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पांडव महायज्ञ टिहरी के बमणगांव में समापन: माता कुंती ने दिये उपस्थित भक्तों को जस के ज्यूंदाल
पांडव महायज्ञ टिहरी के बमणगांव में समापन: माता कुंती ने दिये उपस्थित भक्तों को जस के ज्यूंदाल गजा: पांडव महायज्ञ टिहरी के बमणगांव में समापन हो गया है, इस मौके पर माता कुंती ने उपस्थित भक्तों को जस के ज्यूंदाल देकर आशीर्वाद दिया। क्वीली पट्टी के मणगांव न्याय पंचायत के ग्राम बमणगांव में 9 दिनों तक चलने वाले पांडव कथा महायज्ञ का रविवार को विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना के बाद संपन्न हो चुका…
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मनमुखी ज्ञान VS तत्वज्ञान | बड़ी बहस | SA NEWS
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Sant Rampal Ji Maharaj
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*🙏🏻 सतगुरु देव जी की जय हो 🙏
*होले सुहागन सुरुता तैयार ।
मालिक घर जाना है
*🙏परमात्मा की अमृतवाणी :-*
👑पूर्ण ब्रह्म कबीर पर्मेश्वर जी👑 की अमृतवाणी*
✨
मन तूं सुख के सागर बसि रे, और न ऐसा जस रे।।✨🙏🏻*
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मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हर्क हर्क जस गायो पायो जी मैंने राम रतन धन पायो
श्री कृष्णा गोविंद हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवा
एक मात्र स्वामी सखा ��मारे हे नाथ नारायण वासुदेवा
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय🦚ᕫ🙏
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Lord Hanuman chalisa
श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि बरनऊं रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि बुद्धिहीन तनु जानिके सुमिरौं पवन कुमार बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं हरहु कलेस बिकार जय हनुमान ज्ञान गुन सागर जय कपीस तिहुं लोक उजागर रामदूत अतुलित बल धामा अंजनि पुत्र पवनसुत नामा महाबीर बिक्रम बजरंगी कुमति निवार सुमति के संगी कंचन बरन बिराज सुबेसा कानन कुंडल कुंचित केसा हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै कांधे मूंज जनेऊ साजै संकर सुवन केसरीनंदन तेज प्रताप महा जग बन्दन विद्यावान गुनी अति चातुर राम काज करिबे को आतुर प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया राम लखन सीता मन बसिया सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा बिकट रूप धरि लंक जरावा भीम रूप धरि असुर संहारे रामचंद्र के काज संवारे लाय सजीवन लखन जियाये श्रीरघुबीर हरषि उर लाये रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई सहस बदन तुम्हरो जस गावैं अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा जम कुबेर दिगपाल जहां ते कबि कोबिद कहि सके कहां ते तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा राम मिलाय राज पद दीन्हा तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना लंकेस्वर भए सब जग जाना जुग सहस्र जोजन पर भानू लील्यो ताहि मधुर फल जानू प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं जलधि लांघि गये अचरज नाहीं दुर्गम काज जगत के जेते सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते राम दुआरे तुम रखवारे होत न आज्ञा बिनु पैसारे सब सुख लहै तुम्हारी सरना तुम रक्षक काहू को डर ना आपन तेज सम्हारो आपै तीनों लोक हांक तें कांपै भूत पिसाच निकट नहिं आवै महाबीर जब नाम सुनावै नासै रोग हरै सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा संकट तें हनुमान छुड़ावै मन क्रम बचन ध्यान जो लावै सब पर राम तपस्वी राजा तिन के काज सकल तुम साज��� और मनोरथ जो कोई लावै सोइ अमित जीवन फल पावै चारों जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा साधु संत के तुम रखवारे असुर निकंदन राम दुलारे अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता अस बर दीन जानकी माता राम रसायन तुम्हरे पासा सदा रहो रघुपति के दासा तुम्हरे भजन राम को पावै जनम-जनम के दुख बिसरावै अन्तकाल रघुबर पुर जाई जहां जन्म हरि भक्त कहाई और देवता चित्त न धरई हनुमत सेइ सर्ब सुख करई संकट कटै मिटै सब पीरा जो सुमिरै हनुमत बलबीरा जै जै जै हनुमान गोसाईं कृपा करहु गुरुदेव की नाईं जो सत बार पाठ कर कोई छूटहि बंदि महा सुख होई जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा होय सिद्धि साखी गौरीसा तुलसीदास सदा हरि चेरा कीजै नाथ हृदय मंह डेरा कीजै नाथ हृदय मंह डेरा पवन तनय संकट हरन मंगल मूरति रूप राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप.
