारे मिटे और, विपदाओं का अंत हो गया || मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से | प्रतिबिंबित हो उठे जगत में, हम साई की आभा से || बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में | इसका ही संबल ले मैं, हसंता जाऊँगा जीवन में || साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ | लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ || 'काशीराम' बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था | मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था || सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में | झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में || स्तब्ध निशा थी, थे सो��, रजनी आंचल में चांद सितारे | नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे || वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय! हाट से काशी | विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी || घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी | मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि पड़ी सुनाई || लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो | आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो || बहुत देर तक पड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में | जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में || अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साई | जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को पड़ी सुनाई || क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो | लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो || उन्मादी से इधर-उधर तब, बाबा लेगे भटकने | सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने || और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला | हुए सशंकित सभी वहाँ, लख तांडवनृत्य निराला || समझ गए सब लोग, कि कोई भकत पड़ा संकट में | क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ, पर पड़े हुए विस्मय में || उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है | उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनकी अंत:स्थल है || इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई | लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई || लेकर संज्ञाहीन भकत को, गाड़ी एक वहाँ आई | सन्मुख अपने देख भकत को, साई की आँखे भर आ || शांत, धीर, गंभीर, सिंधु-सा, बाबा का अंत:स्थल | आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल || आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी | और भकत के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी || आज भकत की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी | उसके ही दर्शन की खातिर थे, उमड़े नगर-निवासी || जब भी और जहाँ भी कोई, भकत पड़े संकट में | उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में || युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी | आपद्ग्रस्त भकत जब होता, जाते खुद अंर्तयामी || भेदभाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई | जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई || भेद-भाव मंदिर-मिस्जद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला | राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला || घंटे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना-कोना | मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना || चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी | और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी || सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया | जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया || ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे | पर्वत जैसा दुख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे || साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई | जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई || तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो | अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो || जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा | और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा || तो बाबा को अरे! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी | तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी || जंगल, जंगल भटक न पागल, और ढूढ़ने बाबा को | एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को || धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया | दुख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया || गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े | साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सबके रहो अड़े || इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान | दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान || एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया | भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया || जड़ी-बूटियाँ उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण | कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन || औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति | इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुख से मुक्ति || अगर मुकत होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से | तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से || लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी | यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी || जो है संतति हीन यहाँ यदि, मेरी औषधि को खाए | पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुँह मांगा फल पाए || औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा | मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहाँ आ पाएगा || दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो | अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो || हैरानी बढ़ती जनता