#महादेवी वर्मा का जीवन परिचय
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महादेवी वर्मा हिंदी की एक प्रतिभावान छायावादी कवयत्री है। उन्हें आधुनिक मीराबाई भी कहा जाता है।
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महादेवी वर्मा का जीवन परिचय https://www.instagram.com/p/CbGh392vFT1/?utm_medium=tumblr
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जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय
जयशंकर प्रसाद आजतक के हिंदी साहित्य के महानतम कवियों एवं लेखकों में से एक माने जाते हैं. जयशंकर प्रसाद एक प्रसिद्द हिन्दी कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। ये हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों (सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त एवं जयशंकर प्रसाद) में से एक थे।
संक्षिप्त जीवन परिचय :
पूरा नाम: महाकवि जयशंकर प्रसाद
जन्म: 30 जनवरी, 1889 ई.
जन्म भूमि: वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु: 15 नवम्बर, सन् 1937 (आयु- 48 वर्ष)
मृत्यु स्थान: वाराणसी, उत्तर प्रदेश
पिता: देवीप्रसाद साहू
कर्म भूमि: वाराणसी
कार्यक्षेत्र: उपन्यासकार, नाटककार, कवि, कहानीकार
मुख्य रचनाएँ: चित्राधार, कामायनी, आँसू, लहर, झरना, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु, आकाशदीप, आँधी, ध्रुवस्वामिनी, तितली और कंकाल
विषय: कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी और निबन्ध
भाषा: हिंदी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली
नागरिकता: भारतीय
लेखन शैली: वर्णनात्मक, भावात्मक, आलंकारिक, सूक्तिपरक, प्रतीकात्मक
जीवन परिचय:
जयशंकर प्रसाद जी का जन्म 30 जनवरी 1889 ई० (माघ शुक्ल दशमी, संवत् 1946 वि.) को गुरुवार के दिन काशी के सरायगोवर्धन में हुआ था। इनके पितामह शिवरतन साहू वाराणसी के अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिक थे और एक विशेष प्रकार की सुरती (तम्बाकू) बनाने के कारण ‘सुँघनी साहू’ के नाम से विख्यात थे। उनकी दानशीलता सर्वविदित थी और उनके यहाँ विद्वानों तथा कलाकारों का सम्मान होता था। जयशंकर प्रसाद के पिता देवीप्रसाद साहू ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया। इनके परिवार की गणना वाराणसी के अतिशय समृद्ध घरानों में थी और धन-वैभव का कोई अभाव न था।
जयशंकर प्रसाद का कुटुम्ब शिव का उपासक था। इनके माता-पिता ने इनके जन्म के लिए भगवान शिव से बड़ी प्रार्थना की थी। झारखण्ड के वैद्यनाथ धाम के से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप उनके यहाँ पुत्र रत्न की प्राप्ति हुयी. बचपन में जयशंकर प्रसाद को ‘झारखण्डी’ कहकर पुकारा जाता था और इनका नामकरण संस्कार भी वैद्यनाथ धाम में ही हुआ।
शिक्षा:
जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही आरम्भ हुई। संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी, और उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त थे। इनमें रसमय सिद्ध प्रमुख थे। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के लिए दीनबन्धु ब्रह्मचारी शिक्षक थे। कुछ समय के बाद स्थानीय क्वीन्स कॉलेज में जयशंकर प्रसाद का नाम लिखा दिया गया, पर यहाँ पर वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। जयशंकर प्रसाद एक अध्यवसायी व्यक्ति थे और नियमित रूप से अध्ययन करते थे।
पारिवारिक विपत्तियाँ :
जयशंकर प्रसाद के पितामह (बाबा) बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद ‘हर हर महादेव’ से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था जब जयशंकर प्रसाद की उम्र मात्र 12 वर्ष की थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया।
इसी के बाद परिवार में गृहक्लेश आरम्भ हुआ और पैतृक व्यवसाय को इतनी क्षति पहुँची कि वही ‘सुँघनीसाहु का परिवार, जो वैभव में लोटता था, ऋण के भार से दब गया। पिता की मृत्यु के दो-तीन वर्षों के भीतर ही प्रसाद की माता का भी देहान्त हो गया और सबसे दुर्भाग्य का दिन तब आया, जब उनके ज्येष्ठ भ्राता शम्भूरतन चल बसे. मात्र सत्रह वर्ष की अवस्था में ही प्रसाद को एक भारी उत्तरदायित्व सम्भालना पड़ा।
किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण 17 वर्ष की उम्र में ही जयशंकर प्रसाद पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, कुटुबिंयों, परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी:
जयशंकर प्रसाद जी का जन्म उस समय हुआ जब खड़ी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे.