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( #Muktibodh_part189 के आगे पढिए.....)
📖📖📖
#MuktiBodh_Part190
हम पढ़ रहे है पुस्तक "मुक्तिबोध"
पेज नंबर 363-364
कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को गीता से ही प्रश्न तथा उत्तर देकर सत्य ज्ञान समझाया। उपरोक्त वाणी सँख्या 1 में गीता अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12 वाला वर्णन बताया जिसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। वाणी सँख्या 2 में गीता अध्याय 15 श्लोक 17 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 3 में गीता अध्याय 4 श्लोक 34 वाला ज्ञान बताया है। वाणी सँख्या 4 में गीता अध्याय 18 श्लोक 62ए 66 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 5 में गीता अध्याय 18 श्लोक 64 का वर्णन है जिसमें काल कहता है कि मेरा ईष्ट देव भी वही है। वाणी सँख्या 6 में गीता अध्याय 8 श्लोक 13 तथा अध्याय 17 श्लोक 23 वाला ज्ञान है। आगे की वाणियों में कबीर परमेश्वर जी ने अपने आपको छुपाकर अपने ही
विषय में बताया है।
◆ धर्मदास वचन
विष्णु पूर्ण परमात्मा हम जाना।
जिन्द निन्दा कर हो नादाना।।
पाप शीश तोहे लागे भारी।
देवी देवतन को देत हो गारि।।
◆ जिन्दा (कबीर ��ी) वचन
जे यह निन्दा है भाई।
यह तो तोर गीता बतलाई।।
गीता लिखा तुम मानो साचा।
अमर विष्णु है कहा लिख राखा।।
तुम पत्थर को राम बताओ।
लडूवन का भोग लगाओ।।
कबहु लड्डू खाया पत्थर देवा।
या काजू किशमिश पिस्ता मेवा।।
पत्थर पूज पत्थर हो गए भाई।
आखें देख भी मानत नाहीं।।
ऐसे गुरू मिले अन्याई।
जिन मूर्ति पूजा रीत चलाई।।
इतना कह जिन्द हुए अदेखा।
धर्मदास मन किया विवेका।।
◆ धर्मदास वचन
यह क्या चेटक बिता भगवन।
कैसे मिटे आवा गमन।।
गीता फिर देखन लागा।
वही वृतान्त आगे आगा।।
एक एक श्लोक पढ़ै और रौवै।
सिर चक्रावै जागै न सोवै।।
रात पड़ी तब न आरती कीन्हा।
झूठी भक्ति में मन दीन्हा।।
ना मारा ना जीवित छोड़ा।
अधपका बना जस फोड़ा।।
यह साधु जे फिर मिल जावै।
सब मानू जो कछु बतावै।।
भूल के विवाद करूं नहीं कोई। आधीनी से सब जानु सोई।।
उठ सवेरे भोजन लगा बनाने।
लकड़ी चुल्हा बीच जलाने।।
जब लकड़ी जलकर छोटी होई। पाछलो भाग में देखा अनर्थ जोई।।
चटक-चटक कर चींटी मरि हैं।
अण्डन सहित अग्न में जर हैं।।
तुरंत आग बुझाई धर्मदासा।
पाप देख भए उदासा।।
ना अन्न खाऊँ न पानी पीऊँ।
इतना पाप कर कैसे जीऊँ।।
कराऊँ भोजन संत कोई पावै।
अपना पाप उतर सब जावै।।
लेकर थार चले धर्मनि नागर।
वृक्ष तले बैठे सुख सागर।।
साधु भेष कोई और बनाया।
धर्मदास साधु नेड़े आया।।
रूप और पहचान न पाया।
थाल रखकर अर्ज लगाया।।
भोजन करो संत भोग लगाओ।
मेरी इच्छा पूर्ण कराओ।।
संत कह आओ धर्मदासा।
भूख लगी है मोहे खासा।।
जल का छींटा भोजन पे मारा।
चींटी जीवित हुई थाली कारा।।
तब ही रूप बनाया वाही।
धर्मदास देखत लज्जाई।।
कहै जिन्दा तुम महा अपराधी।
मारे चीटी भोजन में रांधी।।
चरण पकड़ धर्मनि रोया।
भूल में जीवन जिन्दा मैं खोया।।
जो तुम कहो मैं मानूं सबही।
वाद विवाद अब नहीं करही।।
और कुछ ज्ञान अगम सुनाओ।
कहां वह संत वाका भेद बताओ।।
◆ जिन्द (कबीर) वचन
तुम पिण्ड भरो और श्राद्ध कराओ। गीता पाठ सदा चित लाओ।।
भूत पूजो बनोगे भूता।
पितर पूजै पितर हुता।।
देव पूज देव लोक जाओ।
मम पूजा से मोकूं पाओ।।
यह गीता में काल बतावै।
जाकूं तुम आपन इष्ट बतावै।।
(गीता अ. 9 व 25)
इष्ट कह करै नहीं जैसे।
सेठ जी मुक्ति पाओ कैसे।।
◆ धर्मदास वचन
हम हैं भक्ति के भूखे।
गुरू बताए मार्ग कभी नहीं चुके।।