की, देख इसकी कारस्तानी | प्रमुदित वह भी मन ही मन था, देख लोगों की नादानी || खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक | सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक || हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ | या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ || मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को | कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को || पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को | महानाश के महागर्त में पहुंचना, दूं जीवन भर को || तनिक मिला आभास मदारी, क���रूर, कुटिल अन्यायी को | काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को || पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर | सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर || सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में | अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में || स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर | बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर || वही जीत लेता है जगत के, जन जन का अंत:स्थल | उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विह्वल || जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है | उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है || पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के | दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के || ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर | समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर || नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने | दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने || सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई | पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई || सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान | सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान || स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे | बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे || कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे | प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, आनंदित वे हो जाते थे || रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मन्द -मन्द हिल-डुल करके | बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे || ऐसी सुमधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे | अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे || सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे | दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे || जाने क्या अद्भुत शक्ति, उस विभूति में होती थी | जो धारण करते मस्तक पर, दुख सारा हर लेती थी || धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए | धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए || काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता | वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता || गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर | मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर ||
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भारतीय इतिहास से सम्बंधित कुछ सामान्य ज्ञान के प्रश्न और उत्तर जो आपको रेलवे, बैंकिंग, क्लर्क, एसएससी इत्यादि परीक्षा में मदद कर सकता है।
· ‘जो चित्रकला का शत्रु है वह मेरा शत्रु हैं’ किस मुगल शासक ने कहा था - जहाँगीर ने
· ‘जो चित्रकला का शत्रु है वह मेरा शत्रु हैं’ किस मुगल शासक ने कहा था - जहाँगीर ने
· ‘दीन पनाह’ नगर की स्थापना किसने की - हुमायूँ ने
· ‘भानुचंद्र चरित’ की रचना किसने की - सिद्धचंद्र ने
· ‘मयूर सिंहासन’ का निर्माण किसने कराया था - शाहजहाँ
· ‘लौहगढ़’ नामक किला किसने बनवाया - बंदा बहादुर
· ‘सहायक संधि’ प्रणाली के जनक कौन थे - लॉर्ड वेलेजली
· ‘सुरक्षा प्रकोष्ठ नीति’ किससे संबंधित है - वॉरेन हेस्टिंग्स
· ‘स्थायी बंदोबस्त’ का सिद्धांत किसने दिया - लॉर्ड कॉर्नवालिस
· अंतिम रूप से किस मुगल बादशाह ने ‘जजिया कर’ को समाप्त किया - मोहम्मद शाह ‘रंगीला’
· अकबर ने ‘कठाभरणवाणी’ की उपाधि किस संगीतज्ञ को दी थी - तानसेन
· अमृतसर की संधि किस नदी के दोनों ओर के राज्य क्षेत्रों के बीच सीमा निर्धारित करती थी - सतलज नदी
· अवध के स्वायत्त राज्य की संस्थापक कौन था - सादत खाँ ‘बुरहान-उन-मुल्क’
· इलाही संवत् की स्थापना किसने की - अकबर ने
· एतामद-उद-दौला का मकबरा कहाँ है - आगरा
· एतामद-उद-दौला का मकबरा किसने बनवाया था - नूरजहाँ ने
· किस जाट राजा को ‘जाटों का अफलातून एवं आदरणीय व विद्धान व्यक्ति’ कहा जाता है - सूरजमल
· किस भारतीय कोरॉबर्ट क्लाइव ने बिहार की दीवान बनाया - राजा शिताबराय
· किस मध्यकालीन शासक ने ‘पट्टा एवं कबूलियत’ की प्रथा आंरभ की थी - शेरशाह ने
· किस मुगल बादशाह के आदेश पर बंदा बहादुर की हत्या की गई - फर्रुखसियर
· किस राजपूताना राज्य ने अकबर की संप्रभुत्ता स्वीकार नहीं की थी - मेवाड़
· किस विद्धान मुसलमान का हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है - अब्दुल रहीम खान-ए-खाना
· किस शासक ने ‘नूरुद्दीन’ की उपाधि धारण की - जहाँगीर ने
· किस शासक ने न्यान के लिए अपने महल में सोने की जंजीर लगवाई - जहाँगीर ने
· किसके निर्देशन में ‘महाभारत’ का फारसी अनुवाद हुआ - फैजी
· किसके समय में कलकत्ता उच्च न्यायालय की स्थापना की गई - वॉरेन हेस्टिंग्स
· किसने ‘निसार’ नामक सिक्के का प्रचलन किया - जहाँगीन ने
· किसने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थापित की - मीर कासिम
· किसने ग्रामीण जाटों को एक सैनिक शक्ति के रूप में संगठित किया - चूरामन (चूड़ामणि)
· कौन-सा बादशाह अपनी उदारता के कारण कलंदर के नाम से प्रसिद्ध था - बाबर
· कौन-सा बादशाह सप्तहा के सातों दिन अलग-अलग कराया - हुमायूँ
· गोद प्रथा प्रतिबंध किस गवर्नर जनरल ने लगाया था - लॉर्ड डलहौजी ने
· चंदेरी का युद्ध किस-किस के मध्य हुआ - बाबर और मेदिनीराय के मध्य
· जहीरुद्दीन बाबर का जन्म कहाँ और कब हुआ - 1483 ई. में, फरगाना
· टीपू सुल्तान की मृत्यु कब हुई - 1799 ई.
