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#यह मन भोगी खसिया ॥
vinod-kumar · 5 months
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ajayprajapatti110125 · 9 months
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balrams-world · 9 months
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taapsee · 3 months
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।
पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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singhmanojdasworld · 11 months
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🌷 *जीने की राह* 🌷
*(Part-10)*
*आज भाई को फुरसत*
*(Part -A)*
*Today Brother Has Time (Way of Living)*
📜एक भक्त सत्संग में जाने लगा। दीक्षा ले ली, ज्ञान सुना और भक्ति करने लगा। अपने मित्र से भी सत्संग में चलने तथा भक्ति करने के लिए प्रार्थना की। परंतु दोस्त नहीं माना। कह देता कि कार्य से फुर्सत (खाली समय) नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे हैं। इनका पालन-पोषण भी करना है। काम छोड़कर सत्संग में जाने लगा तो सारा धँधा चैपट हो जाएगा।
वह सत्संग में जाने वाला भक्त जब भी सत्संग में चलने के लिए अपने मित्र से कहता तो वह यही कहता कि अभी काम से फुर्सत नहीं है। एक वर्ष पश्चात् उस मित्र की मृत्यु हो गई। उस��ी अर्थी उठाकर कुल के लोग तथा नगरवासी चले, साथ-साथ सैंकड़ों नगर-मौहल्ले के व्यक्ति भी साथ-साथ चले। सब बोल रहे थे कि राम नाम सत् है, सत् बोले गत् है। भक्त कह रहा था कि राम नाम तो सत् है परंतु आज भाई को फुर्सत है। नगरवासी कह रहे थे कि सत् बोले गत् है, भक्त कह रहा था कि आज भाई को फुर्सत है। अन्य व्यक्ति उस भक्त से कहने लगे कि ऐसे मत बोल, इसके घर वाले बुरा मानेंगे। भक्त ने कहा कि मैं तो ऐसे ही बोलूँगा। मैंने इस मूर्ख से हाथ जोड़कर प्रार्थना की थी कि सत्संग में चल, कुछ भक्ति कर ले। यह कहता था कि अभी फुर्सत अर्थात् खाली समय नहीं है। आज इसको परमानैंट फुर्सत है। छोटे-छोटे बच्चे भी छोड़ चला जिनके पालन-पोषण का बहाना करके परमात्मा से दूर रहा। भक्ति करता तो खाली हाथ नहीं जाता। कुछ भक्ति धन लेकर जाता। बच्चों का पालन-पोषण तो परमात्मा करता है। भक्ति करने से साधक की आयु भी परमात्मा बढ़ा देता है। भक्तजन ऐसा विचार करके भक्ति करते हैं, कार्य त्यागकर सत्संग सुनने जाते हैं।
भक्त विचार करते हैं कि परमात्मा न करे, हमारी मृत्यु हो जाए। फिर हमारे कार्य कौन करेगा? हम यह मान लेते हैं कि हमारी मृत्यु हो गई। हम तीन दिन के लिए मर गया, यह विचार करके सत्संग में चलें, अपने को मृत मान लें और सत्संग में चले जायें। वैसे तो परमात्मा के भक्तों का कार्य बिगड़ता नहीं, फिर भी हम मान लेते हैं कि हमारी गैर-हाजिरी में कुछ कार्य खराब हो गया तो तीन दिन बाद जाकर ठीक कर लेंगे। यदि वास्तव में टिकट कट गई अर्थात् मृत्यु हो गई तो परमानैंट कार्य बिगड़ गया। फिर कभी ठीक करने नहीं आ सकते। इस स्थिति को जीवित मरना कहते हैं।
वाणी का शेष सरलार्थ:- द्वादश मध्य महल मठ बौरे, बहुर न देहि धरै रे। सरलार्थ:- श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता। वे फिर देह धारण नहीं करते। सूक्ष्मवेद की यह वाणी यही स्पष्ट कर रही है कि वह परम धाम द्वादश अर्थात् 12वें द्वार को पार करके उस परम धाम में जाया जाता है। आज तक सर्व ऋषि-महर्षि, संत, मंडलेश्वर केवल 10 द्वार बताया करते। परंतु परमेश्वर कबीर जी ने अपने स्थान को प्राप्त कराने का सत्यमार्ग, सत्य स्थान स्वयं ही बताया है। उन्होंने 12वां द्वार बताया है। इससे भी स्पष्ट हुआ कि आज तक (सन् 2012 तक) पूर्व के सर्व ऋषियों, संतों, पंथों की भक्ति काल ब्रह्म तक की थी। जिस कारण से जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहा।
वाणी सँख्या 5:- दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया।।
सरलार्थ:- तत्वज्ञान के अभाव में पूर्णमोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात् नरक में गए, कभी बहिश्त अर्थात् स्वर्ग में गए,कभी राजा बनकर आनन्द लिया। यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दंे तो भी तृप्ति नहीं होती।