हम का जाने गलत और ठीका।
अब वह ज्ञान लगत है फीका।।
तोरा ज्ञान महा बल जोरा।
अज्ञान अंधेरा मिटै है मोरा।।
हे जिन्दा तुम मोरे राम समाना।
और विचार कुछ सुनाओ ज्ञाना।।
क्रमशः_______________
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#GodNightFriday
धन रहे न जोबन रहे, रहे न गांव न ठांव। कबीर जग में जस रहै, करिदे किसी का काम ।।
अंत काल में हमारे पास न तो धन रहेगा और न ही यह यौवन और न ही अपना ये गांव रहेगा और न अपने रहने का स्थान, अर्थात हमारे पास कुछ भी नहीं होगा। कबीर साहेब जी कहते हैं कि इस जगत में केवल शुभ-कर्म रूपी यश रहेगा
For Information 📲(santrampalji Maharaj) YouTube channel Satlok Ashram l
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Bhaktamar Stotra Hindi
श्री प. हेमराज जी
आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार। धरम-धुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार॥
सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करैं, अंतर पाप-तिमिर सब हरैं। जिनपद बंदों मन वच काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय॥1॥
श्रुत-पारग इंद्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव। शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुन-माल॥2॥
विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज्ज थुति-मनसा कीन। जल-प्रतिबिंब बुद्ध को गहै, शशि-मंडल बालक ही चहै॥3॥
गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावै पार। प्रलय-पवन-उद्धत जल-जन्तु, जलधि तिरै को भुज बलवन्तु॥4॥
सो मैं शक्ति-हीन थुति करूँ, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूँ। ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेतु, मृगपति सन्मुख जाय अचेत॥5॥
मैं शठ सुधी हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम। ज्यों पिक अंब-कली परभाव, मधु-ऋतु मधुर करै आराव॥6॥
तुम जस जंपत जन छिनमाहिं, जनम-जनम के पाप नशाहिं। ज्यों रवि उगै फटै तत्काल, अलिवत नील निशा-तम-जाल॥7॥
तव प्रभावतैं कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार। ज्यों जल-कमल पत्रपै परै, मुक्ताफल की द्युति विस्तरै॥8॥
तुम गुन-महिमा हत-दुख-दोष, सो तो द��र रहो सुख-पोष। पाप-विनाशक है तुम नाम, कमल-विकाशी ज्यों रवि-धाम॥9॥
नहिं अचंभ जो होहिं तुरंत, तुमसे तुम गुण वरणत संत। जो अधीन को आप समान, करै न सो निंदित धनवान॥10॥
इकटक जन तुमको अविलोय, अवर-विषैं रति करै न सोय। को करि क्षीर-जलधि जल पान, क्षार नीर पीवै मतिमान॥11॥
प्रभु तुम वीतराग गुण-लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन। हैं तितने ही ते परमाणु, यातैं तुम सम रूप न आनु॥12॥
कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मनहार। कहाँ चंद्र-मंडल-सकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक॥13॥
पूरन चंद्र-ज्योति छबिवंत, तुम गुन तीन जगत लंघंत। एक नाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को करै निवार॥14॥
जो सुर-तिय विभ्रम आरंभ, मन न डिग्यो तुम तौ न अचंभ। अचल चलावै प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगै न धीर॥15॥
धूमरहित बाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन-घर एह। बात-गम्य नाहीं परचण्ड, अपर दीप तुम बलो अखंड॥16॥
छिपहु न लुपहु राहु की छांहि, जग परकाशक हो छिनमांहि। घन अनवर्त दाह विनिवार, रवितैं अधिक धरो गुणसार॥17॥
सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित मेघ राहु अविरोह। तुम मुख-कमल अपूरव चंद, जगत-विकाशी जोति अमंद॥18॥
निश-दिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुख-चंद हरै तम-धाम। जो स्वभावतैं उपजै नाज, सजल मेघ तैं कौनहु काज॥19॥
जो सुबोध सोहै तुम माहिं, हरि हर आदिक में सो नाहिं। जो द्युति महा-रतन में होय, काच-खंड पावै नहिं सोय॥20॥
(हिन्दी में) नाराच छन्द : सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया। स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया॥ कछू न तोहि देखके जहाँ तुही विशेखिया। मनोग चित-चोर और भूल हू न पेखिया॥21॥
अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं। न तो समान पुत्र और माततैं प्रसूत हैं॥ दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै। दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै॥22॥
पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो। कहें मुनीश अंधकार-नाश को सुभान हो॥ महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके। न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके॥23॥
अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो। असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो॥ महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो। अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो॥24॥
तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतैं। तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानतैं॥ तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतैं। नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतैं॥25॥
नमो करूँ जिनेश तोहि आपदा निवार हो। नमो करूँ सुभूरि-भूमि लोकके सिंगार हो॥ नमो करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो। नमो करूँ महेश तोहि मोखपंथ देतु हो॥26॥
चौपाई तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे। और देव-गण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय॥27॥
तरु अशोक-तर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार। मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत॥28॥
सिंहासन मणि-किरण-विचित्र, तापर कंचन-वरन पवित्र। तुम तन शोभित किरन विथार, ज्यों उदयाचल रवि तम-हार॥29॥
कुंद-पुहुप-सित-चमर ढुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत। ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति ॥30॥
ऊँचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपैं अगोप। तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती-झालरसों छवि लहैं॥31॥
दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर। त्रिभुवन-जन शिव-संगम करै, मानूँ जय जय रव उच्चरै॥32॥
मंद पवन गंधोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पुहुप-सुवृष्ट। देव करैं विकसित दल सार, मानों द्विज-पंकति अवतार॥33॥
तुम तन-भामंडल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द। कोटि शंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करे अछाय॥34॥
स्वर्ग-मोख-मारग-संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत। दिव्य वचन तुम खिरें अगाध, सब भाषा-गर्भित हित साध॥35॥
दोहा : विकसित-सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं। तुम पद पदवी जहं धरो, तहं सुर कमल रचाहिं॥36॥
ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय। सूरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय॥37॥