· ठगों का दमन किसने किया - कर्नल स्लीमेन
· डिंडीगुल क्या है - तमिलनाडु के एक शहर का नाम
· डेनमार्क की प्रथम व्यापारिक कंपनी का गठन कब हुआ - 1616 में
· दास प्रथा का अंत कब और किसने किया - 1562 में, अकबर ने
· धरमत का युद्ध कब हुआ - 1628 ई.
· धरमत का युद्ध किस-किस के बीच हुआ - औरंगजेब व दारा शिकोह के बीच
· पंजाब के राज रणजीत सिंह की राजधानी कहाँ थी - लाहौर
· पंजाब में सिख राज्य के संस्थापक कौन थे - रणजीत सिंह
· पानीपत के द्वितीय युद्ध में किसकी पराजय हुई - विक्रमादित्य
· प्रशासनिक अव्यवस्था के आधार पर डलहौजी ने कौन-सा राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया था - अवध
· फतेहपुर सीकरी में बुलंद दरवाजे का निर्माण किसने कराया - अकबर ने
· बक्सर के युद्ध (1764 ई.) के समय दिल्ली का शासक कौन था - शाहआलम II
· बाबर के वंशजों की राजधानी कहाँ थी - समरकंद
· बाबर ने अपनी आत्मकथा किस भाषा में लिखी - तुर्की भाषा में
· बुलंद दरवाजे का निर्माण कब पूरा हुआ - 1575 में
· ब्रिटिश भारतीय राज्य क्षेत्र के विस्तार का अंत किसके समय में हुआ - डफरिन के समय
· भारत के किस गवर्नर जनरल के समय सिंध का विलय अंग्रेजी राज्य में किया गया - लॉर्ड एलनबरो
· भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव कब पड़ी - 1835 ई.
· भारत में डाक टिकट किसने आरंभ किए - लॉर्ड डलहौजी
· भारत में सहायक संधि का जन्मदाता कौन है - डुप्ले
· महाराणा रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी कौन थे - खड़क सिंह
· महारानी विक्टोरिया का घोषणा-पत्र किसने पढ़कर सुनाया - लॉर्ड कैनिंग
· मुगल काल में किस बंदरगाह को ‘बाबुल मक्का’ कहा जाता था - सूरत
· मुगल सम्राट अकबर के समय का प्रसिद्ध चित्रकार कौन था - दशवंत
· रणजीत सिंह ने किस स्थान पर अधिकार करने के बाद ‘महाराजा’ की उपाधि धारण की - लाहौर
· रणजीत सिंह व अंग्रेजों के बीच कौन-सी संधि हुई - अमृतसर की संधि
· रण्जीत सिंह किस मिसल से संबंधित थे - सुकरचकिया
· सहायक संधि को सुनिश्चित एवं व्यापक स्वरुप किसने प्रदान किया - लॉर्ड वेलेजली
· सिंध विजय का श्रेय किसे दिया जाता है - सर चाल्र्स नेपियर
· हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर का क्या उद्देश्य था - राणा प्रताप को अपने अधीन लाना
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Maghar
नाम की उत्पत्ति
भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग को बेहिचक सन्तों की कर्मभूमि कहा जा सकता है। इसी भाग के प्रमुख शहर गोरखपुर के पश्चिम में लगभग तीस किलोमीटर दूर संत कबीर नगर ज़िला (5 सितम्बर 1997 में बस्ती ज़िला को तोड़ कर बना) में स्थित है मगहर। इस कस्बे के एक छोर पर आमी नदी बहती है। मगहर नाम के पीछे किंवदन्ती भी रोचक है। मगहर का नाम कैसे पड़ा इस बारे में कई जनश्रुतियां हैं जिनमें एक यह है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग से कपिलवस्तु, लुम्बिनी जैसे प्रसिध्द बौद्ध स्थलों के दर्शन हेतु जाते थे और भारतीय स्थलों के भ्रमण के लिए आने पर इस स्थान पर घने वनमार्ग पर लूट-हर लिया जाता था। इस असुरक्षित रहे क्षेत्र का नाम इसी वजह से 'मार्ग-हर' अर्थात 'मार्ग में लूटने वाले से' पङ ग़या जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर मगहर बन गया। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार मगधराज अजातशत्रु ने बद्रीनाथ जाते समय इसी रास्ते पर पड़ाव डाला और अस्वस्थ होने के कारण कई दिन तक यहां विश्राम किया जिससे उन्हें स्वास्थ्य लाभ हुआ और शांति मिली। तब मगधराज ने इस स्थान को मगधहर बताया। इस शब्द का मगध बाद में मगह हो गया और यह स्थान मगहर कहा जाने लगा। कबीरपंथियों और महात्माओं ने मगहर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- मर्ग यानी रास्ता और हर यानी ज्ञान अर्थात ज्ञान प्राप्ति का रास्ता। यह व्युत्पत्ति अधिक सार्थक लगती है क्योंकि यदि देश को साम्प्रदायिक एकता के सूत्र में बांधना है तो इसी स्थान से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के समीप बस्ती से 43 किलोमीटर और गोरखपुर से 27 किलोमीटर दूरी पर स्थित मगहर 1865 तक गोरखपुर ज़िले का एक गांव था। बाद में यह बस्ती ज़िले में शामिल हो गया। तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती ने सितम्बर 1997 में बस्ती ज़िले के कुछ भागों को अलग करके संत कबीर नगर नाम से नए ज़िले के सृजन की घोषणा की जिनमें मगहर भी था। उसी दिन मायावती ने संत कबीर दास की कांस्य प्रतिमा का अनावरण भी किया।
मगहर और कबीर
संत कबीर दास
जब हम राष्ट्रीय राजमार्ग पर बस्ती से गोरखपुर की तरफ चलते है तो राष्ट्रीय राजमार्ग से दाहिने जाती हुई सडक़ पर उतर कर दो-ढाई किलोमीटर अंदर स्थित है कबीर का निर्वाण स्थल। मगहर का पूरा इलाका मेहनतकश तबकों से आबाद है और पूरी ज़िदंगी पाखण्ड और पलायन पर आधारित धर्म के विपरीत कर्म और अन्तर्दृष्टि पर आधारित धर्म पर ज़ोर देने वाले कबीर के शरीर छोडने के लिए शायद इससे बेहतर इलाका नहीं हो सकता था। वैसे भी कबीर का मरना कोई साधारण रूप से मरना तो था नहीं।
जा मरने सो जग डरे, मेरे मन आनन्द, कब मरिहों कब भेटिहों, पूरण परमानन्द
कबीर का काशी से मगहर आना
कबीर के समय में काशी विद्या और धर्म साधना का सबसे बड़ा केन्द्र तो था ही, वस्त्र व्यवसायियों, वस्त्र कर्मियों, जुलाहों का भी सबसे बड़ा कर्म क्षेत्र था। देश के चारों ओर से लोग वहां आते रहते थे और उनके अनुरोध पर कबीर को भी दूर-दूर तक जाना पड़ता था। मगहर भी ऐसी ही जगह थी। पर उसके लिए एक अंध मान्यता थी कि यह ज़मीन अभिशप्त है। कुछ आड़ंबरी तथा पाखंड़ी लोगों ने प्रचार कर रखा था कि वहां मरने से मोक्ष नहीं मिलता है। इसे नर्क द्वार के नाम से जाना जाता था, तथा जिसके बारे में लोकमान्यता थी कि वहां मरने वाला गधा होता है। सारे भारत में मुक्तिदायिनी के रूप में मानी जाने वाली काशी को वहीं अपने जीवन का अधिकांश भाग बिता चुके कबीर ने मरने से क़रीब तीन वर्ष पूर्व छोड दिया और ऐसा करते हुए कहा भी- लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कौन निहोरा रे उन्हीं दिनों मगहर में भीषण अकाल पड़ा ऊसर क्षेत्र, अकालग्रस्त सूखी धरती, पानी का नामोनिशान