उदाहरण:- यदि कोई गाँव का सरपंच बन जाता है तो वह इच्छा करता है कि विधायक बने तो मौज होवे। विधायक इच्छा ��रता है कि मन्त्राी बनूं तो बात कुछ अलग हो जाएगी। मंत्राी बनकर इच्छा करता है कि मुख्यमंत्राी बनूं तो पूरी चैधर हो। आनन्द ही न्यारा होगा। सारे प्रान्त पर कमांड चलेगी। मुख्यमंत्राी बनने के पश्चात् प्रबल इच्छा होती है कि प्रधानमंत्राी बनूं तो जीवन सार्थक हो। तब तक जीवन लीला समाप्त हो जाएगी। फिर गधा बनकर कुम्हार के लठ (डण्डे) खा रहा होगा। इसलिए तत्वज्ञान में समझाया है कि काल ब्रह्म द्वारा बनाई स्वर्ग-नरक तथा राजपाट प्राप्ति की भूल-भुलईया में सारा जीवन व्यर्थ कर दिया। कहीं संतोष नहीं हुआ, यह मन ऐसा खुसरा (हिजड़ा) है।
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sangeetasumitradasi · 11 months
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GodMorningMonday
SantRampaljiQuotes
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दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया।
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santram · 2 years
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🌳 *कबीर बड़ा या कृष्ण* 🌳
*(Part -16)*
*‘‘परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष होता है’’*
📜काल ब्रह्म व देवताओं की भक्ति करके भी जीव का जन्म-मरण का चक्र समाप्त नहीं होता क्योंकि ये स्वयं जन्म व मृत्यु के चक्र में पड़े हैं।
संत गरीबदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्राप्त ज्ञान को इस प्रकार बताया है:-
{संत गरीबदास जी, गाँव-छुड़ानी हरियाणा की अमृतवाणी}
मन तू चलि रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर। (टेक)
कोटि जन्म तोहे मरतां होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर-सुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।1।।
कोटि जन्म तू राजा किन्हा, मिटि न मन की आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिल्या न निर्गुण रासा।।2।।
इन्द्र कुबेर ईश की पद्वी, ब्रह्मा, वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।3।।
असँख्य जन्म तोहे मरते होगे, जीवित क्यूं ना मरै रे।
द्वादश मध्य महल मठ बौरे, बहुर न देह धरै रे।।4।।
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, ��ाज-पाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया।।5।।
सतगुरू मिलै तो इच्छा मेटैं, पद मिल पदै समाना।
चल हँसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना।।6।।
चार मुक्ति जहाँ चम्पी करती, माया हो रही दासी।
दास गरीब अभय पद परसै, मिलै राम अविनाशी।।7।।
सूक्ष्मवेद की वाणी का सरलार्थ:-
आत्मा अपने साथी मन को अमर लोक के सुख तथा इस काल ब्रह्म के लोक के दुख को बताकर सुख के सागर रूपी अमर लोक (सत्यलोक) में चलने के लिए प्ररित कर रही हैं। काल (ब्रह्म) के लोक (इक्कीस ब्रह्माण्डों) में रहने वाले प्राणी को क्या-क्या कष्ट होते हैं, पहले यह जानकारी बताई है। कहा है कि:-
काल (ब्रह्म) के लोक का अटल विधान है कि जो जन्मता है, उसकी मृत्यु निश्चित है और जो मर जाता है, उसका जन्म निश्चित है।
प्रमाण गीता जी में देखें:-
श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 2 श्लोक 22 में इस प्रकार कहा है:-
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रा ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त करता है।
गीता अध्याय 2 श्लोक 27:- क्योंकि जन्में हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इसलिए बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने के योग्य नहीं है।
श्रीमद् भगवत गीता शास्त्र से स्पष्ट हुआ कि काल (ब्रह्म) के लोक का अटल नियम है कि जन्म तथा मृत्यु सदा बने रहेंगे। जैसे गीता अध्याय 2 श्लोक 12 में भी कहा है कि:- हे अर्जुन! तू, मैं (गीता ज्ञान दाता) तथा ये सर्व राजा लोग पहले भी जन्मे, ये आगे भी जन्मेंगे।
गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, उन सबको तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ।
गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान ने यह भी स्पष्ट किया है कि मेरी उत्पत्ति को न तो ऋषिजन जानते हैं, न देवता जानते हैं क्योंकि ये सर्व मेरे से उत्पन्न हुए हैं।
इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 15 में कहा है कि:-
माम् उपेत्य पुनर्जन्मः दुःखालयम् अशाश्वतम्।
न आप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिम् परमाम् गता।।
अनुवाद:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि (माम्) मुझे (उपेत्य) प्राप्त होकर तो (दुःखालयम् अशाश्वतम्) दुःखों के घर व नाशवान संसार में (पुनर्जन्मः) पुनर्जन्म है। (महात्मानः) महात्माजन जो (संसिद्धिम् परमाम्) परम सिद्धि को (गता) प्राप्त हो गए हैं, (न अप्नुवन्ति) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।
विशेष:- पाठकजनों से निवेदन है कि मुझ (लेखक संत रामपाल दास) से पहले सर्व अनुवादकों ने गीता के इस श्लोक का गलत (ॅतवदह) अनुवाद किया है। (गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।)
विचार करें:- पहले लिखे अनेकों गीता के श्लोकों में आप जी ने पढ़ा कि गीता ज्ञान दाता ने स्वयं कहा है कि मेरे तथा तेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं। फिर भी इस श्लोक का यह अर्थ करना‌ कि मुझे प्राप्त महात्मा का पुनर्जन्म नहीं होता, गीता की यथार्थता के साथ खिलवाड़ करना तथा अर्थों का अनर्थ करना मात्र है।
सूक्ष्मवेद की अमृतवाणी का यह भावार्थ है:-
वाणी का सरलार्थ:- आत्मा और मन को पात्र बनाकर संत गरीबदास जी ने संसार के मानव को समझाया है। कहा है कि ‘‘यह संसार दुःखों का घर है। इससे भिन्न एक और संसार है। जहाँ कोई दुःख नहीं है। वह शाश्वत् स्थान है (सनातन परम धाम = सत्यलोक) वह सुख सागर है तथा वहाँ का प्रभु (अविनाशी परमेश्वर) भी सुखदायी है जो उस सुख सागर में निवास करता है। सुख सागर अर्थात् अमर लोक की संक्षिप्त परिभाषा बताई है:-
शंखों लहर मेहर की ऊपजैं, कहर नहीं जहाँ कोई।
दास गरीब अचल अविनाशी, सुख का सागर सोई।।
भावार्थ:- जिस समय मैं (लेखक) अकेला होता हूँ, तो कभी-कभी ऐसी ह��लोर अंदर से उठती है, उस समय सब अपने-से लगते हैं। चाहे किसी ने मुझे कितना ही कष्ट दे रखा हो, उसके प्रति द्वेष भावना नहीं रहती। सब पर दया भाव बन जाता है। यह स्थिति कुछ मिनट ही रहती है। उसको मेहर की लहर कहा है। सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम में जाने के पश्चात् प्रत्येक प्राणी को इतना आनन्द आता है। वहाँ पर ऐसी असँख्यों लहरें आत्मा में उठती रहती हैं। जब वह लहर मेरी आत्मा से हट जाती है तो वही दुःखमय स्थिति प्रारम्भ हो जाती है। उसने ऐसा क्यों कहा?, वह व्यक्ति अच्छा नहीं है, वो हानि हो गई, यह हो गया, वह हो गया। यह कहर (दुःख) की लहर कही जाती है।
उस सतलोक में असँख्य लहर मेहर (दया) की उठती हैं, वहाँ कोई कहर (भयँकर दुःख) नहीं है। वैसे तो सतलोक में कोई दुःख नहीं है। कहर का अर्थ भयँकर कष्ट होता है। जैसे एक गाँव में आपसी रंजिस के चलते विरोधियों ने दूसरे पक्ष के एक परिवार के तीन सदस्यों की हत्या कर दी, कहीं पर भूकंप के कारण हजारों व्यक्ति मर जाते हैं, उसे कहते हैं कहर टूट पड़ा या कहर कर दिया। ऊपर लिखी वाणी में सुख सागर की परिभाषा संक्षिप्त में बताई है। कहा है कि वह अमर लोक अचल अविनाशी अर्थात् कभी चलायमान नहीं है, कभी ध्वस्त नहीं होता तथा वहाँ रहने वाला परमेश्वर अविनाशी है। वह स्थान तथा परमेश्वर सुख का समन्दर है। जैसे समुद्री जहाज बंदरगाह के किनारे से 100 या 200 किमी. दूर चला जाता है तो जहाज के यात्रियों को जल अर्थात् समंदर के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता। सब और जल ही जल नजर आता है। इसी प्रकार सतलोक (सत्यलोक) में सुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है अर्थात् वहाँ कोई दुःख नहीं है।
अब पूर्व में लिखी वाणी का सरलार्थ किया जाता है:-
मन तू चल रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर।।(टेक)
कोटि जन्म तोहे भ्रमत होगे, कुछ नहीं हाथ लगा रे।
कुकर शुकर खर भया बौरे, कौआ हँस बुगा रे।।