(हिन्दी में) षट्पद : मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल झंकारें। तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धत अति धारैं॥ काल-वरन विकराल, कालवत सनमुख आवै। ऐरावत सो प्रबल सकल जन भय उपजावै॥ देखि गयंद न भय करै तुम पद-महिमा लीन। विपति-रहित संपति-सहित वरतैं भक्त अदीन॥38॥
अति मद-मत्त-गयंद कुंभ-थल नखन विदारै। मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै॥ बांकी दाढ़ विशाल वदन में रसना लोलै। भीम भयानक रूप देख जन थरहर डोलै॥ ऐसे मृग-पति पग-तलैं जो नर आयो होय। शरण गये तुम चरण की बाधा करै न सोय॥39॥
प्रलय-पवनकर उठी आग जो तास पटंतर। बमैं फुलिंग शिखा उतंग परजलैं निरंतर॥ जगत समस्त निगल्ल भस्म करहैगी मानों। तडतडाट दव-अनल जोर चहुँ-दिशा उठानों॥ सो इक छिन में उपशमैं नाम-नीर तुम लेत। होय सरोवर परिन मैं विकसित कमल समेत॥40॥
कोकिल-कंठ-समान श्याम-तन क्रोध जलन्ता। रक्त-नयन फुंकार मार विष-कण उगलंता॥ फण को ऊँचा करे वेग ही सन्मुख धाया। तब जन होय निशंक देख फणपतिको आया॥ जो चांपै निज पगतलैं व्यापै विष न लगार। नाग-दमनि तुम नामकी है जिनके आधार॥41॥
जिस रन-माहिं भयानक रव कर रहे तुरंगम। घन से गज गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम॥ अति कोलाहल माहिं बात जहँ नाहिं सुनीजै। राजन को परचंड, देख बल धीरज छीजै॥ नाथ तिहारे नामतैं सो छिनमांहि पलाय। ज्यों दिनकर परकाशतैं अन्धकार विनशाय॥42॥
मारै जहाँ गयंद कुंभ हथियार विदारै। उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै॥ होयतिरन असमर्थ महाजोधा बलपूरे। तिस रनमें जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे॥ दुर्जय अरिकुल जीतके जय पावैं निकलंक। तुम पद पंकज मन बसैं ते नर सदा निशंक॥43॥
नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै। जामैं बड़वा अग्नि दाहतैं नीर जलावै॥ पार न पावैं जास थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अतिगंभीर, लहर की गिनति न ताकी॥ सुखसों तिरैं समुद्र को, जे तुम गुन सुमराहिं। लोल कलोलन के शिखर, पार ��ान ले जाहिं॥44॥
महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं। वात पित्त कफ कुष्ट, आदि जो रोग गहै हैं॥ सोचत रहें उदास, नाहिं जीवन की आशा। अति घिनावनी देह, धरैं दुर्गंध निवासा॥ तुम पद-पंकज-धूल को, जो लावैं निज अंग। ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय अनंग॥45॥
पांव कंठतें जकर बांध, सांकल अति भारी। गाढी बेडी पैर मांहि, जिन जांघ बिदारी॥ भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने। सरन नाहिं जिन कोय भूपके बंदीखाने॥ तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब खुल जाहिं। छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं॥46॥
महामत गजराज और मृगराज दवानल। फणपति रण परचंड नीरनिधि रोग महाबल॥ बंधन ये भय आठ डरपकर मानों नाशै। तुम सुमरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै॥ इस अपार संसार में शरन नाहिं प्रभु कोय। यातैं तुम पदभक्त को भक्ति सहाई होय॥47॥
यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी। विविधवर्णमय पुहुपगूंथ मैं भक्ति विथारी॥ जे नर पहिरें कंठ भावना मन में भावैं। मानतुंग ते निजाधीन शिवलक्ष्मी पावैं॥ भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत। जे नर पढ़ैं, सुभावसों, ते पावैं शिवखेत॥48॥
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#GodMorningTuesday
#सत_भक्ति_संदेश
जस तुम कीन्हे मोसंग नेहा ।