नहीं। सारी जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। तब खलीलाबाद के नवाब बिजली ख़ाँ ने कबीर को मगहर चल कर दुखियों के कष्ट निवारण हेतु उपाय करने को कहा। वृद्ध तथा कमज़ोर होने के बावजूद कबीर वहां जाने के लिए तैयार हो गये। शिष्यों और भक्तों के ज़ोर देकर मना करने पर भी वह ना माने। मित्र व्यास के यह कहने पर कि मगहर में मोक्ष नहीं मिलता है, लेकिन स्थान या तीर्थ विशेष के महत्त्व की अपेक्षा कर्म और आचरण पर बल देने वाले कबीर ने काशी से मगहर प्रस्थान को अपनी पूरी ज़िंदगी की सीख के एक प्रतीक के रूप में रखा और स्पष्ट किया - क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा । जो कबीर क���शी मरे, रामहीं कौन निहोरा सबकी प्रार्थनाओं को दरकिनार कर उन्होंने वहां जा कर लोगों की सहायता करने और मगहर के सिर पर लगे कलंक को मिटाने का निश्चय कर लिया। उनका तो जन्म ही हुआ था रूढियों और अंध विश्वासों को तोड़ने के लिए ।
कबीर की मजार और समाधि
संत
कबीरदास
की मजार और समाधि
मगहर पहुंच कर उन्होंने एक जगह धूनी रमाई। जनश्रुति है कि वहां से चमत्कारी ढंग से एक जलस्रोत निकल आया, जिसने धीरे-धीरे एक तालाब का रूप ले लिया। आज भी इसे गोरख तलैया के नाम से जाना जाता है। तालाब से हट कर उन्होंने आश्रम की स्थापना की। यहीं पर जब उन्होंने अपना शरीर छोड़ने का समय निकट आने पर संत कबीर ने अपने शिष्यों को इसकी पूर्वसूचना दी। शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। सारी ज़िंदगी साम्प्रदायिक संकीर्णता और उस संकीर्णता के प्रतीक चिह्नों से ऊपर उठकर सही मार्ग पर चलने का उपदेश अपने शिष्यों को देने वाले कबीर के शरीर छोडते ही उनके शिष्य उसी संकीर्णता के वशीभूत होकर गुरु के शरीर के अन्तिम संस्कार को लेकर आमने-सामने खडे हो गए। हिन्दू काशी (रीवां) नरेश बीरसिंह के नेतृत्व में शस्त्र सहित कूच कर गए और उधर मुसलमान नवाब बिजली ख़ाँ पठान की सेना में गोलबंद हो गए । विवाद में हिन्दू चाहते थे कि कबीर का शव जलाया जाए और मुसलामान उसे दफनाने के लिए कटिबध्द थे। पर सारे विवाद के आश्चर्यजनक समाधान में शव के स्थान पर उन्हें कुछ फूल मिले । आधे फूल बांटकर उस हिस्से से हिन्दुओं ने आधे ज़मीन पर ग���रु की समाधि बना दी और मुसलमानों ने अपने हिस्से के बाकी आधे फूलों से मक़बरा तथा आश्रम को समाधि स्थल बना दिया गया। पर यहां भी तंगदिली ने पीछ नहीं छोड़ा है। इस अनूठे सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के भी समाधि और मजार के बीच दिवार बना कर दो टुकड़े कर दिये गये हैं। वैसे भी यह समाधि स्थल उपेक्षा का शिकार है। क्या पता, इस पूरे प्रकरण पर अपने 'पूरण परमानन्द' तक पहुंच चुके कबीर एक बार फिर कह उठे होंगे।
राम रहीम एक हैं, नाम धराया दोय, कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम पङो मति कोय॥