शुरू से ही जयशंकर प्रसाद के घर में साहित्य और कला का माहौल था. घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी. कहा जाता है कि मात्र नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने कलाधर नाम से व्रजभाषा में एक सवैया लिखकर अपने गुरु रसमय सिद्ध को दिखाया था।
जयशंकर प्रसाद जी ने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे बागवानी तथा भोजन बनाने के भी बहुत शौकीन थे. वे शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान पान एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे नागरीप्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष भी थे। लेकिन इतना नियमित दिनचर्या का पालन करने के बाद भी दुःख और बिपत्तिओं के कारण वे क्षय रोग से पीड़ित हो गए और 15 नवम्बर, 1937 (दिन-सोमवार) को प्रातःकाल केवल 47 साल की उम्र में काशी में उनका देहांत हो गया।
जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्द कृतियाँ काव्य
जयशंकर प्रसाद की काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है : काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। आँसू, लहर तथा कामायनी दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। उन्होंने काव्यरचना ब्रजभाषा में आरम्भ की और धीर-धीरे खड़ी बोली को अपनाते हुए उस विशा में इतने निपुण हो गए कि खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों में उनकी गणना की जाने लगी और अंतत: वे युगवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उनके लिखे निम्नलिखित काव्यग्रंथ बहुत प्रसिद्द हुए.
कानन कुसुम
महाराणा का महत्व
झरना(1918)
आंसू
लहर
कामायनी (1935)
प्रेम पथिक
उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। उनकी सर्वप्रथम छायावादी रचना ‘खोलो द्वार’ 1914 ई. में इंदु में प्रकाशित हुई।
वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी हैं। उन्होंने हिंदी में ‘करुणालय’ द्वारा गीत नाट्य का भी आरंभ किया। उन्होंने भिन्न तुकांत काव्य लिखने के लिये मौलिक छंदचयन किया और अनेक छंद का संभवत: उन्होंने सबसे पहले प्रयोग किया। उन्होंने नाटकीय ढंग पर काव्य-कथा-शैली का मनोवैज्ञानिक पथ पर विकास किया। साथ ही कहानी कला की नई तकनीक का संयोग काव्यकथा से कराया।
काव्यक्षेत्र में जयशंकर प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार ‘कामायनी’ है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद और खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। सुमित्रानंदन पंत इसे ‘हिंदी में ताजमहल के समान’ मानते हैं। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है।
कहानी:
कथा-कहानी के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद आधुनिक ढंग की कहानियों के आरम्भकर्ता के तौर पर जाने जाते हैं। सन 1912 ई. में ‘इंदु’ में उनकी पहली कहानी ‘ग्राम’ प्रकाशित हुई।
उन्होंने कुल 72 कहानियाँ लिखी हैं।
कहानी संग्रह
छाया
प्रतिध्वनि
आकाशदीप
आंधी
इन्द्रजाल
उनकी अधिकतर कहानियों में भावना की प्रधानता है किंतु उन्होंने यथार्थ की दृष्टि से भी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी हैं। उनकी वातावरणप्रधान कहानियाँ अत्यंत सफल हुई हैं। उन्होंने ऐतिहासि��, प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक कथानकों पर मौलिक एवं कलात्मक कहानियाँ लिखी हैं। भावना-प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ लिखी हैं। भावना प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ, रहस्यवादी, प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उत्तम कहानियाँ, भी उन्होंने लिखी हैं। ये कहानियाँ भावनाओं की मिठास तथा कवित्व से पूर्ण हैं।
