#बच्चों की ड्राइंग क्लास हो��ी है
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Primary Government School, Domri | Varanasi
माता-पिता जब अपने बच्चे के स्कूल एडमिशन की सोचते हैं तो न केवल राज्य के बल्कि देश के सर्वश्रेष्ठ स्कूलों की खोज करते हैं| जहां कुछ माता-पिता अपने बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए उन्हें घर से दूर बोर्डिंग स्कूल तक भेज देते हैं और वही कुछ अभिवावक अपने बच्चो को अपने शहर में ही सुविधाओं से लैस स्कूल खोजते हैं| लेकिन जो गरीब लोग हैं, जो इन सुविधाओं से लैस स्कूलों में अपने बच्चों के दाखिला का सोच भी नहीं सकतें वो लोग अपने बच्चों को सरकारी या प्राइमरी स्कूलों में भेजतें हैं|
सरकारी स्कूल का नाम आते ही एक खंडहरनुमा स्कूल, गायब शिक्षक, थोड़े से गांव के मैले कुचले बच्चे, बैठने के लिए कुछ के पास सिर्फ टाट पट्टी, स्टेशनरी के नाम पर फटी पुरानी किताबें और लगभग शून्य पढ़ाई का ख्याल आता है। प्राइमरी स्कूलों की इस हालत से पूरा देश वाकिफ है| किस तरह प्रधान अध्यापक, अधिकारी स्कूलों को मिले हुए सरकारी पैसों का इस्तेमाल अपने घरों को चमकाने में करतें हैं और रही सही कसर महीनों छुट्टी पर रह कर टीचर जी निकल देते हैं|
पर इस फेहरिस्त में कई ऐसे स्कूल भी हैं जो प्राइमरी स्कूल का नाम ऊँचा करतें है|
बनारस के मुख्य शहर से करीब 10 से 12 किलोमीटर दूर, गंगा के उस पार बसा छोटा सा गाँव है, “डोमरी”| उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री यो��ी जी ने इसी गाँव को गोद लिया है| इस गाँव में खेत-खलिहान, न��ी-तालाब, हरियाली, खुले मैदान, शुद्ध-ताज़ी हवा और हर वो चीज़ है जो इसे गाँव बनाती है| लेकिन इस गाँव को हर गाँव से अलग और आधुनिक बनाता है यहाँ का सरकारी प्राइमरी स्कूल, यहा का प्राइमरी स्कूल किसी प्राइवेट स्कूल से कम नहीं है| इस प्राइमरी स्कूल में हर वो सुविधा है जो एक प्राइवेट स्कूल में होती है| बड़े बड़े और साफ-सुथरा क्लास रूम, रंग बिरंगी टेबल-कुर्सियां, बच्चों के बनाये चार्ट पेपर्स से सजे दिवार, स्मार्ट क्लासेज, प्रोजेक्टर स्क्रीन, कंप्यूटर लैब, लाइब्रेरी, लड़के-लड़कियों के लिए अलग- अलग और साफ-सुथरे टॉयलेट, हाथ धुलने के लिए हैण्ड वाश, पीने के लिए मिनरल वाटर, पोषकतत्त्वों से भरपूर मिड-डे-मील और खेलने-कूदने के लिए बड़ा सा मैदान है|
बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले और वो अपना भविष्य बना सकें इसके लिए इस स्कूल में स्मार्ट क्लासेज ली जाती है, आधुनिकता के इस दौर में ये बच्चे भी पीछे ना रह जायें इसलिए इन्हें बेसिक कंप्यूटर की भी शिक्षा दी जाती है, नैतिक शिक्षा के लिए प्रोजेक्टर स्क्रीन पर हर सप्ताह में बच्चों को एक कार्टून फिल्म दिखाई जाती है और उससे कुछ
सीखने की प्रेरणा दी जाती है| लाइब्रेरी में अलग-अलग क्लास के बच्चों के लिए लाल, पीली और नीली किताबें रखी गयी हैं, लाइब्रेरी में ही बच्चें ड्राइंग और अतिरिक्त पाठ्यक्रम सम्बन्धी कार्य करते हैं| बच्चे चार्ट पेपर पर कलाकारी कर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं बाद में उन चार्ट पेपर्स को क्लास की, बालकनी की और लाइब्रेरी की दीवारों पर चिपकाया जाता है|
स्कूल में बन मिड डे मील पोषक तत्त्वों से भरपूर हो इसका पूरा ध्यान रखा जाता है| मिड डे मील का भोजन स्कूल के प्रधान अध्यापक, टीचर, कर्मचारी सब साथ बैठ कर खातें हैं| यहाँ भी प्री-एडमिशन का का ताँता लगा रहता है पर सीट की कमी के कारण बच्चों को अपने दाखिले का इंतज़ार करना पढता है|
कुछ अपवादों को छोड़ दे तो इस स्कूल में हर वो सुविधा है, जो एक अच्छे निजी स्कूल में होती है|
बीते पांच साल के आंकड़ों पर गौर करें, तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में लगभग 17 लाख बच्चों की कमी आई है। साल 2012-13 में 134.12 लाख, 2013-14 में 130.54 लाख, 2015-16 में 125.48 लाख, तो 2016-17 में 116.93 लाख बच्चे रह गए। लोगों की सरकारी स्कूलों के प्रति धारणा भी अच्छी नहीं है। ऐसा तब है जब सरकार फ्री किताब, यूनिफॉर्म, मिड डे मील, सब कुछ दे रही है।
बदलाव लाने के लिए लगन और मेहनत की भी जरूरत है। उत्तर प्रदेश सरकार ने 2018 के बजट में 181 अरब रुपये सर्व शिक्षा अभियान के लिए आवंटित किए। फ्री किताबों के लिए 76 करोड़ और फ्री यूनिफॉर्म के लिए 40 करोड़। स्कूल में मिड डे मील के लिए 20.5 अरब और बच्चों में फल बंटवाने के लिए 167 करोड़ रुपये दिए। इसके अलावा प्राथमिक विद्यालयों में 500 करोड़ रुपये से फर्नीचर, पीने का पानी और बाउंड्री वॉल बनवाने की बात कही गई है।
वास्तविक हालात लेकिन भिन्न हैं। कुछ शिक्षक हैं और स्कूल हैं जो मेहनत करते हैं, लेकिन ज्यादातर शिक्षक कोई पहल नहीं करते। प्राथमिक शिक्षा गांव में ग्राम शिक्षा समिति के माध्यम से चलती है, जिसमें ग्राम प्रधान अध्यक्ष और प्रधानाध्यापक सचिव होता है। बहुत से गांवों में स्कूल का खाता सिर्फ इस वजह से नहीं चल पाता क्योंकि दोनों में बनती नहीं और स्कूल ठप्प हो जाता है।
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