कबीर की मजार और समाधि मात्र सौ फिट की दूरी पर अगल-बगल में स्थित हैं। समाधि के भवन की दीवारों पर कबीर के पद उकेरे गए हैं। इस समाधि के पास एक मंदिर भी है जिसे कबीर के हिन्दू शिष्यों ने सन् 1520 ईस्वी में बनवाया था। समाधि से हम मजार की ओर चले। मजार का निर्माण समय सन् 1518 ईस्वी का बताया जाता है। कबीर की मजार के ठीक बगल में उनके शिष्य और स्वयं पहुंचे हुए फ़कीर कमाल साहब की मजार है। कबीर की मजार में प्रवेश करने के लिए चार फिट से भी कम ऊंचाई का एक छोटा सा द्वार है। समाधि स्थल से थोडी ही दूरी पर कबीर की गुफा है जो उत्तर प्रदेश शासन के पुरातत्त्व विभाग द्वारा संरक्षित है । पर यह मूल कबीर-गुफा नहीं है और संभवत: मूल गुफा का जीर्णोद्वार कर दो शताब्दी पूर्व अस्तित्व में आई थी। ज़मीन के नीचे साठ सीढियां उतरकर गुफा तक पहुंचना होता है। कहते हैं कि साधना और एकान्तवास में कबीर कभी-कभी इस गुफा में प्रवेश कर जाते थे। बाद में कबीरपंथियों ने साधना के लिए इसका उपयोग किया पर अब ये बंद है और एक बार फिर जीर्णोद्धार की प्रतीक्षा कर रही है। मगहर में संत कबीर के निर्वाण स्थल का पूरा परिसर वर्तमान समय में सत्ताईस एकड में फैला हुआ है। इसमें 1982 में अधिग्रहीत कर उद्यान के रूप में परिवर्तित की गई पंद्रह एकड क़ी ज़मीन शामिल है। परिसर में वृक्ष अच्छी संख्या में लगे हैं और सडक़ से परिसर के भीतर प्रवेश करते ही दोनों ओर लगे हुए विशालकाय वृक्ष एक सुकून भरन एहसास देते हैं। कबीरपंथियों की मूल गद्दी वाराणसी का कबीरचौरा मठ है। इसी गद्दी की छत्रछाया में अवस्थित बलुआ मठ के वर्तमान महंत विचार दास मगहर के कबीर निर्वाण स्थल का पूरा संचालन करते हैं। वे अच्छे विद्वान हैं एवं काशी विद्यापीठ से हिन्दी में स्नाकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त हैं। कबीर आश्रम में सफ़ेद वस्त्रों में बेहद सादे ढंग से काया को ढके हुए कबीरपंथी पूरे परिसर में सेवा देते हुए नज़र आए। महिलाएं सफ़ेद साडी में और पुरुष धोती आधी उल्टी कर बांधे हुए। चेहरे पर सज्जनता और गले में कण्ठी। संत कबीर के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने और कबीर साहित्य के प्रकाशन के उद्देश्य से 1993 में तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने संत कबीर शोध संस्थान की स्थापना कराई थी। मगहर में हर साल तीन बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिनमें 12-16 जनवरी तक मगहर महोत्सव और कबीर मेला, माघ शुक्ल एकादशी को तीन दिवसीय कबीर निर्वाण दिवस समारोह और कबीर जयंती समारोह के अंतर्गत चलाए जाने वाले अनेक कार्यक्रम शामिल हैं। मगहर महोत्सव और कबीर मेला में संगोष्ठी, परिचर्चाएं तथा चित्र एवं पुस्तक प्रदर्शनी के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं । कबीर जयंती समारोह में अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से संत कबीर के संदेशों का प्रचार-प्रसार किया जाता है। महंत विचार दास ने बताया कि इनके अलावा कबीर मठ सात प्रमुख गतिविधियां संचालित करता है जिनमें संगीत, सत्संग एवं साधना, कबीर साहित्य का प्रचार-प्रसार, शोध साहित्य, कबीर बाल मंदिर संत आश्रम एवं गोसेवा तथा वृद्धाश्रम और यात्रियों की आवासीय व्यवस्था शामिल हैं। संत कबीर के आदर्श के अनुरूप ही कबीरपंथी साधुओं ने मगहर में जनकल्याण हेतु कई संस्थाओं की स्थापना की है। शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से पहल की गई है और क़रीब पचास वर्ष पूर्व पंजीकृत शिक्षा समिति के तत्वाधान में आसपास के क्षेत्रों में एक दर्जन से अधिक महाविद्यालय, इण्टर कॉलेज, जूनियर हाई स्कूल इत्यादि चलाए जा रहे हैं। प्रशंसनीय बात यह है कि अनाथ बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए नि:शुल्क व्यवस्था पर अतिरिक्त आग्रह है। प्रयास संगीत समिति से मान्यता प्राप्त एक संगीत महाविद्यालय भी चलाया जा रहा है जिसमें कबीर तथा अन्य संतों के पदों पर आधारित संगीत रचनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
मगहर महोत्सव
मकर संक्राति के अवसर पर आयोजित होने वाले मगहर महोत्सव का इतिहास काफ़ी पुराना है। पहले इस दिन एक दिन का मेला लगता था। सन् 1932 में तत्कालीन कमिश्नर एस.सी.राबर्ट ने मगहर के धनपति स्वर्गीय प्रियाशरण सिंह उर्फ झिनकू बाबू के सहयोग से यहां मेले का आयोजन कराया था। राबर्ट जब तक कमिश्नर रहे तब तक वह हर साल इस मेले में सपरिवार भाग लेते रहे। उसके बाद 1955 से 1957 तक लगातार तीन साल भव्य मेलों का आयोजन किया गया । सन् 1987 में इस मेले का स्वरूप बदलने का प्रयास शुरू किया गया और 1989 से यह महोत्सव सात दिन और फिर पांच दिन का हो गया। इस महोत्सव में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचार गोष्ठी, कबीर दरबार, कव्वाली, सत्संग, भजन, कीर्तन तथा अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे आयोजित किए जाते हैं। माघशुक्ल एकादशी पर आयोजित कबीर-निर्वाण दिवस समारोह भी महत्त्वपूर्ण है। संत कबीर शोध संस्थान परिसर में ही स्थित है और यहां शोध के अभिलाषी छात्रों के लिए सारी व्यवस्था का खर्च संस्थान ही उठाता है। संस्थान द्वारा संचालित पुस्तकालय भी है। संतों की बानी पर केन्द्रित प्राचीन पाण्डुलिपियां अगर इस संस्थान में सुनियोजित रूप से संरक्षित की जा सकें तो शोध को नया आयाम मिल सकता है। किंवदंती कहते है कि साधुओं और भक्तों की सुविधा के लिए कबीर ने जल की धारा उल्टी मोडक़र आश्रम के निकट से बहा दी थी। पुराने जमाने में आमी ��े जल की महत्ता थी और माना जाता था कि इसमें स्नान करने से असाध्य चर्मरोग दूर हो जाते हैं। आज भी कबीर निर्वाण दिवस पर श्रध्दावश इसके जल से स्नान किया जाता है।
मगहर मे राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम
11 अगस्त, 2003 की बात है, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम मगहर आए थे। मिसाइल मैन अब्दुल कलाम ने भी उस समय मगहर की दुर्दशा को महसूस किया था। अपनी पीड़ा को उन्होंने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था कि मगहर को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाया जाना चाहिए। कबीर के विचार और संदेश आज के दौर में पहले से अधिक प्रासंगिक हैं। कलाम के प्रयासों से एक लाख रुपया समाधि स्थल और एक लाख रुपया मजार स्थल को विकसित करने के लिए मिला था। वह दिन है और आज का समय, शासन स्तर से कोई मदद मगहर को नहीं मिली।
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