तजि धन धामरू सुत पितु गेहा । ।
आगे शिष्य जो अस विधि करि हैं।
गुरू चरण मन निश्चल धरि हैं ।।
गंगा "
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तुव जस कोटि ब्रह्मांड बिराजै राधे। [1]
श्री सोभा बरनी ने जाय अगाधे ॥ [2]
बहुतक जनम बिचारत ही गये साधे साधे। [3]
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत री प्यारी
ए दिन मैं क्रम क्रम करि लाधे ॥ [4]
श्री स्वामी हरिदास जी, केलीमाल (41)
प्यारी को अति प्रसन्न देख प्यारे जी कह रहे हैं - हे राधे, आपका यश प्रताप कोटि - कोटि ब्रह्मांड में विराज रहा है। [1]
आपसे प्रेम करने वाले नेही जन यह गुणगान कर रहे हैं कि आप अपने स्नेही प्रिय श्याम की सभी इच्छाओं मनोरथों को पूर्ण कर रही हैं। श्री राधे की अपूर्व सुंदर छवि , जो प्रसन्नता, कृपा से परिपूर्ण है, की शोभा अवर्णनीय है। [2]
मुझमें इस अथाह, अपार शोभा की वर्णन करने की क्षमता कहाँ? आपकी रुपमाधुरी का पान करते - करते मैं ध्यान में तदाकार भाव में डूब जाता हूँ, समाधि अवस्था में पहुँच जाता हूँ। [3]
श्री हरिदास के स्वामी श्याम कह रहे हैं - हे श्यामा! बहुत जन्म आपकी रुचि अनुसार विनती की, आप की कृपा होने पर मुझे हृदय से आपने लगाया। आपकी कृपा दुर्लभ है परंतु आपने मुझपर कृपा की तथा मेरे लिए इसे सुलभ बनाया। [4]
#vrindavan #vrindavanras #vrindavandham #VrindavanRasMahima #vrindavanrascharcha #sevakunj #radhavallabh #shriharivansh #Tulsidas #ramramji #radhekrishna #harekrishna #premanandjimaharaj #premanandjimaharajvrindavan
[ Vrindavan, Vrindavan dham, premanand ji maharaj, nidhivan, Shri Harivansh, premanand ji vrindavan, bhakti path, nimaipathshala, Radha keli kunj]
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रास्वपाको कार्यबहाक सभापतिको जिम्मेवारी अर्याललाई
राष्ट्रिय स्वतन्त्र पार्टी (रास्वपा) ले कार्यबहाक सभापतिको जिम्मेवारी उपसभापति डिपी अर्याललाई दिएको छ । केन्द्रिय कार्यालय, बनस्थलीमा जारी आकस्मिक सचिवालय बैठकले अर्याललाई कार्यबहाक सभापतिको जिम्मेवारी दिएको हो । सभापति रवि लामिछानेविरुद्ध कास्की जिल्ला अदालतमा मुद्दा दर्ता भएपछि रास्वपाले सचिवालय बैठक बोलाएको थियो, जस पछि बोलाइएको बैठकमा लामिछानेको अनुपस्थितिमा पार्टीको काम कारबाही अघि बढाउन…
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गरीबदास जी के बोध दिवस की विस्तृत जानकारी आध्यात्मिक प्रदर्शनी के माध्यम...
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*🙏🏻 सतगुरु देव जी की जय हो 🙏
*होले सुहागन सुरुता तैयार ।
मालिक घर जाना है
*🙏परमात्मा की अमृतवाणी :-*
👑पूर्ण ब्रह्म कबीर पर्मेश्वर जी👑 की अमृतवाणी*
✨
मन तूं सुख के सागर बसि रे, और न ऐसा जस रे।।✨🙏🏻*
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करम प्रधान बिस्व करि राखा जो जस करइ सो तस फलु चाखा
भगवान विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है जो जैसा करता है वह वैसा ही फल भोगता है
Jay Shri Ram🏹🚩🙏
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#खुदकुशी_समस्याका_समाधान_नहीं
बीमारी से परेशान, कर्ज से परेशान, तथा घर की अन्य परेशानियों से तंग आकर व्यक्ति आत्महत्या कर मनुष्य जन्म को नष्ट कर लेता है जबकि समस्याएं जस की तस बनी रहती है।
इसी मानव शरीर से सतभक्ति करके सर्व सुख प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
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प्रेम अमृत है