जयशंकर प्रसाद जी भारत के उन्नत अतीत का जीवित वातावरण प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी कितनी ही कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें आदि से अंत तक भारतीय संस्कृति एवं आदर्शो की रक्षा का सफल प्रयास किया गया है। उनकी कुछ श्रेष्ठ कहानियों के नाम हैं : आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार, सालवती, स्वर्ग के खंडहर में आँधी, इंद्रजाल, छोटा जादूगर, बिसाती, मधुआ, विरामचिह्न, सम���द्रसंतरण; अपनी कहानियों में जिन अमर चरित्रों की उन्होंने सृष्टि की है, उनमें से कुछ हैं चंपा, मधुलिका, लैला, इरावती, सालवती और मधुआ का शराबी, गुंडा का नन्हकूसिंह और घीसू जो अपने अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं।
उपन्यास :
जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad) ने तीन उपन्यास लिखे हैं। ‘कंकाल’, में नागरिक सभ्यता का अंतर यथार्थ उद्घाटित किया गया है। ‘तितली’ में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं। प्रथम यथार्थवादी उन्यास हैं; दूसरे में आदर्शोन्मुख यथार्थ है। इन उपन्यासों के द्वारा प्रसाद जी हिंदी में यथार्थवादी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में अपनी गरिमा स्थापित करते हैं। ‘इरावती’ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया इनका अधूरा उपन्यास है जो रोमांस के कारण ऐतिहासिक रोमांस के उपन्यासों में विशेष आदर का पात्र है। इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्राम, नगर, प्रकृति और जीवन का मार्मिक चित्रण किया है जो भावुकता और कवित्व से पूर्ण होते हुए भी प्रौढ़ लोगों की शैल्पिक जिज्ञासा का समाधान करता है।
नाटक
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विचार मंथन : अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को- महाकवि महादेवी वर्मा
नारी-चेतना की ‘अद्वितीय विचारक’ महाकवि महादेवी वर्मा
गृहिणी का कर्त्तव्य कम महत्वपूर्ण नहीं है, यदि स्वेच्छा से स्वीकृत हो । प्रत्येक विज्ञान में क्रियात्मक कला का कुछ अंश अवश्य होता है । एक निर्दोष के प्राण बचानेवाला असत्य उसकी अहिंसा का कारण बनने वाले सत्य से श्रेष्ठ होता है । विज्ञान एक क्रियात्मक प्रयोग है । आज हिन्दू –स्त्री भी शव के समान निःस्पंद है । क्या हमारा जीवन सबका संकट सहने के लिए है? कला का सत्य जीवन की परिधि में, सौंदर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखंड सत्य है ।
अपने विषय में कुछ कहना पड़े : बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है और उनको अनदेखा करना औरों को । वे मुस्कुराते फूल, नहीं जिनको आता है मुरझाना, वे तारों के दीप, नहीं जिनको भाता है बुझ जाना । मैं किसी कर्मकांड में विश्वास नहीं करती. …मैं मुक्ति को नहीं, इस धूल को अधिक चाहती हूँ । प्रत्येक गृहस्वामी अपने गृह का राजा और उसकी पत्नी रानी है, कोई गुप्तचर, चाहे देश क��� राजा का ही क्यों न हो, यदि उसके निजी वार्ता को सार्वजनिक घटना के रूप में प्रचारित कर दे, तो उसे गुप्तचर का अनधिकार, दुष्टाचरण ही कहा जाएगा ।
एक पुरुष के प्रति अन्याय की कल्पना से ही सारा पुरुष-समाज उस स्त्री से प्रतिशोध लेने को उतारू हो जाता है और एक स्त्री के साथ क्रूरतम अन्याय का प्रमाण पाकर भी सब स्त्रियाँ उसके अकारण दंड को अधिक भारी बनाए बिना नहीं रहती । इस तरह पग-पग पर पुरुष से सहायता की याचना न करने वाली स्त्री की स्थिति कुछ विचित्र सी है । वह जितनी ही पहुंच के बाहर होती है, पुरुष उतना ही झुंझलाता है और प्राय: यह झुनझुलाहत मिथ्या अभियोगों के रूप में परिवर्तित हो जाती है ।
मैं नीर भरी दुःख की बदली ! विस्तृत नभ का कोना कोना, मेरा कभी न अपना होना, परिचय इतना इतिहास यही, उमड़ी थी कल मिट आज चली ।।
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एक पुरुष के प्रति अन्याय की कल्पना से ही सारा पुरुष-समाज उस स्त्री से प्रतिशोध लेने को उतारू हो जाता है और एक स्त्री के साथ क्रूरतम अन्याय का प्रमाण पाकर भी सब स्त्रियाँ उसके अकारण दंड को अधिक भारी बनाए बिना नहीं रहती । इस तरह पग-पग पर पुरुष से सहायता की याचना न करने वाली स्त्री की स्थिति कुछ विचित्र सी है । वह जितनी ही पहुंच के बाहर होती है, पुरुष उतना ही झुंझलाता है और प्राय: यह झुनझुलाहत मिथ्या अभियोगों के रूप में परिवर्तित हो जाती है ।
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