परमेश्वर कबीर जी ने अपनी अच्छी आत्मा संत गरीबदास जी को सूक्ष्मवेद समझाया, उसको संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) ने आत्मा तथा मन को पात्र बनाकर विश्व के मानव को काल (ब्रह्म) के लोक का कष्ट तथा सतलोक का सुख बताकर उस परमधाम में चलने के लिए सत्य साधना जो शास्त्रोक्त है, करने की प्रेरणा की है। मन तू चल रे सुख के सागर अर्थात् हे मन! तू सनातन परम धाम में चल। शब्द को अविनाशी अर्थ दिया है क्योंकि शब्द नष्ट नहीं होता। इसलिए शब्द का अर्थ अविनाशीपन से है कि वह स्थान अमरत्व का सिंधु अर्थात् सागर है और मोक्षरूपी रत्न का आगार अर्थात् खान है। इस काल ब्रह्म के लोक में आप जी ने भक्ति भी की। परंतु शास्त्रानुकूल साधना बताने वाले तत्त्वदर्शी संत न मिलने के कारण आप करोड़ों जन्मों से भटक रहे हो। करोड़ों-अरबों रूपये संग्रह करने में पूरा जीवन लगा देते हो। अचानक मृत्यु हो जाती है। वह जोड़ा हुआ धन जो आपके पूर्व के संस्कारों से प्राप्त हुआ था, उसे छोड़कर संसार से चला गया। उस धन के संग्रह करने में जो पाप किए, वे आप जी के साथ गए। आप जी ने उस मानव जीवन में तत्त्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर शास्त्राविधि अनुसार भक्ति की साधना नहीं की। जिस कारण से आपको कुछ हाथ नहीं आया। पूर्व के पुण्यों के बदले धन ले लिया। वह धन यहीं रह गया, आपको कुछ भी नहीं मिला। आपको मिले धन संग्रह तथा भक्ति शास्त्रनुकूल न करने के पाप।
जिनके कारण आप कुकर = कुत्ता, खर = गधा, सुकर = सूअर, कौआ = काग पक्षी, हँस= एक पक्षी जो केवल सरोवर में मोती खाता है, बुगा = बुगला पक्षी आदि-आदि की योनियों को प्राप्त करके कष्ट उठाया।
कोटि जन्म तू राजा कीन्हा, मिटि न मन ��ी आशा।
भिक्षुक होकर दर-दर हांड्या, मिला न निर्गुण रासा।।
सरलार्थ:- हे मानव! आप जी ने काल (ब्रह्म) की कठिन से कठिन साधना की। घर त्यागकर जंगल में निवास किया, फिर भिक्षा प्राप्ति के लिए गाँव व नगर में घर-घर के द्वार पर हांड्या अर्थात् घूमा। जंगल में साधनारत साधक निकट के गाँव या शहर में जाता है। एक घर से भिक्षा पूरी नहीं मिलती तो अन्य घरों से भोजन लेकर जंगल में चला जाता है। कभी-कभी तो साधक एक दिन भिक्षा माँगकर लाते हैं, उसी से दो-तीन दिन निर्वाह करते हैं। रोटियों को पतले कपड़े रूमाल जैसे कपड़े को छालना कहते हैं। छालने में लपेटकर वृक्ष की टहनियों से बाँध देते थे। वे रोटियाँ सूख जाती हैं। उनको पानी में भिगोकर नर्म करके खाते थे। वे प्रतिदिन भिक्षा माँगने जाने में जो समय व्यर्थ होता था, उसकी बचत करके उस समय को काल ब्रह्म की साधना में लगाते थे। भावार्थ है कि जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए वेदों में वर्णित विधि तथा लोकवेद से घोरतप करते थे। उनको तत्त्वदर्शी संत न मिलने के कारण निर्गुण रासा अर्थात् गुप्त ज्ञान जिसे तत्त्वज्ञान कहते हैं। वह नहीं मिला क्योंकि यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 में तथा चारों वेदों का सारांश रूप श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में कहा है कि जो यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत ज्ञान स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से बोलकर सुनाता है, वह तत्त्वज्ञान अर्थात् सूक्ष्मवेद है। गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि उस तत्त्वज्ञान को तू तत्त्वज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको दण्डवत् प्रणाम करने से नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्त्व को भली-भाँति जानने वाले तत्त्वदर्शी संत तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे। इससे सिद्ध हुआ कि तत्त्वज्ञान न वेदों में है और न ही गीता शास्त्र में। यदि होता तो एक अध्याय और बोल देता। कह देता कि तत्त्वज्ञान उस अध्याय में पढ़ें। संत गरीबदास जी ने मन के बहाने मानव शरीरधारी प्राणियों को समझाया है कि वह निर्गुण रासा अर्थात् तत्त्वज्ञान न मिलने के कारण काल ब्रह्म की साधना करके आप जी करोड़ों जन्मों में राजा बने। फिर भी मन की इच्छा समाप्त नहीं हुई क्योंकि राजा सोचता है कि स्वर्ग में सुख है, यहाँ राज में कोई सुख-चैन नहीं है, शान्ति नहीं है।