।। प्रेम अमृत है ।। प्रेम की पवित्र भावना मनुष्य की आत्मा में अक्षय शान्ति भर देती है। जस प्रकार निर्झर की धारा स्वयं भी शीतल रहती है और जो उसके पास आता है, उससे संपर्क स्थापित करता है उसको भी शीतलता प्रदान करती है, उसी प्रकार प्रेमी-हृदय व्यक्ति अपनी आत्मा में शीतलता का अनुभव तो करता है, साथ ही उसके संपर्क में जो भी आता है, वह भी आनंदित हो उठता है। सन्त और महात्मा लोग प्रेम के अक्षय भण्डार…
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वरिष्ठ पत्रकार डॉ. नीरज गजेंद्र बता रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं की स्थिति कैसी है। सरकार की योजनाएं कागजों पर किस तरह सुनहरी दिखती हैं। जमीनी हकीकत क्या है। नीतियों के इस खोखलेपन ने लोगों को स्वावलंबी बनाने के बजाय उन्हें मदद की आस में कहां खड़ा कर दिया है। आज की वास्तविकता यह हो गई है कि सरकारी वादे जरूरतमंदों के लिए सुविधाएं नहीं, बल्कि केवल आशाएं लेकर आते हैं। आइए पढ़कर समझते हैं कि शिक्षा एवं स्वास्थ में बुनियादी सुधार से किस तरह संभव है छत्तीसगढ़ का समग्र विकास। उनका लेख जस का तस, यहां पढ़िए-
सोचिए, एक गांव में रहने वाला गरीब किसान, जो अपने बच्चे को पढ़ा–लिखा कर बड़ा आदमी बनाना चाहता है। सरकारी स्कूल में भरोसा करके बच्चे को दाखिला दिलाता है। लेकिन वहां पढ़ाई की जगह सिर्फ किताबें और मिड–डे मील मिलता है। बच्चे की पढ़ाई शिक्षक की कमी में अधूरी रह जाती है। एक मजदूर, जो हर दिन मेहनत करके अपनी रोटी कमाता है। बीमार पड़ता है। सरकारी अस्पताल जाता है। लेकिन डॉक्टर बीमारी का इलाज करने के बजाय…
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पूर्ण संत (पूर्ण गुरु) तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करता है, जिसका वर्णन कबीर सागर में बोध सागर खंड के अध्याय अमर मूल में पृष्ठ 265 पर व गीता जी के अध्याय 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या 822 में मिलता है।
बोधसागर
(२६५)
साडिव कवीर-वचन
तब कबीर अस करिचे लीन्दा। ज्ञान भेद सकल करि दीन्हा॥ धर्मदास में कहीं विचारी। जिहितें निबड़े सब संसारी प्रथमहि शिष्य होय जो आई। ता करें पान देहु तुम नाई जब देखडु तुम हदता ज्ञाना। ता करें करहू शब्द प्रवाना ॥ शब्द मॉडि जब निश्चय आये। ता करें ज्ञान अगाध सुनाये ॥ अनुभवका जब करें विचारा। सो तो तीन लोकसों न्यारा ॥ अनुभव ज्ञान प्रगट जब कोई। आतमराम पीन्द है सोई ॥ शब्द निहराब्द आप कदलावा। आपहि बोल अबोल सुनावा ॥ आपडि ग्रुप जो बोलत रहिया। आप वचन अवचन जो कड़िया।
संत रामपाल जी महाराज जी ही पूर्ण गुरु हैं।
आप गुरु है शब्द सुनाने। आप शिष्य है सुते समावै॥ आदि गुरु शिष्य हो दोई। देखें सुने आपदी सोई ॥ साली देखें सुने कड़े सबैः आपदि रूप अपार । आप न चीन्हें आप करें, भूला सब संसार ।।
यह मति इम ती तुम करें दीन्हा। बिरला शिष्य कोइ पाचे चीन्हा।
चर्मदास तुम कदौ सन्देशा। जो जस जीप ताहि उपदेशा ॥
बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासी कदडू बचन प्रवाना ॥
जा करें सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता करें सुझन देहु लखाई ॥
शान गम्य जा करें पुनि दोई। सार शब्द जा करें कडू सोई ॥
जा करें दिव्य ज्ञान परवेशा। ता करें तस्य ज्ञान उपदेशा ॥
अनुभव ज्ञान जारि करें दोई। दूसर कितडु न देखे सोई ॥
उम ज्ञान जा करें परकाशा। आतमराम परमादि निवासा ॥
आतमरामकी परचय होई आपरि आतमराम है सोई ॥
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