निर्गुण रासा का भावार्थ:- निर्गुण का अर्थ है कि वह वस्तु तो है परंतु उसका लाभ नहीं मिल रहा। वृक्ष के बीज में फल तथा वृक्ष निर्गुण रूप में है, उस बीज को मिट्टी में बीजकर सिंचाई करके वह सरगुण वस्तु (वृक्ष, वृक्ष को फल) प्राप्त की जाती है। यह ज्ञान न होने से आम के फल व छाया से वंचित रह जाते हैं। रासा = झंझट अर्थात् उलझा हुआ कार्य। सूक्ष्मवेद में परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-
नौ मन (360 कि.ग्रा.) सूत = कच्चा धागा
कबीर, नौ मन सूत उलझिया, ऋषि रहे झख मार।
सतगुरू ऐसा सुलझा दे, उलझे न दूजी बार।।
सरलार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान रूपी नौ मन सूत उलझा हुआ है। एक कि.ग्रा. उलझे हुए सूत को सीधा करने में एक दिन से भी अधिक जुलाहों का लग जाता था। यदि सुलझाते समय धागा टूट जाता तो कपड़े में गाँठ लग जाती। गाँठ-गठीले कपड़े को कोई मोल नहीं लेता था। इसलिए परमेश्वर कबीर जुलाहे ने जुलाहों का सटीक उदाहरण बताकर समझाया है कि अधिक उलझे हुए सूत को कोई नहीं सुलझाता था। अध्यात्म ज्ञान उसी नौ मन उलझे हुए सूत के समान है जिसको सतगुरू अर्थात् तत्त्वदर्शी संत ऐसा सुलझा देगा जो पुनः नहीं उलझेगा। बिना सुलझे अध्यात्म ज्ञान के आधार से अर्थात् लोकवेद के अनुसार साधना करके स्वर्ग-नरक, चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के जीवन, पृथ्वी पर किसी टुकड़े का राज्य, स्वर्ग का राज्य प्राप्त किया, पुनः फिर जन्म-मरण के चक्र में गिरकर कष्ट पर कष्ट उठाया। परंतु काल ब्रह्म की वेदों में वर्णित विधि अनुसार साधना करने से वह परम शांति तथा सनातन परम धाम प्राप्त नहीं हुआ जो गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है और न ही परमेश्वर का वह परम पद प्राप्त हुआ जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। काल ब्रह्म की साधना से निम्न लाभ होता रहता है।
वाणी नं 3:- इन्द्र-कुबेर, ईश की पदवी, ब्रह्मा वरूण धर्मराया।
विष्णुनाथ के पुर कूं जाकर, बहुर अपूठा आया।।
सरलार्थ:- काल ब्रह्म की साधना करके साधक इन्द्र का पद भी प्राप्त करता है। इन्द्र स्वर्ग के राजा का पद है। इसकोे देवराज अर्थात् देवताओं का राजा तथा सुरपति भी कहते हैं। यह सिंचाई विभाग अर्थात् वर्षा मंत्रालय भी अपने आधीन रखता है।
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tejpa · 1 month
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#सत_भक्ति_संदेश
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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uday-yadav · 1 month
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दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
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sushila-123 · 1 month
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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coralsoulrebel · 1 month
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न ���िलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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taapsee · 1 month
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए,कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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satbirdas123 · 1 month
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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narendardass · 1 month
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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sumittra · 1 month
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#GodMorningTuesday
दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया । तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया ।।
तत्वज्ञान के अभाव में पूर्ण मोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात नरक में गए, कभी स्वर्ग में गए, कभी राजा बनकर आनंद लिया।
यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दें तो भी तृप्ति नहीं होती।
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